Uttarakhand > Culture of Uttarakhand - उत्तराखण्ड की संस्कृति

Our Culture & Tradition - हमारे रीति-रिवाज एवं संस्कृति

<< < (16/16)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Bhupesh Pandey
 
कुमाऊँ संस्कृति के गीतों के क्रम को आगे बढ़ाते हुवे मैं आज आप को विवाह गीतों से आवगत करता हूँ , जो कि हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं ..
ज्ञात रहे ये बन्ना बन्नी नहीं हैं ये तो हमारी बुजुर्ग महिलाओं के श्री कण्ठ से निकलने वाली सुर सरिता है , जो वातावरण को बहुत ही अलौकिक व मन्त्रमुग्द्ध कर देने वाली होती है , ध्यान से इन स्वर लहरियों को सुना जाये तो ये वातावरण को प्यार , स्नेह , वात्सल्य , करुणा , मर्म , सैंन्दर्य ,त्याग , श्रंगार , हास्य व आशिर्वादों से परिपूर्ण बहुत ही आन्नदित कर हर्षोउल्लास को चरम में पहुँचाने वाली होती हैं..
१- कन्या की बारात आते समय का गीत
क)- कालो बादल उनीं आयो , मेघा बरसि आयो..
रिमझिम बरसेगो मेघ , समधि सजना आई पहुँचे जी.....
ख)- हरे हरे बाँस कटाओ , मेरे बाबुल उंची छवे चौपाल ए...
कित लख आए हस्ति रे घोड़ा , कित लख आई बरात ए...
२- कन्यादान में बैठने का गीत
अम्बन खम्बन दी़यो जगायो , वो तो झकमक जोत उजालो ए..
वो तो सुन्दर जोत उजालो जी , लाल ही कम्बल छपक बिछौना....
३- कन्यादान के समय का गीत
चन्दन चौकी बैठी लाड़ोति , केश दिये छिटकाय ए..
लाड़ो के दादाज्यू लाड़ो के ताऊज्यू यों उठी बोले...
४- गड़वे की धार देते समय का गीत
हाथ गडुंवा लेके मायली ठाढ़ी , वो तो बबज्यू कुश की डाली जी..
थर थर कम्पे बबज्यू हमारे वो तो कम्पे कुश की डाली जी.....
५- कन्यादान में अँगूठा पकड़ते समय
छोड़ो छोड़ो दुलहा हमरि अँगुठिया , हमरो अंगूठा अनमोल ए...
अब कैसे छोडूं गोरी तुमरी अंगुठिया , तुमरे दादाज्यू को बोल ए ...
६- कन्यादान के समय बिटमणा गीत
डलिया में सोना नहीं , रूपै नहीं , इतना गुनाह तोको लागो...
समधीज्यू को गोठ बाँधो जी . दुलहा को बाबा को गोठ बाँधोंजी....
७- वर पक्ष से आये वस्त्र कन्या को पहनाते समय
कैसे उपजन लागो सुहाग बिटुला , (२)
मेरे मामा जी के बाग में सुहाग बिटुला , मेरी मामी रानी सींचे भर गगरी...
८- कन्यादान के बाद का गीत
बाबुल खोलो परद बर देखिये , बीरा खोलो परद बर देखिये...
बाबुल हम गोरी बर साँवरो..
९- कन्या विदाई का गीत
क)- परदेसी परभूमी बबज्यू अति डर लागे..
हमन सूं दासी मोलाइये ...
परदेसी परभूमी बबज्यू , अति भूख लागे..
हमन सूं भोज मोलाइये...
ख)- मेरी लाड़ो दुख झन दिया हो..
दस धारी मैंले दूध पिवायो , मेरी धीया दुख झन दिया ए...
और भी बहुत कुछ है लिखने को लेकिन समयाभाव व लेख का विस्तार अत्यधिक होने के कारण यहीं पर रुक रहा हूँ , उम्मीद है आप लोग इसे पसन्द करेंगे व अपने विचार जरूर रखेंगे...

Bhishma Kukreti:
   गढ़वाल में वसंत पंचमी सरस्वती पूजा हेतु नहीं अपितु हरियाळी पूजन और सामूहिक गीत प्रारंभ हेतु प्रचलित थी
-
आलेख - भीष्म कुकरेती
-
  फेसबुक व अन्य इंटरनेट माध्यमों में हम (मै भी ) वसंत पंचमी को सरस्वती पूजन का पर्याय मानकर के एक दूसरे  को वधाईयें देते रहते हैं।  किन्तु गढ़वाल में वसंत पंचमी में सरस्वती पूजा एक गौण पक्ष रहता था।  हाँ यदा कड़ा कोई बच्चे को पाटी  दिखा देता था बस सरस्वती पूजा यहीं तक सीमित थी (मुझे भी इसी दिन पाटी दिखाई गयी थी ). हमारे सामान्य लोक या लोक साहित्य में कहीं  भी सरस्वती बंदना के कोई प्रतीक सामने नहीं आये हैं कि  हम कह सकें कि वसंत पंचमी का सरस्वती पूजन से सबंध है।
     वास्तव में वसंत पंचमी का वसंती रंग से भी उतना संबंध नहीं है जितना हम इंटरनेट माध्यम में शोर करते हैं।  किसी ने एकाध रुमाल हल्दी के रंग में रंग दिया तो रंग दिया अन्यथा मेरे बचपन में बसंती  रंग व पीले रंग में कोई अंतर् भी नहीं समझा जाता था।
-
                     हरियाली याने कृषि और लोहार का  सम्मान
-
      वास्तव में गढ़वाल में बसंत पंचमी का अलग महत्व है जो अन्य मैदानी क्षेत्रों में है ही नहीं।
   गढ़वाल में बसंत पंचमी का पहले अर्थ होता था हरियाली लगाना।  इस दिन लोहार अपने अपने ठाकुर के लिए प्रातः काल से पहले जौ को जड़ समेत उखाड़ कर अपने ठाकुर के चौक में रख देते हैं।
    फिर परिवार वाले स्नान आदि कर हरियाली अनुष्ठान शुरू करते हैं
पहले दरवाजे के ऊपरी हिस्से में हल्दी से पिटाई लगाई जाती है और पिठाई जौ के पौधों में भी छिडकी जाती है। पुराने हरियाली को उखाड़ा जाता है
      तीन चार जौ की जड़ों को ताजे गाय के गोबर में रोपा जाता है और फिर उन जौ के पौधों को दरवाजे के दोनों मोहरों  (दरवाजे के  ऊपरी कोने -क्षेत्र ) में चिपकाया जाता है।  इस तरह सभी कमरों पर हरियाली चिपकायी जाती है।  आळों में भी हरियाली चिपकायी जाती है। इसी तरह गौशाला के हर कमरे के मोहरों में भी जौ की हरियाली चिपकायी जाती है।
   इस दिन स्वाळ -पक्वड़  भी बनाये जाते हैं और बांटे जाते हैं लोहार हेतु विशेष  ध्यान रखा जाता है। लोहार को अन्न या धन दिया जाता है। इस दिन गुड़ का मीठा भात याने ख़ुश्का भी बनाया जाता है।
-
             गंगा स्नान
-
बहुत से लोग गंगा स्नान हेतु छोटे या बड़े संगम पंहुचते थे।
-
 कर्ण व नासिका छेदन
वसंत पंचमी के दिन नासिका व कर्ण छेदन को शुभ माना जाता है।   
        -
  सामूहिक गीत व नृत्य की शुरुवात
-
      आज बसंत पंचमी की रात से गाँवों में सामूहिक नृत्य , गीत व लोक नाट्य कार्यकर्म भी शुरू होते थे जो बैशाखी तक चलते रहते थे।
   मुझे एक लोक गीत की पहली पंक्ति याद है जो पहले दिन अवश्य ही गाया जाता था -
-
 हर हरियाली जौ की
खुद लगी बौ की।
-
     बद्रीनाथ कपाट खुलने  का दिन निश्चितीकरण
बसंत पंचमी के दिन न्य पंचांग भो खोला जाता है और नए वर्ष की कुंडली भी देखि जाती है।
 बसंत पंचमी के दिन बद्रीनाथ कपाट खुलने का दिन भी निश्चित होता है।   
-
Copyright @ Bhishma  Kukreti , 2017
हरियाळी , हरियाली , वसंत पंचमी , गढ़वाल में बसंत पंचमी त्यौहार व जौ का धार्मिक महत्व , जौ व बसंत पंचमी का संबंध , Hariyali, Barley, jau, barley and Basant Panchami , Religious Importance of Barley on Basant panchami

       

Bhishma Kukreti:
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा

The Culture and language of Jad region, Uttarkashi, Uttarakhand 
-
Posted By: Girish Lohanion: December 09, 2019
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा
सौजन्य निलोंग जोडंग  घाटी फेसबुक पेज
-
जाड़ गंगा भागीरथी नदी की सबसे बड़ी उपनदी है. ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर भैरोंघाटी में भागीरथी और जाड़ गंगा का संगम होता है. भैरोंघाटी में पच्चीस किलोमीटर भीतर माणा गाड़ माणा दर्रे के पश्चिम में फैले हिमनद से निकलती है. यह निलांग से लगभग 6 किलोमीटर ऊपर जाड़ गंगा से जा मिलती है.
भैरों घाटी से तिब्बत जाने वाले थाग्ला दर्रे तक उच्च पर्वत हिम प्रदेश की पूरी घाटी निलांग नाम से जानी जाती है. निलांग 11310 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, भैरों घाटी से तिब्बत की ओर जाने वाले थाग्ला दर्रे तक की पूरी घाटी इसी नाम से जानी जाती है. यहां के मुख्य गांव निलङ और इससे ऊपर जादोंग है. यहां के निवासियों को जाड़ कहा जाता है. इनका मुख्य व्यवसाय तिब्बत जिसे ‘हूंण देश भी कहा गया, के साथ होता रहा . जाड़ व्यापारी अनाज, देशी कपड़ा या खङूवा, गुड़, चीनी, तम्बाकू, तिलहन, सूती कपड़े, धातु के बर्तन, लकड़ी के बने बर्तन या कनसिन, माला इत्यादि वस्तुओं का निर्यात तथा स्वर्ण चूर्ण व सोना, सुहागा,पश्मीना, नमक, चंवर, घोड़े, याक वा कुत्तों का आयात करते रहे. जाड़ व्यापारी तोलिंग या थोलिंग, तसपरंग व गरहोत के इलाकों में ही व्यापार करते थे तो बुशाहरी खामपा व्यापारी पूरे तिब्बत में व्यापार करने का अधिकार पाए थे. गढ़वाली व्यापारी केवल डोकपा ऑड़ तक ही जा पाते थे, जहां तिब्बत के गांव थांग, गंडोह, सरंग, करवक़ व डोकपा बसे हैं. इन्हीं गांवों से वस्तु और जिंसों का लेनदेन होता था. जाड़ व्यापारी जाड़ों के मौसम में निलांग से आगे दक्षिण की ओर हफ्ता – दस दिन पैदल चलने के बाद उत्तरकाशी में भागीरथी के किनारे डूंडा तथा भटवाड़ी में आ जाते थे. यह उनका शीतकालीन प्रवास रहता. Jad Culture and Language Uttarakhand
Jad Culture and Language Uttarakhand
जाड़ गंगा नदी.
निलांग घाटी में आदिम काल से निवास कर रही जाड़ जनजाति में जाड़ भाषा बहुतायत से बोली जाती रही है. जाड़ जनजाति के समृद्ध ऐतिहासिक अतीत का वर्णन करते हुए प्रो.डी.डी.शर्मा ने अपनी पुस्तक, तिब्बती हिमालयन लेंग्वेजिज ऑफ उत्तराखंड (1990) में लिखा है कि जाड़ समुदाय का मूल संबंध हिमाचल प्रदेश के बुशाहर राज्य के पहाड़ी इलाकों से रहा जिसे अब किन्नौर कहा जाता है. एच. एस. फकलियाल के अनुसार उत्तरकाशी के जाड़ मुख्यतः नेपाल के करनाली इलाके के जाड़ों के वंशज रहे. ये नाग वंश के राजा पृथ्वी मल्ला के समय चौदहवीं शताब्दी में इस इलाके में बस गए थे. एटकिंसन ने गढ़वाली व बुशाहरी हुणिया की मिश्रित नस्ल को जाड़ समुदाय कहा. नारी के हुणिया खुद को नारीपा तथा उच्च हिमालय इलाकों में रहने वाले को मोनपा कहते हैं. खस स्वयं को खस देश से अभिहित करते हुए उच्च पर्वत क्षेत्र में निवास करने वालों को जो तिब्बत से व्यापार करते थे, के आवास स्थलों को भोट तथा तिब्बत को हूणदेश कहते थे. वहीं तिब्बत के निवासी निलांग घाटी को चोंग्सा कहते थे.
2011 की जनगणना में जाड़ भाषा बोलने वालों की संख्या चार हजार बताई गई. जाड़ भाषा सीमांत हिमालय की तिब्बत-बर्मी भाषा समूह की उपबोलियों से सम्बंधित रही भले ही एक सीमित समुदाय में यह प्रचलित रही. 1962 में चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया. जादोंग, सुमदु, निलांग, बगोरी और हर्षिल में जाड़ भाषा का खूब प्रचलन था. 1962 से पहले निलांग घाटी में जाड़ भाषा ही सबसे अधिक बोली जाती रही. तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद तिब्बत की सीमा से लगे निवासियों को डुंडा, लंका व उत्तरकाशी के इलाकों में बसाया गया और इन इलाकों को भारतीय सेना की निगरानी में रखा गया. अब जाड़ भाषा मुख्य रूप से उत्तरकाशी, भटवाड़ी, डुंडा, बगोरी, व हर्षिल जैसे भागीरथी नदी के तटीय क्षेत्रों में बोली जाती है. ये मात्र भाषा अथवा बोली न हो कर समूचे जाड़ समुदाय की जीवन पद्धति है.
जाड़ समुदाय की जीवन पद्धति अभी भी कमोबेश परंपरागत जीवनक्रम का अनुसरण कर रही है. ये साल में छह महीने सीमांत के हिमाच्छादित इलाकों में रहते व विचरण करते हैं. जाड़ों के मौसम में ये उत्तरकाशी शहर के भटवाड़ी वा डूंडा में निवास करते हैं. सामान्यतः अभी भी ये अपने परंपरागत व्यवसाय एवं पुश्तैनी शिल्प से जुड़े हैं.
उत्तरकाशी में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर सुरेश चंद्र ममगई पिछले दस सालों से जाड़ संस्कृति व जाड़ भाषा पर जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं. वह यायावर प्रकृति के हैं. कई भाषाएं जानते हैं. पहाड़ की लोकथात पर बहुत काम कर चुके हैं. इस सीमांत इनर लाइन इलाके की उन्होंने खूब पदयात्राएं की हैं. वर्षों तक स्थानीय समाज से घुलने मिलने तथा उनके द्वारा बोली जाने वाली जाड़ भाषा व शब्दावली के संकलन के साथ ही स्थानीय संस्कृति व थात पर लम्बे अनुसन्धान के नतीजे में उनका जाड़ भाषा का शब्दकोष छप चुका है. जाड़ समुदाय के सामाजिक आर्थिक स्वरुप के साथ यहाँ की परंपरागत संस्कृति पर अलग से भी उन्होंने किताब लिखी है.
सीमित व संकुचित इलाके में सिमटी पर लोकथात से समृद्ध जाड़ संस्कृति पर वह बताते हैं कि जाड़ गंगा के तटीय इलाकों के निवासियों को उत्तराखंड की स्थानीय बोलियों में पहले हुणियाँ कहा जाता था. हुणियाँ शब्द ह्यूं का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है – हिम. इस प्रकार हुणियाँ से आशय है, उच्च हिमालय-हिम आच्छादित इलाकों में रहने वाले निवासी. उत्तराखंड एवं भोट (तिब्बत )के मध्यवर्ती इलाकों के निवासी होने के कारण स्थानीय निवासियों के द्वारा इन्हें भोटिया नाम से भी पुकारा जाता रहा पर ये रोंग्पा कहलाया जाना पसंद करते हैं. जिससे आशय है पर्वत-घाटियों में रहने वाले लोग. तिब्बत से व्यापार सम्बन्ध होने के कारण जाड़ समाज को तिब्बत निवासी चोंग्सा कहते रहे. जाड़ समुदाय स्वयं को किरातों का वंशज मानते हैं. गढ़वाल में किरात जाति के प्रसार का एक प्रमाण भागीरथी का एक नाम किराती भी माना गया. कश्यप संहिता में यह उल्लेख है कि यमुना घाटी में किरातों का गढ़ था.
कुमारसम्भव (1-17 एवं 1/8) में उल्लेख है कि विक्रम की पांचवी शताब्दी में उत्तराखंड में गंगाजी के उदगम प्रदेश में किरात और किन्नर जाति निवास करती थी :
भागीरथी निर्झरसीकराणां वोढा मुहू कम्पित देवदारु:
यद् वायुर्नविष्ट मृगैः किरातैरा सेव्यते भिन्न शिखण्डिवहर
चंद किन्नर जातक (खंड 4, पृष्ठ 490-91)के सूत्रों से ज्ञात होता है कि उत्तराखंड में गंधमादन के समीप के क्षेत्र अर्थात आज के उत्तरकाशी व चमोली जनपदों में किन्नर निवास रहा. सभापर्व (52/2-3) से भी स्पष्ट होता है कि किरात जाति के वह लोग जो गढ़वाल के उच्चांश में रहते थे व हूण देश तिब्बत से सुहागा या टंकण, स्वर्ण चूर्ण, कस्तूरी का व्यापार करते थे. इन्हें तंगण या टंकण के नाम से भी जाना गया. यही टंकण वंशज उत्तरकाशी के जाड़ भी रहे.
Jad Culture and Language Uttarakhand
उत्तराखंड की जाड़ जनजाति में प्रयुक्त जाड़ भाषा-बोली उत्तरकाशी जनपद सीमांत पर्वत उपत्यकाओं में प्रयुक्त होती है. प्रोफेसर सुरेश चंद्र ममगई बताते हैं कि इस भाषा में प्राचीन समय से मौखिक रूपों में संस्कृति तथा समाज की विषेशताओं का तानाबाना रचित होते आया है. जिसमें कृषि, व्यापार , पशुचारण तथा अध्यात्म से सम्बंधित शब्दावली के अतिरिक्त गीत, लोककथाएं , मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा लोकगाथाएँ भी अंतर्भूत हैं.जाड़ भाषा की ध्वन्यात्मक संरचना, उच्चारण -प्रक्रिया, स्वनिम विश्लेषण, शब्द भंडार रूपात्मक संरचना (संज्ञा, लिंग, वचन, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, काल-रचना) तथा व्याकरण का सम्बन्ध तिब्बती भाषा से जुड़ा रहा है. यद्यपि जाड़ भाषा में अनेक ऐसी भी विशेषताएं भी हैं जो तिब्बती भाषा से अलग हैं. मुंडा, खस तथा दरद परिवार की भाषा-बोली बोलने वालों से जाड़ समुदाय के व्यापारिक रिश्ते रहे हैं. इसलिए इन भाषा परिवारों का प्रभाव भी जाड़ भाषा पर देखा जा सकता है. पश्चिमी गढ़वाली की अनेक उपबोलियों जैसे टिरियाली, रमोली, रंवाल्टी, बुढेरा की शब्दावली को भी जाड़ भाषा ने अपनाया है.
हिन्दू धर्म से सम्बंधित होने के कारण जाड़ समुदाय अनेक स्थानीय लोक देवी देवताओं के प्रति आस्थावान रहा. संभवतः इसी कारण यहाँ संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता भी दिखाई देती है. हिन्दू धर्म से जुड़ी आस्थाओं के अनुकूल वार्षिक महीनों के नाम (चैत, बैशाख, जेठ, अषाढ़, सौंण, भादों, असूज, कार्तिक, मंगशीर, पूस, माघ तथा फागुन) इस समुदाय ने अक्षरशः ग्रहण कर लिए हैं. यही प्रवृति सप्ताह के नामों के साथ भी देखी जाती है बाकी अन्य प्रयोक्तियों में तिब्बती भाषा का अल्प प्रभाव भी दिखाई देता है.
जाड़ गीतों में जाड़ संस्कृति व लोक थात की स्पष्ट छाप है :
थोन्मो, थोन्मो गांगा, मऊ, मऊ पांगा
लाखू -लाखू थांगा गाशिंग -गाशिंग थोगो.
पिगा याला छोमजा -छोमजा तोगा माला छोमजा
लम -ला लम -ला दोजे, गाशिंग -गाशिंग थोगो.
तला खुरु कलशा, पिरियाँ बुली टाशा
नमते, नमते छोमजा, गाशिंग -गाशिंग थोगो.
थोन्मो , थोन्मो गांगा...
इस लोकगीत में जाड़ प्रदेश का वर्णन व दिनचर्या है :
ऊँचे ऊँचे पर्वत शिखर, हरे भरे घास के मैदान, सुन्दर-सुंदर पर्वतों पर बुग्याल कितने मनमोहक प्रतीत होते हैं. वसंत ऋतु का वह समय जब हम सभी अपने पूरे परिवार और पालतू पशुओं के साथ अपने मूल घरों (निलांग तथा जादोंग )की ओर चल पड़ते हैं. शीत ऋतु के आरम्भ होते ही इसी प्रकार अपने शीतकालीन आवासों की ओर आना और रास्ते में रुक-रुक करपड़ाव डालते हुए रुकना, ठहरना और वह घुमक्कड़पन कितना प्यारा लगता है. पूरा सामान घोड़ों पे लाद के चलना, छोटे बच्चों और नवजात शिशुओं को पीठ पर बांध कर झुटपुटे में ही चल देना कितना प्यारा लगता है.
अपने गाँव छोड़ कर आने की पीड़ा का लोक स्वर :
सांग (जादोंग )छोंगसा ( निलांग)नियी युल
ईन बिजे टांजी टाग
ची बेजे बिजे काहू ला शुंग
दी युल युवी सूं...
छोंगसा शी चा सै थुँग्जे
बिजे शिमु छौरी टाग
दी युल दु...
सांग छांग सा न्यी युल ईन
बिजे टाँजी टाग
ची बेचे बिजे काहू ला शुंग
दी युल युवी सुं...
जाड़ उपत्यका की याद भरी हैं इस गीत में. तब बोल फूट पड़ते हैं कि :
जादोंग और निलांग हमारे इन दोनों गांवों की याद हमें बहुत सताती है गाँव छोड़ते समय बड़ा ही कारुणिक और दुखदायी समय होता है. वो दिन याद आते हेंजब हम सभी एक साथ बैठ कर खाते-पीते थे और प्रसन्न होते थे. गाँव की स्मृतियाँ भी हमें सताती रहती हैं.
दुर्गम सीमांत प्रदेश के जाड़ पर्वत पुत्र जानते हैं कि विषम भौगोलिक परिस्थितियों में उनकी रक्षा यही प्रकृति करती है. उनकी आस्था के बोल उभर उठते हैं समवेत स्वरों में :
कोंजोंग दो टांगबो लुग्बा
यें कोंजोंग शी लुग ईन
होनमु होनमु पांगा बला न्येला
नी थ्वी टाग वो
लुग्मा गांगा ला न्येला खुड़ी टाग
हाँ हाँ...
कांबला सानी पोदु दुगो
हां थे...
कोंजोंग दो टांगबो लुग्बा
न्ये कोंजोंग शी लुग ईन
होनमु होनमु पांगा बला न्येला
नी थ्वी टागचा...
जाड़ निवासी गा रहे हैं कि भगवान बकरी चराने वाला चरवाहा है और हम सभी उसकी बकरियां हैं. हरे भरे घास के मैदान में वो हमें मिलते हैं. वो चरवाहा हम सभी भेड़ बकरियों को हरे भरे बुग्यालों में चराने के लिए ले जाता है. चरवाहा हमारा भगवान है और हम उसकी भेड़ बकरियां हैं.
Copyright Girish Lohanion, 2019
   
सीमांत उत्तराखंड में जाड़ संस्कृति व भाषा; सीमांत उत्तरकाशी में जाड़ संस्कृति व भाषा; श्रृंखला जारी रहेगी
The Culture and language of Jad region, Uttarkashi, Uttarakhand series will continue

Bhishma Kukreti:
बसंत पंचमि कु महत्व व पुराण कथा
-

सरोज शर्मा गढ़वाली जन साहित्य -202
-

बसंत पंचमी या श्रीपंचमी एक हिन्दू त्योहार च यै दिन विद्या की देवी सरस्वती कि पूजा कियै जांद। या पूजा पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बंग्लादेश, नेपाल और कई राष्ट्रों मा उल्लास से मनयै जांद। यै दिन पीला वस्त्र धारण करदिन, शास्त्रों मा बसंत पंचमि थैं ऋषि पंचमि भी बव्लदिन शास्त्रो और काव्यग्रंथो मा अलग अलग ढंग से ऐकु चित्रण मिलद।
प्राचीन भारत और नेपाल म पूरा साल थैं जै छै मौसमों मा बंटै जांद ऊं मा बसंत लोगो कु पसंदीदा मौसम च। बसंत मा फूलों मा बहार ऐ जांद, खेतू मा सरसों फूल जांद, जौ और ग्यूं का बलड़ा खिलण लगजंदिन, आमु मा बौर ऐ जांद, हर तरफ रंग बिरंगी तितलि मंडरांण लगजंदिन, भर भर भौंरा भंडराण लगजंदिन। बसंत ऋतु क स्वागत खुण माघ मैना का पांचवां दिन एक बड़ उत्सव मनैय जांद, जैमा विष्णु और कामदेव कि पूजा हूंद।
बसंत पंचमी कि कथा-
उपनिषदो क अनुसार सृष्टि का प्रारंभिक काल मा भगवान शिव कि आज्ञा से भगवान ब्रह्मा न जीवों खासकैरिक मनुष्य योनि कि रचना कैर, पर अपणि सर्जना से वु संतुष्ट नि छा ऊंथैं कुछ कमी लग जैक कारण से सब्या जगा मौन छययूं छाई, हालांकि उपनिषद व पुराण ऋषियों कु अपण अपण अनुभव च, अगर ई हमरा पवित्र सतगंर्थो से मेल नि खा त यू मान्य नी च ।
तब ब्रह्मा जी न समस्या क निवारण खुण अपण कमंडल से जल हथेलि मा लेकि संकल्प स्वरूप जल छिड़किक भगवान विष्णु की स्तुति आरम्भ कैर, स्तुति सुणिक विष्णु तत्काल प्रकट ह्वै गैं ऊंकि समस्या सुणिक भगवान विष्णु न आदिशक्ति दुर्गा क आह्वान कैर ।विष्णु का आह्वान से भगवती दुर्गा तुरंत प्रकट ह्वै, तब ब्रह्मा विष्णु जी न यै संकट दूर कनकु निवेदन कैर ।
ब्रह्मा और विष्णु की प्रार्थना सुणन क बाद वै क्षण मा ही मां का शरीर से श्वेत रंग कु भारी तेज उत्पन्न ह्वै। जु एक दिव्य नारी का रूप मा बदल ग्या, यी स्वरूप चतुर्भुज सुंदर स्त्री कु छा जै क हथूं मा वीणा दूसर हथ वर मुद्रा मा छा ।द्वी और हथूं मा पुस्तक और माला छै। आदिशक्ति श्री दुर्गा क शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट शक्ती न वीणा क मधुर नाद कैर जैसे संसार का सब्या जीव जनतुओं थैं वाणी प्राप्त ह्वाई, जलधारा मा कोलाहल पवन मा सरसराहट हूण लगि, सब्या देवताओ न शब्द और रस कु संचार दीण वली देवी थैं वाणी कि अधिषठात्री देवी सरस्वती नाम दयाई।
फिर आदिशक्ति दुर्गा न ब्रह्मा जी से ब्वाल म्यांर तेज से उत्पन्न या सरस्वती आपकी पत्नी ह्वैलि, जन लक्ष्मी विष्णु की शक्ती छन पार्वती महादेव कि, व्हन्नि सरस्वती आपकी शक्ती ह्वैलि, इन बोलिक आदिशक्ति श्री दुर्गा अंतर्ध्यान ह्वै गिन।
यै का बाद सब्या देवता सृष्टि संचालन मा संलग्न ह्वै गिन
सरस्वती थैं वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पुजे जांद। यी विद्या बुद्धि की प्रदाता छन,
संगीत की उत्पत्ति करण का कारण संगीत कि देवी भी मने जंदिन। बसंत पंचमी कु यूंक प्रकटोत्सव का रूप मा मनयै जांद ऋग्वेद मा भगवती सरस्वती वर्णन इन करै ग्या
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु
पर्व महत्व
बसंत ऋतु आंद ही प्रकृति क कण कण खिल जांद, मानव त क्या पशु पक्षी भि उल्लास से भ्वरे जंदिन, रोज नै उमंग कु सूर्योदय हूंद नई चेतना प्रदान कैरिक अलग दिन फिर आण कु आश्वासन दे जांद
उन त माघ मैना उत्साह दीण वल हूंद पर बसंत पंचमी ( माघ शुक्ल 5 )कु पर्व भारतीय जनजीवन थैं भौत प्रभावित करद, प्राचीन काल बटिक यै थैं ज्ञान और कला की देवी सरस्वती क जलमवार का रूप मा मनयै जांद ।जु विद्वान लोग भारत और भारतीयता से प्रेम करदिन वू लोग ऐ दिन और अधिक ज्ञानवान हूणकि प्रार्थना करदिन। कलाकारो कु त ब्वलुणू ही क्या जु महत्व सैनिको खुण शस्त्रो और विजयादशमी कु च ,विद्वानो खुण वी महत्व अपणि पुस्तको और व्यास पूजा क च जु व्यापारियों खुण बाट तराजू बहीखातो और दिपावली कु च उन्नी महत्व कलाकरों खुण बसंत पंचमी कु च ।सब्या यै दिन मां सरस्वती कु पूजन करदिन।
पौराणिक महत्व
साथ ही ई पर्व अतीत मा हुयीं घटनाओं की याद भि दिलांद। त्रेता युग मा रावण द्वारा सीता हरण का बाद श्रीराम सीता कि खोज मा दक्षिण कि ओर बड़िन ऊं स्थानु मा एक दंडकारण्य भि छाई वख शबरी नाम कि भिलनी छै जब राम वीं कि कुटिया मा पधरीं त सुध बुध ख्वै कि चखिक जुठा बेर राम जी थैं खिलाण लगी, बसंत पंचमी कु ही दिन छाई वु जै दिन राम जी वख गैन। वै क्षेत्र का निवासी आज भी एक शिला थैं पूजदा छन, जैक बार मां ऊंकि राय च कि राम जी यखी बैठा छाई, यख शबरी माता कु मंदिर भी च
ऐतिहासिक महत्व
बसंत पंचमी पृथ्वीराज चौहान कि याद भि दिलांद ऊंन हमलावर मौहम्मद गौरी थैं 16 बार पराजित कैर और हरेक दा जीवित छोड़ दयाई, जब सत्रहवी बार खुद पराजित ह्रीं त मौहम्मद गौरी न ऊंथै नि छवाड़ ,अफगानिस्तान लिजैकि ऊंका आंखा फोड़ दिन बाकी घटना जगप्रसिद्ध च, मौहम्मद गौरी न मृत्युदंड दीण से पैल ऊका शब्दभेदी बाण कु कमाल देखण चा, पृथ्वीराज क साथी कवि चंदबरदाई का परामर्श पर गौरी न ऊंचा स्थान मा बैठिक तवा पर चोट मारिक संकेत दयाई, तभी पृथ्वीराज थैं चंदबरदाई न संकेत दयाई ।

Navigation

[0] Message Index

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version