from rajeshwar uniyal uniyalrp@yahoo.com
बीत गया दसक
बीत गया दसक रह गयी कसक ,मेरा बचपन क्यों व्यर्थ गया
जब पाल नहीं सकते थे पापा तुम,मुझको अपनों से क्यों जुदा किया.
मैंने सोचा था पापा तुम,मेरा बचपन मह्कवोगे
तकदीर बदल कर मेरी तुम,दुनिया मैं जगमगावोगे.
मैंने सोचा था पापा तुम,मुझमे विश्वास जगावोगे
अपनी ही धरती मैं रह,अपना भाग्य बनावोगे.
मैंने सोचा था पापा तुम,मेरा मान बडावोगे
सुन्दर थो धरा पर मैं, समृद्ध भी मुझे बनावोगे.
पर बचपन थो मेरा व्यर्थ गया,अब योवन भी यों ही गवंवोगे
ताज बदलते रहे पापा तुम, मुझको कुब तक भार्मावोगे.
पापा अब इस धरती पर ,संत भी भ्रमित हो रहे
गंगा को तुमने बाँध दिया,पर मुझे न बांध पावोगे.
इसलिये इस धरती पर पापा,टिकती नहीं जवानी या पानी
अब थो मुझको लिखनी होगी,अपने हाथों से नयी कहानी.
दसक एक और मैं देखूंगा,तब युवा भी हो जावूँगा
महका न सके अगर मुझको तुम तो फिर बहक मैं जावुंगा .
शांत झेल रहा अब तक मैं,पर फिर अशांत हो जावुंगा
महकने अपने जीवन को,वक्त बदल मैं डालूँगा.
उत्तराखंड दिवस की हार्दिक शुभकामनावों के साथ
आपका
डॉ. राजेश्वर उनियाल