उत्तराखण्ड के कई अंचलों में आठों का त्यौहार मनाया जाता है, यह त्यौहार शिव-पार्वती को समर्पित है। नन्दा यानी पार्वती को पूरा उत्तराखण्ड अपनी बेटी मानता है और पिथौरागढ़ में मनाये जाने वाले इस त्यौहार को वहां की नन्दा जात ही कहा जा सकता है।
शुक्ल पंचमी के दिन यहां की महिलायें विरुड़ भिगाती हैं और दूसरे दिन शुद्ध जल से धोकर नये दूव की डोर धारण करती हैं, ये विरुड़ नन्दा को चढ़ाये जाते हैं। अष्टमी के दिन कुंवारी कन्या सोंवा के पौधे से गमरा यानी गौरा बनाती हैं और डलिया में रखी जाती है। वहां पर एक चादर में माल्टा, नारंगी आदि स्थानीय फलों को एक चादर में डाल कर उछाला जाता है, यदि किसी कन्या के पास फल आकर गिरता है तो माना जाता है कि इस साल उसका ब्याह हो जायेगा। फिर डलिया को सिर पर रखकर गाजे-बाजे के साथ गांव में लाया जाता है और गौरा (नन्दा) के जन्मदिन से लेकर ससुराल जाने तक के गीत गाये जाते हैं, गमरा को घर के भीतर रखते समय ब्राहमण विधि-विधान से पूजा करते हैं। पिथौरागढ़ में इस पर्व को आठों कहा जाता है और सारे गांव के लोग आंठों गीत गाते हैं, जिन्हें "खेल" कहा जाता है। नवमी के दिन महेश्वर यानी शिव जी को लाया जाता है और उनको भी गमरा के साथ रखा जाता है। विधि-विधान से दोनों की पूजा-अर्चना होती है और उनके गीत गाये जाते हैं, एक गांव में एक गमरा-महेश्वर लाने की प्रथा है। उसके कुछ दिनों बाद इन दोनों डोलियों को मंदिर में ले जाया जाता है और अश्रुपूर्ण विदाई दी जाती है, इसे गमरा सिलाना कहा जाता है। यह भी नन्दा जात का एक रुप है।
इसका और विवरण हेम पंत जी से अपेक्षित है।