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Technological Methods Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड की प्रौद्यौगिकी पद्धतियाँ

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पंकज सिंह महर:
.......पानी से चलने वाले इस पूरे संयंत्र को "घट', "घराट' या "पनचक्की' कहते हैं। घराट को वर्षा या धूप से बचाने के लिए उसके बाहर १० से १६ फीट तक लंबा तथा ६ से १० फीट तक चौड़ा एक कमरा बना दिया जाता है। रात में आदमी वहाँ सो भी सकते हैं। पर्वतीय क्षेत्र में पानी की माप "घट' या "घराट' से मापी जाती है जैसे - इस नदी में इतने "घट' पानी है।
ये घराट प्राय: गाँवों की सामूहिक सम्पत्ति होते हैं। घराट की गूलों से सिंचाई का कार्य भी होता है। यह एक प्रदूषण से रहित परम्परागत प्रौद्यौगिकी है। इसे जल संसाधन का एक प्राचीन एवं समुन्नत उपयोग कहा जा सकता है। आजकल बिजली या डीजल से चलने वाली चक्कियों के कारण कई घराट बंद हो गए हैं और कुछ बंद होने के कगार पर हैं।
इसी प्रकार हथचक्की भी एक प्रकार पनचक्की का छोटा रुप है, जो हाथ से चलाई जाती है। हथचक्की का प्रचलन पानी की कमी वाली जगहों पर प्राय: किया जाता है। इसमें चीड़ और बाँज की लकड़ी का अधिक प्रयोग किया जाता है। "दवनी', "घाडू' एवं "सिलबट्ट' दालों की दलने के काम में आते हैं।

पंकज सिंह महर:
ओखली (ऊखल/ओखल)

ओखली एक अति प्राचीन प्रौद्यौगिकी है। इसमें मूसल की सहायता से प्राय: छिकलेदार अन्न कूटा जाता है। ओखली में प्राय: धान (oryza sativa ) मडुवा (Eleusine coracana ), जौ (Hordeum vulgare ), बाजरा (sorghum vulgare ), गेहूँ (Triticum aestivum ), मादिरा (Echinochloa frumentacea ), आदि कूटा जाता है। इसमें अन्य वस्तुएँ भी कूटी जाती है। पशुओं के लिए बिच्छू घास (Urtica parviflora ) आदि चारा भी ओखली में कूटा जाता है। कई प्रकार के तिलहनों को भी ओखली में कूट कर उनसे तेल निकाला जाता है। ओखली प्राय: प्रत्येक घर-आँगन में खुले स्थान पर होती है। प्रत्येक गाँव में एक या एकाधिक छतयुक्त ओखलियाँ भी होती है। एक कमरे के भीतर कभी-कभी दो-दो ओखलियाँ होती है। इन कमरों की लम्बाई-चौड़ाई लगभग ८x ६ फीट होती है। धूप और वर्षा में इन्ही ओखलियों में धान आदि कूटे जाते हैं। इस कमरे वाली ओखली को "ओखलसारी' कहा जाता है। ये ओखलसारियाँ सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों प्रकार की होती हैं। कुमाऊँ में मुख्यत: दो प्रकार की ओखलियाँ पाई जाती है - (१) पैडल वाली ओखली और (२) सादी ओखली।

पंकज सिंह महर:
(१) पैडल वाली ओखली -

ओखली किसी कठोर पत्थर अथवा बाँज या सानड़ (oojeinensis ) के गिल्टे में बीच में ७ से १० इंच की गहराई का ऊपर की ओर चौड़ा एवं नीचे की ओर संकरा गड्डा बना कर निर्मित की जाती है। पत्थर की ओखली का वजन १-१/२ मन से अधिक होता है। यह गड्डा किसी चौकोर पत्थर पर बनाया जाता है। ओखली को निर्धारित स्थान पर भूमि के अन्दर गाढ़ दिया जाता है। ओखली के चारों ओर पटाल (स्लेट) बिछा दिए जाते हैं। पैडल वाली ओखली में लकड़ी की ओखली सुविधाजनक रहती है। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी ले जाया जा सकता है, पर पत्थर की ओखली में चीजें कूटने के लिए पैडल को अलग-अलग ओखलियों में ले जाना पड़ता है। इस ओखली में मूसल का ऊपरी सिरा एक लंबी लकड़ी में फँसाया जाता है। इस लंबी लकड़ी को आधार की दो तख्तियों के सहारे टिका कर इसके दूसरे सिरे को पैडल से जोड़ दिया जाता है। लकड़ी हिले-डुले नहीं, इसलिए आधार की तख्तियों के ऊपर एक तिरछी लकड़ी तथा उसके ऊपर लंबी लकड़ी को ढकती हुई लकड़ी के गुटकों की बाढ़ लगा दी जाती है। इनमें प्राय: तंग (Rhus parviflora ), साज (Terminalia alata ), हरड़ (T chebula ), तुन (Shorea robusta ), सानड़ (ougeinia oojeinensis ) की लकड़ी प्रयोग में लाई जाती है। इसका मूसल लंबोतरा अंडाकार व भारी होता है। पैडल के दूसरे सिरे पर उसकी दूरी इतनी होती है कि पैडल दबते ही वह उठ कर ठीक ओखली में पड़े। इस मूसल के निचले सिरे पर लोहे का छल्ला लगा रहता है, जो अनाज की भूसी निकालने में सहायक होता है, ओखली को उठाने के लिए ये आधार की तख्तियाँ, तिरछी लकड़ी और उनसे जुड़ी लंबी लकड़ी व पैडल लीवर का काम करते हैं। पैडल वाली ओखली में कम ताकत लगती है। इस पैडल को पाँवों से चलाया जा सकता है। पैडल वाली ओखली का प्रयोग अल्मोड़ा के लमगड़ा क्षेत्र में प्रचलित है, किन्तु अब इस ओखली का प्रचलन नहीं के बराबर है, मूसल साल (shorea robusta ) खैर (Acacia catecchr ), बाँज (Quercus glauca ) आदि किसी भी भारी लकड़ी का बनाया जाता है।

पंकज सिंह महर:
(२) सादी ओखली - इसमें ओखली स्थिर और प्राय: पत्थर की होती है, पर मूसल पैडल वाला लंबोतरा अंडाकर और छोटा ने होकर लंबा होता है। इसकी गोलाई लगभग ४ से ८ इंच तथा लंबाई औसतन ५ से लेकर ६ १/२ फीट तक होती है। बच्चों के मूसल छोटे व हल्के होते हैं। मूसल को बीच से दोनों हाथों के बल ओखली में मारा जाता है। ये मूसल बीच में हत्थे की जगह पतले व सिरों की ओर मोटे होते हैं। मूसल के निचले सिरे में कभी-कभी लोहे की कीलें लगा दी जाती हैं, जिन्हें दाँत कहते हैं। इन मूसलों के निचले सिरों पर लोहे के छल्ले लगे होते हैं, जिन्हें "सौपा' कहते हैं, इनसे भूसा निकलने में मदद मिलती है।

पंकज सिंह महर:
ओखली में मुख्यत: धान कूटे जाते हैं। धान प्राय: गाँव की महिलाएँ कूटती हैं। मूसल से वे ओखली में धानों पर प्रहार करती हुई, पाँवों से बिखरते धानों को समेट कर ओखली में भी डालती जाती हैं। कभी-कभी दो महिलाएँ एक साथ क्रम-क्रम से ओखली में मूसल से प्रहार करती हुई धान कूटती हैं। इसे "दोरसारी' कहा जाता है। आधुनिक युग में धनकुट्टियों के प्रचलन के बाद बी कूटने की यह प्राचीन पारम्परिक तकनीक कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में यथावत् जीवित है। कुमाऊँ में यत्र-तत्र चट्टानों या बड़े पत्थरों में ओखलियाँ खुदी हुई मिलती हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि कभी इन ओखलियों के आसपास मानव बस्तियाँ रही होंगी। दीपावली के दिन ओखली और जाँतर में दिए जलाए जाते हैं और इनकी पूजा की जाती है, इन पर ऐपण डाले जाते हैं।

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