Author Topic: Burninig Issues of Uttarakhand Hills- पहाड़ के विकास ज्वलन्तशील मुद्दे  (Read 18453 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From - Chandra Shekhar kargeti.
आखिर विकल्प क्या ?
 
 उत्तराखंड राज्य के बीते बारह साल लूट भरे रहे हैं । अनियंत्रित एवं अनियोजित विकास ने राज्य की नींव को कमजोर करने के साथ ही राज्य निर्माण की अवधारणा को ही गलत साबित किया हैं । राज्य में बीते बर्षो में कांग्रेस तथा भाजपा जनित विकास की परिभाषा में शायद ही कोई अंतर रहा हो ? छद्म विकास एवं संसाधनों की लूट के नाम पर उत्तराखंड वासियों की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को माननीयों और नौकरशाहों के सैर-सपाटे और ऐसो आराम पर लुटाया जा रहा है । राज्य के नौकरशाहों द्वारा बनाई गई आम जन विरोधी नीतियों को हमारे माननीय कैसे टाल सकते हैं, आखिर पूरा राज्य नौकरशाहों द्वारा ही तो चलाया जा रहा हैं । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हाल ही में देखने को मिला जब राज्य का एक वरिष्ठ आईएएस राकेश शर्मा इस राज्य के हुक्मरानों को उनकी पोल खोल देंने की सरेआम धमकी देता है ! हद तो तब हो जाती जब राज्य में पुलिस महकमें में आईजी स्तर के अधिकारी द्वारा खुले आम संरक्षित पेड़ कटवाए जाते है, जमीन की रजिस्ट्री में भी घालमेल पाया जाता    है ? जनता आखिर किस पर भरोषा करे ?
 
 गैर कांग्रेस-भाजपा राजनैतिक दलों के नेता आपस में सर फुट्टवल करते हैं, चुनाव से पहले वे गठबंधन करते लेकिन समय आने पर उसे भूल जाते है, इन राजनैतिक दलों के  इस छोटे से राज्य में उनके अपने मुद्दे हैं और उनकी अपनी सुविधा और खांचे के अनुसार परिभाषाएं है, लेकिन आम जनता के मुद्दे हासिये पर हैं l अब समय है की उत्तराखंड के हितैषियों को सोचना ही होगा, कि यह राज्य जा कहाँ जा रहा हैं ? दिल्ली दरबार की इन पार्टियों द्वारा इस राज्य को किस गर्त में धकेला जा रहा है ? यदि जनता की गाढ़ी कमाई माननीय यूँ ही गँवाते रहे तो इस राज्य को दिवालिया होने से कोई भी ताकत नहीं बचा सकती । राज्य की जनता के पास चुपचाप सिवाय लूटने के आखिर विकल्प क्या है ?
 
 जंगल हैं तो वन विभाग के अधीन, जमीन है तो राज्य सरकार की, जल बचा था उस पर भी बिजली कंपनियों का कब्जा हो गया है । नदियों, खान-खदानों पर माफियाओं का कब्जा है, कूल मिलाकर   भविष्य में उत्तराखंड की जनता के पास कुछ भी रहने वाला नहीं है । पढ़े लिखे नवयुवकों को देश के महानगरों में जाकर वहाँ के लालाओं की सेवा करनी है । जो अनपढ़ रह गए उन्हें होटलों में बर्तन उठाने और साफ करने हैं, स्वरोजगार के कोई हालात इस राज्य में नहीं बचे,  अब तो प्रवास पर गए लोगों से  बुढ़ापे में वापस घर लौटने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती !
 
 यदि उत्तराखंड के जंगल, जल तथा जमीन ऐसे ही बिकते लूटते रहें तो यहाँ घर बनाने को जमीन, पीने को पानी बचना तो दूर की बात है,राज्य के निवासियों को अपनी पैतृक भूमि से भी हाथ धोना पडेगा । मौक़ा परस्त भाजपा तथा कांग्रेस ने राज्य की नींव ही हिला दी है । अंनियंत्रित एवं अनियोजित विकास लोगों के लिए जानलेवा बना हुआ है । बिना भू-वैज्ञानिकों एवं सामाजिक अध्ययनों के विकास की योजना तैयार कर ली गई हैं । योजनाओं में करोड़ों खर्च भी हो गए हैं । हिमालयी क्षेत्र से सटे गाँवों की तबाही के लिए सुरंगें बनाई जा रही हैं । अवैध खनन, खड़िया खनन जोर शोर पर है । जिन पहाड़ों में जोर से बोलने पर पत्थर गिरते थे, वहाँ बुल्डोजर से खुदाई हो रही है । ब्लास्टिंग से पहाड़ थर्रा रहे हैं । ऐसे में उत्तराखंड का विकास के नाम पर विनाश ही तो हो रहा है ।
 
 कैसे रुकेगा ये सब, कैसे बचेंगे जीवदायी पहाड़, क्या कोई विकल्प है ?

Ajay Pandey

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 ;) मुख्यमंत्री कितना विकास हुआ उत्तराखंड का जनता को उसका ब्यौरा दो
आज मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा अपना गुणगान टेलीविज़न पर करते रहते हैं की हमने फ्लाईओवर बनाया पट्टेदारों को मालिकाना हtक़ दिया और जनता पर ख़ास ध्यान दिया और उत्तराखंड को सर्वश्रेष्ठ राज्य का पुरस्कार मिला है पर मुख्यमंत्री ने यह सब गढ़वाल में करवाया और मुख्यमंत्री ने जो पंद्रह सौ करोड़ लिए थे वह भी खा लिए वह रुपये अल्मोरा के कोसी बेराज की मरम्मत के लिए ले गए थे पर्यटन स्थलों का विकास करना था वह भी नहीं करवाया था रानीखेत के चौबटिया इलाके में जो सड़क बननी थी उसका ठेका हुआ नहीं ठेकेदार को उसके पैसे दिए गए नतीजा यह की काम उसका भी नहीं हुआ और लोगों को परेशानी हो रही है विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है और उत्तराखंड में कोई सुशाशन नहीं है बलात्कार और दहेज़ प्रताड़ना और हत्या आम बात है मुख्यमंत्री जी के शाशनकाल में अपराधों की संख्या ज्यादा बढती जा रही है और विकास के हिसाब से देखा जाए तो अभी भी उत्तराखंड का कुमाउन शेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है अब गैरसैण तो मिला है वह भी उत्तराखंड के लोगों की लम्बी लड़ाई के बाद लेकिन अभी रानीखेत का ट्रामा सेंटर सही से काम नहीं करता वहां पर चिकित्सक ही नहीं हैं जबकि वहां पर मशीन आ गयी है पर वहां अब तक चिकित्सक नियुक्त नहीं हुए और लोगों को इलाज के लिए शहर जाना पड़ता है आखिर मुख्यमंत्री कब रानीखेत में चिकित्सक बुलायेंगे या फिर वह रुपया भी खा जायेंगे मुख्यमंत्री को जनता को विकास का ब्यौरा देना चाहिए कितना पैसा खाया है क्यों अब तक रानीखेत के ट्रामा सेंटर में चिकित्सक नहीं बुलाये गए क्यों चौबटिया में सड़क नहीं बनी क्यों विद्यालयों में शिक्षक नियुक्त नहीं हुए क्यों अभी तक उत्तराखंड में अपराधिक दर कम नहीं हुई इन सवालों का मुख्यमंत्री के पास कोई जवाब है अगर जवाब है तो पत्रकारों को इन सवालों के जवाब जारी करें और जनता को इससे पता चलेगा की कितना विकास हुआ कितना पैसा खाया जो सवाल पूछे गए हैं इन सवालों का उत्तराखंड की जनता को जवाब चाहिए क्या मुख्यमंत्री जी को जनता के मत की कीमत समझ नहीं आती या जानबूझकर कुमाउन शेत्र का विकास नहीं कर रहे हैं अभी कुमाउन में भवाली शेत्र को चौड़ी सड़क की जरुरत है जिससे यात्री जाम से बच सके मुख्यमंत्री जी को एक टोल नाका भवाली और रानीखेत में टोल के लिए बनाना चाहिए ताकि गाडी का समय भी जाया न हो और गाडी समय पर अपने डिपो आ सके रानीखेत में टोल के लिए रोकने में ही गाडी को समय लगता है तो मुख्यमंत्री जी इस और भी ध्यान दें और जल के श्रोतों को बचाएँ आज उत्तराखंड में प्राकृतिक जल श्रोत सुख रहे हैं उनको बचाने के लिए भी मुख्यमंत्री कदम उठाएं कुमाउन शेत्र अभी बहुत पीछे है विकास की दृष्टि से तो मुख्यमंत्री को कुमाउन की तरफ भी देखना चाहिए चित्रेश्वर गाँव में कांग्रेस के एक विधायक मदन सिंह बिष्ट जी ने एक अस्पताल बनाने को कहा था पर योजना अधर में है और अस्पताल नहीं बना मुख्यमंत्री को इस मुद्दे की तरफ ध्यान देना चाहिए और विकास पूरा करने के बाद ही मुख्यमंत्री को अपना गुणगान करना चाहिए पहले मुख्यमंत्री जनता के मतों का मोल समझे और तभी गुणगान करें कितना विकास किया कितना धन का दुरुपयोग हुआ है उसका ब्यौरा देकर जनता के एक एक पैसे का हिसाब दें जनता के वोट की कीमत समझकर कुमाउन का विकास करें तब टेलीविज़न पर अपनी सरकार की उपलब्धियों का जिक्र करें उत्तराखंड में अपराध की दर कम करें तब सुशाशन माना जाएगा विकास करने के बाद ही अपनी सरकार की उपलब्धियां दिखाएं येही जनता के मत और उसके मत की कीमत का हिसाब होगा वह हिसाब विकास ही है अतः वह जनता को सौपा जाए
धन्यवाद

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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विकास को छटपटा रहे हैं गांव.....

शैलनट की नंधौर नदी घाटी अध्ययन यात्रा शुरू

सांस्कृतिक संस्था शैलनट की नंधौर नदी घाटी अध्ययन यात्रा मंगलवार को ओखलकांडा ब्लाक के ग्राम पतलोट से शुरू हुई। यात्रा दल में कुल 11 सदस्य शामिल हैं, इनमें दो महिलाएं हैं । पहले दिन दल 25 किमी. का सफर तय कर देर शाम हरीशताल पहुंचा । दल का मानना है कि राज्य गठन के बारह वर्षों बाद भी ओखलकांडा के दिन नहीं बहुरे हैं । दर्जनों गांव आज भी विकास की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सके हैं । और तो और पर्यटन को बढ़ावा देने का नारा देने वाली सरकारें प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर दो झीलों हरीशताल और लोहाखामताल को पर्यटन मानचित्र में शामिल नहीं कर सकी हैं ।

बता दें कि शैलनट संस्था दुर्गम गांवों की शैक्षिक, संस्कृति, पर्यावरणीय स्थिति, जल-जंगल-जमीन, महिलाओं की स्थिति, विकास जैसे ज्वलंत सवालों को लेकर यह अध्ययन यात्रा निकाल रही है ।

पतलोट गांव में आज मटेला के ग्राम प्रधान दीवानराम ने यात्रा को हरी झंडी दिखाई। दल की अगुवाई संस्था के अध्यक्ष देवकी नंदन भट्ट कर रहे हैं । अन्य सदस्यों में डा. दिनेश जोशी, डा. कृष्ण गोपाल श्रीवास्ताव, दिनेश कर्नाटक, रोहित मलकानी, इंजीनियर हेम पंत, सुनील पंत, ईश्वरीदत्त पांडे, भुवन चंद्र पनेरू, नमिता भट्ट और रेखा भट्ट शामिल हैं ।

यात्रा के संयोजक श्री डीएन भट्ट ने बताया कि पहले दिन ल्वाड़, चकडोवा आदि गांवों से होकर दल हरीशताल पहुंचा । इस दौरान सदस्यों ने गांवों में खड़ी होली और बैठकी होली में शिरकत की । क्षेत्र के विकास और समस्याओं को लेकर ग्रामीणों से बातचीत की गई। दल का कहना है कि पूरा क्षेत्र आज भी बुनियादी जरूरतों के लिए छटपटा रहा है । गांवों में फोन की सुविधा नहीं है। हरीशताल और लोहाखामताल यहां की दो प्रमुख झीलें हैं । पर्यटन विकास की तमाम संभावनाएं होने के बावजूद सरकार और जनप्रतिनिधियों की नजरें इस क्षेत्र की ओर इनायत नहीं हुई हैं ।
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By - Chandra Shekhar Kargeti.

इतिहास से कब सीखेंगे उत्तराखंडी ?
 
 बचपन ने एक कहानी पढ़ी थी l  जो आज भी मुझे उत्तराखण्ड के राजनैतिक परिप्रेक्ष में बड़ी प्रासंगिक लगती है l  पुराने समय की बात है, मुगल सेना भारत पर आक्रमण करने को तैयार थी, शाम का समय था, दोनो तरफ की  सेनाएँ अल-सुबह शुरू होने वाली लड़ाई के लिए मैदान में पड़ाव डाल चुकी थी, दोनों तरफ के गुप्तचर अपने-अपने काम यानि सेनाओं से सम्बंधित सूचनाओं, यथा सैनिको की संख्या, हथियारों के प्रकार, व्यूह रचना आदि-आदि की सूचनाओं की सुरागकसी में लगे हुए थे l
 
 राजा और सुल्तान भी ऊँचे स्थानों पर अड्डा जमाये अपनी और विरोधी सेना की हर एक पल की हरकत पर नजर रख रहे थे, सुल्तान जब रात को अगले दिन की रणनीति पर चर्चा के लिए अपने सिपहसलारों के साथ बैठा तो उसने अपने सिपहसलारों से यह जानने का प्रयास किया कि आखिर भारत के राजा और उसकी सेना की कमजोरी क्या है, जिसकी फ़ायदा उठा कर उसे युद्ध में हराया जा सके ? गुप्तचरों ने सुलतान को बताया कि राजा बहुत ही निर्भीक और बहादुर लड़ाका है, वह अकेला ही हजारों पर भारी है, उसकी बहादुरी और व्यूह रचना का कोई सानी नहीं है, उसकी सेना में सैनिकों गिनती में जरुर कम है पर वे जोरदार लड़ाका हैं, उसका एक-एक सैनिक सुल्तान के सौ सैनिकों के बराबर है l
 
 सुल्तान यह सब जानकर बैचेन हो उठा, अपने तम्बू से बाहर आकर फिर रात के अँधेरे में राजा के सैनिकों के पड़ाव को और देखने लगा, उसे दिखाई देता है कि राजा की सेना के पड़ाव में कई-कई जगह आग की लपटों के इर्द गिर्द कुछ आदमी दिखाई देतें हैं, वह इस बारे में गुप्तचर से पूछता है, कि यह सब क्या है, गुप्तचर सुल्तान को बताता है कि ये सब अपने अपने लोगों के लिए खाना बना रहें l सुल्तान पूछता है कि ये अलग-अलग खाना क्यों बना रहें हैं ? गुप्तचर बताता है कि राजा की सेना में सैनिक अलग-अलग जगह से, अलग-अलग जाति धर्म और अलग-अलग विचार  के हैं, जो एक दूसरे के हाथ लगा भोजन-पानी गृहण नहीं करते हैं l गुप्तचर का इतना कहना था कि सुल्तान के चेहरे पर विजयी मुस्कान फ़ैल गयी, और वह कहने लगा कि अब मेरी जीत बगैर लड़े ही हो गयी है, कल मैंदान में हमारी सेना केवल दिखाने को लड़ेगी, हमारी जीत तो इनके अलग-अलग चूल्हों ने ही तय कर दी है l  इतिहास गवाह है, हुआ भी वैसा ही है, जब जब राजाओं की सेना के अलग अलग चूल्हे जले, हार हमेशा राजा की सेना की ही हुई, जो आज तक होती आ रही हैं l
 
 कोमोबेश राजा की सेना सी स्थिति आज हम आम उत्तराखंडियों की भी हैं, हम भले ही कांग्रेस-भाजपा जैसे संस्कृति का घोर विरोध-प्रतिरोध कर रहें हों,उनके कामों से त्रस्त हों, लेकिन यह विरोध प्रतिरोध हम अपने आस-पास में केवल दिखाने भर को करते हैं, हमने इस राज्य की बागडोर सुल्तान रूपी कांग्रेस-भाजपा को तो उसी दिन सौंप दी थी, जब राज्य निर्माण के पश्चात  एक विचार के होने के बावजूद पूंजीपति ताकतों के धूर विरोधी विचारों के रहें हमारे अग्रज आंदोलनकारियों ने अपने अहम और आपस के छोटे मोटे मतभेदों और आयातित उसूलों के कारण राज्य में अपने समर्थकों के साथ छोटे-छोटे अलग-अलग मंचों का निर्माण कर लिया था, उन्होंने अपने आपको एक सीमीत दायरे में समेट कर अपनी ताकत को लगभग खत्म सा कर दिया हैं, आपस में अछूतपन भी इतना पैदा कर लिया कि एक दूसरे से सहमति तो दूर एक मंच पर बैठने पर भी आपत्तियाँ करने लगे l
 
 उत्तराखंड के लोगो की दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में बनी सैकड़ों अलग-अलग सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के झंडाबरदारों ने भी इस कोढ़ में खाज का काम किया, इन संस्थाओं के कर्ताधर्ताओं ने कांग्रेस-भाजपा के तात्कालिक फायदों के लिए इन संस्थाओं के मंचों का उपयोग बखूबी किया, इन्होने इनके नेताओं को माला पहना कर अपने लोगो में इतना महिमा मंडित किया कि प्रवासियों को भी इनके अलावा और कोई नहीं सुझाता l  कांग्रेस-भाजपा तो जानती ही है कि जब तक उत्तराखंडियों के मंच रूपी इन अलग-अलग चूल्हों से धुँवा उठता रहेगा, सुल्तान की जीत की तरह इनकी भी हर चुनाव में निर्बाध जीत जारी रहेगी l किसी राज्य की सत्ता लपकने को और जो कुछ चाहिए होता है वह इन संस्थाओं के माध्यम से पूरा हो ही जाता है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
12 hours ago ·

    पटवारी को मत पकड़ो.....

    यह जानकर दुःख हुआ कि एक पटवारी साहब सौ रुपया घूस लेते हुए पकड़ लिए गए. आश्चर्य इस लिए हुआ कि देश में ऐसे पटवारी हैं जो घूस लेकर पकड़ में आ जाते हैं. यार पटवारी, सच कहें, तुमने तो पूरे पटवारी समाज की नाक काट कर रख दी. हमारे इधर से पटवारी पाँच सौ रुपया ले लेते हैं और पकड़ाई में भी नहीं आते. एक तुम हो कि सौ रुपट्टी में ही पकड़े गए. हम पूछते हैं, कहाँ ट्रेनिंग ली थी यार तुमने? किसने बना दिया तुमको पटवारी? यार तुम पकड़ में क्या आ गए, तुमने पूरे राष्ट्र को घूसखोर सिद्ध कर दिया. हमारा देश ईमानदार कर्मचारियों का देश है. तुम जैसे लोग ही देश पर घूसखोरी और भ्रष्टाचार का कलंक लगा रहे हैं. थू है तुम्हारी पटवारी गिरी पर. डूब मरो चुल्लू भर पानी में. धिक्कार है तुम्हें कि इस देश में रहकर भी तुमको घूस लेने का तरीका नहीं आया. तुम तो विदेश चले जाओ यार, तुम इस देश में रहने के काबिल नहीं हो. अरे भइया, तुमको घूस लेना नहीं आता तो रेवेन्यू इन्सपेक्टर से पूछ लेते, किसी तहसीलदार से पूछ लेते. हम कहते हैं तुम कब सीखोगे? राजस्व विभाग में इतने वरिष्ठ अधिकारी लोग हैं, उनके अनुभवों का लाभ कब उठाओगे? किसने कहा था तुमको कि सौ रुपये का नोट लो? एक बोरा चावल ले लेते. फिर कैसे पकड़ में आते? नोट पर तो नम्बर होता है, चावल पर थोड़े होता है नम्बर. पुलिस वाले पूछते तो कह देते ससुराल वालों ने भेजा है. यार पटवारी भी तुम कच्चे हो.

    सुनो हो पटवारी, तुम घूस लेते हुए पकड़ में क्या आ गए, हम इधर तकलीफ में पड़ गए. अपने हल्का पटवारी से नकल लेने जाते हैं तो पटवारी कहता है, मेरे पास खसरा फार्म नहीं है.

    हम बाजार से फार्म ला देते हैं तो वह कहता है, ट्रेसिंग पेपर नहीं है. वो भी ला देते हैं तो कहता है, बी-वन का फार्म नहीं है. वो भी ला देते हैं तो कहता है – हमको फुरसत नहीं है.

    हम कहते हैं – पटवारी साहब, लगे तो दस-बीस रुपया ले लो लेकिन हमको खसरा बी-वन की नकल दे दो. वह कहता है देखो, आज से हम ईमानदार हो गए हैं. हमारा एक भाई पकड़ में आ गया है. उसके बाल-बच्चे भूखे मर रहे हैं. उसे पकड़कर शासन ने पूरे पटवारी समाज का अपमान किया है. इसलिए आज से हम कोई घूस नहीं लेंगे और जब हमको फुरसत होगी तभी आप लोगों का काम करेंगे.

    हमने कहा – तो यही बता दीजिए कि आपको कब फुरसत मिलेगी.

    पटवारी साहब ने हमको ऊपर से नीचे तक देखा और बोले- ये नहीं बता सकते. पटवारी को कब फुरसत मिलेगी यह कैसे बताएँ तुमको.

    हमने कहा- फिर भी... साल... दो साल.. पाँच साल... कभी तो मिलेगी फुरसत.

    वह बोले- फुरसत का क्या है. कहो तो अभी मिल सकती है फुरसत और नहीं तो दस साल तक भी नहीं मिल सकती. हम सरकारी काम पहले देखेंगे कि तुम्हारी नकल बनाते रहेंगे. कल के दिन तहसीलदार सिर पर चढ़ेगा तो तुम आओगे हमको बचाने?

    - फिर क्या करें? देखो पटवारी साहब, हमको तो बैंक से कर्ज लेना है. आप जब हमारे खाते की नकल देंगे तभी हमको बैंक से कर्जा मिलेगा.

    - तो हम क्या करें, बोलो?
    - आप तो कुछ मत करो, बस हमसे बीस रूपया ले लो और फुरसत निकाल लो तो हमारा कल्याण हो जाएगा. बैंक से कर्जा मिलेगा तो हम उसी रकम में से गुड्डी की शादी निपटा देंगे.

    पटवारी हँसता है. उसके चेहरे पर मुस्कान है. कहता है- देखोजी, हम तो तुमको बता देते हैं कि हम नियम से काम करेंगे... तुमसे एक पैसा नहीं लेंगे. और तुम तो जानते हो कि हम नियम से काम करेंगे तो कम से कम इस जन्म में तो तुमको नकल मिल ही नहीं सकती. तुमने हमारे पटवारी भाई को सौ रुपया देकर पकड़वा दिया है तो इसका बदला तो हम नियम से काम करके ही लेंगे. इसलिए अब तुम जाओ. जब नकल बन जाएगी तो हम तुमको बुलवा लेंगे – ईश्वर की कृपा से तुम जिन्दा रहे तो आ जाना नहीं अपने बाल-बच्चों को समझा के जाना कि वे आकर नकल ले जाएँ.

    तो भइया, हम तो नकल का आवेदन दे आए और घर आकर मन्नत माँगी की हमको नकल मिल जाएगी तो हम पाँच फकीरों को खाना खिला देंगे. लेकिन आपको भी आश्चर्य होगा कि आज पाँच साल हो गए. इस बीच हमारे दो बच्चे भी पैदा हो गए लेकिन पटवारी साहब ने खसरा पाँच साला और बी-वन की नकल हमको बनाकर ही नहीं दी. जब जाते हैं उनको फुरसत ही नहीं मिलती. पहले फुरसत का रेट बीस रुपया था लेकिन जव से सरकार ने इस पटवारी को सौ रुपया लेते पकड़ा है तब से यह रेट बदल गया है. किसको बताएँ कि हमको यह असुविधा हो रही है. गम तो उस अफसर से भी पूछते हैं कि तुमने तो उस पटवारी को पकड़ लिया लेकिन अब ये तो बताओ कि हम क्या करें? पहले तो बीस रुपया देते थे तो पटवारी को फुरसत मिल जाती थी लेकिन अब तो सौ रूपया भी देते हैं तो वह कहता है, हमको फुरसत नहीं – हम नाजायज कब्जे वालों का काम कर रहे हैं.

    सरकार से हमारा निवेदन है पटवारियों को मत पकड़ो. ये इस देश के कर्णधार हैं, व्यवस्था के भू-स्वामी हैं. इनको पकड़ोगे तो हम भू-स्वामी होकर भी अनाथ हो जाएंगे.

    (लेखक : लतीफ़ घोंघी)

    लतीफ़ घोंघी को हिन्दी व्यंग्य क्षेत्र के पाँच पांडवों हरिशंकर परसाईं, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और रवीन्द्र नाथ त्यागी समेत, गिना जाता है. इनकी व्यंग्य रचनाएँ ऐसी हैं कि पाठक पढ़ता जाता है तो उसे चोट भी लगते रहती है, और वह मुसकराता भी रहता है.


विनोद सिंह गढ़िया

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बिजली परियोजनाओं पर सवाल
« Reply #56 on: July 18, 2013, 12:20:10 PM »
[justify]बिजली परियोजनाओं पर सवाल

उत्तराखंड की इस सबसे बड़ी आपदा ने कितनी तरह से पहाड़ों की प्रकृति और समाज को ध्वस्त किया, धीरे-धीरे इसका विस्तार सामने आने लगा है। इसके केंद्र में असमय अति वर्षा, भूस्खलनों का त्वरित और नदियों का आक्रामक होना था। प्रकृति के इस गुस्से ने मनुष्य, जानवर, मकान, पुल, सड़कें, पेयजल, सिंचाईं योजनाओं, वाहन, खेती, बागवानी, पर्यटन-तीर्थाटन और विभिन्न प्रकार के स्वरोजगारों को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया। विकराल प्रकृति ने राज्य तथा बहुत अधिक नफे के सिद्धांत से लैस जल विद्युत व्यापारियों द्वारा संयुक्त रूप से विकसित ‘हाइड्रो आतंक’ को जैसे चूर-चूर कर दिया। विभिन्न नदियों ने चुन-चुनकर जल विद्युत परियोजनाओं को ध्वस्त कर दिया है। जिस नदी में जितनी अधिक घुसपैठ हुई, वहां उतना ही अधिक ध्वंस हुआ है। रुद्रप्रयाग जिले में मंदाकिनी की सहायक नदियों में निर्मित हो रही कालगंगा प्रथम, द्वितीय और मदगंगा परियोजनाएं बाढ़ द्वारा नेस्तनाबूद कर दी गई हैं। इन नदियों ने इतना विकराल रूप लिया कि जहां विविध भवन,पावर हाउस, सिल्ट टैंक, सुरंग और कॉलोनी या उपकरणों के गोदाम थे, वहां मलबा और बड़े बोल्डर आ जमे हैं।
मंदाकिनी नदी पर फाटा-ब्योंग तथा सिंगोली-भटवाड़ी परियोजनाओं को काफी क्षति पहुंची है और इन दोनों की सुरंगें भी ध्वस्त हुई हैं। इन दोनों परियोजनाओं के निर्माताओं/ठेकेदारों द्वारा नदी किनारे छोड़े गए मलबे-मिट्टी ने मंदाकिनी को अधिक विकराल बनाने में मदद की। यही नहीं इन परियोजनाओं की बड़ी-बड़ी मशीनों ने बहते हुए अनेक पुलों को ध्वस्त किया। श्रीनगर में लगभग पचहत्तर घर, एसएसबी परिसर, आईटीआई परिसर, सिल्क फार्म, गोदाम के अलावा बाजार भी इस मलबे में डूबे हैं। कहा जा रहा है कि इस मलबे की मात्रा 1894 और 1970 की बाढ़ से भी अधिक है।
निचली मंदाकिनी घाटी के विनाश के लिए केदारनाथ से विकसित आपदा को कारण बताया गया है, पर उस इलाके के कार्यकर्ताओं के मुताबिक, केदारनाथ में प्रलय तो 16 जून की रात और 17 जून की सुबह आया था, जबकि निचली मंदाकिनी घाटी उससे पहले ही तबाह हो चुकी थी। उत्तरकाशी में भागीरथी की सहायक असी गंगा में बन रही चारों परियोजनाएं तबाह हुई हैं।
केंद्रीय जल आयोग तथा उत्तराखंड जल विद्युत निगम के उस वक्तव्य को राज्य के मुख्यमंत्री ने बिना जांचे दोहरा दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि बांध नहीं होते, तो उत्तराखंड और बुरी तरह तबाह हो गया होता। दरअसत स्थिति इसके बिलकुल विपरीत थी। टिहरी बांध में सिर्फ भागीरथी और भिलंगना का पानी इकट्ठा होता है, जबकि अन्यत्र बांध नहीं थे, बल्कि एक-दो किलोमीटर लंबे डायवर्जन जलाशय थे। जैसा कि हिमांशु ठक्कर ने लिखा है कि भागीरथी में सर्वाधिक पानी 16 जून को था, जबकि अलकनंदा में 17 जून को। अतः दोनों घाटियों में अधिकतम जल प्रलय अलग-अलग दिन हुए थे। अर्थात टिहरी बांध नहीं होता, तो निचली घाटी में एक दिन पहले ही पानी बढ़ता, पर वह अधिकतम होता, यह जरूरी नहीं है।
परेशानी तब होती, जब बरसात के अंत में इस तरह की स्थिति आती। 16 तथा 17 जून का जल स्तर केंद्रीय जल आयोग या केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की वेबसाइटों में नहीं दिखाया गया। इस जानकारी को जनता से छिपाना भी शक पैदा करता है। यह तथ्य बहुतों को याद होगा कि 2010 में टिहरी बांध बाढ़ के प्रभाव को नियंत्रित नहीं कर सका था। टिहरी झील के जरूरत से ज्यादा भर जाने के इस परिणाम की तरफ अभी नजर नहीं जाएगी कि कैसे इससे किनारे के गांवों में 2010 में भूस्खलन बहुत अधिक बढ़ गए थे, जिनकी आशंका टिहरी बांध के दस्तावेजों में भी नहीं की गई थी।
संयोग से जिस दिन (15 जून) वर्षा बढ़ने लगी थी, उसी दिन केंद्रीय मंत्रियों के अंतर मंत्रालय समूह ने, जिन्हें गंगा के ऊपरी जलागम में जल विद्युत परियोजनाओं पर अपनी राय देनी थी, अधिकांश बांधों का समर्थन किया। जबकि भारतीय वन्य जीव संस्थान ने अपनी रपट में 70 परियोजनाओं में से 24 को बंद करने की सिफारिश की है, क्योंकि इससे पर्यावरण पर अत्यंत विपरीत प्रभाव पड़ेगा। पर मुख्यमंत्री की तरह केंद्रीय मंत्री भी उत्तराखंड को अतिरिक्त बिजली पैदा करने वाला राज्य बनाना चाहते हैं। केंद्र सरकार ने ही पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील इलाकों का चयन किया है और अब उन्हीं क्षेत्रों में जल विद्युत परियोजनाओं की सिफारिश भी की जा रही है।
आज पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। यदि गोमुख से उत्तरकाशी तक के क्षेत्र को अति संवेदनशील घोषित किया जा सकता है, तो वैसे ही भूगर्भ-भूगोल वाले टौंस, यमुना, भिलंगना, अलकनंदा (मंदाकिनी, विष्णुगंगा, धौली पश्चिमी, मंदाकिनी, पिंडर), सरयू, रामगंगा पूर्वी, गोरी तथा धौली पूर्वी के जलागमों को क्यों नहीं? इस हेतु इस क्षेत्र के लोगों से संवाद क्यों नहीं हो सकता?
अमेरिका के ‘वाइल्ड ऐंड सिनिक रीवर ऐक्ट’ की तरह या उससे भी बेहतर कानून हमारे देश में भी लागू होना चाहिए, जो नदियों के हक को परिभाषित करे। इससे गंगा प्राधिकरण का काम भी सही ढंग से आगे बढ़ेगा। गंगा को भी परिभाषित करने की जरूरत है। यह सिर्फ भागीरथी या अलकनंदा नहीं है, बल्कि हिमालय के संदर्भ में यह उत्तराखंड और नेपाल की नदियों का समग्र है।
यह आपदा शायद हमें चेतावनी देने आई है कि सीखो और विकास तथा पर्यावरण संतुलन का उचित रास्ता चुनो, और शायद चुनौती देने भी, कि प्रकृति की क्षमता और शक्ति को कमतर न आंको। यह मौका हम सबके लिए विकल्पों पर चर्चा करने, अपने उपभोग में कमी करने और बर्बादी को रोकने का भी है।

लेख : श्री शेखर पाठक
साभार : अमर उजाला
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विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]बांधों की कतार, जंगलों की अनदेखी और नदियों के गला घोंटने को हिमालय बर्दाश्त नहीं करेगा।

उत्तराखंड की त्रासदी के जरिये इस बार हिमालय ने साफ कर दिया है कि एक सीमा से अधिक छेड़छाड़ उसे स्वीकार नहीं। सरकारी पक्ष इसे स्वीकारने को तैयार नहीं कि यह आपदा मानवजनित है। पर सच यह है कि हम जितनी जल्दी यह सच स्वीकार कर लेंगे, उतनी ही जल्दी भविष्य की घटनाओं के प्रति तैयार भी हो लेंगे और त्रासदी की पुनरावृत्ति पर अंकुश लगा पाएंगे। छोटे-छोटे टुकड़ों में हिमालय और प्रकृति ने अपना रौद्र रूप पहले भी जाहिर किया था। मगर उनकी अनदेखी कर हम अपनी मनमानी पर ही उतारू रहे। नतीजा रहा, हजारों की संख्या में मौतें, सैकड़ों गांव बेघर और भयानक उथल-पुथल।
दरअसल हम हिमालय को समझने में चूक कर रहे हैं। इसे मात्र मिट्टी, जंगल, नदी और बर्फ के ढेर से ज्यादा कुछ समझा नहीं गया। नदियों से बांध व बिजली, वनों से काष्ठ उद्योग और पहाड़ों से खनन तक की ही समझ हमने हिमालय के प्रति बना रखी है। हिमालय के संसाधनों के लगातार दोहन ने उसके धैर्य को ही ललकार दिया, जिसका नतीजा सामने है। हिमालय तो अभी बनने की ही स्थिति में है। इसका निर्माण पूरा भी नहीं हुआ और हमने इस पर अपनी हुकूमत शुरू कर दी। हिमालय विश्व का एक अनोखा पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसके संवेदनशील तार एक-दूसरे से इस तरह गुंथे हुए हैं कि एक से छेड़छाड़ का असर दूसरे पर भी पड़ता है। मसलन, वनविहीन होती हिमालय शृंखलाएं मिट्टी-चट्टानों को छोड़ देती हैं और नदी की क्षमता व बहाव में परिवर्तन हो जाता है। इसी त्रासदी को लें, तो बादल फटने की घटना या अतिवृष्टि तब हुई, जब मानसून ने अपने कदम भी नहीं रखे थे। जब पृथ्वी लगातार गरम होती चली जाती है और वाष्पोत्सर्जित होकर धरती का पानी वाष्प बनकर वातावरण में पहुंच जाता है, तो उसे बरसने में ज्यादा समय इसलिए लगता है, क्योंकि दिन और रात के तापक्रम में ज्यादा अंतर नहीं होता। गर्मी से लगातार होता वाष्पोत्सर्जन और उसका बराबर न बरसना ही बादल फटने जैसी घटनाओं को जन्म देता है। दरअसल पहाड़ों में अत्यधिक हलचलों से भी स्थानीय तापक्रम बढ़ा, जिसने बनते बादलों को बरसने से रोका। इस बढ़ते तापक्रम का दोषी कौन है? वस्तुतः मानवीय अतिक्रमणों ने ही धरती के तापक्रम में वृद्धि को जन्म दिया। यह मान लेना चाहिए कि किसी भी तरह के विकास की कीमत प्रकृति को ही चुकानी पड़ती है। हमने आर्थिक विकास के आगे पर्यावरण को सिरे से नकार दिया।

उत्तराखंड की यह त्रासदी कई प्रश्नों के जवाब अवश्य ढूंढेगी। पहला बड़ा सवाल यह कि वर्तमान विकास का हमारा मॉडल कितना सामयिक है, खास तौर से तब, जब इसमें पारिस्थितिकी और पर्यावरण की कोई जगह ही न हो। पिछले सौ वर्षों में हिमालय के बदलते हालात नए विकास मॉडल के सापेक्ष कितने बदले हैं? हिमालय को लेकर हमारी गंभीरता कितनी सार्थक है? और क्या हम लगातार ऐसे ही इन त्रासदियों को निमंत्रण देते रहेंगे?

अब यही प्रश्न हमारा भविष्य तय करेंगे। अगर अब भी हमने कुछ नहीं सीखा, तो इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति तय है। हमारे नीति-नियंताओं को भी इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि क्या सरकार के मुट्ठी भर लोग इस देश के अरबों लोगों पर अपनी वे नीतियां थोपेंगें, जो पूरे देश और समाज को भ्रमित विकास की ओर ले जाती हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन विपदाओं को गांव और गरीब ही झेलते हैं, क्योंकि वर्तमान मॉडल शहरों के हित में ज्यादा हैं और इनके दुष्परिणाम गांवों के ही हिस्से में आते हैं। जबकि पर्यावरण को बिगाड़ने में उनका हाथ प्रायः न के बराबर है। बड़ा दुर्भाग्य यह भी है कि विकास की रूपरेखा तैयार करने में गांवों के विचार व धारणाओं का कोई स्थान नहीं होता। अगर ऐसा होता, तो शायद जंगल, मिट्टी, पानी और हिमालय की पुख्ता सुरक्षा के इंतजाम रहते। अब एक बात समझ में तो आनी ही चाहिए कि हिमालय के प्रकोप से कोई नहीं बच पाएगा, चाहे वह हिमालय से सीधे जुड़ा हुआ न भी हो। हिमालय के साथ होती लगातार छेड़छाड़ हममें से किसी को नहीं बख्शने वाली। बांधों की कतार, जंगलों की अनदेखी और नदियों के गला घोंटने को अब हिमालय बर्दाश्त नहीं करेगा।


आलेख : श्री अनिल जोशी
साभार : अमर उजाला [/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]यूनिसेफ की रपट  -  कुमाऊंनी, गढ़वाली पर गंभीर संकट

'और डियर तू तो इंग्लैण्ड जाणी वाल छै बल'-इस जरा से वाक्य में सबसे जरूरी शब्द है-बल। यानी इस वाक्य को जो आदमी कह रहा है उसने किसी से सुना है कि सुनने वाला व्यक्ति निकट भविष्य में इंग्लैण्ड की यात्रा पर निकलने वाला है। बल लगाकर वक्ता ने एक साधारण से वाक्य को कई सारे और मायने भी दे डाले हैं इससे इस वाक्य में श्रोता से किसी सुनी हुई बात को कन्फर्म करवा लेने की उत्सुकता आ गयी है, और थोड़ा सा चुटीला रस मौज लेने और हल्के- फुल्के मखौल का। किसी भी कुमाऊँनी से बल का सही -सही अर्थ पूछकर देखिये वह नहीं बता सकेगा लेकिन आपको अपने तरीके से उसकी व्याख्या अवश्य सुना देगा। भाषा ऐसे ही काम करती है, खास तौर पर लोकभाषाएं और बोलियां।
परम्परा है कि पिछली पीढ़ियों को नई पीढ़ियों से हमेशा तमाम तरह की शिकायतें रहती आई हैं। इधर के समय में अपनी बोली भाषाओं को लेकर युवा पीढ़ियों में जिस तरह की बेपरवाही और ऑल इज वेल वाला नजरिया बना है, अभिव्यक्ति के ये शानदार माध्यम धीरे-धीरे अपने अंत को अग्रसर हैं। यह मैं नहीं कह रहा। कुछ साल पहले आई यूनीसेफ की वह रपट कह रही है जिसमें अस्तित्व के गम्भीरतम संकटों से जूझ रही भाषाओं की लिस्ट में कुमाऊँनी, गढ़वाली और जौनसारी भी शामिल की गई हैं।
आपको-अपने घर में अपनी मातृभाषा बोलने में शर्म आती है तो जाहिर है आप सार्वजनिक जीवन में तो उसका इस्तेमाल करने से रहे। आपको अपनी मातृभाषा की वजह से शर्म आती है तो जाहिर है अपने बढ़े - बूढ़े बुजुर्गों से आपका व्यवहार कैसा रहता होगा। पूछने की जरुरत तो नहीं ही है।

हमारी कुमाऊंनी की सबसे संपन्न सांस्कृतिक विरासत यदि कहीं बची हुई है तो हमारे लोकगीतों और अनुष्ठानों में। मिसाल के लिए चम्पावत के वीर बफौल भाइयों की गाथा आज भी धान रोपाई के समय हुड़किया बौल की सूरत में गाई जाती है, राजुला मालूशाही की अमर प्रेमकथा कितनी ही तरह से कितनी ही संगीत परम्पराओं का हिस्सा रही है। हमारे और हमारी परम्पराओं के बीच सब से बड़ा कोई पुल अगर है तो वह है हमारी मातृभाषा।

राजस्थान की बातपोशी और अवध की दास्तानगोई की तर्ज पर हमारे यहां भी गप्पें सुनाने या फसक मारने की परम्पराएं रही हैं जिनमें स्थानीय शब्दों का चमत्कारिक प्रयोग किये जाने की एक से एक दास्तानें बुजुर्गों से अभी भी सुनी जा सकती हैं। भात खा कर मारी गई फसक का आनंद क्या कोरी गप में है।

जरा शाम के होने पर एक छोटे से संवाद का अंश देखिए

किलै रे, यौ अधराति कां बटी ऊण लाग रै छै ?
न्यौत में जै रै छी कका हल्द्वाणि, धो-धो करने पूजूं.


इस तरह धो-धो कर के सिर्फ कुमाऊँनी भाषा में ही कहीं पहुंचा जा सकता है। और इतने कम शब्दों में अपनी बात को सबसे प्रभावी ढंग से आप अपनी बोली-भाषा में कह सकते हैं। जब आप या आपके बच्चे बेटर कम्युनिकेशन स्किल्स का महंगा कोर्स करने बड़ेे शहरों का रुख करते हैं तो आपने अपने आप से पूछना चाहिए कि अपनी विरासत और भाषा के अलावा ढंग की कोई और चीज आपके पास है भी या नहीं। और यह भी कि इन सबका कोई मतलब या मूल्य आपके लिए बचा है या नहीं। अगर इन सवालों का जवाब नहीं है तो गड्ढे में दफन कीजिये इन्हें। और बंद कीजिये परम्परा का यह रोना-पीटना।


साभार : अशोक पाण्डेय - अमर उजाला
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Bhishma Kukreti

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                            ग्रामीण उत्तराखंड आर्थिक विकास की मूलभूत कमजोरियां

                                                      भीष्म कुकरेती

     
(s =आधी अ  = अ , क , का , की ,  आदि )

              जख जावो तख छ्वीं लगदन बल पहाडुं मा विकास हूण चयेंद , गांउ विकास हूण चयेंद पण छ्वीं लगैक अर दौड़ भाग करिक  बि कुछ नि ह्वै।
                   सबसे खतरनाक तथ्य या च कि उत्तराखंड मा बदलाव आयि पण विकास नि ह्वे।  जन कि उदाहरण दिए जांद कि उत्तराखंड बणणो बाद देहरादूनम इथगा बदलाव ह्वे पण विकास  नि ह्वे।
पौड़ी या पहाड़ी इलाकौं का अन्य छुट छुट बजारों मा बदलाव भौत ह्वे,(जन कि सरकारि परमिट  से शराब की  दुकान खुलण  या दुकान्युंम अब रोज मटन उपलब्ध च)  पण विकास कतै नि ह्वे।
                      उपभोक्ता वस्तु खपत आर्थिक विकास कु  एक महत्वपूर्ण चिन्ह च। ग्रामीण क्षेत्र मा दुकान बि बढ़िन अर उपभोक्ता वस्तुं खपत मा कई गुणा वृद्धि भि  ह्वे पण सोचनीय स्थिति या च कि उपभोक्ता वस्तुउं  खपत ग्रामीण आय /इनकम वृद्धि का कारण नि बढ़ बलकणम कै हैंक भौगोलिक  क्षेत्र मा इनकम बढ़ त ग्रामीण उत्तराखंड (पहाडुं ) मा उपभोक्ता वस्तुं खपत बढ़।
                    ग्रामीण उत्तराखंड याने पहाडुं मा बदलाव अवश्य आइ पण रोजगार की हालत नि सुधर।
            ग्रामीण उत्तराखंड याने पहाडुं मा शिक्षा मा बढ़ोतरी अवश्य ह्वे पण दुखद आश्चर्य च कि शिक्षित युवा की ग्रामीण आर्थिक विकास मा क्वी बि भागीदारी नई च किलैकि पढ्यु -लिख्युं युवा आज बि पलायन करणु च।  जै क्षेत्र मा युवा विकास मा भागीदारी नि निभाल उख आर्थिक विकास कनकै ह्वे सकुद ?
                      ग्रामीण उत्तराखंड मा पाणि -बिजली की उपलब्ध स्थिति मा भारी वृद्धि ह्वे पण  रुण या च, दुःख या च , चिंता या च कि उत्पादनशीलता मा उथगा ही  गिरावट आयी।
             ग्रामीण पहाड़ों मा कृषि मा भारी गिरावट आयी। कृषि कार्य मा उपलब्ध मानव शक्ति खाली ह्वे गे। यांक भरपाई वास्ता कृषि कार्यकर्ताओं तैं मनरेगा आदि से रोजगार उपलब्ध बि ह्वेन पण कृषि कार्य खतम हूण से ज्वा जनानी शक्ति खाली ह्वे छे  वीं जनानी शक्ति वास्ता इन कार्यों का उत्पादक क्षेत्र नि मील कि स्त्री शक्ति उत्पादकता बढ़ावो।  आस्चर्य या च कि सरकारी प्रयत्न "स्त्री रोजगार व वै से उत्पादनशीलता वृद्धि " का बारा मा बौहड़ पड्यु च।
                        ग्रामीण उत्तराखंड की  विशेष भौगौलिक , सामजिक स्थिति छन अर जब कृषि विकासौ तैं वैकल्पिक विचारधारा चयाणि च तो भी उत्तराखंड नेतृत्व पारम्परिक विचारधारा या विकास मॉडल से ग्रामीण उत्तराखंड विकास चाणु च तो ग्रामीण उत्तराखंड विकास एक दिवा स्वप्न ही सिद्ध होलु।
                     सड़क परिवहन विकास का सुचना चिन्ह च।  पहाडुं मा मोटर सड़क ऐन पण यूं मोटर सड़कुंन उत्पादन नि बढ़ाई ,  यूं मोटर सड़कुंन निर्यात नि बढ़ाई बलकण मा   यूं मोटर सड़कुंन आयात बढ़ाणम ही योगदान दे। 
                    पहाडुं मा सड़क बणिन पण वा से उत्तराखंड मा रोजगार की समस्या जख्या -तखी रै किलैकि रोड बिल्डिंग मा मजदूर भैर प्रदेस का छन।
                        पर्यटन उद्यम विकास से स्थानीय कृषि उत्पाद ,फल -फूल उत्पाद , वैन उत्पाद , दुग्ध उत्पाद , कुटीर उद्यम , शिल्प उद्यम, सासंकृतिक उद्यम बढ़द।  सबसे आश्चर्य या च कि उत्तराखंड मा पर्यटन उद्यम मा अवश्य विकास ह्वे पण उत्तराखंड  पर्यटन से कृषि उत्पाद ,फल -फूल उत्पाद , वैन उत्पाद , दुग्ध उत्पाद , कुटीर उद्यम , शिल्प उद्यम, सासंकृतिक उद्यम नि बढ़।  जब पर्यटन से ग्रामीण उत्तराखंड मा कृषि उत्पाद ,फल -फूल उत्पाद , वैन उत्पाद , दुग्ध उत्पाद , कुटीर उद्यम , शिल्प उद्यम, सासंकृतिक उद्यम नि बढ़ तो साफ़ अर्थ च कि उत्तराखंड पर्यटन उद्योग ग्रामीण विकासउन्मोगामी कतई नी  च।
                    टिहरी डाम  बौण पण दिखे जावो तो टिहरी डाम से उत्तराखंड की सिंचाई अर बिजली समस्या हल कतै  नि ह्वे।
          उत्तराखंड मा इंडस्ट्रियल ग्रोथ की बड़ी बड़ी डींग हांके जांदन पण कै बि इंडस्ट्रियल सेक्टर का विकास या ग्रोथ से ग्रामीण उत्पादनशीलता मा रति भर बि वृद्धि नि ह्वे।  उलटां उत्तराखंड मा शहरीकरण मा भारी वृद्धि ह्वे।
                यि कुछ सवाल छन, मसला छन , विचार छन जो बताणा छन कि उत्तराखंड नेतृत्व  प्रशासन मशीनरी ग्रामीण उत्तराखंड विकास तै वो महत्व नि दींदन जांक हकदार ग्रामीण उत्तराखंड च। 


Copyright@ Bhishma Kukreti  25/11/2013

 

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