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Bageshwar: Undeveloped District - बागेश्वर विकास की दृष्टि से सबसे पिछड़ा जिला

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विनोद सिंह गढ़िया:
३३ बरस बाद भी॒ नहीं पहुंच सकी सड़क अपने गंतव्य॒ तक
Story Update : Friday, November 19, 2010    12:01 AM
 

कपकोट।कपकोट-कर्मी॒ मोटर मार्ग ३३॒बरस बाद भी॒अपने गंतव्य स्थल तक नहीं पहुंच सकी है। सड़क नहीं बनने से मल्ला॒दानपुर॒ क्षेत्र के १५॒हजार लोग परेशान हैं। लोगों को जरूरी सामग्री खरीदने को आठ से २५॒किमी पैदल सफर करने को मजबूर होना पड़ रहा है। रोगियों को अस्पताल पहुंचाने में भारी दिक्कतें हो रही हैं। मल्ला दानपुर॒ विकास संघर्ष समिति ने सड़क का निर्माण शीघ्र पूरा नहीं होने पर आंदोलन की चेतावनी दी है।
मालूम हो कि १२॒किमी लंबी कपकोट-कर्मी॒ मोटर मार्ग वर्ष १९७७॒में स्वीकृत॒हुई थी। लाखों रुपया पानी की तरह बहने के बाद भी सड़क आठ किमी दूर शरण गांव से आगे वाहन नहीं चल पा रहे हैं। शम से आगे पीएमजीएसवाई॒से दो किमी सड़क की स्वीकृति मिली थी लेकिन यह काम भी पिछले दो साल से अधूरा छोड़ दिया गया है। गत बर्षात॒में सड़क अनेकों जगह टूट फूट गई है। मालूम हो कि क्षेत्र के लोगों ने क्रमशः॒वर्ष १९९३॒में जन चेतना मंच तथा वर्ष॒१९९६॒में मल्ला॒दानपुर॒विकास संघर्ष॒समिति केबैनर॒तले जबरदस्त आंदोलन चलाया था उसके बाद भी निर्माण कार्य पूरा नहीं हो सका। कर्मी, डौला, उगियां॒समेत पिंडरघाटी केकरीब॒१५॒हजार लोगों को सड़क के अभाव के चलते भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। रोगियों को डोली में रखकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र कपकोट॒तक लाने में ग्रामीणों के पसीने छूट जाते हैं। प्रसव पीड़िताओं की पीड़ा तो बयां॒करने लायक नहीं हैं। मल्ला॒दानपुर॒विकास समिति के अध्यक्ष स्वरूप समेत विभिन्न॒संगठनों से जुड़े हुए॒लोगों ने सड़क का निर्माण शीघ्र पूरा नहीं होने पर आंदोलन शुरू करने की चेतावनी दी है। इधर लोनिवि॒के अधिशासी अभियंता पीसी जोशी ने कहा कि बारिश से क्षतिग्रस्त हिस्सों का दैवीय आपदा प्रबंधन तथा अन्य कार्यों को जिला योजना से कराए जाने का प्रस्ताव है।

http://www.amarujala.com/city/Bagrswar/Bagrswar-7123-114.html

सत्यदेव सिंह नेगी:
पर कैपिटा इनकम गिनते वक़्त इस गाँव को छोड़ दिया होगा माननीय मुख्यमंत्री जी ने

जय उत्तराखंड
जय भारत
जय भ्रष्ट
 
--- Quote from: Vinod Singh Gariya on November 19, 2010, 10:42:36 AM ---३३ बरस बाद भी॒ नहीं पहुंच सकी सड़क अपने गंतव्य॒ तक
Story Update : Friday, November 19, 2010    12:01 AM
 

कपकोट।कपकोट-कर्मी॒ मोटर मार्ग ३३॒बरस बाद भी॒अपने गंतव्य स्थल तक नहीं पहुंच सकी है। सड़क नहीं बनने से मल्ला॒दानपुर॒ क्षेत्र के १५॒हजार लोग परेशान हैं। लोगों को जरूरी सामग्री खरीदने को आठ से २५॒किमी पैदल सफर करने को मजबूर होना पड़ रहा है। रोगियों को अस्पताल पहुंचाने में भारी दिक्कतें हो रही हैं। मल्ला दानपुर॒ विकास संघर्ष समिति ने सड़क का निर्माण शीघ्र पूरा नहीं होने पर आंदोलन की चेतावनी दी है।
मालूम हो कि १२॒किमी लंबी कपकोट-कर्मी॒ मोटर मार्ग वर्ष १९७७॒में स्वीकृत॒हुई थी। लाखों रुपया पानी की तरह बहने के बाद भी सड़क आठ किमी दूर शरण गांव से आगे वाहन नहीं चल पा रहे हैं। शम से आगे पीएमजीएसवाई॒से दो किमी सड़क की स्वीकृति मिली थी लेकिन यह काम भी पिछले दो साल से अधूरा छोड़ दिया गया है। गत बर्षात॒में सड़क अनेकों जगह टूट फूट गई है। मालूम हो कि क्षेत्र के लोगों ने क्रमशः॒वर्ष १९९३॒में जन चेतना मंच तथा वर्ष॒१९९६॒में मल्ला॒दानपुर॒विकास संघर्ष॒समिति केबैनर॒तले जबरदस्त आंदोलन चलाया था उसके बाद भी निर्माण कार्य पूरा नहीं हो सका। कर्मी, डौला, उगियां॒समेत पिंडरघाटी केकरीब॒१५॒हजार लोगों को सड़क के अभाव के चलते भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। रोगियों को डोली में रखकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र कपकोट॒तक लाने में ग्रामीणों के पसीने छूट जाते हैं। प्रसव पीड़िताओं की पीड़ा तो बयां॒करने लायक नहीं हैं। मल्ला॒दानपुर॒विकास समिति के अध्यक्ष स्वरूप समेत विभिन्न॒संगठनों से जुड़े हुए॒लोगों ने सड़क का निर्माण शीघ्र पूरा नहीं होने पर आंदोलन शुरू करने की चेतावनी दी है। इधर लोनिवि॒के अधिशासी अभियंता पीसी जोशी ने कहा कि बारिश से क्षतिग्रस्त हिस्सों का दैवीय आपदा प्रबंधन तथा अन्य कार्यों को जिला योजना से कराए जाने का प्रस्ताव है।

http://www.amarujala.com/city/Bagrswar/Bagrswar-7123-114.html


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विनोद सिंह गढ़िया:
पिंडरघाटी॒ के १२ हजार लोग दूर संचार सेवा से वंचित
Story Update : Wednesday, November 24, 2010 

बागेश्वर। दूर संचार के क्षेत्र में आए क्रांतिकारी बदलाव का लाभ पिंडारघाटी॒ के १२ हजार लोगों को नहीं मिल सका है। क्षेत्र के लोगों को आज भी दूरस्थ क्षेत्रों को बात करने को यहां से १२ से ३५ किमी दूर कपकोट तहसील मुख्यालय आना पड़ रहा है। इसमें उनका काफी समय तथा धन की बर्बादी हो रही है। परेशान लोगों ने क्षेत्र को संचार सुविधाओं का लाभ शीघ्र नहीं मिलने पर आंदोलन शुरू करने की चेतावनी दी है।
मालूम हो कि पिंडरघाटी॒ के किलपारा, बदियाकोट, कुंवारी, सोराग, बाछम, खाती, उगिया, डौला तथा कर्मी गांवों में संचार की कोई सुविधा नहीं है। बाढ़ भूस्खलन तथा भूकंप की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यधिक संवेदनशील श्रेणी में आता है। क्षेत्र में इन आपदाओं से होने वाली घटनाओं की सूचना जिला मुख्यालय पर तीसरे दिन पहुंचती है। सूचना समय पर नहीं मिलने से क्षेत्र में राहत कार्य भी काफी देर से शुरू होते हैं। संचार सेवा नगण्य होने से क्षेत्र में रह रहे १२ हजार लोगों को कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लोगों को सुदूरवर्ती क्षेत्रों को दूरभाष से बात करने को यहां से १२ किमी दूर कपकोट॒ तहसील मुख्यालय आना पड़ता है। इसमें उनका काफी समय तथा धन की बर्बादी होती है। विभिन्न॒ संगठनों॒ से जुड़े हुए॒लोगों ने संचार सुविधा शीघ्र नहीं मिलने पर आंदोलन शुरू करने की चेतावनी दी है। चेतावनी देने वालों में जिला पंचायत सदस्य गोविंद सिंह दानू, भाजपा मंडल महामंत्री महिपाल दानू, मल्ला॒ दानपुर॒ विकास समिति के अध्यक्ष स्वरूप सिंह कर्म्याल, जन चेतना मंच के अध्यक्ष गोविंद गोरिला करम सिंह दानू॒ तथा रूकमणि॒ देवी आदि शामिल हैं।

साभार : http://www.amarujala.com/city/Bagrswar/Bagrswar-7428-114.html
 


http://www.amarujala.com/city/Bagrswar/Bagrswar-7428-114.html

विनोद सिंह गढ़िया:
गाँधी आश्रम से लेकर वस्त्र विक्रेताओं की विभिन्न दुकानों पर पर्वतीय भेड़ों से प्राप्त ऊन से बने सुन्दर स्वेटर, दन, चुकटे व थुलम देशी-विदेशी पर्यटकों को खूब लुभाते हैं। उत्‍तराखण्‍ड के बागेश्वर, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, गोपेश्वर आदि जिलों में आयोजित मेलों में स्थानीय ऊन से बनी वस्तुओं का अच्छा कारोबार होता है और भोटिया व्यापारी दूर-दूर से हस्त निर्मित ऊनी वस्त्र और अन्य सामान बेचने के लिए यहाँ आते हैं। दुकान में सजे अथवा किसी व्यक्ति के द्वारा पहने हुए ऊनी वस्त्र शरीर को उष्मा देने के साथ देखने में भी बड़े खूबसूरत दिखाई देते हैं लेकिन ऊन उत्पादक भेड़पालकों का जीवन जिन कष्ट और पीड़ाओं से गुजर रहा है वह पीड़ा आम आदमी को गर्म ऊनी वस्त्रों की उष्मा के सुखद अहसास में कहीं नही दिखाई देती।

बागेश्वर जनपद की 61 प्रतिशत वन भूमि का काफी बड़ा वह भू-भाग उस दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में आता है जहाँ सीमान्त क्षेत्रों के भेड़ पालक व ऊन उत्पादक ‘अनवाल’ अपनी भेड़-बकरियां चराते हैं। अनूकूल भौगोलिक परिस्थितियां होने के कारण ही यहाँ की दानुपर पट्टी में स्वाधीनता पूर्व से ही भेड़ व बकरी पालन का परम्परागत व्यवसाय चल रहा है। इसीलिए भगर, सूपी, गड़ियातोली, सोराक, सूपी, चौड़ाथल आदि सैंटरों सहित कर्मी व लीति में सीप फार्म भी निर्मित हुए हैं। बड़ी संख्‍या में लीति, सामा, पोथिंग, तोली, भगर, कर्मी, बदियाकोट, किल्परा, खाती, वाछम, झूनी, हरकोट, धुरकोट, सुंगड़, वसीम, नगवे, नीड़, नीगड़ा, लोहारखेत आदि से भेड़ पालक पिंडर घाटी के पिंडारी व कफनी ग्लेशियर क्षेत्र के वनों और बुग्यालों में भेड़-बकरियां चराने जाते हैं।

पिंडर घाटी की ऊँची पहाड़ियाँ और बुग्याल प्रचुर मात्रा में चारा-पत्ती की उपलब्धता के कारण अनवालों के पसन्दीदा चारागाह हैं। पहले अधिकतर मौसमी चरवाहे धाकुड़ी, वाछम, खाती व उसके आसपास तक ही आते थे। जब से पिंडारी मार्ग विकसित हुआ तब से इस क्षेत्र में चरवाहों व भेड़-बकरियों की संख्‍या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। किसी समय भेड़ पालक ‘अनवाल’ अपनी सुविधा के अनुसार इस क्षेत्र में पशुचारण कर जीवन यापन करते थे। बाद में चुगान पर टैक्स लग गया, अस्थायी झोपड़ियॉं बनाने व लकड़ी के लट्ठे काटने तथा वृक्षों के पातन करने पर भी भारी जुर्माने का प्राविधान हो गया। किन्तु हिमालय की ओर जाने वाले उनके कदमों को कोई नहीं रोक सका।

ब्रिटिशकाल में मि. ट्रेल की बदौलत पिंडारी मार्ग विकसित होने पर अनवालों पर कर लगा तो कई गरीब लोग टैक्स नहीं दे पाते थे तब अंग्रेज अधिकारी टैक्स की जगह भेड़ बकरियों के रेवड़ में से मोटी-ताजी भेड़ या बकरी छांट कर खाने के लिए पकड़ लेते थे। आज निर्धारित शुल्क लेकर चुगान का परमिट जारी करने का अधिकार ग्रामीण वन पंचायतों को मिल गया है। लेकिन सुविधाओं के बजाय कर वसूली, अस्थाई आवासों के लिए लकड़ी काटने तथा ईधन के लिए जलाऊ लकड़ी की मनाही ने गरीब अनवालों के कष्टों को पहले से कहीं अधिक बढ़ा दिया है। ये लोग अब सरकार से मांग करने लगे हैं कि हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों व बुग्यालों में वे साल के तीन-चार महिने मुश्किल से गुजारते हैं इसीलिए उनको चुगान व ईंधन के लिए लकड़ी के उपयोग की छूट मिलनी चाहिए।

पशुचारण के दौरान भोजन पकाने के लिए चरवाहे अभी तक झाडि़यॉं और पेड़ों की टहनियां की एकत्र कर ईधन के रूप में उनका इस्तेमाल करते रहे हैं। वन पंचायतों का दबाव बढ़ने से इनके सामने ईधन की समस्या भी आ खड़ी हुई है। लेकिन कोई भी चरवाहा भोजन बनाने व अस्थायी निवास के लिए लकड़ी के उपयोग के अपने परम्परागत अधिकारों को नहीं छोड़ना चाहता। वे एक स्वर से कहते हैं कि हममें इतनी सार्मथ्य कहाँ है कि हिमालय में जहाँ-तहाँ पीठ पर गैस का सिलेन्डर या स्टोव बांधे फिरें। बर्फ में रहते हैं तो रोटी पकाने के लिए लकड़ी तो जलानी ही पड़ेगी भूखे कैसे रहेंगे?

घास-फूस, रिंगाल की जो अस्थाई झोपडि़यॉं बुग्यालों अथवा आवागमन के मार्ग में अनवालों द्वारा बनाई जाती हैं उसके लिए भी उन्हें वन पंचायतें पास देती हैं। नदी पार करने के लिए पेड़ों के लट्ठे डालते हैं तो उनका भी टैक्स वसूल कर लिया जाता है। लेकिन सुविधाओं के नाम पर उनके लिए कुछ भी नहीं है। भारी कष्ट उठाकर जीवन निर्वाह करने वाले अनवालों पर वन विभाग और ग्रामीण वन पंचायतें टैक्स वसूलने के साथ-साथ हरी व प्रतिबन्धित वनस्पतियों को काटने व वन सम्पदा को नुकसान पहुंचाने के आरोप भी लगा रही हैं। ऐसे आरोपों का खंडन करते हुए बघर के 50 वर्षीय महिपाल सिंह बघरी कहते हैं कि पेड़ों को काटने में हमें भी दर्द होता है, हम केवल सूखी और पेड़ों से गिरी हुई सड़ी-गली लकड़ियों को भोजन बनाने मात्र के लिए इस्तेमाल करते हैं।

80 वर्ष की उम्र में भी नंगे पांव मारतोली जैसे ठंडे और दुर्गम हिमालयी क्षेत्रों में भेड़ बकरी चराने वाले गड़ियातोली के नैन सिंह गड़िया वन पंचायतों द्वारा चुगान पर कर लगाने को नाजायज ठहराते हुए कहते हैं कि ‘जब से धरती पैदा हुई है तब से पिंडारी हमारी है जब सरकार और टूरिस्ट इसे जानते तक नहीं थे तब से हमारे बुजुर्ग और हम यहाँ बकरियां चराते हैं। हमारी ही धरती पर हमारे से यह कैसा टैक्स लिया जा रहा है?’’इनके सामने यह गम्भीर समस्या है कि टैक्स जमा कर परमिट न कटवायें तो भेड़ बकरियों को कहाँ चरायेंगे? और कैसे प्रवास में अस्थायी छप्पर डालेंगे? इसीलिए सब कुछ करना तथा अपने व परिवार के भरण-पोषण के लिए हाड़ कंपाने वाली ठंड में बर्फीली हवाओं के थपेड़े व मूसलाधार बारिश के बीच दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में जीवन निर्वाह करना इनके भाग्य की नियति बन गई है।

सर्दियों में जब हिमालय की चोटियां बर्फ से ढक जाती हैं तब सारे चरवाहे भेड़-बकरियों के साथ निचले क्षेत्रों में आ जाते हैं। सामान्यतः सितम्बर के महिने में वर्षा के साथ जब हिमालय की ऊँची चोटियों पर बर्फ पड़नी शुरू होती है तो ये बर्फ व वर्षा से बचने के लिए चट्टानों और गुफाओं की ओट लेकर हिमालय के निचले इलाकों की ओर उतरना शुरू कर देते हैं, जब तक चरवाहे वापिस घर नहीं पहुंच जाते तब तक परिवारिक जिम्मेदारियों का सारा बोझ इनकी महिलाओं को उठाना पड़ता है।

गर्मियों में बर्फ पिघलनी शुरू होने पर जून के महिने से ये पुनः ऊँचे क्षेत्रों और बुग्यालों में जाना शुरू कर देते हैं। निचले इलाकों में बरसात के दिनों में भेड़ बकरियों के पैरों में लगने वाली जोंक इनके पशुधन को काफी नुकसान पहुंचाती है इस वजह से भी इन्हें हिमालय की ओर रूख करना पड़ता है। दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में अनवालों का प्रवास व पशुचारण हमेशा खतरों से भरा रहता है। बर्फबारी, भू-स्खलन व बाढ़ का खतरा हमेशा सिर पर मंडराता रहता है। रही सही कसर बाघ व चीते भेड़ बकरियों के रेवड़ों पर हमला कर पूरी कर देते हैं। जिस कारण ये रात को भी चैन से नहीं सो पाते और भेड़, बकरियों की चौकीदारी के लिए बारी-बारी से जागकर रखवाली करते हैं।

भेड़ बकरियां कई बार, भू-स्खलन व चट्टानों के गिरने से मारी जाती हैं तो कभी गाड़-गदेरे (पहाड़ी नदी-नाले) पार करते समय वह बह जाती हैं। अत्यधिक ठंड व वर्षा भी इन पर कहर बन कर टूटती है। उफनते नदी नालों पर लकड़ी की बल्लियों और टहनियों से काम चलाऊ पुल बनाकर अनवाल लोग अपनी भेड़ों को एक-एक कर नदी पार करवाते हैं। अगर कभी भारी वर्षा के कारण नदियां उफान पर होती हैं तो इनको नदियों का जल स्तर कम होने तक भूखे प्यासे बुग्यालों में ही रहना है। इस दौरान ये गुफाओं में छिपा कर रखी गयी अपनी थोड़ी बहुत खाद्य सामग्री से काम चलाते हैं अगर खाने के लिए राशन न हो तो जिन्दा रहने के लिए अपनी ही भेड़-बकरियों को मार कर पेट की आग बुझानी पड़ती है। कभी-कभी मांस बच जाने पर ये उसे धूप में सुखा कर आने वाले दिनों के लिए भी सुरक्षित रख लेते हैं।

दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों में अनवाल अपना राशन-पानी व बिस्तर पीठ पर ढोते ही हैं। जंगलों व गुग्यालों में ब्याने वाली भेड़-बकरियों के नन्हें शावकों को भी उन्हें तब तक अपनी पीठ पर ढोना पड़ता है जब तक वह अच्छी तरह चलना फिरना शुरू नहीं कर देता। बर्फीली चोटियों और गहरी घाटियों में स्थित बुग्यालों में तो दुश्‍वारियां इनका पीछा नहीं छोड़ती, नवम्बर से मार्च तक चारागाहों के बर्फ से ढकने पर निचले क्षेत्रों में आकर भी इन्हें चारा-पत्ती के गम्भीर संकट से गुजरना पड़ता है। कई बार ऐसी नौबत भी आ जाती है कि भेड़ बकरियों को कई दिन तक भूखे-प्यासे अपने ही बाड़े में कैद रहना पड़ता है। शीतकाल में बर्फबारी वाले दिनों के लिए अगर सरकारी स्तर पर इनकी भेड़ बकरियों के लिए चारे-पत्ती की व्यवस्था हो जाये तो शायद अनवालों की मुसीबतें कुछ कम हो सकती हैं।

प्रायः शहर से दूर दुर्गम क्षेत्रों में पशुचारण होने से इनकी भेड़ बकरियों के बिमार होने या चोट लगने पर उनकी समय से समुचित चिकित्सा नहीं हो पाती अधिकांश अनवाल लोग खुद ही देशी इलाज का सहारा लेते हैं। जिसमें समय, श्रम और पूंजी अनावश्यक ही बर्बाद होती है। इन चरवाहों के अनुसार उन्हें सरकारी योजनाओं का समुचित लाभ नहीं मिल पाता। पशुपालन विभाग 9 भेड़ एवं ऊन प्रसार केन्द्रों के माध्यम से लगभग 23 हजार भेड़ एवं 60 हजार बकरियों को अन्तः बाह्‌य परजीवियों के निवारण हेतु व्यापक मात्रा में दवापान, दवानहान तथा 2 भेड़ प्रजनन प्रक्षेत्रों के माध्यम से उन्नत किस्म के भेड़ों का उत्पादन कर भेड़ एवं ऊन प्रसार केन्द्रों के माध्यम से स्थानीय भेड़ों की नस्ल सुधार के लिए निःशुल्क उपलब्ध कराने का दावा करता है लेकिन उसके दावे की सच्चाई देखने पर यह व्यवस्था केवल सरकारी भेड़ पालन केन्द्र और पहुंच वाले लोगों के लिए ही लाभकारी सिद्ध हो रही है। छोटे भेड़ पालकों को इन सुविधाओं का लाभ नहीं के बराबर मिल रहा है जिससे वे भेड़-बकरियों की चिकित्सा, टीकाकरण, बधियाकरण, दवापान व दवास्नान के लिए अनेक परेशानियों से जूझ रहे हैं।

जिले की तीन तहसीलों में सर्वाधिक भेड़ पालन कपकोट तहसील के अन्तर्गत होता है। यहां जिले के 2 भेड़ प्रजनन प्रक्षेत्र सहित 9 में से 8 भेड़ एवं ऊन प्रसार केन्द्र व सबसे अधिक पशु सेवा केन्द्र तथा पशु चिकित्सालय हैं इसके बावजूद भी ये पशुपालकों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।

(प्रवक्ता.कॉम से श्री त्रिलोक चन्द्र भट्ट की रिपोर्ट)

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