Author Topic: Uttarakhand Architecture - उत्तराखंडी वास्तुकला  (Read 31859 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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दम तोड़ रही जनजातीय हस्तशिल्प कला


कर्णप्रयाग (चमोली)। जनपद के कर्णप्रयाग, दशोली, गैरसैंण व जोशीमठ ब्लाक में सदियों से निवास कर रहे जनजाति समुदाय की परंपरागत ऊनी हस्तशिल्प कला उपेक्षा व नियोजन की खामियों के चलते दम तोड़ रही है। तीन दशक पूर्व तक अति समृद्ध रही इस शिल्प के संरक्षण में सरकारी व गैरसरकारी प्रयास भी बौने साबित हुए हैं।

सीमांत नीति घाटी का भोटिया समुदाय प्राचीन काल से ही भेड़-पालन व ऊनी वस्त्र उत्पादों के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां के रांकब कंबल जहां राजगृह तक पहुंचते थे वहीं पांडुकंबल, कोटंबर आदि की खपत पूरे भारतवर्ष में भी होती थी । उनके सिद्धहस्थों द्वारा निर्मित शाल, दुशाला, बुल्या व पट्टियों को यूनान तथा रोम के धनिक मुंहमांगे दामों पर खरीदने को तैयार रहते थे। यहीं नहीं, राजस्थानी राजघराने भी इस समुदाय से ऊनी तंबू बनवाते रहे। कभी देश-विदेश को विशुद्ध ऊनी उत्पाद मुहैया कराने वाला यह समुदाय वर्तमान में बाहरी प्रदेशों से आयातित घटिया ऊनी धागों पर निर्भर हो गया है, जिसके चलते इनके उत्पादों की विश्वनीयता कम हुई है, वहीं इनकी आर्थिकी भी गड़बड़ा गयी है।

 सातवें दशक में इस घाटी के 24 जनजातीय गांवों के तीन हजार परिवारों के पास तीन लाख से अधिक भेड़ों का जखीरा था और गांवों में शत-प्रतिशत परिवार इस व्यवसाय से जुडे़ थे। लेकिन वर्तमान में 85 फीसदी से अधिक परिवारों ने भेड़ पालन से हाथ खींच लिया है। घाटी के दो बड़े गांवों जेलम तथा मलारी में ही कभी 58 हजार से अधिक भेड़ थीं जो वर्तमान में 2720 रह गयी है। यही स्थिति घाटी के अन्य 22 गांवों की भी है। इस बदले परिवेश में भी समुदाय का ऊनी वस्त्र उत्पादन से आत्मीयता कम नही हुई है, बिना लाभ-हानि का हिसाब लगाये समुदाय मैदानों से धागे खरीद कर उत्पाद तैयार कर रहा है लेकिन प्रतिस्पर्धा के इस युग में समुचित लाभ नही मिल पा रहा है।

 हिमाचली व कश्मीरी उत्पाद के नाम पर पंजाब की मिलों में निर्मित मिलावटी उत्पाद जहां खूबसूरती के कारण हाथों-हाथ बिक रहा है वहीं फिनिशिंग, डिजाईनिंग व कलर कांबिनेशन की कमी के चलते यहां के उत्पाद लागत से भी कम में बेचना शिल्पियों की विवशता है। गैरसरकारी संगठन सदन शिक्षा समिति ने इस ओर पहल की है।

 यह संगठन भेड़ पालन की जटिलताओं को देखते हुए समुदाय को विकल्प के रूप में अंगूरा शशक पालन के लिए प्रेरित करने के साथ घाटी के पगरासू, रेणी व लाता में खरगोश पालन व उत्पादन ईकाईयों को स्थापित कर वीविंग , डांइग व डिजाईनिंग के प्रशिक्षण के साथ मार्केटिंग के गुर भी लाभार्थियों को बता रहा है।

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लघु चित्रकला

कहा जाता है कि उत्तराखण्ड में गढ़वाल साम्राज्य ने चित्रकला को कला के रूप में प्रोत्साहन दिया था। मुगल तथा पश्चिमी पहाड़ी शैली में लघु चित्रकार का विकास हुआ था, लेकिन किसी सामंती संरक्षण का इसमें कोई योगदान नहीं था।

हालांकि स्वाधीन गढ़वाल शैली के विषय पर विद्वानों में बहुत वाद-विवाद हो चुका है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि देहरादून में गुरू राम राय दरबार की दीवारों पर, कनखल और सहारनपुर स्थित हवेलियों में बनी चित्रकला को साम्राज्य काल में प्रेरणा मिली थी। चित्रकला का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप लघु-चित्रकला है।

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करीब एक शताब्दी बाद एक प्रसिद्ध चित्रकार मौलाराम (1743-1833) ने एक चित्रकला शैली विकसित की जो रंगों और बनावट के हिसाब से बेजोड़ थी। उसके पिता, जो श्याम दास और हरिदास के वंशज माने जाते थे, स्वयं चित्रकार थे। मौलाराम बाल्यकाल में ही प्रतिमा दिखाई दी और उसने 1771 में गांव के कुए पर मुगल शैली में मस्तानी, हिन्डोली, मनीकी और युवा अकबर के चित्र बनाये थे। उसे औरत के मोहिनी स्वरूप को प्रदर्शित करने में खास महारथ हासिल थी, जैसा कि उसके चित्रों मोरे प्रिया,
चक्रप्रिया, मयंकमुखी तथा कदली प्रिया में दर्शाया गया है। शीघ्र ही यह गढ़वाल शैली का प्रमाणांक बन गया, जो भावपूर्ण तथा भाव शून्य रंगों में रंगी सुन्दर युवती के लिए प्रसिद्ध है। मौला राम ने एक चित्रकला स्कूल खोला, जहां वह राजकुमारों और जनसाधारण को शिक्षा दिया करता था। उसने अपना ज्ञान अपने पुत्र ज्वालाराम और असाधारण प्रतिमा के घनी दो विद्यार्थियों मंकु और चैतु को विरासत में सौप दिया।

मौला राम की मौत के बाद गढ़वाली चित्रकला की चमक खत्म हो गई तथा ब्रिटिश काल में कलाकार विभिन्न स्थानों में बिखर गए और उन्होंने अन्य काम धन्धे शुरू कर दिये।गड़वाली चित्रकला शैली के कुछ प्रसिद्ध उत्कृष्ट उदाहरणों में शामिल हैः रामायण से लिये गए चित्र (1780 ई.पू.) शिव और पार्वती उत्कत नायिका, कृष्ण और राधा तथा गीत गोविन्द से लिये गये विभिन्न अन्य चित्र। इन चित्रकलाओं का एक बढिया संग्रह श्रीनगर स्थित गढ़वाल विश्वविद्यालय के संग्रहालय में लगाया गया है।

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भीति चित्रकला

गढ़वाल शैली के पहाड़ी चित्रकारों की प्रतिमाओं को लघु चित्रकला के माध्यम से बहुत ख्याति हासिल हुई। तथापि, 17 सदी के मध्य से भीति चित्रकलाएं इतिहास के किसी खास युग में प्रचलित धार्मिक, सौन्दर्यपरक और राजनीति मनःस्थिति को दर्शाने और कलाकारों शाही के संरक्षकों की आवश्यकता पूर्ति का प्राथमिक माध्यम बन गई थीं।

संरक्षक के महलों की दीवारों, मंदिरों, घरों तथा तीर्थस्थलों व पौराणिक महत्व के अन्य स्थलों सहित विभिन्न सतहों पर भीति चित्र बनाये जाते थे। तथापि यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि शैली और रूप में भीति चित्रों और लघु चित्रों में कोई खास अंतर नहीं है।

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चित्रकलाएं साधारणतः पौराणिक व ऐतिहासिक विषयों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। गढ़वाल शैली के चित्रकारों की उत्कृष्टता को केवल भीति चित्रों में ही सर्वोत्तम ढंग से देखा जा सकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार 17 वी सदी के मध्य से 18 वी सदी के अंत तक श्रीनगर के आसपास कोई महत्वपूर्ण चित्रकला नहीं देखी गई थी। शायद इसका कारण यह रहा हो कि श्रीनगर साम्राज्य चित्रकारों के कार्यों को संरक्षण नहीं दे रहा था।

 अतः चित्रकार निचले तराई क्षेत्र की ओर चले गये, जहां उन्हें संभवतः लोगों के घरों और धार्मिक महत्व के स्थानों यथाः मंदिरों, अखाड़ों, गुरूद्वारों, धर्मशालाओं में शिल्पकारों के रूप में रोजगार मिल गया था।
 इनके उदाहरण देहरादून के गुरू राम राय दरबार और कनखल स्थित कुछेक अखाड़ों तथा धर्मशालाओं में देखे जा सकते हैं।

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रसोईघर की दीवारो पर नाटा, चाटु और लक्ष्मीनारायण के चित्र होते हैं। ये चित्र परिवार की समृद्धि तथा नाते रिश्तेदारों में एकता के प्रतीक हैं। बाहरी दरवाजों की दीवारों को 'मोहाल' नामक घंटियों और शंख पुष्पियों से सजाया जाता था तथा विवाह जैसे घरेलू समारोहों के अवसर पर उन पर प्राकृतिक व मिट्टी के रंगों से पुताई की जाती थी। लाल और सफेद रंगों का मिश्रण बहुत आकर्षक नजर आता है।

 गढ़वाल के भित्ति-चित्रों का भारत में मुगल शासन के दौरान चलन शुरु हुआ। मुगल शासक कला के महान संरक्षक थे। उनके संरक्षण में लघुचित्रों के साथ-साथ भित्ति-चित्रों का प्रचार-प्रसार हुआ। यद्यपि, वे हिमालयीन राज्यों पर पूर्व आधित्य नहीं हासिल कर पाए फिर भी मुगलों ने इतनी बुद्धिमत्ता दिखाई कि वहां के शासक उनकी संप्रभुता को स्वीकार करें।

 इसके परिणामस्वरूप दोनों के बीच लाभदायक परस्पर संपर्क विकसित हुआ और पहाड़ी पेंटिंगों पर मुगलों का प्रभाव देखने को मिला। पहाड़ी राजाओं ने अपने महलों और सम्बद्ध इमारतों को भित्ति-चित्रों से सवारने की मुगल शैली को ग्रहण कर लिया।
 पंजाब की पहाड़ियों (अब हिमाचल प्रदेश में) नूरपूर का ठाकुर द्वार, जिसका राजा मंधाता सिंह (1661 ई.-1700 ई.) ने निर्माण कराया था, पश्चिमी हिमालयों में पूर्वतम भित्ति--चित्रों का ऐसा एक उदाहरण है।दिल्ली के शाही दरबार में सिक्ख गुरू राम राय के गढ़वाल स्थित इन घाटी के सांत प्रदेश में आगमन ने गढ़वाल में भित्ति- चित्रों की परम्परा को नया बल दिया।
वे कला के संरक्षक थे जैसा कि हम अनेकों लघु चित्रों (पेंटिंगों), जो मुख्यतया सिक्ख गुरूओं और उनके राजा के थे, से अनुमान लगा सकते हैं। इन सबका उन्होंने अपने निजी कलेक्शन के लिए निर्माण करवाया था। ऐसा माना जाता है कि 1685 में कुछ मुगल कलाकारों ने इन पेटिंगों को बनवाया था।

 संयोगवश, मुकुंदी लाल द्वारा ढूंढ निकाली गई गढ़वाल परम्परा की प्रसिद्ध पेंटिग भी मुगल परम्परा के दो पेंटरों, श्याम दास और केहर दास ने बनाई थी। ये दोनों यहां प्रिंस सुलेमान के साथ आए थे जिसने बाद में गढ़वाल शासकों के यहां आश्रय मांगा था।


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मूर्तिकला
 
गढ़वाल मे कला के रूप में मूर्ति
कला का विकास अतीत में हुआ और इससे
 सदियों तक गढ़वाली जी
वन शैली की झलक दिखाई देती है।
 इसका उदभव वैदिक युग में
 हुआ जब मूर्ति पूजा का रिवाज प्रचलित हुआ
। कालीमठ में हरपौडी की मूर्ति गढ़वाली
 मूर्तिकला का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
 इस शानदार कला कृति के अलावा गढ़वाल के केदारनाथ, बद्रीनाथ,
आदि बद्री, उखीमठ, टिहरी तथा अन्य महत्वपूर्ण मंदिरों में असंख्य खूबसूरत मूर्तियां मौजूद हैं।
 तमता के नाम से मशहूर गढ़वाली मूर्तिकारों
ने पाशाण आकृतियों के अलावा कांस्य की मूर्तियां भी बनाई थीं।

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हथ-करघा



ऊनी कपड़े भोटिया समुदाय: जाध, तोलचा और मारचा द्वारा बनाये जाते हैं। ये खानाबदोश लोग अप्रैल से अगस्त तक भारत-तिब्बत सीमा के ऊंचे पठारों पर अपनी भेड़ें चराते हैं। अत्यन्त ठण्डे मौसम की वजह से भेड़ों पर उच्च कोटि की ऊन आती है, जिसे अगस्त और सितम्बर में काटा जाता है।

ऊन को महिलाएं हाथ से साफ कर धोती और रंगती हैं और फिर निचले प्रदेश में भोटिया समुदाय के शीतकालीन पड़ाव पर पुरूष और महिलाएं मिलकर उसे हाथ से कातती और बुनती हैं। ऊन के रंग भेड़ों के स्वाभाविक फाइबर जैसे भूरे, काले और ऑफ व्हाइट होते हैं। भूरे और रंग के गहरे शेड बनाने के लिए अखरोट की छाल से बनी डाई का इस्तेमाल किया जाता है और डार्क और लाइट ग्रे रंग तैयार करने के लिए ब्लैक और ऑफ व्हाइट को मिलाया जाता है।

 खुलिया नामक स्थानीय पौधों की जड़ों से भी ऊन की स्वाभाविक रंगाई की जाती है जिससे कॉपर सल्फेट या नमक जैसे विलिन पदार्थ मिलाने से अलग-अलग रंग आते हैं। भोटिया गांवों में हर घर में महिलाएं करघे पर व्यस्त देखी जा सकती हैं।
शॉल, कम्बल, गलीचो और दरियों के साथ-साथ घर ही में पुलओवर, कारपेट, वाल हैंगिंग, शॉल, योग आसन आदि तैयार किये जाते हैं।
कपास खेतों में उगायी जाती थी और जुलाहा जाति के लोगों द्वारा बुनी जाती थी। निति, माना और हर्सिल के भोटिया समुदायों को तिब्बत वासियों द्वारा दी गई ऊन के कम्बल भी बनाते थे जिन्हें कोटद्वार, नजीबाबाद, हरिद्वार और दून में बेचा जाता था।
गढ़वाल के चांदपुर और इन इलाकों में शण भारी मात्रा में उगाया जाता था। चर्खे से कातकर इससे मंगोला और कोल्था बनाये जाते थे।

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड के लोगों में देशप्रेम और कर्तव्यपरायणता का कितना जज्बा है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पहाड़ के घरों की खिड़की और दरवाजों में किया जाने वाला रंग घर के स्वामी की बटालियन के रंग का होता है। गढ़वाल राइफल्स के जवान के घर की खिड़की-दरवाजों का रंग लाल और नीला और कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों के घर में हरे और पीले रंग का पेण्ट आज तक किया जाता है।

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उत्तराखंड के  हर गांव  में परम्परागत  रूप से  लकड़ी  की नक्काशी  का काम  निम्न  जातियों  के लोग  किया करते  थे- और  यह पीढ़ी  दर पीढ़ी  चलता था  - तथा पंवार  राजाओं  ने इसे  संरक्षण  दिया था।  दुर्भाग्यवश  समयांतर  में आजीविका  कमाने  के अवसरों  में कमी  तथा संरक्षण  के अभाव  में इक्का-दुक्का  कारीगर  अपने परम्परागत  व्यवसाय  में है।

उत्तराखण्ड में, लकड़ी के मंदिर टोन्स और यमुना के बीच उत्तरकाशी जिले के मख्यतः पहाड़ी इलाकों में देखे जाते हैं। देवराह में कर्ण मंदिर, कुपेरा में नाग देवता मंदिर, गुण्डियत गांव में कपिल मुनि मंदिर कुछेक उदाहरण हैं। इस इलाके में, लकड़ी की नक्काशी युक्त अग्रभाग वाले रिहायशी मकान भी आम बात है।



 

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