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9 November - उत्तराखंड स्थापना दिवस: आएये उत्तराखंड के विकास का भी आकलन करे

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Raje Singh Karakoti:
पहाड़ क्यों है उदास

उत्तराखंड अपनी स्थापना के 16 साल पूरा कर चुका है। राज्य के अन्य आकलनों को छोड़ भी दें और मात्र सरकारी आंकड़े ही देख लें, तो भी ऐसा दूर तक नहीं लगता कि राज्य बनने के बाद गांवों या पहाड़ का कोई भला हुआ हो। विडंबना यह है कि उसके बाद भी राज्य विकास में अपनी छाती ठोकता है। सबसे पहले प्रति व्यक्ति आय को ही देख लें, प्रदेश सरकार के मुताबिक पिछले वर्ष हर उत्तराखंडी की आय लगभग 1.34 लाख रुपये थी, जिसने अब बढ़कर छलांग लगाई और ये 1.51 लाख हो गई। प्रति व्यक्ति आय सचमुच इतनी होती, तो शायद उत्तराखंड के गांवों से न तो पलायन होता और न ही किसी तरह का रोना रोया जाता। मगर सूबे की हकीकत बड़ी स्याह है। प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा पूरी तरह छद्म है। मात्र गांवों की ही आय देखें, तो यह मात्र पच्चीस से तीस हजार रुपये के ही बीच होगी। असल में राज्य बनने के बाद प्रदेश में कमाई केवल उन 53 फीसदी लोगों की बढ़ रही है, जो पहले से बेहतर कमा रहे थे। प्रदेश में प्रति व्यक्ति औसतन आय तो बढ़ रही है, लेकिन पहाड़ और मैदान के बीच की आर्थिक खाई भयावह रूप ले रही है।
नाबार्ड की एक रपट के अनुसार 2004-05 में प्रदेश की कुल आय में कृषि और संबंधित क्षेत्रों का हिस्सा 27.22 फीसदी था, जो घटकर 9.59 फीसदी रह गया है। इस दौर में कृषि और संबंधित क्षेत्रों में विकास दर केवल 2.67 फीसदी है। जबकि उद्योग में इस दौरान विकास दर 16.71 फीसदी आंकी गई है। प्रदेश में खेती और किसानी की उपेक्षा अब आर्थिक विकास में असंतुलन पैदा कर रही है। प्रदेश में 45 फीसदी श्रमिक सीधे खेती से जुड़े हुए हैं। खेती पर पड़ रहे असर के कारण ये लोग रोजगार के लिए शहरों का रुख कर रहे हैं।

सरकार की सांख्यिकी डायरी के आंकड़े खंगाल लें, तो पलायन से खाली होते पहाड़ों की गंभीर हकीकत सामने आती है। प्रदेश के पर्वतीय जिलों में 2 लाख 80 हजार 615 मकानों पर ताले पड़े हुए है, व गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य बनने के बाद 16 सालों में 32 लाख लोगों ने पहाड़ में अपना घर छोड़ दिया।

एक तरफ आपदाओं ने उत्तराखंड के पहाड़ों को कमजोर कर रखा है, तो दूसरी तरफ बारिश और भूकंप के झटके पहाड़ों को हिला रहे हैं। इन सब से एक बड़ा खतरा राज्य के सरकारी स्कूलों पर मंडरा रहा है, जो कभी भी जमींदोज हो सकते है। ऐसी छतों के नीचे पढ़ाई करने को बच्चे मजबूर हैं। पूरे राज्य में ऐसे 750 स्कूल हैं। कई स्कूलों की स्थिति इतनी जर्जर है, कि आसमान में बादल घुमड़ते ही छुट्टी करनी पड़ती है। अल्मोड़ा में 125 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूल गिरने की कगार पर हैं। ऐसे ही लगभग पांच सौ स्कूल कुमांऊ व गढ़वाल में सरकार का रोना रो रहे हैं। सरकार इन्हें महज कागजों में ही दुरस्त कर रही है। उत्तराखंड में स्वास्थ्य ढांचा भी बेहद खराब है। पहाड़ ही नहीं मैदानी इलाकों में भी न तो पूरे डॉक्टर हैं और न ही स्वास्थ्य सुविधाएं। राज्य के सरकारी अस्पतालों में साठ फीसदी चिकित्सकों की कमी है। हां अगर कहीं सरकार की उपस्थिति सर्वव्यापी रूप में आंकी जा सकती है, तो वह है शराब की दुकानों के रूप में। पहाड़ मैदान हर गांव के आस-पास कुछ सरकारी हो न हो पर शराब की दुकान जरूर है। सोलह वर्षों में उत्तराखंडियों ने समझ लिया है कि सिर्फ राजनीतिक पहलों से उनका भला नहीं होने वाला। सरकार की समझ में ये सब आने वाला नहीं और उन्हें लगता है कि एक बार फिर आंदोलनों की राह पकड़नी होगी।

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