उत्तरायण
सूर्य हमारे जीवन का केन्द्र है। सौर मंडल में अनेकानेक तारे, ग्रह, नक्षत्र, और कितने ही क्षुद्र ग्रह हैं, जो अपनी स्थिति, प्रकाश, गति, उष्मा, ऊर्जा और वेग से हमारे जीवन तथा भविष्य को प्रभावित करते हैं। संपूर्ण चराचर को उद्भासित करने वाले सूर्य वास्तव में इस जगत के कारण तथा परिणाम दोनों ही हैं। इस जगत की चर तथा अचर सृष्टि के उद्भव, निर्माण, विकास, रक्षा, संहार तथा संहारेत्तर समापन प्रक्रिया प्रत्यक्षत: इन्हीं से निर्देशित है। जीवन के सभी रूपों यथा देवता, जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज का आधार इन्हीं सूर्यदेव में है। यही कारण है कि इन्हें जगत की आत्मा कहा गया है। पद्मपुराण में तो उन्हें ईश्वर से भी विशिष्ट बताया गया है। कहा है कि श्रीविष्णु, श्रीशिव के दर्शन सभी मनुष्यों को नहीं होते हैं; ध्यान में ही उनका स्वरूप का साक्षात्कार किया जाता है, किन्तु भगवान सूर्य के दर्शन संसार की अंतिम सीमा तक के संचरण काल में सभी मनुष्यों सहित सम्पूर्ण चर एवं अचर सृष्टि को होते हैं।
खगोल विज्ञान के अनुसार सूर्य एक जाज्वल्यमान ज्योति-स्वरूप तारा है जिसके चारों ओर एक निश्चित माप की पट्टी में बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति तथा शनि आदि ग्रह गोलाकार अथवा अंडाकार होकर इसकी परिक्रमा करते हैं।
पृथ्वी से देखने पर सूर्य घूमता हुआ प्रतीत होता है। वास्तव में ऐसा है नहीं। पृथ्वी और दूसरे ग्रह भी सूर्य के आसपास घूमते हैं। लेकिन इस तथ्य से जीवन और जगत पर सूर्य के होने वाले प्रभाव में कोई अंतर नहीं पड़ता। इसी कथित-भ्रमित भ्रमणशीलता के आधार पर सूर्य नभमंडल के भचक्र में 30 दिन की अवधि पूरी होने पर एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करते हैं। जिसे खगोलशास्त्री सूर्य संक्रमण-सक्रांति की कहते हैं। विवेचित पट्टी (भचक्र) को मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक धनु, मकर, कुंभ तथा मीन में विभाजित किया गया है। बारह राशियों में सूर्य का प्रति मास संक्रमण होता है। सूर्य के राशि संक्रमण से प्रति मास संक्रांति होती है। इस संक्रमण में दो बदलाव मुख्य हैं। उत्तरायण अर्थात ‘मकर संक्रांति’।
उत्तरायण अर्थात सूर्य का उत्तर अयन अधिक शुभ माना जाता है। जब सूर्य धनु राशि में संचार पूरा करके मकर राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य का उत्तरायण संचार प्रारम्भ होता है। मकर, कुंभ, मीन, मेष, वृष तथा मिथुन राशियों में संचरण अवधि में पूर्ण होता है। सूर्य जब मिथुन राशि से जब कर्क राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य दक्षिण अयन की यात्रा प्रारंभ करता है।
पद्म, मत्स्य आदि पुराण ग्रंथों के अनुसार सूर्य के उत्तरायण होते समय मकर संक्रांति में किए धार्मिक कार्य, यथा सूर्योदय पूर्व तिल-स्नान, तर्पण, दान, देवपूजन, तुलादान, वस्त्रदान, स्वर्ण-मणिमाणिक्य, हव्य-कव्य दान, दीपदान, शय्यादान, पिण्डरहित श्राद्ध, व्रत, जप, तप, होम इत्यादि का मिलना है। इन पुण्य कार्यों के फल अन्य अवसरों पर किए जाने वाले इन्हीं सब धार्मिक कार्यों से प्राप्त फल की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक और कल्याण कारी होते हैं। शास्त्रीय संदर्भों के अनुसार हजार, लाख और करोड़ गुना फल मिलते हैं। संक्रांति काल में की गई सूर्य पूजा हेतु अनेक मंत्र हैं, जिनके श्रद्धापूर्वक जप से मनुष्य अपने संपूर्ण अभिष्ट एवं अभिलक्षित पदार्थों, सर्वसिद्धियों तथा स्वर्गादि के भोग प्राप्त करता है।
धर्मसिंधु और पुराण शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के पुण्य काल में स्नान-दान करते हुए तीन दिन उपवास के साथ शिवपूजा का विधान है। संक्रांति के पहले दिन उपवास करके संक्रांति दिवस पर तिल का उबटन लगाकर, तिल से स्नान कर तिल से ही तर्पण करके शिव को गाय के घी से मर्दन कर शुद्धजल से नहला कर सुवर्ण-मणिमाणिक इत्यादि अर्पित कर तिल-दीप-सुवर्ण-अक्षत-तिल से पूजन कर घी-कंबल इत्यादि का ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। उपयुक्त पात्रों और जरूरतमंदों को दान दक्षिणा देने के पश्चात ही तिलसहित पंचगव्य से व्रत का पारण करें।
मकर संक्रांति दिवस एक अन्य स्वरूप भी लोकाचार में प्रचलित है। बाधित संबंधों, टूटी हुई मित्रताओं एवं पारिवारिक संबंधों को फिर से जोड़ने के प्रयास इस दिन किए जाते हैं। परिवार के अन्य सदस्यों को सम्मान देते और बिगड़े हुए संबंधों को सुधारने के लिए कोशिश करते हैं।
मकर संक्रांति का एक आयाम खेती से जुड़ा भी है। रबी की फसल में बीज पड़ना प्रारम्भ होता है। फसल की पकाई के लिए सूर्य की अच्छी धूप का अपना एक महत्व है। दिन-रात की अवधि इस तिथि के बाद समान होने लगने से कृषि का मिजाज बदलता है। इस दिन से सूर्य की अधिक धूप उपलब्ध होती है जो अन्तत: फसल के पकने में सहायक होती है। धूप में उत्तरोत्तर वृद्धि फसल को उपयुक्त रूप से पकने में मदद करती है।
सूर्य की उर्जा एवं उष्मा से वर्र्षा है। इसी से नदियों और सरोवरों में जल है। सूर्य के प्रभाव से ही बर्फ भी है। यही सब मनुष्य के लिए जीवनदायी अमृत है। इस जल का प्रयोग सुविधाजनक एवं सम्मानपूर्वक करना नितान्त आवश्यक है। इसीलिए श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान करके अपनी कृतज्ञता सूर्य-पूजा के माध्यम से भगवान सूर्य के प्रति अभिव्यक्त करते ह
सूर्य के प्रकाश का एक कोण बदल जाने से पृथ्वी पर फैले जीवन और विस्तार में भौतिक और आध्यात्मिक बदलाव आने लगते हैं। प्रतिवर्ष बदलने वाले इस कोण का नियत दिन है मकर संक्रांति
उत्तरायणपर्व मकर संक्रांति देश भर में तरह-तरह से मनाई जाती है। इस मौके पर व्यक्त किए जाने वाले उल्लास के विविध रूप और नाम
बिहु - असम मेंमकर संक्रांति को माघ बिहु अथवा भोगाली बिहु का नाम से जाना जाता है। बिहु में असम के लोग नृत्यों की बानगी देखते ही बनती है। समूचा असम क्षेत्र बिहु के रंग में रंग जाता है। पारंपरिक लोक गीत गाए जाते हैं। बिहु कई स्वरूपों में मनाया जाता है।
लोहड़ी- पंजाब और आसपास के इलाकों में यह पर्व लोहड़ी के रूप में मनाया जाता है। जो संक्रांति के एक दिन पहले संपन्न होती है। अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्निपूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है।
पोंगल - तमिलनाडु में यह वहां नए वर्ष का प्रतीक है। पर्व चार दिन तक मनता है। यही वर्ष का नया और पहला दिन भी माना जाता है।
खिचड़ी - उत्तर भारत में चावल दाल से बने खास आहार लेने और दान देने का पर्व है मनाया जाता है। संकरात - गुजरात और आसपास के इलाकों में पतंग उड़ाने और कबड्डी कुश्ती आदि देसी खेलों के आयोजन का उत्सव मनाया जाता है। दिन भर याचकों को दान देने का रिवाज भी है।
----आचार्य मीतू गौड़ ---