Author Topic: Burninig Issues of Uttarakhand Hills- पहाड़ के विकास ज्वलन्तशील मुद्दे  (Read 18455 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
सावधान ! पूंजीवाद तो खेती की ज़मीन भी खा रहा है…!
 
 "अपना उत्तराखण्ड भी इससे अछूता नहीं है, यहाँ राज्य निर्माण की तिथी से लेकर 31 मार्च 2010 तक राज्य में उपलब्ध कुल कृषि भूमि लगभग 7,76,000 हेक्टेयर में से 53,027 हेक्टेयर कृषि भूमि खत्म हो चुकी थी, ये तो केवल सरकारी आकडें हैं जिनमे प्रशासन से भू उपयोग परिवर्तन की अनुमति लाकर कृषि भूमि को अकृषित भूमि में परिवर्तित कराया गया, अगर उन क्षेत्रों को भी भी सम्मिलित कर  दिया जाय जिसमें भू उपयोग परिवर्तित कराये बगैर गैर कृषि कार्य जैसे, रिहायश के प्लॉट काट दिए गये है, तथा अन्य दूसरे कार्य किये जा रहें है तो ये आँकड़े बहुत ही चौकाने वाले है, आज उत्तराखण्ड की सरकार भी जमीन के इस खेल में लगे रौख्दार लोगो द्वारा ही चलाई जा रही है l"
 
 
 यह जग जाहिर है कि इस दौर में  अंतर्राष्ट्रीय आवारा वित्त पूँजी  के सरोकार नितांत नव-उप निवेशवादी हैं. इस नए अमानवीय और ‘ लालच’ के अवतार ने बड़ी ही वेशर्मी से ‘जन-कल्याण’ का वो चोला भी उतार फेंका है जो उसने ‘शीत-युद्ध’ के दौरान तत्कालीन “सोवियत संघ” समेत तमाम साम्यवादी कतारों को नीचा दिखाने के लिए ओढ़ रखा था .पाश्चात्य पूंजीवादी राष्ट्रों के    जिन अर्थ शाश्त्रियों  ने इस नव्य-उदारवाद का कांसेप्ट बुना था उनकी दुरात्मायें  अब ‘वाल स्ट्रीट ‘ के प्रभु वर्ग को ही नहीं ,अमेरिकाऔर यूरोप को ही नहीं बल्कि चीन जैसे अर्ध साम्यवादी और भारत जैसे अर्ध-पूंजीवादी+अर्ध-सामंती देश  के सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों को सपनों में आ-आ कर डरा रहीं हैं. वैसे तो इस विश्व-व्यापी ‘नव्य-उदारवाद’ का जन्म विगत शताब्दी के अंतिम दशक कि शुरुआत में ही हो चूका था किन्तु भारत में उसे परवान चढाने में जिन राजनैतिक ताकतों का हाथ रहा वे ‘कांग्रेस और भाजपा’ दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं ,इन दोनों ही राजनैतिक शक्तियों के आर्थिक चिन्तक और प्रेरणा स्त्रोत केवल एक  ही सज्जन हैं -वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंह. ये सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री जरुर रहे होंगे किन्तु अब नहीं ,अब केवल और केवल इस नव्य-उदारवादी ,बाजारवादी पूंजीवाद के शानदार पैरोकार  होकर विश्व -बैंक और अन्तर्रष्ट्रीय मुद्रा कोष  के कुशल मार्केटिंग मेनेजर जैसे लगने लगे हैं l
 
 भारत  में वैसे तो गुलामी के दिनों में ही  स्थानीय सामंतवाद  के घोड़े पर चड़कर ब्रिटिश साम्राज्य का हिमायती पूंजीवाद इस शस्य स्यामल -सुजलाम-सुफलाम भारतीय धरती को बुरी तरह निचोड़ने में लग चूका था  किन्तु इस नए पूंजीवाद की आयु तो मात्र २० वर्ष ही  है.अब यह न केवल जवान हो चूका है बल्कि निहायत ही घटिया दर्जे का बदचलन  और आवारा भी हो चूका है.वर्तमान दौर में यह राज्य-सत्ताओं के मार्फ़त  आम जनता की छोटी-छोटी मिल्कियतों पर न केवल  अपनी कुदृष्टि डाल रहा है बल्कि सार्वजनिक सम्पदा और जमीनों पर   जबरन कब्जा कर परोक्ष रूप से  देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों और इजारेदार पूंजीपतियों बड़े  ज़मींदारों ,ठेकेदारों तथा विभिन्न  माफियाओं  की तिजोरियों को  लबालब भरने में जुटा है.  राज्य सत्ता के राजनैतिक दलाल और भृष्ट प्रशाशनिक मशीनरी के नापाक कारिंदे इन पूंजीपतियों और बड़े भू-स्वामियों से मोटी रकम की दलाली पाते हैं .जो नेता,दल ,अफसर या कर्मचारी इस नापाक गठजोड़ से सहमत नहीं  उसे या तो सिस्टम से अलग कर दिया जाता है या दुनिया से उठा दिया जाता है l
 
 पूंजीपति और बड़े फार्म हाउसों के मालिक अपनी लागत और मुनाफा वसूलने के साथ -साथ अपने आर्थिक साम्राज्य में बेतहाशा बृद्धि करने के बाबत आम जनता की खाल उधेड़ रहे हैं.एक तरफ राजनैतिक दलालों के मार्फ़त सार्वजनिक उपक्रमों को चुपके-चुपके  निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला जारी है,दूसरी ओर सकल राष्ट्रीय विकाश दर की बढ़त के बहाने, आधारभूत अधोसंरचना निर्माण के बहाने विदेशी क़र्ज़ का फंदा देश की भावी पीढ़ियों के मथ्थे मढ़ा जा रहा है.यह तो वर्तमान दौर के सर्वग्रासी- सर्वनाशी नव्य-उदारवाद की एक आंशिक झलक मात्र है,देश के हर प्रान्त ,हर शहरऔर हर इलाके में लोभ-लालच के महारथियों का नंगा नाच जारी है l
 
 बुंदेलखंड के सागर संभाग में कभी २-४ बीडी उद्द्योग के केंद्र थे.तेंदुपत्ता ,ज़र्दा और बीडी के काम में लाखों लोगों का श्रम लगा हुआ था . बीडी बनाने बाले तो  असमय  ही क्षय या टी.बी से बेमौत मर-खप गए किन्तु बीडी निर्माताओं ने राजनैतिक पार्टियों [कांग्रेस और भाजपा] का दामन थामकर न केवल आम जनता की जमीनों बल्कि सार्वजनिक संपदा और जमीनों पर अपना आधिपत्य जमा लिया.अब वे किंग मेकर की भूमिका में हैं.इन पूंजीपतियों ने हजारों एकड़ जमीन के फार्म हॉउस और सेकड़ों एकड़ जमीनों पर खनन के निमित्त कब्ज़ा कर रखा है.पुलिस -प्रशाशन और राजनीती इनके इशारों पर चलती है .कोई मुख्यमंत्री का दोस्त  बन गया कोई स्वयम सांसद या मिनिस्टर.अब तो ‘ सैयां भये कोतवाल’ नहीं ‘अपन हथ्था तो जग्नाथ्था’ की कहावत चरितार्थ हो रही है l
 
 विगत २-३ माह से इंदौर  और उसके इर्द-गिर्द देश भर के नामी-गिरामी लार टपकाऊ ,जमीन  खाऊ लोगों की आमद-रफत बढ़ गई है.सुना है क़ि टी सी एस आएगी,विप्रो आएगी और इनफ़ोसिस भी आ रही है. स्वयम राज्य सरकार पलक पांवड़े बिछाकर इन आई टी कम्पनियों को लाल कालीन बिछा चुकी है.गोया इन कम्पनियों के आगमन से इंदौर और मध्यप्रदेश की जनता मालामाल हो जाएगी! किसानों की जमीन जबरन छीनकर उन्हें खेती बाड़ी से महरूम किया जा रहा है. इसकी किसी को फ़िक्र नहीं की इंदौर-देवास-पीथमपुर में कितने कारखाने बंद हो गए हैं.उन्हें पूर्व में दी गई हजारों एकड़ जमीन अब खेती के काम की नहीं रही और कारखाने बंदी से ओउद्द्योगिक उत्पादन भी नहीं हो पा रहा है.विगत पांच सालों से आई टी पार्क नाम से करोड़ों की इमारत सेकड़ों एकड़ जमीन में बनकर तैयार है उसका न तो कोई लेवाल है और न ही उस जमीन पर अब कभी खेती हो सकेगी. इससे सबक सीखने के बजाय राज्य सरकार को किसानों की खेती योग्य और सेकड़ों एकड़  उपजाऊ भूमि जबरन अधिगृहीत करके इन आई टी कम्पनियों को तस्तरी में रखकर देने की बड़ी व्यग्रता है l
 
 आई टी उद्योग की देश को कितनी जरुरत है?खाद्यान्न की देश को कितनी जरुरत है? यह सामान्य बुद्धि का मानव भी समझ सकता है.चाहे आई टी उद्योग हो या पूर्व वर्ती परंपरागत कल-कारखानें हों क्या यह जरुरी है की वेशकीमती उपजाऊ भूमि पर ही स्थापित किये जाएँ? इस आई टी उद्योग का स्याह पहलु बंगलुरु के लोग ने भी देख लिया.भू माफिया और राजनीतिज्ञों की मेहरवानी से जमीनों के भाव  इतनी तेजी से बड़े की आम आदमी के लिए एक छोटा सा फ्लेट प्राप्त कर पाना भी असंभव हो गया.पहले इंदौर को कपडा उद्योग के लिए जाना जाता था ,अब तो खंडहर भी नहीं हैं की बता सकें की ईमारत बुलंद थी!जिस जमीन पर ये बड़ी-बड़ी कपडा मिलें स्थापित हुई थीं वो हज्रारों एकड़ जमीन भू माफियाओं के मार्फ़त सस्ते में हथिया ली गई थी अब उस पर  विशालकाय बहुमंजिला इमारतें और माल्स बनाये जा चुके हैं जो की करोड़ों -अरबों में बेचे जा रहे हैं .यह सर्व विदित है की भृष्ट नौकरशाही और राजनीती के नापाक गठजोड़ की इक्षा के बिना अब पत्ता भी नहीं हिल रहा है l
 
 इंदौर  के नज़दीक पीथमपुर को भारत में  अमेरिका या जापान केआधुनिकतम तकनालोजी केन्द्रों   की तरह  उत्कृष्ट उद्द्योग केंद्र बनाने का स्वप्न देखने वालों ने छोट-बड़े सभी किसानों कोजबरन  वर्षों पहले उनकी जमीनों   से  बेदखल कर दिया था.इस जमीन पर थोड़े-बहुत उद्द्योग और कारखाने शुरुआत में जरुर खुले थे किन्तु शाशन-प्रशाशन के भृष्ट आचरण और परिवर्तिकाल के लालची उद्द्योगपतियों-राजनीतिज्ञों की  अदूरदर्शिता  से  धीरे-धीरे वे सभी बंद होते चले गए.आधारभूत अधोसंरचनात्मक  विकाश भी एक प्रमुख कारण रहा है.यह कारण अभी भी बरकरार है.परिणामस्वरूप हज़ारों  एकड़  खेती की वेशकीमती जमीन पर न तो अब खेती संभव है और न ही कोई कारगर उद्द्योग स्थापित  किये जाने  का प्रयास हो रहा है l
 
 पीथमपुर की तरह ही इंदौर का भी यही हाल है.इस शहर के इर्द-गिर्द १०० किलोमीटर के दायरे में अत्यंत उपजाऊ भूमि थी. इस भूमि का’ बहुत बड़ा हिस्सा तो भू-माफिया ‘ खा’गया. अब बची-खुची जमीनों पर देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों की  गिद्ध द्रष्टि  है. इंदौर को सिलिकान वेळी में बदलने  का  सपना  दिखाकर धुल धूसरित कर डाला है. अच्छी खासी खेती का कबाड़ा किया सो किया,परपरागत कपडा-मीलों  को बंद कर तमाम हजारों एकड़ जमीन पर धडाधडकांक्रीट की   बहुमंजिला इमारतें और माल्स बन कर निर्धन जनता को और बेरोजगार हो चुके मिल मजदूरों का उपहास करते नजर आ रहे हैं. अलबत्ता अहिल्या बाई होलकर के  जिस  पुरातन सुन्दर शहर  की तुलना मुबई से  की जाती थी ‘,मिनी बॉम्बे ‘ कहा जाता था वह  आज गड्ढों  से परिपूर्णहै. सड़कें,धुंआ छोडती-बसें, कारें, धुल, धुंआ, धुंध और बीमारियों का बोलबाला है. बेरोजगार-मजदूर और किसान आये दिन आत्म हत्या कर रहे हैं,चोरी,लूट,सेंधमारी,नकबजनी,हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं की बाढ़ आ गई है. यह वर्तमान दौर के सर्वग्रासी- सर्व भक्षी पूंजीवाद का सम्पूर्ण चित्रण नहीं है यह तो एक शहर,एक काल-खंड और एक विशेष परिस्थति के बरक्स उसकी आंशिक झलक मात्र है l
 
 एक आई टी कम्पनी को सुपर कारीडोर पर जमीन चाहिए. उस कम्पनी का मालिक या सी.ई.ओ यहाँ आता है .राज्य सरकार के मंत्री उसकी चरण वंदना करते हैं.ऐंसा फोटो भी अखवारों में छपता है.उस पूंजीपति के स्वागत में लाल कालीन बिछ जाया करते हैं. कम्पनी मालिक जितनी भी जमीन मांगता है उतनी उसे आनन् -फानन दिए जाने के अनुबंध हो जाते हैं. सरकार,कलेक्टर,विकास प्राधिकरण,नगर-निगम,तथा पंजीयक रजिस्टार समेत सभी कारकून एकजुट होकर किसानों को हकालकर एक बाड़े में घेरकर  ओने-पाने दामों में उनकी वेशकीमती अत्यंत उपजाऊ जमीन हस्तगत करके उस पूंजीपति को सौंपने के उपरान्त चेन की सांस लेते हैं. सारी जमीन खेती की है,सिंचित है, उपजाऊ है,किन्तु अब ये बंज़र कर दी जाएगी. आई टी क्षेत्र के विकास के नाम पर ,युवाओं को रोजगार मिलने के नाम पर  यह यदि बहुत जरुरी भी था तो उस जमीन पर क्यों नहीं बनाते  जो यत्र-तत्र सर्वत्र उसर-बंज़र पड़ी हुई है या जिस पर शहरी भू माफिया या देहाती दवंगों का कब्ज़ा है ?
 
 कल-कारखाने बनाए जा सकते हैं, आधनिक तकनीकी उपकरण और तत्सम्बन्धी उद्योग लगाए जा सकते हैं,ये सब इंसानी दिमाग और फितरत के वश में है किन्तु खेती योग्य उर्वरा भूमि को एक बार सीमेंटीकरण कर देनें पर उसका हालत वैसे ही हो जाएगी;-
 
 बिगरी बात बने नहीं , लाख करे किन कोय !
 रहिमन फाटे दूध का ,मथे  न माखन  होय!!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को बधाई !
 
 (साभार: Charu Tiwari , संपादक-कर्मभूमि संवाद) 
 
 उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री विजय बहुगुणा को बहुत-बहुत बधाई । उन्हें कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी  ने डांटा है । ऐसा सौभाग्य किसी नसीब वाले को ही मिलता है । देश के तमाम हिस्सों से आये कांग्रेस के इतने बड़े नेताओं में आप ही थे जिन्हें इस तरह का प्रसाद मिला । आपकी योग्यता इसी बात से साबित होती है कि आपने किस तरीके से युवराज का नाम प्रधानमंत्री के लिये आगे किया। इसके दूरगामी परिणाम होते हैं । राजनीति कोई एक दिन की तो होती नहीं है । जब भी मौका मिलेगा आपको इस भक्ति का पुरस्कार जरूर मिलेगा । इसे आप अपना अपमान न समझें । आम जनता के लिये और इन मीडिया वालों को दिखाने के लिये भले ही कुछ मसाला मिल गया हो आप इससे विचलित नहीं होना । ये लोग क्या जानते हैं ?
 
 देश में उत्तराखंड का नाम आप विकास या जनपक्षीय फैसलों से भले ही न कर पाये हों, लेकिन आपने युवराज की डांट से यह साबित किया कि आपके हाथ बहुत लंबे हैं । आपके पिताजी स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा जी को लोग ‘हिमालय पुत्र’ कहा करते थे । वह इसलिये कि उन्होंने युवराज तो छोडि़ये राजपाठ के खिलाफ जाने की हिम्मत जुटाई । जिस युवराज ने आपको डांटा उनकी दादी स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी को सबक सिखाने के लिये बहुगुणाजी ने अपनी लोकसभा सीट छोड़कर दुबारा चुनाव लड़ा ।
 
 इतिहास इस बात का  साक्षी है कि पौड़ी लोकसभा चुनाव देश की लोकतांत्रिक मूल्यों को जिन्दा रखने की नजीर बना । आप कभी इंदिरा गाँधी के अभिनन्दन ग्रन्थ  "भारत की आत्मा" जरूर पढ़ना । इस पुस्तक में स्वयं इंदिरा गाँधी ने लिखा है कि उन्होंने अपने जीवन में यदि किसी राजनीतिक व्यक्ति के दरवाजे पर सहयोग के लिए दस्तक दी थी, तो वह थे हेमवती नन्दन बहुगुणा । कहाँ आपके पिता और कहाँ आप ?
 
 सुना है कि आपने अपने पिता स्व.श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा जी की याद में एक ट्रस्ट बनाकर उनकी राजनीतिक धरोहर को संजोने का काम किया है । पिछले दिनों आपने उसका उद्घाटन भी किया । लेकिन अफसोस, आप जहां एक ओर अपने स्व. पिता के आदर्शो को अक्षुण्ण बनाए रखने का ढोंग कर रहें हैं, वहीं राहुल जैसे लोगों से खुली बैठकों में अपमान भी सहन कर रहे हैं

Bhishma Kukreti

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                        भारत में जन विरोधी बजट व आर्थिक नीतियाँ



                       Mani Ram Sharma 

देश की आजादी के समय हमारे पूर्वजों के मन में बड़ी उमंगें थी और उन्होंने अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए सुन्दर सपने संजोये थे| आज़ादी से लोगों को आशाएं बंधी थी कि वे अपनी चुनी गयी सरकारों के माध्यम से खुशहाली और विकास का उपभोग करेंगे | देश में कुछ विकास तो अवश्य हुआ है लेकिन किसका, कितना और इसमें किसकी भागीदारी है यह आज भी गंभीर प्रश्न है जहां एक मामूली वेतन पाने वाला पुलिस का सहायक उप निरीक्षक निस्संकोच होकर धड़ल्ले से अरबपति बन जाता है उच्च लोक पदों पर बैठे लोगों की तो बात क्या करनी है| वहीं आम नागरिक दरिद्रता के कुचक्र में जी रहा है- उसे दो जून की रोटी भी उपलब्ध नहीं हो रही है| शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे झूझना पड़ता है| स्वयं योजना आयोग ने लगभग 40 वर्ष पहले भी माना था कि आज़ादी के बाद अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी है जबकि हमारा पवित्र संविधान सामाजिक और आर्थिक न्याय का पाठ पढाता है| आज तो यह खाई इतनी बढ़ चुकी है कि शायद आने वाली कई पीढ़ियों के लिए भी इसे पाटना मुश्किल हो जाएगा|

एक नागरिक पर उसके सम्पूर्ण परिवार के भरण पोषण का नैतिक और कानूनी दायित्व होता है| इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अमेरिका में आयकर कानून बनाया गया है और वहां नागरिकों का कर दायित्व उनकी पारिवारिक व आश्रितता की स्थिति पर निर्भर करता है| यदि करदाता अविवाहित या अलग रहता हो तो भी यदि उस पर आश्रित हों तो उसे आयकर में काफी छूटें उपलब्ध हैं| उदाहरण के लिए एक अविवाहित पर यदि कोई आश्रित नहीं हों तो उसकी मात्र 9750डॉलर तक की वार्षिक आय करमुक्त है वहीँ यदि उस पर आश्रितों की संख्या 6 हो तो उसे 32550 डॉलर तक की आय पर कर देने से छूट है| ठीक इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति घर का मुखिया हो व उस पर आश्रितों की संख्या 6 हो तो उसे 35300 डॉलर तक की आय पर कोई कर नहीं देना पडेगा|इसी प्रकार आश्रितों की विभिन्न संख्या और परिवार की संयुक्त या एकल स्थति के अनुसार अमेरिकी कानून में छूटें उपलब्ध हैं| इस प्रकार अमेरिका पूंजीवादी देश होते हुए भी समाज और सामाजिक-आर्थिक न्याय को स्थान देता है|

भारत में अंग्रेजी शासनकाल में 1922 में राजस्व हित के लिए 64 धाराओं वाला संक्षिप्त आयकर कानून का निर्माण किया गया था और तत्पश्चात स्वतंत्रता के बाद 1961 में नया कानून बनया गया| इस कानून को बनाने में यद्यपि संवैधानिक ढांचे को ध्यान में रखा जाना चाहिए था किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं किया गया है| कानून को समाज का अनुसरण करना चाहिए और इनके निर्माण में जन चर्चाओं के माध्यम से जनभागीदारी होनी चाहिए क्योंकि कानून समाज हित के लिए ही बनाए जाते हैं| भारत के संविधान में यद्यपि समाजवाद, सामजिक न्याय और आर्थिक न्याय का उल्लेख अवश्य किया गया है किन्तु इन तत्वों का हमारी योजनाओं,नीतियों और कानूनों में अभाव है| भारत में सभी नागरिकों को एक सामान रूप से कर देना पड़ता है चाहे उन पर आश्रितों की संख्या कुछ भी क्यों न हो| संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है| हमारे यहाँ परिवार के कमाने वाले सदस्य पर शेष सदस्यों के भरण-पोषण का नैतिक और कानूनी दायित्व है क्योंकि भारत में पाश्चात्य देशों के समान सामजिक सुरक्षा या बीमा की कोई योजनाएं लागू नहीं हैं| जबकि पश्चात्य संस्कृति में परिवार नाम की कोई इकाई नहीं होती और विवाह वहां एक संस्कार के स्थान पर अनुबंध मात्र है| पाश्चात्य देशों में एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में औसतन 5-6 विवाह करता है| परिस्थितिवश जब परिवार में एक मात्र कमाने वाला सदस्य हो और उस पर आश्रितों की संख्या अधिक हो तो भारत में उसके लिए आयकर चुकाने की क्षमता तो दूर रही अपना गरिमामयी जीवन यापन भी कठिन हो जाता है | वैसे भी भारत में आश्रितता की औसत संख्या5 के लगभग आती है| इन सबके अतिरिक्त समय समय पर विवाह जन्मोत्सव आदि सामाजिक समारोहों पर होने वाले व्यय का भार अलग रह जता है| इस प्रकार हमारा आयकर कानून हमारे सामाजिक ताने बाने पर आधारित नहीं और न ही यह अमेरिका जैसे पूंजीवादी समर्थक देशों की प्रणाली पर आधरित है| बल्कि हमारे बजट, कानून और नीतियाँ तो, जैसा कि एक बार पूर्व प्रधान मंत्री श्री चंद्रशेखर ने कहा था, आयातित हैं जिनका देश की परिस्थितियों से कोई लेनादेना या तालमेल नहीं है| उक्त विवेचन से यह बड़ा स्पष्ट है कि देश में न तो अमेरिका की तरह पूंजीवाद है और न ही समाजवाद है बल्कि अवसरवाद है तथा हम आर्थिक न्याय, समाजवाद और सामजिक न्याय का मात्र ढिंढोरा पीट रहे हैं, उसका हार्दिक अनुसरण नहीं कर रहे हैं|



देश में सत्तासीन लोग नीतिगत निर्णय लेते समय राजनैतिक लाभ हानि व सस्ती लोकप्रियता पर अधिक और जनहित पर कम ध्यान देते हैं| हमारे पास दूरगामी चिंतन, दीर्घकालीन तथा टिकाऊ लाभ देने वाली नीतियों का सदैव अभाव रहा है| सामाजिक हितों के सरोकार से देश में 14 बैंकों का 1969 में राष्ट्रीयकरण किया गया और 1980 में फिर 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया किन्तु कुछ समय बाद ही इन्हीं बैंकों के निजीकरण पर मंथन होने लगा| यह हमारी अपरिपक्व और विदेशी इशारों पर संचालित नीतियों की परिणति है| देश में बैंकों और वितीय कंपनियों, जिनमें जनता का धन जमा होता है, पर निगरानी रखने और उनके लिए नीतियाँ निर्धारित करने का कार्य रिजर्व बैंक को सौंपा गया है| किन्तु ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश में नई-नई निजी वितीय कम्पनियां और बैंकें मैदान में बारी बारी से आती गयी हैं और इनमें जनता का पैसा फंसता रहा है| इन कमजोर और डूबंत बैंकों का अन्य बैंकों में विलय कर दिया गया या अन्य तरीके से उनका अस्तित्व मिटा दिया गाया| रिजर्व बैंक अपने कानूनी दायित्वों के निर्वहन में, और कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करने में विफल रहा है| देश को राष्ट्रीय सहारा जैसी कंपनियों द्वारा दिए गए जख्म भी अभी हरे हैं| आज देश में राष्ट्रीय स्तर का ऐसा कोई भी निजी क्षेत्र का बैंक या वितीय कंपनी नहीं है जिसका 20 वर्ष से पुराना उज्जवल इतिहास हो| कुल मिलाकर वितीय और बैंकिंग क्षेत्र में हमारी नीतियाँ जनानुकूल नहीं रही हैं| जो निजी क्षेत्र के बैंक आज देश में कार्यरत हैं उनकी भी वास्तविक वितीय स्थिति मजबूत नहीं है चाहे उन्होंने चार्टर्ड अकाऊटेन्ट की मदद से कागजों में कुछ भी सब्ज बाग़ दिखा रखे हों|



देश के संविधान में यद्यपि समाजवाद का समावेश अवश्य है किन्तु देश के सर्वोच्च वितीय संस्थान रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में ऐसे सदस्यों के चयन में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है जिनकी समाजवादी चिंतन की पृष्ठभूमि अथवा कार्यों से कभी भी वास्ता रहा है| सर्व प्रथम तो बोर्ड के अधिकाँश सदस्य निजी उद्योगपति – पूंजीपति हैं| जिन सदस्यों को उद्योगपतियों के लिए निर्धारित कोटे के अतिरिक्त - समाज सेवा , पत्रकारिता आदि क्षेत्रों से चुना जाता है वे भी समाज सेवा, पत्रकारिता आदि का मात्र चोगा पहने हुए होते हैं व वास्तव में वे किसी न किसी औद्योगिक घराने से जुड़े हुए हैं| एक उद्योगपति का स्पष्ट झुकाव स्वाभाविक रूप से व्यापार के हित में नीति निर्माण में होगा| इससे भी अधिक दुखदायी तथ्य यह है कि केन्द्रीय बोर्ड के 80% से अधिक सदस्य विदेशों से शिक्षा प्राप्त हैं फलत: उन्हें जमीनी स्तर की भारतीय परिस्थितियों का कोई व्यवहारिक ज्ञान नहीं है अपितु उन्होंने तो “इंडिया” को मात्र पुस्तकों में पढ़ा है| ऐसी स्थिति में रिजर्व बैंक बोर्ड द्वारा नीति निर्माण में संविधान सम्मत और जनोन्मुख नीतियों की अपेक्षा करना ही निरर्थक है| रिजर्व बैंक, स्वतन्त्रता पूर्व 1934 के अधिनियम से स्थापित एक बैंक है अत:उसकी स्थापना में संवैधानिक समाजवाद के स्थान पर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की बू आना स्वाभाविक है| देश के 65% गरीब, वंचित और अशिक्षित वर्ग का रिजर्व बैंक के केन्द्रीय बोर्ड में वास्तव में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है| दूसरी ओर भारत से 14 वर्ष बाद 1961 में स्वतंत्र हुए दक्षिण अफ्रिका के रिजर्व बैंक के निदेशकों में से एक कृषि व एक श्रम क्षेत्र से होता है|

संयुक्त राज्य अमेरिका में आयकर ढांचा






No. of Dependents→

Status


EXEMPTED INCOME IN $




0
 

1
 

2
 

3
 

4
 

5
 

6
 



Single
 

9750
 

13550
 

17350
 

21150
 

24950
 

28750
 

32550
 



Married joint
 

19500
 

23300
 

27100
 

30900
 

34700
 

38500
 

42300
 



Married separate
 

9750
 

13550
 

17350
 

21150
 

24950
 

28750
 

32550
 



Head of house


12500
 

16300
 

20100
 

23900
 

27700
 

31500
 

35300
 


--

 
 


Regards
B. C. Kukreti
 

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चन्द्रशेखर करगेती उत्तराखण्ड में धार्मिक प्रयोजनों वाली जमीनों का भू-उपयोग बदलेगा ! भू-अधिनियम में फिर होगा संशोधन....
 
 सरकार धार्मिक प्रयोजनों के लिए जमीन खरीदने और बाद में इसका भू-उपयोग बदलने की मंजूरी वाला कानून बनाने की तैयारी में है । इसके लिए भू-अधिनियम 2003 में संशोधन का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करके राजस्व मंत्री को भेजा गया है । फिलहाल सरकार इसके लिए विधायी, न्यायिक और अन्य परामर्शी विभागों से मशविरा कर रही है । मौजूदा कानून में धार्मिक प्रयोजनों वाली जमीनों का भू उपयोग बदलने पर रोक है । इस संशोधन को अगर मंजूरी मिली तो व्यापक परिणाम होंगे ।
 
 चहेतों के लिए कवायद :-
 नैनीताल के एक होटलियर को फायदा पहुंचाने के लिए कानून में बदलाव की कवायद चल रही है । वह भी तब, जब विधायी और न्याय विभाग इसके विरोध में हैं । यह कवायद नैनीताल के एक होटलियर को उसकी जमीन का मौजूदा भू उपयोग बदलवाने के लिए दिए गए आवेदन की प्रक्रिया के साथ शुरू हुई । हार्टिकल्चर वाली करीब छह एकड़ भूमि के उपयोग को पर्यटन में करने का मामला आया तो मौजूदा कायदे-कानून आडे़ आ गए । मामला चूंकि सरकार से नजदीकी रखने वाले से जुड़ा था तो तोड़ निकालने की बात हुई । इसके लिए भू-अधिनियम 2003 (संशोधित 2007) में ही बदलाव का मसौदा तैयार हुआ । एक्ट की धारा 154 (4) 3 में संशोधन का प्रस्ताव तैयार किया गया है । राजस्वमंत्री मामले से वाकिफ होने के बाद भी चुप हैं । देखना यह है कि इस प्रस्ताव का क्या होता है ।
 
 क्या होगा संशोधन से ?
 भू-अधिनियम के मुताबिक राज्य में कृषि, उद्यान, उद्योग, पर्यटन, स्वास्थ्य, शिक्षा व सांस्कृतिक प्रयोजनों के लिए ही जमीन ली जा सकती है। लेकिन जिस प्रयोजन के लिए जमीन ली गई दो साल के भीतर वह पूरा करना होगा। जमीन का प्रयोजन बदला भी नहीं जा सकता। संशोधन के बाद धार्मिक उद्देश्य से जमीनों की खरीद-फरोख्त और लैंड यूज परिवर्तन की राह आसान हो सकेगी ।
 
 दुरूपयोग की आशंका :-
 लोग धार्मिक आश्रमों के लिए ताबड़तोड़ जमीन खरीदेंगे और बाद में भू उपयोग परिवर्तित कराके अन्य उपयोग करेंगे । देश का सीमावर्ती राज्य होने के कारण भी मामला संवेदनशील है । सरहद पर लोग आश्रम और धार्मिक गतिविधियों के लिए जमीन खरीदकर उसका दुरुपयोग कर सकते हैं। इससे देश की अस्मिता को खतरा हो सकता है । लब्बेलुआब यह कि राज्य में पहले से ही कम खेती की जमीन और सिकुड़ती जाएगी । सामरिक दृष्टि से विशेष तथा अपनी भौगोलिक पहचान खोते इस राज्य में सरकारों को जहां कठोर भू-कानून बनाने थे,वहीं वे पूर्व के कानून को भी और ज्यादा शिथिल करने का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देना चाहते....
 
 काश हमारा मुख्यमंत्री व्यापारी सोच का न होकर, पेशे से किसान या मजदूर होता, जो इस पहाड़ी राज्य की व्यथा को समझ पाता !
 
 
 (साभार:अमर उजाला) — with Rajiv Nayan Bahuguna and 70 others.
उत्तराखण्ड में धार्मिक प्रयोजनों वाली जमीनों का भू-उपयोग बदलेगा ! भू-अधिनियम में फिर होगा संशोधन.... सरकार धार्मिक प्रयोजनों के लिए जमीन खरीदने और बाद में इसका भू-उपयोग बदलने की मंजूरी वाला कानून बनाने की तैयारी में है । इसके लिए भू-अधिनियम 2003 में संशोधन का मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करके राजस्व मंत्री को भेजा गया है । फिलहाल सरकार इसके लिए विधायी, न्यायिक और अन्य परामर्शी विभागों से मशविरा कर रही है । मौजूदा कानून में धार्मिक प्रयोजनों वाली जमीनों का भू उपयोग बदलने पर रोक है । इस संशोधन को अगर मंजूरी मिली तो व्यापक परिणाम होंगे । चहेतों के लिए कवायद :- नैनीताल के एक होटलियर को फायदा पहुंचाने के लिए कानून में बदलाव की कवायद चल रही है । वह भी तब, जब विधायी और न्याय विभाग इसके विरोध में हैं । यह कवायद नैनीताल के एक होटलियर को उसकी जमीन का मौजूदा भू उपयोग बदलवाने के लिए दिए गए आवेदन की प्रक्रिया के साथ शुरू हुई । हार्टिकल्चर वाली करीब छह एकड़ भूमि के उपयोग को पर्यटन में करने का मामला आया तो मौजूदा कायदे-कानून आडे़ आ गए । मामला चूंकि सरकार से नजदीकी रखने वाले से जुड़ा था तो तोड़ निकालने की बात हुई । इसके लिए भू-अधिनियम 2003 (संशोधित 2007) में ही बदलाव का मसौदा तैयार हुआ । एक्ट की धारा 154 (4) 3 में संशोधन का प्रस्ताव तैयार किया गया है । राजस्वमंत्री मामले से वाकिफ होने के बाद भी चुप हैं । देखना यह है कि इस प्रस्ताव का क्या होता है । क्या होगा संशोधन से ? भू-अधिनियम के मुताबिक राज्य में कृषि, उद्यान, उद्योग, पर्यटन, स्वास्थ्य, शिक्षा व सांस्कृतिक प्रयोजनों के लिए ही जमीन ली जा सकती है। लेकिन जिस प्रयोजन के लिए जमीन ली गई दो साल के भीतर वह पूरा करना होगा। जमीन का प्रयोजन बदला भी नहीं जा सकता। संशोधन के बाद धार्मिक उद्देश्य से जमीनों की खरीद-फरोख्त और लैंड यूज परिवर्तन की राह आसान हो सकेगी । दुरूपयोग की आशंका :- लोग धार्मिक आश्रमों के लिए ताबड़तोड़ जमीन खरीदेंगे और बाद में भू उपयोग परिवर्तित कराके अन्य उपयोग करेंगे । देश का सीमावर्ती राज्य होने के कारण भी मामला संवेदनशील है । सरहद पर लोग आश्रम और धार्मिक गतिविधियों के लिए जमीन खरीदकर उसका दुरुपयोग कर सकते हैं। इससे देश की अस्मिता को खतरा हो सकता है । लब्बेलुआब यह कि राज्य में पहले से ही कम खेती की जमीन और सिकुड़ती जाएगी । सामरिक दृष्टि से विशेष तथा अपनी भौगोलिक पहचान खोते इस राज्य में सरकारों को जहां कठोर भू-कानून बनाने थे,वहीं वे पूर्व के कानून को भी और ज्यादा शिथिल करने का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देना चाहते.... काश हमारा मुख्यमंत्री व्यापारी सोच का न होकर, पेशे से किसान या मजदूर होता, जो इस पहाड़ी राज्य की व्यथा को समझ पाता ! (साभार:अमर उजाला) height=221Like ·  · Share · 4 hours ago ·

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
सरकारी शह पर अवैध कारोबार........
 
 उत्तराखण्ड राज्य क्या बना कि यहां के हरे-भरे खेतों को भूमाफिया की नजर लग गई । महज 12 वर्ष में ही जमीनों का नक्शा बदल गया । लहलहाते खेत कंकरीट के जंगलों में तब्दील होते जा रहे हैं । यूं लग रहा है कि प्रापर्टी डीलरों के बीच अवैध प्लाटिंग के जरिए खेतों को खत्म करने की होड़ सी मची हुई है । कृषि भूमि का दायरा तेजी से सिमट रहा है । राजधानी दून और हल्द्वानी तथा रुद्रपुर के आसपास में तो कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां खेतों के नामोनिशां तक मिट गए हैं । अवैध कालोनियां का जाल घना होता जा रहा है । नई पीढ़ी तो दून के बासमती चावलों की खुशबू को तरस गई है ।
 
 मामला सिर्फ खेत-खलिहानों तक ही सीमित नहीं रहा । बाग-बगीचों को भी निशाना बनाया जा रहा है । रायपुर से लेकर साहिया तक का फल पट्टी क्षेत्र सिर्फ नाम का रह गया है । फलदार बागों पर आरियां चलाई जा रही हैं। इस सब के बीच कायदा कानून तो कहीं दिखाई ही नहीं देता ।  अवैध प्लाटिंग से लेकर बाग बगीचों को उजाड़ने का काम दिन के उजाले में हो रहा है, फिर भी शासन-प्रशासन इस पर अंकुश लगाने में दिलचस्पी नहीं ले रहा । कार्रवाई सिर्फ नोटिस जारी करने तक ही सीमित है । यूं कहें कि नोटिस भेजकर नौकरशाह भूमाफिया से डील पक्की कर रहे हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । स्पष्ट कहें तो नोटिस सिर्फ डील के लिए ही भेजा जाता है । कानून के लिहाज से देखें तो विशेषज्ञ भू अध्यादेश में व्याप्त खामियों को इस अवैध कारोबार की जड़ मानते हैं । ये खामियां भू माफिया का हथियार तो नौकरशाहों की ढाल बनी हुई हैं । खामियों पर ही करोड़ों का खेल चल रहा है । कहीं बात पकड़ में भी आती है तो रही सही कसर सफेदपोश पूरी कर देते हैं । उनकी हनक की बदौलत ही राज्य में जमीन से जुड़े हजारों मामलों में कार्रवाई पेंडिंग पड़ी हुई हैं ।
 
 वर्ष 2000 में पृथक राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में सबसे ज्यादा बूम प्रापर्टी के कारोबार में आया । खासकर राजधानी बनने की वजह से देहरादून व आसपास के इलाकों में जमीन के दाम आसमान छूने लगे । आवासीय (आर थ्री) भू-उपयोग वाली भूमि का दायरा बेहद सीमित था, लिहाजा कृषि भूमि निशाने पर आ गई । चूंकि कृषि भूमि का भूपयोग परिवर्तित करना काफी जटिल प्रक्रिया है, इसलिए अवैध प्लाटिंग के जरिए भूमि की खरीद-फरोख्त शुरू हुई । कारोबार में मुनाफा ही मुनाफा देख नौकरशाह और सफेदपोश भी कहां पीछे रहने वाले थे, आज पक्ष हो या विपक्ष प्रदेश का कोई राजनेता ऐसा नहीं है जो प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से प्रोपर्टी डीलिंग की काली कमाई पर ऐश ना कर रहा हो । राज्य में नौकरशाहों ने भू-कानून में झोल को खूब भुनाया तो सफेदपोशों के वरदहस्त से कारोबार और सुरक्षित हो गया । यूं कहा जा सकता है कि भूमाफिया, नौकरशाह और सफेदपोश का गठजोड़ राज्य की कृषि भूमि को लील रहा है । इस बात की गवाही खुद सरकारी आंकड़े दे रहे हैं । राज्य बनते ही मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर व नैनीताल में अवैध प्लाटिंग के जरिए कालोनियां बसाई गईं । दूसरी तरफ, ग्लोबल वार्मिंग व मौसम में आए बदलाव समेत तमाम कारणों से पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति कम होने लगी, नतीजतन बंजर भूमि का दायरा बढ़ने लगा । ये प्रमुख कारण हैं जिनकी वजह से पिछले 11 वर्षों में कृषि भूमि के क्षेत्रफल में 54 लगभग हजार हेक्टेयर की कमी आई है । अगर इसमें वर्ष 2011-12 एवं 2012-13 सरकारी आँकड़े शामिल कर लिए जाए तो दशा चिंतनीय है, लेकिन गैर सरकारी आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो स्थिति बेहद चिंतनीय है, राज्य में कृषि भूमि केवल कुछ तहसीलों तक ही सीमीत हो गयी है l 
 
 अवैध प्लाटिंग पर अंकुश को कोई ठोस योजना नहीं :-
 अवैध प्लाटिंग को रोकने के लिए अभी ऐसी कोई ठोस योजना सरकार के पास नहीं है। प्रोपर्टी डीलर कृषि भूमि पर प्लाटिंग कर देते हैं। फिर लोग अवैध प्लाट को खरीदकर नियम कानूनों में फंस जाते हैं। हालांकि एमडीडीए ने एक व्यवस्था बनायी है कि वह जगह-जगह होर्डिंग लगाकर अवैध प्लाटिंग के खिलाफ जागरूकता प्रचार करेंगे। हालांकि पूर्व में एमडीडीए ने एक व्यवस्था बनायी थी कि जगह-जगह बोर्ड लगाकर यह अंकित किया जाएगा कि कहां-कहां पर भूमि को आवासीय प्रयोजन के लिए यूज किया जा सकता है और कहां पर कृषि भूमि है। फिलहाल एक-दो जगह बोर्ड लगाकर इतिर्शी पूरी कर दी।
 
 अभियंताओं की भूमिका रही है संदिग्ध :-
 अवैध प्लाटिंग के मामले कई ऐसे हैं जो कि काफी पुराने हैं। यह मामले लंबे समय से अभियंताओं ने दबा रखे थे । यही वजह है कि आज एमडीडीए की सूची में 338 मामले हैं। फिलहाल अवैध निर्माण व प्लाटिंग को लेकर एमडीडीए व साडा के अधिकारियों की भूमिका संदिग्ध रही है। पिछले दिनों ही एक अवैध निर्माण के मामले में एमडीडीए का एक सुपरवाइजर आफिस अटैच कर दिया गया था, लेकिन सवाल यही उठता है कि संबंधित अभियंता पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। पिछले दिनों अवैध प्लाटिंग पर हुई किरकिरी के बाद एमडीडीए के आला अधिकारियों ने अभियंताओं पर नकेल भी कसी थी। बाकायदा उन्हें अवैध प्लाटिंग ध्वस्त करने के लक्ष्य भी दिए गए थे। यह तक फरमान सुनाना पड़ा था कि अवैध प्लाटिंग में कार्रवाई पर लापरवाही बरतने पर संबंधित अभियंता निलंबित किए जाएंगे। हालांकि इसके बाद कुछ प्लाटिंग पर ध्वस्तीकरण के आदेश हुए हैं, लेकिन कार्रवाई फाइलों में है।कृषि भूमि का किसी भी कीमत पर लैंड यूज चेंज नहीं होना चाहिए। जहां कृषि नहीं हो सकती सिर्फ वहीं निर्माण कायरें की इजाजत होनी चाहिए। घटती कृषि भूमि को बचाने के लिए यह आवश्यक है ।
 
 प्लाट खरीदते समय रखें ध्यान :-
 प्लाट का भूपयोग अनिवार्य रूप से आवसीय (आर थ्री) हो ।
 सजरे में खसरा नम्बर सही स्थान पर हो ।
 प्लाटिंग एरिया में सड़क 18 से 24 फीट हो ।
 
 
 उत्तराखण्ड में भूमि की स्थिति :-
 राज्य का क्षेत्रफल : 53483 वर्ग किमी
 वन क्षेत्र : 35657 वर्ग किमी
 मैदानी क्षेत्र : 7448 वर्ग किमी
 पर्वतीय क्षेत्र : 46035 वर्ग किमी
 खेती के उपयुक्त भूमि : मात्र 13 फीसदी (जब राज्य बना था तबकी स्थिति)
 कृषि भूमि का क्षेत्रफल : 7.26 लाख हेक्टेयर (आकडें 31 मार्च 2011 तक के)
 
 क्या हैं मानक :-
 क्या होना चाहिए लैंडयूज : आवासीय (आर थ्री)
 कितनी चौड़ी हो मुख्य सड़क : 18 से 24 मीटर चौड़ी
 कितनी चौड़ी हो इंटरनल सड़क : 06 से 18 मीटर चौड़ी
 
 
 क्या क्या हैं आवश्यक स्थान :-
 25 प्रतिशत भू-भाग पर पार्क, अस्पताल, मिलन केंद्र, कॉर्मशियल काम्प्लेक्स, स्कूल, खेल मैदान, डाकघर
 
 
 अवैध प्लाटिंग पर कैसे लगेगी रोक ?
 कानूनविदों का मानना है कि रजिस्ट्री के वक्त यदि संबंधित प्लाट के भू-उपयोग का प्रमाण पत्र अनिवार्य कर दिया जाए तो अवैध प्लाटिंग पर रोक लग सकती है । इसके अलावा, कृषि भूमि पर काटे गए छोटे-छोटे प्लाटों की रजिस्ट्री पर प्रतिबंध लगना चाहिए । एब बीघा से कम रकबा वाली कृषि भूमि की खरीदफरोख्त पर सख्ती की जानी चाहिए । सरकारी विभाग व जनप्रतिनिधियों को सिर्फ वैध प्लाटिंग पर मूलभूत सुविधाएं मुहैया करनी चाहिए । कृषि भूमि पर भवन निर्माण को ऋण नहीं दिया जाना चाहिए ।
 
 (साभार : दैनिक जनवाणी)



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Options बाहर गुहार, पर्वतीय उद्यमी दरकिनार.....
 पर्वतीय उद्यमी एक माह से कर रहे सीएम बहुगुणा से मिलने का इंतजार !
 
 क्या आपको मालूम है राज्य में लघु उद्योगों की विकास दर कितनी है, महज 1.71 फीसदी । यह कहना है केंद्र की एक रिपोर्ट का । इसकी वजह है राज्य सरकार का पर्वतीय लघु उद्यमियों के प्रति नकारात्मक रवैया ।
 
 हालात ये है कि लघु उद्यमियों ने विगत 11 जनवरी को मुख्यमंत्री को पत्र भेजकर मिलने का समय मांगा था, लेकिन अभी तक उनको कोई जवाब नहीं मिला है । पर्वतीय उद्यमी अपने छोटे उद्योग लगाने के लिए फिलहाल मुख्यमंत्री के बुलावे का इंतजार ही कर रहे हैं।
 
 यह हाल तब है जब राज्य सरकार प्रदेश में उद्योग स्थापित करने के लिए बाहरी राज्यों में गुहार लगा रही है, सिडकुल के लिए यहां-वहां भूमि तलाश रही है । राज्य की उपजाऊ कृषि भूमि को बड़ी बड़ी औद्योगिक कंपनियों को उनकी शर्तों पर दे दे रही है, ताजा उदाहरण पत्थरचट्टा स्थित सैनिक फ़ार्म का हैं, जहां की खेती की  1482 एकड़जमीन बीच जंगल में स्थित है वहाँ  500 एकड़ जमीन बड़ी पेट्रोलियम कंपनियों को दे दी गयी है l  उत्तराखंड मूल के उद्यमियों की पर्वतीय उद्योग कल्याण समिति के पदाधिकारियों ने बताया कि सीएम आफिस से कहा गया था कि पंद्रह दिन के भीतर बुलाया जाएगा, लेकिन एक माह बाद भी सुध नहीं ली गई है । यह समिति सिडकुल में उद्योग लगाने के लिए जमीन मांग रही है ।
 
 ऐसा नहीं है कि सिडकुल के भीतर जमीन नहीं है ? सिडकुल के भीतर पर्याप्त जमीन है, सितारगंज सिडकुल प्रथम फेस में कुल 320 में से  212 प्लॉटों में उत्पादन जैसा कुछ नहीं हुआ है और आश्चर्य की बात यह है कि वहाँ 198 प्लॉटों पर निर्माण कार्य जैसा कुछ नहीं हुआ है, इसी तरह कोटद्वार सिडकुल  में कुल 100 एकड़ में 100 प्लॉट काटे गए लेकिन उनमें से 69 प्लॉटों में उत्पादन-निर्माण जैसा कुछ नहीं है  l इतना सब होने के बावजूद भी  इन पर्वतीय उद्यमियों को जमीन नहीं दी गई, बल्कि हाउसिंग टाउनशिप के लिए राज्य के बाहर के प्राइवेट बिल्डरों को औने पौने दामों में दे दी जा रही है,  इन सब के पीछे सरकार में बैठे नीतिकारों का क्या स्वार्थ है यह बताने की जरुरत नहीं है !   
 
 वहीं हाल ही में सितारगंज सिडकुल-2 लांच कर के सरकार ने बाहरी उद्यमियों को न्योता दिया है, लेकिन छोटे से टुकड़े के तलबगार राज्य के उद्यमियों को दरकिनार कर दिया गया । जबकि सिडकुल के पास यूपी एसआईडीसी से मिली दो हजार एकड़ जमीन भी है ।
 
 
 क्या कहते  कुंवर सिंह नेगी, महासचिव, पर्वतीय उद्योग कल्याण समिति:-
 
 "मुख्यमंत्री से मिलने का समय मांगा है, लेकिन अभी कोई जवाब नहीं मिला। सिडकुल छोटे भूखंड नहीं देता और लघु उद्यमियों की बड़े भूखंड लेने की हैसियत नहीं है। इस समय राज्य मूल के उद्यमी टर्निंग प्वाइंट पर हैं। सरकार के बुलावे का इंतजार हो रहा है"।
 
 
 साभार : http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20130219a_001117004&ileft=573&itop=706&zoomRatio=183&AN=20130219a_001117004 — with देवसिंह रावत and 67 others.बाहर गुहार, पर्वतीय उद्यमी दरकिनार..... पर्वतीय उद्यमी एक माह से कर रहे सीएम बहुगुणा से मिलने का इंतजार ! क्या आपको मालूम है राज्य में लघु उद्योगों की विकास दर कितनी है, महज 1.71 फीसदी । यह कहना है केंद्र की एक रिपोर्ट का । इसकी वजह है राज्य सरकार का पर्वतीय लघु उद्यमियों के प्रति नकारात्मक रवैया । हालात ये है कि लघु उद्यमियों ने विगत 11 जनवरी को मुख्यमंत्री को पत्र भेजकर मिलने का समय मांगा था, लेकिन अभी तक उनको कोई जवाब नहीं मिला है । पर्वतीय उद्यमी अपने छोटे उद्योग लगाने के लिए फिलहाल मुख्यमंत्री के बुलावे का इंतजार ही कर रहे हैं। यह हाल तब है जब राज्य सरकार प्रदेश में उद्योग स्थापित करने के लिए बाहरी राज्यों में गुहार लगा रही है, सिडकुल के लिए यहां-वहां भूमि तलाश रही है । राज्य की उपजाऊ कृषि भूमि को बड़ी बड़ी औद्योगिक कंपनियों को उनकी शर्तों पर दे दे रही है, ताजा उदाहरण पत्थरचट्टा स्थित सैनिक फ़ार्म का हैं, जहां की खेती की  1482 एकड़जमीन बीच जंगल में स्थित है वहाँ  500 एकड़ जमीन बड़ी पेट्रोलियम कंपनियों को दे दी गयी है l  उत्तराखंड मूल के उद्यमियों की पर्वतीय उद्योग कल्याण समिति के पदाधिकारियों ने बताया कि सीएम आफिस से कहा गया था कि पंद्रह दिन के भीतर बुलाया जाएगा, लेकिन एक माह बाद भी सुध नहीं ली गई है । यह समिति सिडकुल में उद्योग लगाने के लिए जमीन मांग रही है । ऐसा नहीं है कि सिडकुल के भीतर जमीन नहीं है ? सिडकुल के भीतर पर्याप्त जमीन है, सितारगंज सिडकुल प्रथम फेस में कुल 320 में से  212 प्लॉटों में उत्पादन जैसा कुछ नहीं हुआ है और आश्चर्य की बात यह है कि वहाँ 198 प्लॉटों पर निर्माण कार्य जैसा कुछ नहीं हुआ है, इसी तरह कोटद्वार सिडकुल  में कुल 100 एकड़ में 100 प्लॉट काटे गए लेकिन उनमें से 69 प्लॉटों में उत्पादन-निर्माण जैसा कुछ नहीं है  l इतना सब होने के बावजूद भी  इन पर्वतीय उद्यमियों को जमीन नहीं दी गई, बल्कि हाउसिंग टाउनशिप के लिए राज्य के बाहर के प्राइवेट बिल्डरों को औने पौने दामों में दे दी जा रही है,  इन सब के पीछे सरकार में बैठे नीतिकारों का क्या स्वार्थ है यह बताने की जरुरत नहीं है ! वहीं हाल ही में सितारगंज सिडकुल-2 लांच कर के सरकार ने बाहरी उद्यमियों को न्योता दिया है, लेकिन छोटे से टुकड़े के तलबगार राज्य के उद्यमियों को दरकिनार कर दिया गया । जबकि सिडकुल के पास यूपी एसआईडीसी से मिली दो हजार एकड़ जमीन भी है । क्या कहते  कुंवर सिंह नेगी, महासचिव, पर्वतीय उद्योग कल्याण समिति:- "मुख्यमंत्री से मिलने का समय मांगा है, लेकिन अभी कोई जवाब नहीं मिला। सिडकुल छोटे भूखंड नहीं देता और लघु उद्यमियों की बड़े भूखंड लेने की हैसियत नहीं है। इस समय राज्य मूल के उद्यमी टर्निंग प्वाइंट पर हैं। सरकार के बुलावे का इंतजार हो रहा है"। साभार : [url=http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20130219a_001117004&ileft=573&itop=706&zoomRatio=183&AN=20130219a_001117004

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चन्द्रशेखर करगेती आबकारी नीति पर माफिया का शिकंजा…..यहाँ भी स्थानीय दरकिनार ?
 
 “नई नीति के तहत सरकार ने शराब पर वैट घटाया है। वैट घटाकर रेवन्यू कैसे बढ़ेगा ? इस पहेली का हल ढूंढने के लिए हो रहा होमवर्क ”
 
 “बिग प्लेयर्स के लिए बिछाया रेड कार्पेट, तहसील की बाध्यता खत्म, एक ड्राफ्ट से कई दुकानों पर दावा”
 
 
 पोंटी चड्ढा बेशक इस दुनिया में नहीं रहा मगर उत्तराखंड की आबकारी नीति पर इस माफिया की छाया पड़ गई है । पिछले सालों में पोंटी सरीखे माफिया का वर्चस्व तोड़ने के लिए नीति में जो प्रावधान किये गए थे, उन्हें वर्तमान सरकार ने सिर के बल खड़ा कर दिया गया है । अब स्थानीय लोगों का दखल हाशिये पर रहेगा । नीति में तहसील की बाध्यता खत्म कर दी गई है । यही नहीं, माफिया सिक्युरिटी मनी के एक ड्राफ्ट पर समूचे जनपद की दुकानों पर दावा ठोंक सकेगा । इस नीति के लागू हो जाने के बाद सरकार का राजस्व तो बढ़ जाएगा, मगर यह भी माना जा रहा है कि सरकार ने बाहरी राज्यों के शराब माफिया के लिए “रेड कार्पेट” बिछा दिया है ।
 
 आबकारी विभाग सरकार की आय का मुख्य आधार माना जाता है । सरकार ने इस साल 1150 करोड़ रुपये राजस्व अजिर्त करने का लक्ष्य रखा है । मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा पिछले काफी समय से आबकारी महकमे से रेवन्यू बढ़ाने पर जोर देते आए हैं ।
 
 नई नीति के तहत सरकार ने शराब पर वैट घटाया है । वैट घटाकर रेवन्यू कैसे बढ़ेगा ? इस पहेली का हल ढूंढने के लिए सरकार ने जबर्दस्त होमवर्क किया है । वैट घटाने से सरकार के राजस्व को चोट पहुंचती है । सवाल है कि राजस्व कैसे बढ़ेगा ? माना जा रहा है कि सरकार ने जो रास्ता तैयार किया है, उस पर शराब माफिया के लिए रेड कार्पेट बिछा दिया गया है । पिछली नीति में वही लोग ठेका लेने के पात्र थे, जो उस तहसील के स्थानीय निवासी थे । इससे स्थानीय लोगों के पास रोजगार का एक अवसर था । कई स्थानीय लोग इस व्यवसाय से जुड़े और लाभान्वित हुए । शराब कारोबार की बड़ी मछलियों का भी वर्चस्व टूटा और कारोबार संचालित करने के लिए उन्हें स्थानीय लोगों पर पूरी तरह से निर्भर रहना पड़ा । लेकिन तहसील की बाध्यता को खत्म कर इसे जिले तक बढ़ा दिये जाने से अब कारोबार में उसका सीधा दखल बढ़ जाएगा । उसे अपने पेटी कान्ट्रेक्टर के तहसीलों की खाक नहीं छाननी पड़ेगी । मजेदार बात ये है कि उसके लिए एक से ज्यादा ठेके हासिल करने के रास्ते भी खोल दिए गए हैं ।
 
 नई व्यवस्था में एक ही ड्राफ्ट से माफिया जनपद की सारी दुकानें बैकडोर से हासिल कर सकेगा । कुल मिलाकर आबकारी नीति पर पूरी तरह से अमल हुआ तो राज्य के शराब कारोबार पर एक बार फिर बाहरी राज्यों के माफिया का दबदबा बढ़ने के प्रबल आसार दिखाई दे रहे हैं ।
 
 (साभार :जनवाणी देहरादून) — with Mujib Naithani and 32 others.
आबकारी नीति पर माफिया का शिकंजा…..यहाँ भी स्थानीय दरकिनार ? “नई नीति के तहत सरकार ने शराब पर वैट घटाया है। वैट घटाकर रेवन्यू कैसे बढ़ेगा ? इस पहेली का हल ढूंढने के लिए हो रहा होमवर्क ” “बिग प्लेयर्स के लिए बिछाया रेड कार्पेट, तहसील की बाध्यता खत्म, एक ड्राफ्ट से कई दुकानों पर दावा” पोंटी चड्ढा बेशक इस दुनिया में नहीं रहा मगर उत्तराखंड की आबकारी नीति पर इस माफिया की छाया पड़ गई है । पिछले सालों में पोंटी सरीखे माफिया का वर्चस्व तोड़ने के लिए नीति में जो प्रावधान किये गए थे, उन्हें वर्तमान सरकार ने सिर के बल खड़ा कर दिया गया है । अब स्थानीय लोगों का दखल हाशिये पर रहेगा । नीति में तहसील की बाध्यता खत्म कर दी गई है । यही नहीं, माफिया सिक्युरिटी मनी के एक ड्राफ्ट पर समूचे जनपद की दुकानों पर दावा ठोंक सकेगा । इस नीति के लागू हो जाने के बाद सरकार का राजस्व तो बढ़ जाएगा, मगर यह भी माना जा रहा है कि सरकार ने बाहरी राज्यों के शराब माफिया के लिए “रेड कार्पेट” बिछा दिया है । आबकारी विभाग सरकार की आय का मुख्य आधार माना जाता है । सरकार ने इस साल 1150 करोड़ रुपये राजस्व अजिर्त करने का लक्ष्य रखा है । मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा पिछले काफी समय से आबकारी महकमे से रेवन्यू बढ़ाने पर जोर देते आए हैं । नई नीति के तहत सरकार ने शराब पर वैट घटाया है । वैट घटाकर रेवन्यू कैसे बढ़ेगा ? इस पहेली का हल ढूंढने के लिए सरकार ने जबर्दस्त होमवर्क किया है । वैट घटाने से सरकार के राजस्व को चोट पहुंचती है । सवाल है कि राजस्व कैसे बढ़ेगा ? माना जा रहा है कि सरकार ने जो रास्ता तैयार किया है, उस पर शराब माफिया के लिए रेड कार्पेट बिछा दिया गया है । पिछली नीति में वही लोग ठेका लेने के पात्र थे, जो उस तहसील के स्थानीय निवासी थे । इससे स्थानीय लोगों के पास रोजगार का एक अवसर था । कई स्थानीय लोग इस व्यवसाय से जुड़े और लाभान्वित हुए । शराब कारोबार की बड़ी मछलियों का भी वर्चस्व टूटा और कारोबार संचालित करने के लिए उन्हें स्थानीय लोगों पर पूरी तरह से निर्भर रहना पड़ा । लेकिन तहसील की बाध्यता को खत्म कर इसे जिले तक बढ़ा दिये जाने से अब कारोबार में उसका सीधा दखल बढ़ जाएगा । उसे अपने पेटी कान्ट्रेक्टर के तहसीलों की खाक नहीं छाननी पड़ेगी । मजेदार बात ये है कि उसके लिए एक से ज्यादा ठेके हासिल करने के रास्ते भी खोल दिए गए हैं । नई व्यवस्था में एक ही ड्राफ्ट से माफिया जनपद की सारी दुकानें बैकडोर से हासिल कर सकेगा । कुल मिलाकर आबकारी नीति पर पूरी तरह से अमल हुआ तो राज्य के शराब कारोबार पर एक बार फिर बाहरी राज्यों के माफिया का दबदबा बढ़ने के प्रबल आसार दिखाई दे रहे हैं । (साभार :जनवाणी देहरादून) height=162

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प्यारा उत्तराखण्ड’   Pyara Uttarakhand
जनांकांक्षाओं को रौंदने वाले सतांधों को जनता देगी दण्ड
 
 विश्वासघात से कम नहीं रहा विजय बहुगुणा की ताजपोशी का एक साल
 
 कांग्रेस के अघोषित नये आला कमान राहुल गांधी के देहरादून दौरे के बाद अनुशासन के नाम पर जो हंटर कार्यकत्र्ताओं पर चला कर कांग्रेसी नेतृत्व भले ही कुछ समय चैन की नींद सो ले परन्तु जनता कांग्रेस के कुशासन से उसी प्रकार आक्रोशित है जिस प्रकार वह प्रदेश की जनांकांक्षाओं का अपने कुशासन से गला घोंटने वाले तिवारी, खण्डूडी व निशंक की सरकारों से त्रस्त थे। भले ही कांग्रेस अलाकमान व उसके सिपाहे सलार भूल गये होगें कि एक साल पहले प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता ने भाजपा के निशव व खण्डूडी के कुशासन से छुटकारा पाने के लिए अन्य मजबूत विकल्प न होने के कारण कांग्रेस को इस आशा से सौंपी की वे जनांकांक्षाओं को साकार करेगी। परन्तु सत्ता हासिल होते ही कांग्रेसी नेतृत्व यह भूल गया कि प्रदेश की जनता ने रामदेव व अण्णा हजारे की टीम की लाख गुहार को ठुकराते हुए कांग्रेस का सत्तासीन सौंपा था। कांग्रेस नेतृत्व ने जनादेश का सम्मान करने के बजाय विजय बहुगुणा जैसे नेता को दिल्ली से जबरन प्रदेश के अधिकांश विधायकों के विरोध के बाबजूद थोपा। जो जनता ने किसी विश्वासघात से कम नहीं माना। केवल विधानसभा भवन गैरसैंण में आधे अधूरे मन से बनाने का ऐलान करने के अलावा कोई एक काम भी प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसा नहीं किया जिस पर जनता के जख्मों को एक प्रकार से मरहम माना जा सके। प्रदेश की जनांकांक्षाओं को पूरा करना तो रहा दूर प्रदेश के मुख्यमंत्री का आये दिन दिल्ली में डेरा जमाये रहना और मंत्रियों का विदेश दौरे पर चक्कर लगाना प्रदेश के प्रति उनके लगाव को खुद ही बेनकाब करता है। 13 मार्च को मुख्यमंत्री ने प्रदेश सरकार की बागडोर संभाली। इस दौरान उनके प्रति जनता का क्या नजरिया है यह उनके द्वारा रिक्त की गयी टिहरी संसदीय सीट पर अपने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने बेटे को न जीता पाने से ही साफ हो जाता है। मुख्यमंत्री बनने के बाबजूद उनकी नजर में न तो पार्टी का कोई महत्व है व नहीं प्रदेश की उस जनता का जिसने प्रदेश गठन के लिए अपनी शहादते दी और लम्बा संघर्ष किया। विजय बहुगुणा के नजर में केवल खुद अपना पद व अपना परिवार तक ही सीमित है। किस प्रकार के लोगों को उन्होंने प्रदेश के महत्वपूर्ण संस्थानों में आसीन किये हैं इसका नमुना उनकी पसंद को देख कर साफ हो जाता है। जिस प्रकार से वे मुलायम से लेकर उनके प्यादों के साथ गलबहियां करते नजर आते है उससे उत्तराखण्ड की उस जनता के दिलों में क्या गुजरती होगी जिन्होंने मुजफरनगर काण्ड के जख्मों को अपने सीने में संजोया है। उन लोगों को प्रदेश के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करने को जनता कैसे भूल सकती जिन्होंने मुजफरनगर काण्ड के गुनाहगारों को बचाने के लिए कानून का ही गला घोंटा।  इन 12 सालों में जनता ने देखा की सरकारें चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की प्रदेश की जनांकाक्षाओं को पूरा करने के बजाय इन सरकारों ने इनका गला घोंटने का ही काम किया। राज्य गठन के समय से ही जो मुद्दे थे वे आज भी मुद्दे बन कर ही रह गये। किसी सरकार ने प्रदेश की राजधानी गैरसैंण बनाने की ईमानदारी से पहल नहीं की अपितु देहरादून में ही राजधानी थोपने का काम किया। प्रदेश के मान सम्मान को रौंदने वाले मुजफरनगर काण्ड सहित तमाम पुलिसिया दमन के प्रकरणों में न्याय के लिए अभी भी प्रदेश तरस रहा है। प्रदेश के जल, भूमि व जंगल सहित तमाम संसाधनों की बंदरबांट को रोकने के बजाय सरकारें इसको अपने निहित स्वार्थ के लिए और तेजी से विकास के नाम पर बांट रही है। इसके साथ ही प्रदेश में मूल निवास से लेकर जनसंख्या पर आधारित विधानसभाई परिसीमन को थोप कर प्रदेश के हितों को रौंदने का काम किया जा रहा है। यही नहीं प्रदेश में सुशासन की नींव रखने के बजाय जातिवादी, क्षेत्रवादी व भ्रष्टाचारी कुशासन के गर्त में धकेलने का काम किया जा रहा है। प्रदेश के महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर प्रदेश की प्रतिभाओं को आसीन करने के बजाय प्रदेश के बाहर के नेताओं के प्यादों को यहां पर आसीन करके प्रदेश के पूरे तंत्र को पंगू किया जा रहा है।
 राहुल के दौरे के बाद निकाले गये तीन कांग्रेसी नेताओं का विवाद से प्रदेश कांग्रेस के अनुशासन की कलई खुल गयी। कांग्रेस प्रवक्ता धीरेन्द्र प्रताप द्वारा जारी किये गये वक्तव्य के अनुसार प्रदेश के तीन कांग्रेस नेताओं को राहुल गांधी के कार्यक्रम के दौरान हुडदंग करना व प्रांतीय प्रभारी चैधरी वीरेंद्र से भिड़ने के कारण प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने ऐसे तीन नेताओं रामकुमार वालिया, राव अफाक व नईम कुरैशी को अनुशासनहीनता के आरोप में निष्कासित कर दिया है। इसके अलावा पांच को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है। राहुल गांधी के आने पर धरना देने के कारण इन तीनों की प्राथमिक सदस्यता समाप्त करते हुए उन्हें निष्कासित कर दिया गया है। अन्य मामलों में पूर्व उपाध्यक्ष चैधरी सुरेन्द्र सिंह, प्रमोद कपरवाण, वेदपाल सैनी, गुलजार अहमद को पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त पाये जाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। वहीं इस अनुशासन के हेटर से भी कांग्रेस में आपसी गुटबाजी थमने का नाम नहीं ले रही है। सुत्रों के अनुसार यह हंटर प्रदेश अध्यक्ष के संभावित ताजपोशी में कोई बडा विवाद खडा न करने की चेतावनी के रूप में कांग्रेसी गुटबाज नेताओं पर अंकुश लगाने के लिए किया गया। गौरतलब है कि प्रदेश में गुटबाजी को देखते हुए कांग्रेस नेतृत्व प्रदेश अध्यक्ष के नाम की घोषणा चाह कर भी नहीं कर पा रही है। जहां तक प्रांतीय प्रभारी चैधरी को बनाये रखने के कारण कांग्रेस की छवि पूरे प्रदेश में ही नहीं देश में भी लोगों के नजरों से उतर रही है। वहीं लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को मजबूत बनाने के उदेश्य से यहां पर सक्षम व साफ छवि का अध्यक्ष बनाने की कांग्रेस नेतृत्व की मुहिम का एक अंग के रूप में अनुशासन का यह हंटर माना जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए सबसे आगे प्रदीप टम्टा, सतपाल महाराज, हीरासिंह बिष्ट व महेन्द्र पाल के नामों पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। इस मामले में कांग्रेस के खेमबाजी को कांग्रेस की मजबूती पर सबसे बडा ग्रहण माना जा रहा है।  सुत्रों के अनुसार नेताओं की दृष्टि से कांग्रेस सभी दलों से 21 नजर आ रही है परन्तु कांग्रेस क्षत्रपों में ही नहीं आम जनता में भी इस बात का आक्रोश है कि जनाधार वाले नेताओं को नजरांदाज करके बहुगुणा जैसे नेता को यहां पर थोप कर खुद कांग्रेस नेतृत्व ने जनता के साथ साथ कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं की भी आशाओं पर वज्रपात ही किया। हालांकि प्रदेश के अधिकांश नेताओं से प्रदेश की जनता को कोई ऐसी आशा नहीं है कि वे पूर्ववर्ती सरकार से हट कर कुछ नया काम करते। परन्तु जिस बेशर्मी व निर्मता से बहुगुणा सरकार प्रदेश की जनांकांक्षाओं को रौंद कर प्रदेश के संसाधनों को निहित स्वार्थी तत्वों के साथ मिल कर प्रदेश को पतन के गर्त में धकेला जा रहा है वह बेहद ही चिंता का विषय है।
 खासकर जिस प्रकार से विजय बहुगुणा ने अपनी विधानसभा सीट जीतने के लिए सितारगंज में पट्टे धारियों को मालिकाना अधिकार दिया। जिस प्रकार से मूल निवास प्रमाण पत्र वाले मामले में उदासीनता दिखा कर प्रदेश के हितों को रौदंा, जिस प्रकार से सिडकुल सहित प्रदेश के जमीनों का व्यवसायीकरण किया जा रहा रहा है। देवभूमि उत्तराखण्ड में शराब की त्रासदी से आम जनता को उबारने के लिए मजबूत कदम उठाने की जगह यहां पर शराब का गटर ही बनाने की योजना प्रदेश को कहां पंहुचायेगी यह आने वाला समय ही बतायेगा। यहां पर भू माफियाओं व शराब माफियाओं का जो शिकंजां पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में कसा था वह कम होने के बजाय और मजबूत हो रहा है। इस प्रकार कांग्रेस नेतृत्व को एक बात समझ लेना चाहिए कि जो जनता प्रदेश का गठन करने वाले भाजपा की उत्तराखण्ड विरोधी सोच के कारण लोकसभा व विधानसभा चुनाव मे ंसफाया कर सकती है तो वह ऐसे जनविरोधी सरकारों को क्यों छाती में मूंग दलने की इजाजत देगी। कभी नहीं। शेष श्रीकृष्णाय् नमो। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय नमो

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चन्द्रशेखर करगेती
अँधा पीसे कुत्ता खाय......जनता बेचारी मरत जाय !
 
 मित्रों यह कहावत आप लोगो ने बहुत सूनी होगी, उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के पश्चात कांग्रेस की पहली चुनी हुई सरकार द्वारा राज्य के औद्योगिक विकास तथा स्थानीय युवाओं को रोजगार उपलब्ध करवाने हेतु राज्य में स्थापति 6 सिडकुल पर भी पूरी तरह से लागू होती है l 
 
 आज अगर सिडकुल की हालत पर नजर डाली जाय तो स्थिति बड़ी ही विचित्र लगती है, राज्य के मुख्यमंत्री अपनी कार्यशैली तथा अपने कोर्पोरेट प्रेम के कारण विपक्ष के निशाने पर बार-बार आते रहें हैं, हद तो तब हो जाती जब वे राज्य के सिडकुल के भूमि को कॉर्पोरेट को लगभग दान में ही दे देते हैं, उसके पीछे उनका तर्क भले ही कुछ हो लेकिन इस सभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस सारे खेल के पीछे राकेश शर्मा के नेतृत्व वाले राज्य के अवस्थापना एवं औद्योगिक विकास विभाग के अधिकारियों का कोई बड़ा खेल जरुर चल रहा है l
 
 राज्य के विभिन्न सिडकुल में औद्योगिक इकाईयों को वहाँ प्लॉट इस प्रतिबन्ध के साथ आवंटित किये गए थे कि वे आवंटन होने की तिथी से दो वर्ष के भीतर निर्माण कार्य पूरा कर उद्पादन शुरू कर देंगे तथा अपने संस्थान में 70%  प्रतिशत रोजगार स्थानीय युवाओं को, पहली शर्त को काफी इकाईयों ने पूरा कर दिया और उत्पादन शुरू कर दिया लेकिन दुसरी शर्त का पालन आज 10  वर्ष बीत जाने तक पालन नहीं किया गया, राज्य के अधितर सिडकुल में काम करने वाले कामगार ठेके पर रखे गए हैं और उनमें से भी अधिकतर ध्याड़ी मजदूर पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के है, सिडकुल में व्याप्त इस ठेका प्रथा को रोकने के लिए ना राजनेताओं ने कोई राजनैतिक इच्छा शक्ति जताई और ना प्रशासनिक अधिकारियों ने 70%  प्रतिशत रोजगार स्थानीय युवाओं को रोजगार दिए जाने के प्रतिबन्ध को कडाई से लागू किये जाने की कोई पहल ही की, इस कार्य के जिम्मेदार अधिकारियों ने अगर किसी बात का ध्यान रखा तो वह की सिडकुल से कैसे अधिक से अधिक माल बनाया जाए, और यही कारण है कि सरकार कोई भी हो लेकिन आईएएस राकेश शर्मा एक लंबे समय से राज्य के इस प्रमुख विभाग पर कुंडली जमाये बैठे रहें l
 
 औद्योगिक विकास विभाग के प्रमुख सचिव राकेश शर्मा की योग्यता का अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि जब  हम इस बात पर नजर डालते है कि सितारगंज सिडकुल में औद्योगिक इकाईयों को उद्योग लगाने हेतु 320 प्लॉट आवंटित किये गए, प्लॉट आवंटन होने के दस वर्ष बीत जाने के बाद आजतक  198 प्लॉट्स पर कोई निर्माण कार्य नहीं हुआ और  212 प्लॉट पर उत्पादन जैसा कुछ नहीं हो रहा हैं, यह स्थिति तब और ज्यादा शर्मनाक है जब सितारगंज स्वयं राज्य के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का विधानसभा क्षेत्र है, और वे अपने ही विधानसभा क्षेत्र में स्थित फेस-एक के सिडकुल की जमीनी हकीकत से अनभिज्ञ हैं , और तुरत फुरत में बिना अध्ययन किये राकेश शर्मा को हेलिकॉप्टर से भेजकर सितारगंज में सिडकुल फेज-टू के लिए अतिरिक्त जमीन खोजने के अभियान पर लगा देते हैं, क्या वाकई ये जमीनें सिडकुल के लिये ही खोजी जा रही हैं ? इससे शर्मानाक कोई और बात हो ही नहीं सकती जिस विधायक को अपने विधनसभा क्षेत्र की ठीक-ठीक जानकारी ना हो उसे मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर किस मजबूरी के चलते ढ़ोया जाता है, अगर मुख्यमंत्री को इस बात के लिए अँधेरे में रखा जाता है तो दोषी विभाग के प्रमुख सचिव को किस वजह से ढ़ोया जाता हैं, राज्य के संसाधनों से इस प्रकार का खिलवाड करने वाले व्यक्ति को क्या जेल की सलाखों के पीछे नहीं होना चाहिए ? कोमोबेश यही स्थित केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत के लोकसभा क्षेत्र में स्थित सिडकुल की भी है, जहां के कूल 686  प्लॉट्स में से 106 में उत्पादन जैसी कोई गतिविधी नहीं हो रही हैं, यही हाल पन्तनगर का भी है जहाँ कूल 511 प्लॉट्स में से 38 प्लॉट्स में उत्पादन जैसा कुछ नहीं है l
 
 पिछले सात  से  आठ सालों के बीच आवंटित किये गए औध्यिगिक प्लॉट्स पर आवंटियों द्वारा कोई निर्माण कार्य नहीं किया जाता, और मुख्यमंत्री सिडकुल फेस-टू शुरू करने को बड़े उतावले दिखाई देते हैं ! सिडकुल फेस-एक में जिन पुराने आवंटियों ने अभी तक अपना उत्पादन शुरू नहीं किया है उनके प्लॉट आवंटन को रद्दकर नए लोगो को आवंटित न किया जाना अपने आप में औद्योगिक विकास विभाग के प्रमुख सचिव राकेश शर्मा की कार्य शैली पर बहुत से सवालात खड़े करता है ? जिसका जवाब देर सबेर स्वयं मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को ही देना हैं, अगर इन सबके लिए प्रमुख सचिव राकेश शर्मा जिम्मेदार नहीं है तो कौन है ? अगर इन सबके लिए प्रमुख सचिव राकेश शर्मा जिम्मेदार है तो अब तक वे राज्य की रीढ़ कहे जाने वाले इस महत्वपूर्ण विभाग में कैसे जमें बैठे है ? उन्हें किस प्रतिफल के एवज में अब तक वे सब कार्य करने की छूट दी गयी है जिसे करने में वे राज्य के उच्च न्यायालय के आदेशों की परवाह भी नहीं करते, राज्य का विधी विभाग तो कोई हैसियत रखता ही नहीं ? प्रश्न यह भी अगर इनके लिए प्रमुख सचिव राकेश शर्मा जिम्मेदार नहीं है तो फिर कौन ? यह प्रश्न आने वाले समय में विजय बहुगुणा के गले की हड्डी भी बन सकता है !

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चन्द्रशेखर करगेती हाशिये पर उम्मीदें, ताक पर परंपराएं  ?
 
 बजट का दिन किसी भी प्रदेश के लिए और खासकर सरकार के लिए अहम होता है । पूरी व्यवस्था साल भर इस दिन का बेसब्री से इंतजार करती है । हर सरकार बजट के दिन को एक ऐतिहासिक दिन बनाना चाहती है ।
 
 बजट पेश करने वाले क्षण हर वित्त मंत्री के लिए यादगार पल होते हैं । लेकिन इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सरकार सौहार्दपूर्ण माहौल में बजट तक पेश नहीं कर पायी । जो हालात आज सदन में रहे, उन्हें मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री तो क्या शायद ही कोई अपनी यादों में संजोये रखना चाहे ।
 
 राज्य वित्तीय तंगी से जूझ रहा है, ऐसे में बजट पेश करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है । सवाल सत्ता पक्ष व विपक्ष का नहीं, असल सवाल प्रदेश के हित का है । सदन में आज ये सवाल हाशिये पर नजर आया । कल सदन में न परंपराओं की कोई कद्र रही, न ही मर्यादाओं व मान्यताओं की  । सबकुछ फौरीतौर पर रस्मी ही नजर आता रहा । सरकार ने मनेजमेंट के मोर्चे पर कामयाब रही, न ही बजट कौशल दिखाने में सफल । कमोवेश यही स्थिति विपक्ष की भी रही है ।
 
 (साभार : दैनिक जनवाणी) — with O.p. Pandey and 15 others.हाशिये पर उम्मीदें, ताक पर परंपराएं  ? बजट का दिन किसी भी प्रदेश के लिए और खासकर सरकार के लिए अहम होता है । पूरी व्यवस्था साल भर इस दिन का बेसब्री से इंतजार करती है । हर सरकार बजट के दिन को एक ऐतिहासिक दिन बनाना चाहती है । बजट पेश करने वाले क्षण हर वित्त मंत्री के लिए यादगार पल होते हैं । लेकिन इसे उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सरकार सौहार्दपूर्ण माहौल में बजट तक पेश नहीं कर पायी । जो हालात आज सदन में रहे, उन्हें मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री तो क्या शायद ही कोई अपनी यादों में संजोये रखना चाहे । राज्य वित्तीय तंगी से जूझ रहा है, ऐसे में बजट पेश करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है । सवाल सत्ता पक्ष व विपक्ष का नहीं, असल सवाल प्रदेश के हित का है । सदन में आज ये सवाल हाशिये पर नजर आया । कल सदन में न परंपराओं की कोई कद्र रही, न ही मर्यादाओं व मान्यताओं की  । सबकुछ फौरीतौर पर रस्मी ही नजर आता रहा । सरकार ने मनेजमेंट के मोर्चे पर कामयाब रही, न ही बजट कौशल दिखाने में सफल । कमोवेश यही स्थिति विपक्ष की भी रही है । (साभार : दैनिक जनवाणी) height=320

 

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