रेशा उद्योग
कुमाऊँ में पुराने समय से ही भाँग (Cannabis stivs ), अल (Griardinia palmata) , भकुवा (grewia optiva ), उदाल, रामबाँस (Agava americana ), युका, (Yuca gloriosa ), बाबिल (Eulaliopsis binata ), मालू (Bauhinia bahloo ), मोथा (Cyperus sp. ), मूँज (Saccharum munja ), गेहूँ का नलौ (cilm of Whear Triticum aestivum ), धान का पुआल (Dry straw of Oryzastiva ), कुचि बाजुर वस्तुत: ज्वार (Pennisetum typhoides ) थाकल (Phoenix humilis ) आदि वनस्पतियों से रेशा प्राप्त किया जाता है, इन रेशों से दैनिक उपयोग में आने वाली चीजें जैसे- रस्सियाँ, बोरे, कुथले, ज्यौड़, गल्याँ (जानवरों को बाँधने वाली रस्सियाँ), मौले, गादे, दरी, पट्टी, चटाई, कपड़े, थैलियाँ आदि निर्मित की जाती है। रस्सियाँ बनाने के लिए पहले बाबिल, भाँग आदि के रेशों को थोड़ी देर पानी में भिगो दिया जाता है। भाँग और अल के रेशों के बने बुदलों (कम्बलों), कुथलों एवं रस्सियों, धागों सुतलियों आदि की बहुत अधिक माँग थी। मछली पकड़ने के जाल तो केवल अल के ही बनाए जाते है। भाँग, बाबिल, रामबाँस आदि पतली रस्सियों से धान के पुआल तथा गेहूँ के नलौ (डंठलों) को बाँधकर फीड़े एवं चट्टाइयाँ निर्मित की जाती है। इन फीड़ों को पाली पछाऊँ क्षेत्र में मानिरा या 'मिनरा' कहा जाता था। (पाण्डे १२६, १९३७)। कही-कही पर मालू (bauhinia vahlii ) के छाल से बने डोरों से गेहूँ के नलौ (Clum ) के साथ हल्दी (Curcuma longa ) की सूखी पत्तियों को भी फौड़े में बाँधा जाता है। मोथा घास से मजबूत व सुन्दर फीड़ा (चटाई) बनाई जाती है, इसे भाँग या अन्य रेशों से बिना जाता है। मोथा घास की चटाई की मजबूती के लिए घास को काटकर उसके ऊपर गरम पानी डालते है, पानी के सूख जाने पर चटाई बुन लेते है। बाबिल घास के बहुत सुन्दर एवं टिकाऊ झाडू बनाए जाते है। कभी हत्थे की ओर बिनाई करके उसे कलात्मकता भी प्रदान की जाती है। झाडू बनने के बाद उसमें चावल के दाने डाले जाते है। इसके पीछे यह लोक मान्यता काम करती है कि यह झाडू सदा अनाज बटोरने के ही काम आये। इसके अलावा कुचिया बाजुर, थाकल, मूँज, सीक एवं पाती (Artemisia spp ) के सूखे डंठलों, चीड़ की पत्तियों (leaves of Pinus longifolia ) आदि से भी झाडू बनाया जाता है। रामबाँस के रेशों से मौले, हल्यूण व ज्यूड़ तथा बैलों के सिर पर लगाये जाने वाले फुन्दे भी बनाए जाते है। इसके अलावा पुराने फटे कपड़ों को भाँ के तागे से सिलकर उनके थैले या खोल बनाये जाते थे, जिनमें पुआल, सेमस (Bombax ceiba ) की रुई या पिरुल (Pinus needle ) भर कर गद्दे बनाए जाते थे।