जहां से चले थे, वहीं पर पहुंच कर ठिठके हुआ है उत्तराखण्ड।
उत्तराखण्ड राज्य गठन की ्मांग १८ सदी से उठती आई, लेकिन १९९४ का जनांदोलन इसकी परिणिति बनी, १९९४ का जो आंदोलन यहां ही जनता ने किया, वह उ०प्र० सरकार की हमारे काम न आने वाली , मैदानी भूभाग को देखकर बनाई गई नीति को लेकर और सबसे ज्यादा उग्रता उत्तराखण्ड ने तब दिखाई जब ओ०बी०सी० को २७ % आरक्षण देने की बात आई। हमारे उत्तराखण्ड में OBC की संख्या २ % भी नहीं है और आम उत्तराखण्डी अपने हिस्से की नौकरी उन्हें देने को तैयार नहीं था। तो बात आई कि भई पूरे उत्तराखण्ड को या तो OBC में शामिल करो या फिर हमें अलग स्टेट दे दो। मांग का कारण नौकरी ही था और नौकरी के कारण होने वाले पलायन का दर्द था।
खैर राज्य बना, ४२ शहादतें हुई, कई जलालतें सहीं, अपमान सहे। हमारे राज्य के निवासी प्राचीन काल से ही प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहा है, प्रकृति के अलावा हमें सिर्फ नौकरी का ही सहारा है। राज्य बनने के बाद लोकतंत्र के बहाने लोगों ने राजनैतिक लाभ लेने और पहुंचाने की ही कोशिशें की और कर रहे हैं। राज्य की सुध लेने वाला आज भी कोई नहीं है। चन्द, परमार, शाह, कत्यूरी राजाओं ने भी हमारे लिये खड़ंजे बनाये, मुगलकाल से लेकर ब्रिटिशकाल में भी हमारे हिस्से खड़ंजा ही आया और उ०प्र० के शासन १७ विधानसभा क्षेत्रों में भी वही और आज अपनी सरकार ७० विधान सभा में भी वहीं खड़ंज हमारे रास्तों पर बिछ रहा है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कत्यूरी राजाऒं के शासन काल से आज तक का अंतराल और उसमें होने वाले कामों में भी।
इतिहास को पलटें तो ७२५ ई० के राजाओं का फोकस इस बात पर रहता था कि मेरा राज्य कैसे आत्मनिर्भर हो, कैसे इसकी अर्थव्यवस्था ठीक हो। लेकिन आज के राजा का फोकस इस बात पर है कि मेरी अर्थव्यव्स्था ठीक हो। राज्य गौण हो गया है और मैं सर्वोपरि।
हम १९५० में भी वहीं पर थे, उ०प्र० के समय में ४५० करोड़ का योजनागत व्यय उत्तराखण्ड के लिये होता था। आज ४५०० करोड़ है, लेकिन काम वही हो रहा है, खडंजा, टूटी नाली, प्यासे नल, टूटते-गिरते पहाड़ के गांव, खाली होते गांव। जहां से चले थे, वहीं पर ठिठके खड़े हैं हम कि कब होगा विकास?
उत्तराखण्ड आज शारीरिक रुप से तो बड़ा हो रहा है, उसकी उम्र तो बड़ रही है, लेकिन मानसिक और आंतरिक स्वास्थ्य की स्थिति ऐसी है जैसे कोई मानसिक बीमारी से ग्रस्त बच्चा हो।