Author Topic: Burninig Issues of Uttarakhand Hills- पहाड़ के विकास ज्वलन्तशील मुद्दे  (Read 18388 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

In this topic, we are sharing some important burning developmental, social & other issues of Uttarakhand. We hope people would read these article. We wish Govt must open eyes and work towards resolving this issues.

चन्द्रशेखर करगेती मानव जीवन बचाने के लिए हिमालय दिवस की पहल (दिनांक 9 सितम्बर)
 
 ”यूं तो पत्थर दिल है पहाड़,
 सब सह लेता है।
 प्रकृति का कोप,
 आदमी का स्वार्थ।
 लेकिन जब उसके
 रिसते नासूर पर,
 मरहम की जगह,
 भर दी जाती है बारूद,
 बेबस बिखर जाता है पहाड़
 टुकड़े-टुकड़े पत्थरों में।
 पहाड़ इसी तरह
 आदमी की मौत का
 सबब बनता है।
 आदमी सिर्फ नापता है
 उसकी संपदा, अपना हित,
 कभी भांपता नहीं है
 पहाड़ की पीड़ा।…”
 
 हिमालय की पहाडिय़ों पर वर्ष दर वर्ष बढ़ते जा रहे पारिस्थितिक व पर्यावरणीय संकट के संदर्भ में महेन्द्र यादव की यह कविता संपूर्ण हिमालय को लेकर शीघ्र गंभीर बहस की मांग करती है। हिमालय से जुड़े सवालों-सरोकारों पर बहस के लिए यह अनुकूल और महत्वपूर्ण समय भी है।
 
 उत्तराखंड के जन संगठनों एवं बुद्धिजीवियों की पहल पर 9 सितंबर 2010 से प्रत्येक वर्ष 9 सितंबर हिमालय दिवस मनाने की परंपरा शुरू की गई है । इस पहल का स्वागत होना चाहिए और साथ ही कोशिश हो कि यह पहल उत्तराखंड से बाहर देश के अन्य हिमालयी प्रांतों व देश से बाहर हिमालयी क्षेत्र वाले अन्य राष्ट्रों तक भी पहुंचे । विश्व के सबसे युवा, लेकिन सबसे ऊंचे पर्वत हिमालय की पारिस्थितिकी अत्यंत नाजुक है। धरती पर यह अकेली स्थलाकृति है जो अब भी निर्माण प्रक्रिया में है। इसकी ऊंचाई अब भी बढ़ रही है। ऐसे में विकास और नियोजन का जो नजरिया यहां थोपा जा रहा है, उससे तात्कालिक रूप से हिमालयवासियों का जीवन संकट में पड़ रहा है। वैश्विक तापवृद्धि के साथ पारिस्थितिक तंत्र का खंडित होना और उस पर सरकारों व योजनाकारों की अदूरदर्शिता खतरे की घंटी बजा चुका है। है कोई सुनने वाला ?
 
 ग्लेशियरों के सिकुडऩे के प्रमाण मिल चुके हैं। जलवायु और मौसम, नदियों और नदी तंत्र से निर्मित पारिस्थितिकी और उस पर निर्भर जीव व जंतु समाज पर गंभीर संकट की आशंका है। जिन स्थानों तक सर्दियों में हर वर्ष बर्फ पड़ती थी, वहां अब पांच-सात साल तक बर्फ दिखाई नहीं देती। बर्फ के भंडार (ग्लेशियर) खत्म हो रहे हैं और नई बर्फ गिर नहीं रही। मौसम चक्र बदलने से जैव विविधता के साथ ही बहुत सीमित और वर्षा आधारित खेती भी संकट में है।
 
 उत्तराखंड को सामने रखें तो कुछ और संकट इससे पहले ही आ चुके हैं। हाल के दिनों तक पर्यावरण के लिए पेड़ लगाने और भू, वन व खनन माफिया पर रोक लगाने की बात होती थी। लेकिन अब इससे भी बड़े संकट खड़े हो गए हैं। घने जंगलों वाले ढलान और घाटियां भी भूस्खलनों की चपेट में आ रही हैं। ढलानों पर बसे गावों में जन-जीवन संकट में है।
 
 भूस्खलन उन घाटियों में ज्यादा हो रहे हैं, जहां विकास परियोजनाओं के निर्माण में भारी विस्फोटों (डायनामाइट) का प्रयोग हो रहा है। बांध, बांध की सुरंगें, कालोनियां व सड़कें तो चीर फाड़ कर ही रही हैं, निर्माण की जल्दी और श्रम बचाने के लिए अंधाधुंध विस्फोटों से पड़ती दरारें। सरकार भी मान चुकी है कि करीब एक सौ गांवों के अस्तित्व पर संकट है। टिहरी बांध की झील से ऊपर बसे तीन गांव भूस्खलन के कारण दूसरी जगह बसाये जा रहे हैं। दर्जन भर और गांवों पर भी खतरा है, अभी जी.एस.आई. का सर्वे चल रहा है। इसी दौरान बांध के पावर हाउस के ठीक ऊपर की जमीन धंस गई तो परियोजना अधिकारियों को वहां बनाई गई अपनी ही कालोनी खाली करानी पड़ी। उत्तरकाशी, भटवाड़ी और जोशीमठ पर लगातार खतरा है। ये सभी उन्हीं घाटियों में हैं जहां बांध बने हैं या बन रहे हैं। ऊर्जा प्रदेश का ऐसा ही शोर रहा तो अगले दस-पंद्रह सालों में खतरे वाले गावों और कस्बों की की सूची चार-पांच सौ तक पहुंचने वाली है। तत्काल दूसरा बड़ा खतरा प्राकृतिक जलश्रोतों का लगातार सूखना भी है। यह भी उन क्षेत्रों में अधिक हो रहा है जहां विस्फोटों से पहाडिय़ां हिल रही हैं। जल संकट से दर्जनों गांव उजाड़ हो चुके हैं।
 
 जंगलों की आग भी साल दर साल विकराल हो रही है। महिनों जंगल धधकते रहते हैं। सरकारी तंत्र जले जंगलों के केवल आंकड़े एकत्र कर पाता है। कार्बनडाइ आक्साइड से सांस लेना मुश्किल हो जाता है। पानी होने से आग पहले गाड़-गदेरों को पार नहीं कर पाती थी। गाड़ गदेरे प्राकृतिक फायर लाइन बनाते थे। पानी सूखने से आग अब सूखे गाड गदेरों को पार कर जाती है। बुग्यालों तक आग की लपटें पहुंच रही हैं। इससे अनेक दुर्लभ जड़ी बूटियां हमेशा के लिए लुप्त हो जाएंगी । हिमालयी जीवन जरूर हमेशा कठिन व चुनौतीपूर्ण, लेकिन सुरक्षित था। अनादिकाल से यहां देव, दैत्य, यक्ष, गंधर्व, कोल, किन्नर, किरात व खस, सभ्यतायें स्थापित व विकसित हुईं और वह भी कंदराओं, गुफाओं में। हिमालय वासियों ने प्रकृति से बैर लेने की बजाय उसके अनुरूप जीवन को ढाला। उसकी चुनौतियों को स्वीकार किया, चुनौती नहीं दी ।
 
 चिपको आंदोलन के बाद हिमालय की संवेदनशीलता को मानते हुये उत्तराखंड में एक हजार मीटर से अधिक ऊंचे क्षेत्रों में पेड़ों का कटान रोक दिया गया था। अब इससे भी कहीं अधिक, दो-ढाई हजार मीटर ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बाधों के निर्माण में सैकड़ों टन डायनामाइट का प्रयोग हो रहा है। अब सोचिये जो क्षेत्र पेड़ कटने से अस्थिर हो सकते हैं, वे पहाड़ के अंदर बारूद भरकर विस्फोट करने से सुरक्षित रह सकेंगे ?
 
 हिमालयी प्रांत एक तरफ ग्रीन बोनस मांग रहे हैं और दूसरी ओर इस मांग के आधार (हरित पारिस्थितिकी) को ही नष्ट करने पर आमादा हैं। ग्रीन विरासत तो पूर्वजों ने हमें सौंपी है, और हम अगली पीढिय़ों के लिए बांधों से डूबी घाटियां, भूस्खलनों से उजाड़ ढलान, जल संकट से बंजर गांव और गांवों के नीचे सुरंगें छोड़ जाएंगे। विकास का जो तरीका अपनाया जा रहा है, वह बस एक पीढ़ी के लिए ही है।
 
 उत्तराखंड के इतिहास प्रसिद्ध भड़ (वीर) माधोसिंह भंडारी ने चार सौ साल पहले टिहरी जिले के मलेथा गंाव में छेणी-हथोड़ी से एक भूमिगत सिंचाई नहर बनाई थी जो आज भी वैसे ही काम कर रही है और शायद सैकड़ों वर्ष बाद भी ऐसी ही रहने वाली है। क्या आज के ऊर्जा प्रदेश की कोई भी योजना चार सौ साल के लिए है? चार सौ छोडिय़े, सौ साल में कोई जगह योजना के लिए तो दूर इनसान के रहने लायक भी शायद ही रहे। नदियां पट्टे पर बिक रही हैं। सभ्यताओं का पोषण करने वाले हिमालय सरकारी मंडियों में नीलाम हो रहा है। नदियों का विस्थापन और अंतत: विलोप हो जाएगा। करीब दो सौ बांधों से पंद्रह सौ किलोमीटर तक नदियां सुरंगों में कैद हो जाएंगी । कवि डा. नागेंद्र जगूड़ी ने लिखा है-
 
 ”चारों ओर विकास का जंगल राज है
 बस्तियां बचाओ-बचाओ चीख रही हैं
 इज्जत बचाने को नदियां
 आत्महत्या (सूख)कर रही हैं।…”
 
 बहस के लिए सवाल और भी हैं, हिमालय के जिन ताल-बुग्यालों में ऋषि, मुनि और तपस्वी ज्ञान-ध्यान के लिए आते थे, वहां अब पर्यटक धमा चौकड़ी करते हुए पहुंच रहे हैं और टनों प्लास्टिक पाालीथिन कचरा बिखरा कर लौट जाते हैं। निचली घाटियों में जैव विविधताभक्षी लैण्टाना झाड़ी का उन्मूलन तो हो न सका कि अब गाजर घास फैल रही है ।
 
 हिमालय का पारिस्थितिक तंत्र इस धरती पर सबसे नाजुक है, इस बात को जितना जल्दी हो समझ लेना चाहिए। हिमालय दिवस की पहल यह समझ विकसित कर सकेगा, ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए। पहल तो हिमालयवासियों को ही करनी है। उत्तराखंड से इसकी पहल ज्यादा सार्थक इसलिए कही जाएगी क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों के अवैज्ञानिक और भीषण शोषण की प्रयोगभूमि इसे बना दिया गया है ।
 
 अंत में सवाल यह भी कि आखिर हम हिमालय को अब तक समझ भी कितना पाए हैं। जो पर्वत अब भी निर्माण प्रक्रिया में है, उसके मिजाज को समझना आसान नहीं है ।
 
 (आभार: महिपाल सिंह नेगी
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M S Mehta

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  • आपदाओं का हिमालय.......

     (अपनी विशिष्ट भौगोलिक बनावट की वजह से हिमालय आपदाओं का घर है. यहां आपदाओं के होने की गति अन्य भैगोलिक क्षेत्रों से अधिक रहती है. उत्तराखण्ड हिमालय का ऐसा ही अभिन्न हिस्सा है. लेकिन पिछली कुछ सदी से इंसानों ने हिमालई
    आपदा को खुद ही गढ़ना शुरू किया है. अब मौजूदा नस्ल इसे भोग रही है. जयप्रकाश पंवार हिमालय की इन्हीं बारीकियों को हमसे साझा कर रहे हैं.)

     नोबल पुरूस्कार प्राप्त अमेरिकी राजनीतिज्ञ व पर्यावरण विशेषज्ञ अलगोर ने वैश्विक आपदाओं को लेकर एक वृतचित्र इन कनविनियेन्ट ट्रुथ (असुविधाजनक सत्य) का निर्माण कुछ वर्ष पूर्व किया था. इस डाक्यूमेंटरी फिल्म को बाद में आस्कर पुरूस्कार प्राप्त हुआ. फिल्म में दुनिया मंर न र्सिफ आम लोगों बल्कि सरकारों को भविष्यगत आपदाओं की तस्वीरों से परिचित व जागरूक करावाया गचया था. इसके कुछ समय बाद पृथ्वी पर मंडरा रहे संकटों पर विश्वव्यापी बहस का सिलसिला प्रारम्भ हुआ. होशियार देशों ने इसके लिए कठोर नीतिगत निर्णय लिए व पर्यावर्णीय संकट व आपदाओं से बचाव के उपाय प्रारम्भ कर उस पर अमल भी करना प्रारम्भ किया. हमारे देश मे भी एक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन सेल बना हुआ है और उत्तराखण्ड देश का पहला प्रदेश है जिसने आपदा प्रबन्धन विभाग बनाया.आपदाओं विशेषकर प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व भविष्यवाणी करने में दुनियां के वैज्ञानिक असफल ही रहे हैं लेकिन विज्ञान ने इतनी सफलता तो अवश्य हासिल की है कि वह कम से क पूर्व चेतावनी तो दे ही सकता है.


     यह हर खास वो आम को जानने की जरूरत है कि पृथ्वी व प्रकृति को नहीं बदला जा सकता है और न ही मानव इसमें कुछ अनोखा कर सकता है सिवाय स्वयं के बदलाव के. मानव को पृथ्वी की परिस्थितियों के अनुकूल स्वंय को ढालना होगा तभी वह आपदाओं से कुछ हद तक बचाव कर सकता है. यह महत्वपूर्ण संकेत आम लोगों से लेकर नीतिकारों को समझने की जरूरत हैं लेकिन अक्सर यहीं सब कुछ फेल हो जाता है.


     विशेषज्ञों की राय हैं कि आने वाले दिनों में अनेक देशों का आपदा बजट सबसे ज्यादा होने वाला है. इसमें किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए कि आपदायें दुनिया के सभी देशें में समान रूप से घटित होती रहती है. होशियार देशों ने इसके लिए ठोस योजना व्यवस्था,ढांचागत निर्माण जन जागरूकता व नीतियो को बनया है.लेकिन हमारा देश इस मामले में गंभीर नहीं है. इस मामले में सबसे बड़ी कमी समन्वयन की रहती है. नियमानुसार आपदाओं के प्रबन्धन हेतु प्रत्येक नागरिक व सरकारी व असरकरी एजेंसियां सब में संवेदनशीलता की कमी रहती है. यही कारण है कि जिससे आपदाओं से होने वाली क्षति कई गुना बढ़ जाती है.


     आपदा का गढ़.........


     अपनी विशिष्ट भौगोलिक बनावट की वजह से हिमालय आपदाओं का घर है. यहां आपदाओं के होने की गति अन्य भैगोलिक क्षेत्रों से अधिक रहती है. उत्तराखण्ड हिमालय का ऐसा ही अभिन्न हिस्सा है. आपदाओं के इतिहास पर नज़र डालें तो कोई भी ऐसा वर्ष नहीं रहा जब उत्तराखण्ड़ में आपदा ने कहर न बरपाया हो. जब भी राज्य में आपदाओं की ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र होता हैं उसमें 1803 का विनाशकारी भूकम्प 1970 के दशक की अलकनन्दा व भागीरथी की बाढ़ की ही चर्चा अधिक रही है. लेकिन 70 के दशक के बाद यह सिलसिला ऐसा जारी रहा कि नये राज्य में आपदा प्रबंधन विभाग बनाने पर विचार करना पड़ा. लेकिन दुर्भाग्य से इस विभाग की प्रासंगिकता व प्रायोगिक स्वरूप का असर कभी नहीं दिखा. यह महज बजट खपाने का एक नया माध्यम बन गया है.


     उत्तरकाशी की पीड़ा.........


     इतिहास बताता है कि 1803 में भूकम्प नहीं आता तो नेपाल कभी भी गढ़राज्य-गढ़देश गढ़वाल पर आक्रमण करने में सफल नहीं होता. उस वक्त के गढ़देश के कुछ विभीषणों ने नेपाल नरेश को यह सूचना दी थी कि गढ़वाल राज्य की प्रजा भूकम्प से मारी जा चुकी है. यही उचित समय है जब गढ़राज्य पर कब्जा किया जा सकता है. परिणामस्वरूप नेपाल राजा ने इस आपदा का फायदा लिया. राज्य पर कब्जा किया व 1815 तक राज किया.


     उत्तरकाशी तिब्बत सीमा से जुड़ा हुआ है. तिब्बत अब चीन के अधीन है. उत्तरकाशी शहर से 4-5 किलोमीटर दूर गंगोत्री मुख्य मार्ग पर स्थित गंगोरी पुल के बाढ़ में बहने के कारण जादुंग भटवाड़ी गंगोत्री को जाने वाली सड़क पूरे देश से कट गया. यानि दुर्भाग्य से चीन यदि इस क्षेत्र में घुसपैठ करता है तो इस क्षेत्र को सड़क मार्ग से समय रहते कोई सहायता नहीं पहंचायी जा सकती .बहुत कम लोगों को पता है कि असी गंगोरी पुल के बगल में 23 साल में एक ओर पुल बनाया जा रहा था लेकिन वह पूरा होने से पहले श्रीनगर-चैरास पुल की तरह भर भराकर गंगा में ढ़ह गया था.गंगोरी से 5 किलोमीटर दूर गणेशपुर का लोहे का पुल भी 1991 के भूकम्प में ढ़ह गया था. इस बार की आपदा ने तो पुराने सारे रिकार्ड तोड़ डाले. उत्तरकाशी शहर पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा है. पहले वरूणवत ने शहर को तहस-नहस किया व इस बार मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना के लिये भागीरथी के प्रवाह को सुरंग में डालने के लिए जोशियाड़ा में जो बांध बनाया गया हैं, उसने उत्तरकाशी शहर के नदी छोर को कुरेदकर भवनों व होटल को चिन्यालीसौंड बना डाला है. अगर जोशियाड़ा का बांध नहीं होता तो सम्भव है जितना नुकसान हुआ उतना नहीं होता. मैं इसे प्राकृतिक से ज्यादा मानव जनित विकास की विभीषिका मानूंगा. यहां बांध नही होता तो जल प्रवाह आसानी से आगे निकल जाता व लोगों के घर व जोशियाड़ा का पैदल पुल नही ढहते.


     चर्चित मानव वैज्ञानिक डा. हरीश वशिष्ठ ने उत्तरकाशी की आपदा पर अपना दर्द कुछ यूं व्यक्त किया है-


     आज फिर नदी को गुस्सा आया

     फिर से उसने रौद्र रूप दिखाया
     अपने बदन पर लगे घावों को
     फिर अपनी धारा से सहलाया
     लोगों को उसने फिर याद दिलाया
     लोभ-लालच में जिन्होंने उसकी राह को कबजाया…..
     आज नदी को फिर गुस्सा आया...

    http://naukarshahi.in/?p=459
     

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From : Chandra Shekhar Kargeti.

बारह साल बीते, नहीं मिली राजधानी (संपादित)
 मूल लेखक : हरीश चन्द्र चंदोला
 
 यह कैसा राज्य है जिसका काम-काज बारह साल से अस्थायी, कोने में पड़ी राजधानी से चल रहा है और जिसे पता ही नहीं कि कब, कहाँ उसकी राजधानी बनेगी ? इन बारह सालों में उत्तराखंड में छ: मुख्यमंत्री, जिनमें से एक ने भी स्थायी राजधानी के बारे में लोगों से बातचीत नहीं की। सभी यह विषय टालते रहे।
 
 इसकी अस्थायी राजधानी देहरादून देश की राजधानी दिल्ली तथा अन्य भागों से रेल, हवाई जहाज तथा सड़कों से अच्छी तरह जुड़ी है, किन्तु अपने राज्य से यह केवल एक बहुत ही बदहाल तथाकथित राजमार्ग, जो आए दिन कहीं न कहीं बंद रहता है, से जुड़ा है। राजधानी का अपने राज्य से बहुत कम संपर्क है। संपर्क ही नहीं, लोगों तथा सरकार के बीच संवाद भी कम है। यहाँ के लोगों ने अपने एक पर्वतीय राज्य की लड़ाई लड़ी और जीती थी। किन्तु संवाद न होने से यहां जनता की सबसे मुख्य तथा बडी मांग पर सरकार लगातार चुप्पी साधे रहती है। लोग कह रहे हैं: “पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो“, लेकिन देहरादून इतनी दूर है कि वहाँ तक यह आवाज शायद नहीं पहुंच पाती।
 
 देहरादून सुरसा के मुँह जैसा है। जो कुछ धन स्थायी राजधानी तथा विकास के लिए आता है, वह सब देहरादून के मुँह में चला जाता है। लाखों-करोड़ों रुपए देहरादून में विधानसभा, सचिवालय, राज भवन, अनेक प्रकार के कार्यालय, संस्थाएं, सड़कें, संचार साधन इत्यादि स्थापित करने में लगा दिये। इनको बनाने में वहाँ के ठेकेदार मालामाल हो गए और अभी भी हो रहे हैं। लेकिन वहाँ खर्च हुआ पैसा पहाड़ों मे नहीं आया। वहाँ ठेकेदार ही नहीं मज़दूर और लगभग सभी प्रकार के काम करनेवाले पहाड़ से बाहर के लोग हैं। पहाड़ों में बेरोजगारी बढ़ रही है, जिसे कम करने में देहरादून में किया गये काम का सहयोग नहीं मिला। इतना सारा धन आने पर देहरादून अन्य बडे शहरों का प्रतिरूप बन रहा है। वहाँ शापिंग माल, शेयर, आभूषण तथा अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं बेचने वालों की दूकानें खुल रही हैं और तरह-तरह के स्कूल तथा कालेज भी, जो हवाई जहाजों में परिचारिकाओं तक का काम सिखाते हैं, और जिनका पहाड़ की साक्षरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। देहरादून एक द्वीप बन गया है, अपनी चारों ओर की भूमि से कट कर। कितना भी धन देहरादून में खर्च किया जाये, उसका कोई भी प्रभाव पहाड़ों पर नहीं पड़ने वाला है। यह ऐसा ही होगा जैसे वह धन अमेरिका, योरोप या अंतरिक्ष में खर्च किया गया हो। इस सब के बावजूद उत्तराखंड में कोई पार्टी नहीं है जिसे खुल कर यह कहने का साहस हो कि प्रदेश राजधानी अब देहरादून में ही रहेगी और उसे वहीं रहने दो, क्योंकि ऐसा कहना लोगों की आशाओं के विपरीत होगा।
 
 आरंभ से ही मंत्री तथा नौकरशाह राजधानी को देहरादून में ही रखना चाहते थे। वहाँ सब सुविधाएं उपलब्ध थीं। देहरादून में मंत्री, राजनीतिज्ञ तथा नौकरशाह क्या कर रहे हैं, उसका पहाड़ के लोगों को पता नहीं चल पाता। देहरादून सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पर ही नहीं है, पहाड़ के लोगों से भावना से भी कटा है। दो-चार लाईन की खबरें जब अखबारों में छप जाती हैं तब कहीं सरकार के कामों के बारे में कुछ मालूम होता है। यहाँ पढे़ जाने वाले अखबार भी सभी देहरादून में बनते, छपते हैं। उनकी नीति है कि सरकार के काम के बारे में जितनी कम खबर दो उतना अच्छा है। उनका मुख्य काम है, सरकार की सराहना कर उसे खुश रखो। उनको सरकार साल भर में करोड़ों रुपए के विज्ञापन देती है, जो उनकी आमदनी का एक मुख्य साधन हो गए हैं। सरकारी नीतियों की विवेचना-आलोचना करने से फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है, इसलिए यही अच्छा है कि नीतियों का ज़िक्र ही नहीं करो !
 
 भावना के रूप में लोग पहाड़ की राजधानी के लिए गैरसैंण को ही उपयुक्त मानते हैं। उसका अर्थ केवल गैरसैंण कस्बा ही नहीं है, बल्कि चमोली के कर्णप्रयाग से अल्मोड़ा के चौखुटिया तक का सारा क्षेत्र है। यदि इस क्षेत्र में राजधानी बनती तो इन नौ सालों में इस राज्य की दशा ही बदल जाती। वहाँ जाने वाला एकमात्र राजमार्ग्, जिस पर बुरी हालत के कारण, बहुत धीमी गति से वाहन चल पाते हैं और जिस पर हर साल बीसियों हादसे होते हैं, अच्छी स्थिति में होता। उस पर पड़ने वाले नगर और गांवों का विकास होता। संचार साधन उत्तम बनते। अभी मोबाइल फोन से बात करने कुछ जगहों पर लोगों को पेड़ों पर चढ़ना पड़ता है, ताकि संचार टावरों से संपर्क हो सके। जो करोड़ों के ठेके देहरादून में राज्य सरकार साधनों के लिए देती है, वह पहाड़ के लोगों को मिलते और वह धन पहाड़ में समाता और काम आता। देहरादून में खर्च किया धन सब बाहर चला जाता है। उसमें से कुछ भी पहाड़ नहीं आता। पहाड़ में राजधानी बनती तो बहुत काम खुलता और यहाँ के लोगों की बेकारी दूर होती।
 
 मंत्री तथा अधिकारी यदि पहाड़ के किसी नगर में होते तो पहाड़ के लोगों को उनसे मिलने में आसानी होती। अभी तो पता भी नहीं लगता है कि मंत्री देहरादून में हैं या दिल्ली में ! राजधानी यदि पहाड़ के केन्द्र में होती तो मंत्री तथा अधिकारियों का राज्य से बाहर जाना इतना आसान न होता। यहाँ रहने से पहाड़ की समस्याएं जानने, सुनने वह अधिक समय देते।
 
 राजधानी कहाँ हो, यह तय करने एक कमीशन बैठाया गया था, जो सात-आठ साल वेतन लेने के बाद कह गया कि देहरादून ही राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त है। उसका एक भी तर्क सही नहीं था। उसने पहाड़ के लोगों की भावना की सरासर अनदेखी की थी। अब लोगों को राजधानी के सवाल पर विभाजित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि कई स्थान, जैसे टिहरी, उत्तरकाशी, कोटद्वार, पौड़ी, देहरादून राजधानी से निकट हैं। लेकिन वह कई स्थानों, जैसे मुन्स्यारी, से लगभग तीन दिन के रास्ते पर है। गैरसैण केन्द्र में पड़ता है और पहाड़ में कहीं से भी एक दिन से अधिक की दूरी पर नहीं है। राजधानी वहाँ बनने पर लोगों को वहाँं पहुँचने के लिए बहुत से मार्गों का विकास होता, जिससे वह और भी निकट हो जाता।
 
 देहरादून में पहाड़ के लोगों का कोई वर्चस्व नहीं है। वहाँ कुछ पहाड़ के लोग उच्च नौकरियों से अवकाश पा अवश्य बस गए हैं, लेकिन सरकार में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। वहां व्यापार, राजनीति, ठेकेदारी, सरकार का कामकाज अधिकतर गैर-पहाड़ी लोगों के हाथों में है। ऊपर से कुछ पहाड के मंत्री अवश्य हैं, जिनका काम है सरकारी धन बांटना-किस विभाग और क्षेत्र को कितना देना।
 
 इस बँटवारे में भ्रष्टाचार पनपता है। नगरपालिकाओं, निकायों, विकास खंडों, यहाँ तक कि ग्राम पंचायतों को यहीं से पैसा आबंटित होता है। किसी भी नगरपालिका से पूछ लीजिए कि उसे सरकारी पैसा पाने कितना प्रतिशत आबंटन करनेवाले विभाग को देना पड़ता है। जो बता सकेंगे, वे बताएँगे कि लगभग 10 प्रतिशत देहरादून में देना पडता है । यही सड़क, पानी इत्यादि विभागों के लोग बतलाएँगे । बजट का एक भाग आबंटित करने वाला विभाग सीधे-सीधे ले लेता है । यदि यह आबंटन देहरादून के बजाय पहाड़ों में होता तो संभव था कि खानेवाले इतना पैसा नहीं माँगते । जो अधिकारी उस मिले धन को औरों को देते हैं, उनका भी हिस्सा होता है । इसीलिए प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने तब कहा था, और उनके उत्तराधिकारी अब कह रहे हैं कि यदि सरकार एक रुपया देती है तो लोगों के पास उसमें से केवल दस पैसा पहुँचता है! इसमें कोई बदलाव नहीं आया। यहाँ भ्रष्टाचार विरोधी सेनानी, पूर्व मुख्यमंत्री कहते थे कि क्या कोई आपके घर आकर घूस माँगता है ? जी नहीं । लेकिन जो धन सरकार कार्यों के लिए देती है, वह भी तो लोगों के पास से ही तो आता है। मंत्री तथा अफसरों के घरों से तो नहीं। जो देते हैं, वे उसमें से अवश्य कुछ खा लेते हैं। हाँ, घर आकर नहीं माँगते । लेकिन उनके पास किसी कारण पहुँचो तो देखो !

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चन्द्रशेखर करगेती
August 22
भूली बिसरी यादें.......कुछ संस्मरण, कैसे थे हमारे आपके सबके गिर्दा ?

‘हमने युवा पीढ़ी को क्या दिया’
लेखक : त्रेपन सिंह चौहान

देहांत से डेढ़ हफ्ते पहले तो गिरदा का फोन आया था, मेरे स्वास्थ्य के हाल-समाचार पूछने। मैं एम्स में भर्ती था। ’’त्रेपन कैसी है बब्बा तबियत ?’’ मुझे मेरी बीमारी के बीच लगातार ढाँढस बँधाते रहे कि तुझे कुछ नहीं होगा, हम जल्दी मिलेंगे और खुद ही चले गये। मैं इतना भाग्यशाली भी तो
नहीं था कि उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल हो पाता।

गिरदा एक जनकवि, साहित्यकार, नाटककार थे, मगर उससे पहले एक जनयोद्धा थे। ऐसा योद्धा जो जनविरोधी व्यवस्था के खिलाफ जीवन भर बेधड़क खड़ा रहा। नौजवान पीढ़ी को यह संदेश देते हुए कि पहाड़ की बदहाली तब तक नहीं बदलेगी, जब तक इस व्यवस्था को ही न बदला जाये। ‘‘जैंता एक दिन तो आलो, उदिन यो दुनि में” में उनके सपनों का समाज है। गैर बराबरी और व्यवस्था के आतंक से मुक्त समाज का सपना उनके आँखों में सदा रहा।

गिरदा की पहाड़ों को देखने की समझ बेहद व्यापक और निर्दोष थी। वे हर किसी को दोष नहीं देते थे। जहाँ वे कर सकते थे, नहीं कर पाये तो उसे वे स्वीकर कर लेते थे। जब मैं कुमाउँनी लोक गीतों पर केन्द्रीय साहित्य अकादमी की द्विमासिक पत्रिका ‘इंडिया लिटरेचर’ के लिए काम कर रहा था, तब गिरदा से मिलना काफी होता था। गौर्दा, गुमानी से लेकर गिरदा तक की समृद्ध साहित्य यात्रा पर काफी बातें र्हुइं। बात आज की युवा पीढ़ी की चल निकली तो मैंने कहा, ’’हल्द्वानी से लेकर ऋषिकेश तक कहीं भी सुबह सबेरे बस से उतरो तो बाजार में बिकने वाले ऑडियो कैसेटो पर गाये जाने वाले गीतों को सुनने का मन नहीं करता है। आज का नौजवान जीजा-साली, देवर-भाभी, छोरा-छोरियों के चक्कर काटता हुआ दिखता है। पहाड़ की गंभीर समस्याओं को उठाने की समझ युवा पीढ़ी में नहीं दिखती है।’’

इस पर गिरदा ने कहा, ’’हम किसको दोष दे रहे हैं ? सच तो यह है कि हमने भी उनको (युवा पीढी) कुछ नहीं दिया। आयातित चीजें हमारी संस्कृति बन रही हैं। युवा पीढी भी वही सीख रही है।’’ ये थे गिरदा…..

गिरदा बहुत कुछ थे। पहाड़ों की गोद से निकलने वाली रामगंगा रामनगर जाती है। रामनगर में ब्याही पहाड़ की चेली जब रामगंगा का पानी अपनी अंजुली पर उठाती है उस पानी में उसे अपना मायका और मायके में छूटा अपना अतीत दिखाई देता है। अब रामगंगा का अस्तित्व ही संकट में है। चेली की रामगंगा ही नहीं रहेगी तो उसका मायका कैसे बच सकता है ? इतनी सूक्ष्म दृष्टि! बहरहाल मैं अभी संस्मरणों में नहीं जाना चाहता हूँ। संस्मरणों का सिलसिला तो लंबा ही जायेगा। लखनऊ की अंतिम यात्रा में चर्चित साहित्यकार नवीन जोशी के घर कहे उनके उदगार, ’’मान लो मुझे कुछ हो भी गया तो यहीं रहूँगा तुम लोगों के साथ।’’ आज गिरदा सशरीर हमारे बीच नहीं रहा तो क्या हुआ। हमारे दिलों में वह हमेशा रहेगा। इन पहाड़ों की घाटियों में, चोटियों में अपने गीतों के साथ और उस चेतना के साथ जो उसने बोया है इस पहाड़ में…..।
— with Trepan Singh Chauhan.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती इस माटी में हैं दम...............

 भारतीय क्रिक्रेट कंट्रोल बोर्ड की टीम इण्डिया के कैप्टन महेंद्र सिंह धौनी के बाद अब जूनियर टीम के कप्तान उन्मुक्त चंद ने साबित कर दिया है कि उत्तराखण्ड की माटी में क्रिकेट की जबदस्त महक है !


 धौनी और और चंद के अलावा रॉबिन बिष्ट , पुनीत बिष्ट , पवन सुयाल, मनीष पाण्डेय, पवन नेगी, एवं मह
िला क्रिकेटर सुश्री एकता बिष्ट समेत कई क्रिकेटर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपना दमख़म दिखाने को बेताब हैं !

 कहने को उपरोक्त सभी क्रिकेटर उत्तराखण्ड मूल के हैं लेकिन इस सभी प्रतिभाओं की क्रिकेट क्षमता उत्तराखण्ड से बाहर के राज्यों में परवान चढी है, ये सभी क्रिकेटर अपनी प्रतिभा को ज़िंदा रखने के लिये दूसरे राज्यों का प्रतिनिधित्व करने को मजबूर हैं !


 ये प्रतिभाएं उत्तराखण्ड का भी प्रतिनिधित्व कर सकती है, और उत्तराखण्ड में ये सब संभव भी है, लेकिन यहाँ के नेताओं का अहम ऐसा नहीं होने दे रहा है l नेताओं की आपसी लड़ाई के कारण राज्य क्रिकेट एसोसिएशन नहीं बन पा रही है l एसोसिएशन न होने के कारण राज्य के न जाने कितने ही धौनी और उन्मुक्त अपनी क्रिकेट प्रतिभा नहीं दिखा पा रहें हैं, कोमोबेश यही स्थिति अन्य खेलों की भी है.........


 काश नेताओं के अहम के खेल इन वास्तविक खेलों से बड़े न होते.........


 (आभार: दैनिक हिन्दुस्तान)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती वे कहां जाएंगे, जिनकी ज़मीन पर बांध बनाया जाएगा ?
 लेखक : उमेश पन्त (मोहल्ला लाईव में )
 
 पंचेश्वर बांध इन दिनों उत्तराखंड में चर्चा का केंद्र बना हुआ है और संभावित डूब क्षेत्र के इलाकों में ये बांध प्रतिरोध को भी जन्म दे चुका है। ये प्रतिरोध जाहिर तौर पर उन लोगों का है, जो इस बांध के बन जाने के बाद सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। इस बांध के कारण कितने लोगों का विस्थापन होगा, इसका अनुमान कई विश्लेषक लगा चुके हैं। ये बांध भारत और नेपाल के बीच 1994 में हुई संधि के अंतर्गत निर्माणाधीन है। दरअसल भारत और नेपाल के बीच महाकाली संधि के नाम से हुई इस साझी पहल का उद्देश्य दोनों देशों के जल संसाधनों के जरिये दोनों देशों को समान रूप से लाभान्वित करना था। क्योंकि इससे पहले भारत और नेपाल के बीच 1954 और 1949 में शुरू की गयी कोशी और गंडकी की परियोजनाओं को दोनों देशों की जलसंधियों में काले धब्बे की तरह देखा जाता रहा है । ये दोनों ही संधियां नेपाल के लिए नुकसानदेह रहीं। इनमें ज्यादातर फायदा भारत को ही हुआ।
 
 एक रिपोर्ट के मुताबिक 1954 में शुरू हुए टनकपुर हाईडोलिक प्रोजेक्ट के दौरान नेपाल के 77 विस्थापितों का आज तक पुनर्वास नहीं किया गया है। 1994 में हुई महाकाली संधि से भी नेपाल की तत्कालीन विपक्षी राजनीतिक पार्टियां खुश नहीं थीं। यहां तक कि इस संधि के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने तक इन विपक्षी दलों को दस्तावेज देखने को तक नहीं मिले। मौजूदा पंचेश्वर बांध को लेकर भी दोनों देशों में सरगर्मियां तेज हैं। इस बांध का लगभग अस्सी प्रतिशत हिस्सा भारतीय क्षेत्र में आता है और शेष हिस्सा नेपाल की सीमा में। इस बहुद्देश्यीय परियोजना की कुल अनुमानित लागत 30 हजार करोड़ रुपये आंकी गयी है।
 
 उत्तराखंड के स्थानीय पत्र नैनीताल समाचार में छपी एक रिपोर्ट की मानें, तो 6,500 मेगावाट बिजली पैदा करने वाली पंचेश्वर बांध परियोजना से महाकाली में धारचूला तक, सरयू में सेराघाट तक, पनार में सिमलखेत तक, पूर्वी रामगंगा में थल तक का तटीय क्षेत्र डूब जाएगा। भारत में 120 गांवों का तो तत्काल विस्थापन करना पड़ेगा और नेपाल के 60 गांव भी इस बांध की भेट चढ़ जाएंगे। केवल पिथौरागढ़ और चंपावत के 19,700 लोगों को विस्थापन की मार झेलनी पड़ेगी। रिपोर्ट की मानें तो इस परियोजना के बाद उत्तराखंड के लोगों का सपना रही टनकपुर बागेश्वर के बीच रेलमार्ग की कल्पना भी इस बांध के साथ जलमग्न हो जाएगी ।
 
 इस पूरे मामले को लेकर लोगों के विरोध के कई कारण हैं। मसलन ये कि डूब के संभावित क्षेत्र में आने वाले इलाकों के लोगों के विस्थापन का भारत और नेपाल की सरकारों की ओर से क्या प्रबंध होगा, ये तय नहीं है  दूसरा ये कि परियोजना की विस्‍तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट डीपीआर अभी तक जारी नहीं की गयी है । इस बात की जानकारी भी सार्वजनिक नहीं की गयी है कि वे कौन सी कंपनियां होंगी, जिन्हें इस परियोजना के निर्माण का जिम्मा सौंपा जाएगा। और इन सारी बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि बांधों को लेकर पर्वतीय क्षेत्र की जनता हमेशा शंकित रही है। उत्तराखंड के इन क्षेत्रों में भूस्खलन एक बड़ी समस्या है। पिथौरागगढ़ जिले के मालपा में हुए भूस्खलन से हुई भारी तबाही को वहां के लोग अब तक भुला नहीं सके हैं। 1998 में हुए इस भूस्खलन में 380 लोग मारे गये थे। पर्यावरणविद बांधों से होने वाले भूस्खलन और भूकंप के खतरों के प्रति हमेशा से आगाह करते रहे हैं। पहाड़ी इलाकों में ये समस्या और भी ज्यादा है।
 
 उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में अंधाधुंध हो रहे बांधों के निर्माणकार्य की वजह से वहां की जैवविधता भी प्रभावित हो रही है। मसलन गंगा नदी के किनारे बसे सुंदरवनों को इससे काफी नुकसान हुआ है। पंचेश्वर बांध के निर्माण की वजह से महासीर मछली के अस्तित्व पर संकट की बात सामने आ रही है। इन बांधों की वजह से हिमालयी क्षेत्रों के वनक्षेत्र में भी कमी आ रही है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं को बढ़ावा मिलने की आशंका भी जतायी जा रही है। बांधों के आर्थिक पक्ष को लेकर सबसे खतरनाक बात ये भी है कि इनमें से अधिकांश की उत्पादन क्षमता धीरे-धीरे इतनी घट जाती है कि इनका लाभ नहीं रह जाता और फिर इन्हें रिसाइकिल भी नहीं किया जा सकता ।
 
 इतनी ज्यादा संख्या में बनाये जा रहे बांधों की उपयोगिता पर इस बात से सवालिया निशान लग जाते हैं कि जब ये बांध उस क्षेत्र की जनता के हितों को ताक पे रखकर और यहां तक कि उनको बेघर करके बनाये जा रहे हैं, तो इसके पीछे हित आखिर किनका छुपा है ? वे कौन लोग हैं, जो इन बांधों से सबसे ज्यादा लाभान्वित हो रहे हैं ? और सबसे बड़ा सवाल ये कि देशभर में बनाये जा रहे सभी बांधों के निर्माण को लेकर बनी सारी योजनाएं इतनी अपारदर्शी क्यों होती हैं कि तब तक इनके टेंडर्स का पता आम जनता को नहीं चल पाता, जब तक बात ऐन इनके निर्माण तक नहीं पहुंच जाती ? पंचेश्वर बांध के मामले में भी यही हो रहा है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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इस तरह बीते उत्तराखण्ड के बारह साल.....
 लेखक : बिपिन
 
 उत्तराखंड के बारह वर्ष बीत गये । राज्य की माँग के पीछे पहाड़ की अस्मिता को बचाने की सोच थी। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन यहीं के समुचित विकास के लिए हो; जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय जनता का हक कायम रहे। सरकारी नीतियाँ सरल हों। आम आदमी को राजकीय कार्यों में सहजता लगे। रोजगार के अवसरों में वृद्धि हो व पलायन कम हो; हाशिये पर जी रहे समुदायों को उचित अवसर मिले जैसे मुद्दे थे ।
 
 राज्य निर्माण के ये सपने धूमिल हो गये। बीते एक दशक में भाजपा, कांग्रेस और यूकेडी की खुली लूट ने आम आदमी को हतप्रभ कर दिया। पदों की बंदरबाँट, जमीनों का सौदा, माफियाओं को संरक्षण, ठेकेदारी और कमीशनखोरी जैसी गतिविधियों ने उत्तराखण्ड को अन्दर तक झकझोर दिया। तमाम सरकारी दावे खोखले साबित हुए। सर्वशिक्षा अभियान से जोड़े जाने के बावजूद दर्जनों प्राथमिक विद्यालयों की हालत जीर्ण-क्षीण है। हालिया प्राकृतिक आपदा में सबसे अधिक नुकसान इन स्कूलों को उठाना पड़ा। स्कूलों से शिक्षक नदारद रहते और भाड़े के मास्टर नौनिहालों का भविष्य बिगाड़ते हैं।
 
 स्वास्थ्य महकमे की केन्द्र सरकार की ‘आशा’ कार्यकत्र्री योजना का मजाक उड़ गया है। अस्पताल हैं तो दवाइयाँ नहीं। मशीनें हैं भी तो स्टाफ गायब। ‘108’ सेवा ने स्वास्थ्य सेवा में थोड़ा बहुत पैबंद जरूर लगाये हैं। हालिया आपदा राहत राशि को हवाई दौरों में उड़ा कर हमारे नेतागणों ने साबित किया कि वे उत्तराखण्ड को उजड़ाखण्ड बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे । देहरादून से दूरदराज के गाँवों तक तमाम छोटे-बड़े नेताओं की पौ बारह है । जिसकी सरकार उसको ठेके ! विधायक-सांसद निधि का बजट गधेरों और रास्तों में खर्च हो रहा है । मनरेगा की हालत दयनीय है । 90 प्रतिशत प्रधानों को मनरेगा की जान कारी तक नहीं है। विकास का मॉडल कैसा हो, इस प्रश्न पर सब मौन साधे हुए हैं और जिसे जहाँ मौका मिला, वह लूटने लग जाता है।
 
 इन लोगों की उँगलियों में कीमती नगों की चमक और बैंक बैलेंस की दमक ने राज्य को कितना घाटा दिलाया है, इस पर हमारे लालची मीडिया तंत्र का भी मुँह नहीं खुलता । जब जिक्र आ ही गया तो बात पत्रकार मित्रों की भी होनी चाहिए । दैनिक अखबार के पत्रकार मित्रों ने तो दीन-ईमान जैसे शब्द अपने जीवन से हटा दिये हैं । रही बात साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रों की, तो ये तो हर हफ्ते एक नई निकल रही है । एकाध को छोड़ दें तो बाकी की हालत कुछ यूँ है कि भाई लोग एक अंक प्रकाशित करने के लिये महीने भर नेताओं, ठेकेदारों, अधिकारियों, रसूखदारों के आगे-पीछे मँडराते नजर आते हैं कि अल्ला के नाम पर दे दे एक विज्ञापन वर्ना देख लेना अगला अंक…….! नेता, अधिकारी, कर्मचारी, ठेकेदार भ्रष्टाचार की हदें पार करते हुए अपना जीवन शानदार बनाने में जुटे हैं तो मीडिया ने ही कौन सी क्रांति ला दी है ? कलम की ताकत का इस्तेमाल ठीक-ठीक नहीं होगा तो मीडिया पर से जल्दी ही जनता का विश्वास उठ जायेगा ।
 
 इन बारह वर्षों में गैर-सरकारी संगठनों ने भी राज्य को दीमक की तरह चाटा । पानी का संरक्षण, वृक्षारोपण, शिक्षा, खेती-बाड़ी, महिला शक्ति, दलित उत्थान, जलवायु परिवर्तन, वैकल्पिक राजनीति, महिला स्वास्थ्य, बाल अधिकार जैसे हर मुद्दे पर गैर सरकारी संस्थायें काम कर के करोड़ों के वारे-न्यारे कर रही हैं । दो तरह के गुट एन.जी.ओ. चला रहे हैं । एक तरफ विशुद्ध रूप से अंग्रेजियत में रचे-बसे ब्यूरोक्रेट्स और बुद्धिजीवियो की जमात है तो दूसरी तरफ ठेकेदार और दुकानदारों की । इन दोनों ने जनता की आँख में धूल झोंकी है । फर्क बस तरीके का है । अभी कुछ समय पूर्व क्लाइमेट चेंज पर हुए राष्ट्रीय सेमीनार में लाखों का बजट प्रतिभागियों को सिर्फ यह बताने में खर्च हुआ कि दुनिया गर्म हो रही है। संस्थाओं के कार्यकर्ता 200 की जगह 700 रु. का यात्रा भत्ता बनाते देखे गये। ऊँचे रसूख वाले संस्था संचालक फण्डदाता के खर्च पर किराये की ए.सी. कार और हवाई जहाज से भारत भ्रमण करते हैं। इस तरह की संस्थाओं से कोई उम्मीद करना व्यर्थ है।
 
 सच में उत्तराखण्ड दयनीय स्थिति से गुजर रहा है । इन दरकते पहाड़ों और डूबती घाटियों का दर्द सोचने पर विवश करता है कि क्या यही है जीत बहादुर गुरंग, बेलमती चौहान और हंसा धनाई की शहादत का उत्तराखंड...
 via चन्द्रशेखर करगेती

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चन्द्रशेखर करगेती उत्तरकाशी की इस तबाही का जिम्मा किसका है ?
 
 (इन्द्रेश मैखुरी पिछले दिनों , प्राकृतिक आपदा के बाद राहत की आपदा झेल रहे उत्तरकाशी के हालात देख आये हैं. वहीँ से लौटकर उन्होंने प्रैक्सिस को ये रिपोर्ट भेजी है…..पढ़ें.. )
 
 "...जब-जब प्राकृतिक आपदाएं आती हैं, तब-तब पूरा सरकारी अमला भी असहाय दिखाई देता है. जिस आपदा प्रबंधन के नाम की वर्ष भर माला जपी जाती है, वो आपदा के समय कहाँ लापता हो जाता है, ये कोई नहीं जानता..."
 
 नदी का अत्याधिक चौड़ा पाट और उसमें सैकड़ों की तादाद में पेड़ और बड़े-बड़े बोल्डर,खंडहर में तब्दील नदी किनारे बसे घर और होटल,उन में ऐसी रेत और सनाट्टा पसरा हुआ है कि लगता ही नहीं कि कभी इनमें कोई चहल-पहल भी रही होगी. भारी-भरकम पुल नदी के बहाव में सूखे तिनके की तरह धराशायी हो गए. आग समेत तमाम आपदाओं के समय राहत कार्यों के लिए जिम्मेदार फायर स्टेशन स्वयं ही आपदा का शिकार हो कर मटियामेट हो चुका है. बस यही नजारा है उत्तरकाशी में हुई भीषण तबाही के बाद का. मनुष्यों की प्यास बुझाने वाला शीतल-निर्मल पानी जैसे इस इलाके में अपनी मारक क्षमता का प्रदर्शन करने पर उतारू हो गया था.
 
 तीन अगस्त की रात को उत्तरकाशी के दयारा बकरिया टाप पर बदल फटने की घटना हुई जिसके बाद आई भीषण बाढ़ में सबकुछ जलमग्न हो गया. 250 से ज्यादा घर, होटल और सरकारी भवन बाढ़ की भेंट चढ गए. उत्तरकाशी के पचास किलोमीटर के दायरे में असी गंगा और भागीरथी जहाँ-जहाँ से होकर गुजरती है,वहाँ विनाश के चिन्ह सर्वत्र नजर आते हैं. भटवाडी तहसील के नौगांव, भंकोली, गजौली, चींवां, गंगोरी, पिलंग, सेकु आदि ग्यारह गाँव इस तबाही की चपेट में आ गए. इन सभी गांव के संपर्क मार्ग, सड़कें और पुल पूरी तरह ध्वस्त हो गये. अस्सी गंगा और वरुणा गाड के संगम पर बसा और सात गाँवों का केंद्र संगमचट्टी का पूरा बाजार ही जमींदोज हो गया. यहाँ की चालीस दुकाने नदी के मलबे में दफ़न हो गयी. छोटे-बड़े करीब सोलह पुल बह गए. उत्तरकाशी शहर को जोशियाड़ा से जोड़ने वाला झूलापुल बाढ़ की भेंट चढ गया और उत्तरकाशी को तिलोथ से जोड़ने वाला भी ध्वस्त हो गया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 7285 लोग इस आपदा से प्रभावित हैं,125 पालतू पशुओं मारे गए, 102 घर पूरी तरह ध्वस्त हो गए, 57 मकान तीक्ष्ण रूप से प्रभावित हो गए, जिनमें रहना खतरनाक है तथा 63 मकान आंशिक रूप से प्रभावित बताये गए हैं. 150 परिवारों के 697 लोगों को विभिन्न राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी.सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही 600 करोड की सरकारी संपत्ति और सौ करोड की निजी संपत्ति बाढ़ की भेंट चढ गयी. सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या उनतीस बताई गयी.
 
 ये भी तथ्य है कि सरकारी आंकड़ों में सरकारी नुकसान को हमेशा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है और मरने वालों का आंकडा बेहद घटाकर बताया जाता है. उत्तरकाशी में आई प्राकृतिक आपदा के सन्दर्भ में भी ऐसा ही अंदेशा प्रकट किया जा रहा है. खास तौर पर अस्सी गंगा पर बन रही बिजली परियोजनाओं में काम कर रहे नेपाली मजदूरों के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी अभी तक नहीं मिल पा रही है. बाहरी और गरीब होने के कारण भी इनकी पैरवी करने वाला कोई नहीं है. अभी तक की सूचनाओं के अनुसार इन परियोजनाओं में काम करने वाले 19 मजदूर बाढ़ में बह गए और 23 मजदूरों के सुरक्षित होने की बात कही जा रही है. पर तीन परियोजनाओं में केवल 42 मजदूर ही काम कर रहे थे, इस बात पर सहज ही भरोसा तो नहीं होता है ?
 
 जब-जब प्राकृतिक आपदाएं आती हैं, तब-तब पूरा सरकारी अमला भी असहाय दिखाई देता है. जिस आपदा प्रबंधन के नाम की माला वर्ष भर जपी जाती है, वो तंत्र आपदा के समय कहाँ लापता हो जाता है, ये कोई नहीं जानता ? जो करोड़ों रुपये का बजट इस आपदा प्रबंधन नामक तंत्र को आवंटित होता है वो कभी नहीं दिखाई देने वाले कारनामे पर खर्च किया जाता है, आपदाओं के समय तो यह गधे की सींग वाली अवस्था में ही रहता है. उत्तरकाशी में भी हालात ये हैं कि अस्सी गंगा घाटी के सारे संपर्क मार्ग, पुल और सड़कें बाढ़ में बह गयी, इसलिए इन गावों का संपर्क, संचार और बिजली सब ठप्प है. नेता-अफसर हवाई दौरा कर आये हैं. राहत कार्यों का आलम ये है कि गंगोरी में सरकारी राहत के वितरण का केंद्र है और यहीं पर एक बड़े से होटल-नीलकंठ पैलेस में स्वास्थ्य विभाग ने अपना आपदा चिकित्सा शिविर लगाया हुआ. जिनके लिए पहुँच मार्ग उपलब्ध हैं वो आपदा राहत की राशन लेने गंगोरी पहुँच रहे हैं. गंगोरी से पीठ पर आपदा राहत लाद कर टूटे-फूटे पहाड़ी रास्तों पर लौटते स्त्री-पुरुष आजकल इस इलाके में आम तौर पर देखे जा सकते हैं. लेकिन जिन दूरस्थ गावों तक पहुँचने के सारे रास्ते टूट चुके हैं, इनकी फ़िक्र करने की फुर्सत किसे है ? दूरस्थ गावों को एक-आध बार हैलीकाप्टर से राहत पहुंचाई भी गयी पर वो राहत से ज्यादा इन आपदा के मारे गाँव वालों के साथ एक क्रूर सरकारी मजाक था. एक पूरे गाँव के लिए एक डबल रोटी का पैकेट आसमान से उछाल कर सरकार बहादुर का उड़नखटोला फुर्र हो गया. कुछ गावों में हेलीकाप्टर से गिराए गए खाद्य सामग्री के पैकेट जमीन पर गिरकर फट गए. कोढ़ में खाज ये कि कुछ इलाकों में राहत के नाम पर फफूंद लगे हुए बन और बिस्कुट बांटे गए. कुछ गाँव में लोगों ने आपदा राहत की चीनी में खाद की मिलावट की शिकायत भी की.
 
 2010 में भारी बारिश में देवप्रयाग में फंसे तीर्थ यात्रियों को भी प्रशासन की तरफ से एक्सपायरी डेट के बिस्कुट बांटे गए थे. ये बड़ा आश्चर्य का विषय है कि ऐसा कौन व्यापारी है जो ये सड़े-गले बन-बिस्कुट का स्टॉक रखता है और प्रशासन का भी उससे आपदाओं के समय इस सड़े-गले माल की सप्लाई का कांट्रेक्ट है ? वैसे आपदा पीड़ित अधिकाँश गांववासियों का कहना है कि उन्हें सरकारी राहत के बजाय संपर्क मार्गों, संचार सुविधा और बिजली बहाली की दरकार है.
 
 उत्तराखंड सरकार इस आपदा के प्रति कितनी संवेदनशील है, इस बात का अंदाजा मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के उत्तरकाशी दौरे से लगता है. वे नौ अगस्त को उत्तरकाशी पहुंचे तो कार से उत्तरकाशी से कुछ किलोमीटर दूर तेखला तक गए क्योंकि वहाँ से आगे का रास्ता पैदल का ही था और मुख्यमंत्री पैदल क्योंकर चलने लगे भला ? आपदा प्रभावितों के कहने पर वे कुछ कदम गंगोरी की ओर पैदल चले भी,पर आपदा पीड़ितों द्वारा सवाल-जवाब किये जाने से नाराज होकर तत्काल वापस लौट पड़े. इसी दौर में उन्होंने प्रभावितों को भजन करने की सलाह भी दे डाली. शासन-प्रशासन कब तक सामान्य स्थिति बहाल कर देगी, इस प्रश्न के जवाब में मुख्यमंत्री ने प्रभावितों से कहा कि भजन कीर्तन करिये ताकि फिर ऐसी आपदा ना आये.
 
 मतलब साफ़ है अगर भगवान तुम्हें नहीं बचायेगा तो सरकार तो बचाने से रही. जिस सरकार के मंत्री-विधायक आपदा के बीच में लन्दन घूमने चले जाते हों (लन्दन घूमने वालों में कांग्रेस के अलावा विपक्षी भाजपा के विधायक मदन कौशिक भी शामिल थे), जिस सरकार के मंत्रियों के लिए प्राकृतिक आपदा के पीड़ितों से दमयंती रावत की रस्साकस्सी ज्यादा जरुरी हो, उस सरकार के मुखिया का आपदा पीड़ितों को भगवान की शरण में जाने को कहना कोई अजूबी बात नहीं है क्योंकि सरकार, उसके मंत्रियों, विधायकों और कांग्रेस के बड़े क्षत्रपों को आपसी टांग खिंचाई और सत्ता की मलाई उड़ाने से फुर्सत मिले,तब तो वो जनता की सोचें. ऐसे में भगवान ही ऐसी शै है, जिसके बार में ये सोचकर सरकार बहादुर भी निश्चिंत है कि हम जनता के बारे में नहीं सोच रहे तो वो तो सोच ही रहा होगा क्यूंकि इतने सरकारी निकम्मेपन के बावजूद जनता का ज़िंदा रहना किसी चमत्कार से कम है भला !
 
 अतीत की तरह ही इस बार की उत्तरकाशी की आपदा में भी धन की बन्दर बाँट के चर्चे शुरू हो गए हैं. इस बन्दर बाँट का नूमना है बडकोट तहसील का खरादी कस्बा. खरादी में 37 लोगों को व्यावसायिक भवनों के लिए गृह अनुदान के एक-एक लाख रुपये बाँट दिए गए यानि दुकान के लिए मकान की राहत बाँट दी गयी है. जबकि गंगोरी तथा अन्य आपदा प्रभावित क्षेत्रों में आपदा से क्षतिग्रस्त जिन घरों को प्रशासन ने खाली करा दिया है, उन घरों को भी आंशिक क्षतिग्रस्त की श्रेणी में रख कर,इनके मालिकों को हजार-दो हजार रूपया पकड़ा कर प्रशासन अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ले रहा है. हजार-दो हजार रुपये में,अपना सुब कुछ गंवा चुके लोग क्षतिग्रस्त मकानों की मरम्मत कैसे करवाएंगे,ये यक्ष प्रश्न है. आपदा के पैसे की बंदरबांट के क्रम में आपदा से क्षतिग्रस्त भवनों, पुलों, सड़कों आदि के ठेकों में होने वाली लूट कुछ समय बाद दिखेगी. 2003 के वरुणावत ट्रीटमेंट के समय किस तरह कई सौ करोड का वारा-न्यारा तत्कालीन विधायक समेत सत्ताधारी पार्टी के लोगों ने किया, इसके चर्चे उत्तरकाशी में आज भी सुने जा सकते हैं. तब भी राज्य में कांग्रेस की सरकार थी.
 
 उत्तरकाशी में तबाही मचाने वाली इस आपदा का कारण, बादल फटना और फिर असी गंगा में बाढ़ आना बताया जा रहा है.पर क्या सिर्फ इसे प्राकृतिक आपदा कह कर और सारा दोष प्रकृति के मत्थे मढ कर क्या बहुत सारे मुश्किल सवालों से बचने का प्रयास नहीं हो रहा है ? मकान,होटल,दूकान और सरकारी भवन जो बिलकुल नदी के मुहाने पर और कहीं-कहीं नदी तटों का अतिक्रमण कर बने होते हैं,वो हमेशा ही आपदा की तीव्रता को बढाने में महत्वपूर्ण कारक बनते हैं. उत्तरकाशी शहर से लेकर गंगोरी तक ऐसे मकान, होटल और सरकारी भवन काफी संख्या में देखे जा सकते हैं. भवन बनाने के तमाम कायदे-क़ानून हैं, अनापत्ति प्रमाणपत्र लाना होता है, नक्शा पास करवाना होता है. इतने सब कानूनी दाँव-पेंचों के बावजूद ये कैसे होता है कि लोग नदियों के तटों पर अतिक्रमण कर आलीशान भवन और होटल बनाने में कामयाब हो जाते हैं ?
 
 उत्तरकाशी में तो आपदा की तीव्रता बढाने के पीछे कालिंदी गाड और अस्सी गंगा पर बन रही तीन जलविद्युत परियोजनाओं ने भी आपराधिक भूमिका अदा की. असिगंगा घाटी में तीन जलविद्युत परियोजनाएं बन रही हैं- नौ मेगावाट की कालिंदीगाड परियोजना, साढे चार मेगावाट की अस्सी गंगा फर्स्ट तथा साढे चार मेगावाट की ही अस्सी गंगा सेकेण्ड. जहाँ भी जलविद्युत परियोजनाएं बन रही हैं, वहाँ परियोजना बनाने वाली कंपनियों का विस्फोट करना, मलबा नदी में डालना और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचाना अघोषित कायदा है. इन तीनो परियोजनाओं में ग्रामीणों की आपत्ति के बावजूद इस क्षेत्र में जम कर डायनामाईट के विस्फोट किये गए. साथ ही परियोजना बनाने वाली कंपनियों ने मलबा नदी में डाला. भारी मात्र में मिटटी नदी में डालने से नदी का तल ऊँचा उठ गया, जिसने बादल फटने के बाद नदी में पहले झील बनायीं और जब ये झील टूटी तो पानी के बहने का वेग विनाशकारी हो गया. इतना ही नहीं इन परियोजनाओं के निर्माण के लिए भारी मात्रा में पेड़ काटे भी काटे गए. वन विकास निगम ने परियोजना के लिए पैंसठ पेड काटने की अनुमति दी थी. परन्तु ग्रामीणों के अनुसार 250 से अधिक पेड काटे गए, जो नदी किनारे डाले गए, मलबे में ही दबा दिए गए. मलबे में दबाए पेड़ों ने नदी में झील बनाने में योग दिया और फिर झील टूटने पर नदी में सैकड़ों की तादाद में तीव्र गति से बहते पेड़ जहां भी टकराए, वहाँ उन्होंने मारक प्रभाव छोड़ा. जे.सी.बी. और अन्य परियोजना में काम आने वाली मशीनों के टुकड़े पूरी अस्सी गंगा में बिखरे हुए हैं. केन्द्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री जयंती नटराजन ने भी अपने बयान में अस्सी गंगा पर बन रही परियोजनाओं द्वारा मलबा नदी में डाले जाने को उत्तरकाशी की आपदा के लिए जिम्मेदार ठहराया है.
 
 उत्तरकाशी समेत पूरा उत्तराखंड प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से अत्याधिक संवेदनशील है. उत्तरकाशी की ही बात करें तो ये जिला लगातार आपदाओं की चपेट में आता रहा है. 1970 में रतूडीसेरा के ऊपर बादल फटने से रानो की गाड जिसे रेणुका नदी भी कहते हैं, उसमें आई बाढ़ से कई मकान और गौशालाएं बह गयी, दर्जनों पालतू पशु भी बहे और कुछ लोग भी मारे गए. 1978 में डबरानी में झील बनने और फिर उसके टूटने से उत्तरकाशी की गंगा घाटी में भारी तबाही हुई थी. 1980 में ज्ञानसू में बादल फटने से हुई तबाही में 28 लोग मलबे में दब गए थे. 1991 के भूकंप ने भी उत्तरकाशी में सैकड़ों लोगों को लील लिया था. 2003 में वरुणावत पर्वत के भूस्खलन ने तो उत्तरकाशी शहर के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया था. कुछ साल पहले भटवाडी में भी भारी भूस्खलन हुआ,जिसने इस कसबे के जनजीवन को पूरी तरह अस्तव्यस्त कर दिया.
 
 हम ना तो भूकंप को रोक सकते हैं, ना अतिवृष्टि को. परन्तु इनसे होने वाले विनाश को जरुर कम किया जा सकता है. विकास का जो पूंजीपरस्त-मुनाफपरस्त मॉडल अभी पूरे देश की तरह ही उत्तराखंड में भी लागू है वो प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करके नहीं बल्कि आक्रांता की तरह अपने लिए सुख सुविधाओं का निर्माण करता है. इसके लिए वो समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों और प्रकृति, दोनों को ही तहस-नहस करता है. प्रकृति के साथ की गयी भयानक छेड़छाड़, प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका को भयंकर रूप से बढ़ा देती है. भारी निर्माण कार्य, बड़े पैमाने पर डायनामाईट जैसे विस्फोटकों का प्रयोग, प्राकृतिक ड्रेनेज को अवरुद्ध करने जैसी मानवीय कार्यवाहियां ही भीषण तबाही का कारण बनती हैं. पर पूँजीपतियों के आगे नतमस्तक सत्ता को ये सब सोचने की फुरसत कहाँ ? वो तो जैसे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सोने का अंडा निकालने की तर्ज पर ही पूरी प्रकृति को ही चीर कर भी अपने लिए अधिक से अधिक मुनाफ़ा बटोर लेना चाहती है. फिर वो सोचे भी क्यूँ, प्रकृति का कहर जब टूटता भी है तो लुटेरे पूँजीपतियों और उसकी बांदी सत्ता पर तो टूटता नहीं है ! वो कहर भी उन्हीं पर बरपता है जो पहले ही पूँजीपतियों की लूट और सत्ता के दमन दोने के मारे होते हैं. पूँजीपतियों और सत्ता के लिए तो आपदा भी ठेकों, लूट और मुनाफे का अवसर बनकर आती है !
 
 आभार : http://www.patrakarpraxis.com/2012/09/blog-post.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From - Chandra Shekhar kargeti.

कहां खो गया हिमालय विकास प्राधिकरण.........
 
 हिमालयी क्षेत्रों के विकास के लिए बनाए जाने वाले ‘हिमालय विकास प्राधिकरण’ की सिफारिशों वाली फाइल आज भी योजना आयोग में धूल फांक रही है । वर्ष 1992 में हिमालय क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को लेकर एक समिति गठित की गई थी। इस समिति का अध्यक्ष योजना आयोग के तत्कालीन सदस्य जेड कासिम को बनाया गया था। इस समिति में जे0एन0 पाटिल, जे0एस.बजाज, प्रो0 हर्ष गुप्ता, डा. पुरोहित के साथ ही भूगर्भ वैज्ञानिक डा. वल्दिया को भी इसमें शामिल किया गया था। इस समिति द्वारा एक रिपोर्ट तैयार कर योजना आयोग को सौंप दी गई थी। 20 साल बीत जाने के बाद भी इस समिति की सिफारिशें अमल में नहीं आ पाई हैं।
 
 योजना आयोग को सौंपी इस रिपोर्ट में उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, मेद्यालय, मिजोरम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग क्षेत्रा के विकास के लिए 24 सिफारिशें की गई थी । इन सिफारिशों में हिमालय के विकास के साथ ही हिमालय विकास पर्यावरण कोष बनाने की सिफारिश की गई थी । समिति ने यह भी सिफारिश की थी कि पूरे पहाड़ी राज्यों के विकास के लिए एक विकास प्राध्किरण का गठन किया जाय, जिसके अध्यक्ष प्रधानमन्त्री  को बनाया जाय और इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इसका सदस्य बनाया जाय। यह प्राध्किरण प्रधानमन्त्री व मुख्यमंत्री  की देखरेख में हिमालयी क्षेत्रों की समस्याओं गरीबी, बेरोजगारी, पलायन आदि के लिए नीति बनाने के साथ ही इन समस्याओं के निदान के उपाय खोजे।
 
 इस समिति ने संसाधनों के उचित दोहन, पहाड़ी क्षेत्रों के जीवन स्तर में बदलाव से संबंध्ति कई सिफारिशें भी आयोग के समक्ष रखी गई थी तो उस समय राजनीतिज्ञ व पर्यावरणविद् भी इन सिफारिशों के पक्ष में थे । अब एक बार जब से हिमालयी नीति की बहस चल पड़ी है तो हिमालयी विकास प्राध्किरण की रिपोर्ट लागू करवाने पर भी सोचा जाना जरूरी है । उत्तर-पूर्व तथा पश्चिम के सभी पहाड़ी राज्यों की भौगोलिक स्थिति एक जैसी है। इन सभी के प्राकृतिक संसाधनों की एक जैसी समस्या है ।
 
 देश के 11 पहाड़ी राज्यों के विकास की प्राथमिकतायें आपस में मेल खाती हैं। पहाड़ों के लिये निर्धारित की जाने वाली विकास नीतियों मैदानों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। पहाड़ों में लागू की जाने वाली ये योजनाएं अव्यावहारिक होती हैं, जिससे लोगों तक योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पाता। हिमालयी राज्यों की सरकारें कमजोर साबित हुई हैं। विकास के लिए केन्द्र से गुहार लगाने के अलावा इनके पास कोई चारा नहीं बचा है। इन राज्यों का सारा दारोमदार केंद्र पर निर्भर है।
 
 संसाधन सम्पन्न हिमालयी राज्यों के लिए अलग से कोई नीति तैयार नहीं होना ही इसकी मुख्य वजह मानी जा रही है । देश के सकल भौगोलिक क्षेत्रफल का 16.3 फीसदी हिस्सा हिमालयी क्षेत्र है और इस क्षेत्र में आम तौर पर 11 छोटे राज्य भी अस्तित्व में हैं, लेकिन इतने बड़े क्षेत्र में 11 राज्यों का संसद में प्रतिनिधितित्व मात्र 40 सांसदों के रुप में है । जबकि अकेले बिहार से 39, राजस्थान से 25 और मध्य प्रदेश से 29 सांसद अपने राज्यों का संसद में प्रतिनिध्त्वि करते हैं । ऐसे में हिमालय की आवाज संसद सर्वोच्च सदन में कमजोर पड़ जाना स्वाभाविक है । फिर भी कहना होगा कि हिमालय के 40 सांसद भी ‘अलग हिमालयी नीति’ की पैरवी दमदार ढंग से संसद में कर सकें, तो यहां के पर्यावरण, विकास के बीच संतुलन बनाते हुए यहां के जीवन स्तर में सुधार लाया जा सकता है ।
 
 (आभार : दिनेश पन्त)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
हिमालय बसेगा तो बचेगा......
 
 Author: चारु तिवारी
 
 उत्तराखंड के पहाड़ों से इन दिनों खतरनाक आवाजें आ रही हैं। ये आवाजें एक ऐसे नापाक गठजोड़ की हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के बीच रहने वाली जनता के हक को लील लेना चाहती हैं। बहुत जल्दी, बहुत ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए; विकास का जो सपना सरकारें दिखाती रही हैं उसकी आड़ में एक बड़ी आबादी को उजाड़कर मुनाफाखोर अब जनता को जनता के खिलाफ ही खड़े करने की साजिशें करने लगे हैं। टिहरी की लोककथाओं में आछरियों (परियां) का बहुत जिक्र आता है। ऐसी आछरियां जो गुफाओं से निकलकर युवाओं को हर लेती थीं। अब टिहरी में इस तरह की आछरियां नहीं दिखाई देतीं। अब आछरियां नए रूप में हैं। जो पहले गुफाओं में रहती थीं अब विशालकाय सुरंगों में हैं। जो पहले कुछ युवकों को अपने रूप-सौंदर्य के छलावे में फंसाती थीं अब विकास और बिजली की चकाचैंाध से भ्रमित कर रही हैं। लोककथाओं की आछरियों को भले ही किसी ने देखा न हो लेकिन आज पूरे पहाड़ में विकास की जानलेवा आछरियों ने जलविद्युत परियोजनाओं से पूरे गांवों को लीलना शुरू कर दिया है। ये अकेली नहीं हैं इनके साथ सरकार है। बांध परियोजनाओं के बड़े कारिंदे हैं। इससे भी बढ़कर वे लोग हैं जो विकास की इस साजिश के अभियान में साथ खड़े हैं।
 
 बहुत ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए विकास का जो सपना सरकारें दिखाती रही हैं उसकी आड़ में एक बड़ी आबादी को उजाड़कर मुनाफाखोर अब जनता को जनता के खिलाफ ही खड़े करने की साजिशें करने लगे हैं। टिहरी की लोककथाओं में आछरियों (परियां) का बहुत जिक्र आता है, जो गुफाओं से निकलकर युवाओं को हर लेती थीं। अब वे नहीं दिखाई देतीं। अब आछरियां नए रूप में हैं। गुफाओं की जगह अब वे विशालकाय सुरंगों में रहने लगी हैं।
 इन लोगों का न तो लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास है न ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में। इन्होंने ने ऐलान कर दिया है कि जो भी जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध करेगा उसे पहाड़ में नहीं घुसने दिया जायेगा। जैसे पहाड़ इन्हीं की बपौती हो। अपने अभियान को इन्होंने अमली जामा पहनाना भी शुरू कर दिया है। जून के मध्यमें श्रीनगर में जीडी अग्रवाल, भरत झुनझुनवाला और राजेन्द्र सिंह के साथ इन कथित बांध समर्थकों ने जो किया उससे साबित होता है कि जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन के नाम पर की जा रही यह गुंडागर्दी कोई छोटी-मोटी स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि सोची-समझी रणनीति है। इसलिए समय रहते इस गठजोड़ को समझना होगा जो निहित स्वार्थों के लिए अपने मुल्क को बर्बाद करने और बेचने में भी झिझक नहीं रहे हैं।
 
 गौरतलब है कि उत्तराखंड में पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर वहां की जनता आंदोलन चलाती रही है। अपने संसाधनों को बचाने के लिए वह लगातार सड़कों पर है। टिहरी बांध से लेकर फलिंडा और अब पिंडर को बचाने तक के बहुत सारे आंदोलन स्वस्फूर्त जनता के आंदोलन रहे हैं वैसे ही जैसे उत्तराखंड राज्य का आंदोलन था। एक मामले में ये आंदोलन पृथक राज्य आंदोलनों से इसलिए जुड़ थे कि जनता को उम्मीद थी कि नए राज्य के शासक जो उन्हीं में से होंगे उनके दर्द को समझेंगे और उन पर इस तथाकथित विकास को नहीं थोपेंगे। पर हुआ उल्टा ही है। अपने ही लोगों ने विकास के दैत्याकार मॉडल को उन पर थोपा है। इससे लगातार टूटते पहाड़ों की आम जनता को चिंता है। पर इस बीच कुछ अजब ही हुआ है।
 
 इधर कुछ समय से बांध समर्थकों की एक नई जमात सामने आई है जो पूरी बेशर्मी से बड़े बांधों का समर्थन कर रही है और जन आंदोलनों को नकारने में लगी है। कवि लीलाधर जगूड़ी ने अपने हाल में प्रकाशित लेख ‘प्रगति विरोधी इस पाखंड से लडऩा जरूरी’ में लिखा है कि ”इस समय उत्तराखंड में जनता पर्यावरण को विकास के विरुद्ध एक अड़ंगे की तरह अथवा एक पाखंड की तरह देख रही है।” तथ्यों को जैसे जी में आया तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। फलिंडा और पिंडर घाटी में क्या हो रहा है? अगर कहीं कुछ है ही नहीं तो धारी देवी में मारपीट की नौबत क्यों आ रही है? यह जमात सरकार, बांध बनाने वाली कंपनियों और ठेकेदारों के गठजोड़ की है। इनमें इस बीच सरकार से नजदीकियां रखने के इच्छुक कुछ बुद्धिजीवी भी जुड़ गये हैं। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अचानक बांधों के समर्थन में खड़ा हो गया है। ऐसा क्यों हो रहा है, समझना मुश्किल नहीं है। बांधों के साथ अपार पैसा जुड़ा है और उसका असर अखबार से लेकर सरकार तक में नजर आ रहा है। कौन भूल सकता है कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पद संभालते ही पहला काम बांधों के समर्थन का किया।
 
 ये तर्क देते हैं कि जलविद्युत परियोजनायें यहां की आर्थिकी और रोजगार के लिए जरूरी हैं। साधु-संत गंगा की अविरलता को लेकर बांधों के खिलाफ हैं। अगर गंगा की अविरलता नहीं रहेगी तो करोड़ों की आस्था की चिंता उन्हें है। स्वयंसेवी संगठनों को लगता है कि बांध बनने से पर्यावरण को भारी नुकसान होगा। इसलिए वे बांधों का विरोध कर रहे हैं। इन सबके बीच पिछले चार दशक से अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत लोगों की सुनने को कोई तैयार नहीं है। उनके पूरे आंदोलन को कभी आस्था, कभी विकास तो कभी पर्यावरण के नाम पर हाशिये पर धकेला जा रहा है। हम बार-बार यह दोहराना चाहते हैं कि असल में जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध आस्था और पर्यावरण का नहीं है, जैसा कि जगूड़ी अपने लेख में कहते हैं; बल्कि यह हिमालय को बचाने की लड़ाई है। आस्था और पर्यावरण भी तभी तक हैं जब तक हिमालय है। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि हिमालय से पूरे गंगा-यमुना के मैदान का भविष्य जुड़ा है। विकास के नाम पर जिस तरह से हिमालय को सुरंगों के हवाले किया जा रहा है वह आने वाले दिनों में पूरे देश के लिए खतरे का संकेत है।
 
 विकास, आस्था और पर्यावरण के इस फरेब के बीच हिमालय और हिमालयवासियों के दर्द को समझा जाना बहुत आवश्यक है। मध्य हिमालय दुनिया का सबसे कच्चा पहाड़ है। इस पर भी उत्तराखंड में नीति-नियंताओं ने माना है कि यहां की जल संपदा से चालीस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने एक उपाय सुझाया विशालकाय जलविद्युत परियोजनाएं बनाने का। इस समझ के तहत सत्तर के दशक में टिहरी बांध परियोजना की शुरुआत की गई थी। इसके बाद तो जलविद्युत परियोजनाओं को ही सरकारों ने ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत मान लिया। इसके बावजूद जबकि टिहरी जैसी बड़ी परियोजना अपने लक्ष्य में नाकाम रही है। इससे समझ जाना चाहिए था कि जिन परियोजनाओं को विकास के लिए जरूरी माना जा रहा है वे कितनी उपुयक्त हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि बांधों के निर्माण से राष्ट्रीय ही नहीं अंतराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कंपनियों के हित जुड़े हैं। ये कंपनियां कई तरह की हैं – सीमेंट उत्पादकों से लेकर बिल्डरों और टरबाईन बनानेवालों तक की। यह बात प्रचारित की गई कि टिहरी बांध तो बड़ा है, बाकी बांध छोटे होंगे। सच यह है कि उत्तराखंड में इस समय जितने भी बांध बन रहे हैं वे बड़े बांधों की श्रेणी में आते हैं। (देखें समयांतर, जून, 2012)
 
 इसे नजरअंदाज कर इन दिनों कुछ बुद्धिजीवियों ने कहना शुरू कर दिया है कि बिना जलविद्युत परियोजनाओं के यहां का विकास संभव नहीं है। वे कहते हैं कि इन परियोजनाओं से रोजगार मिलेगा, पलायन रुकेगा और प्रदेश में विद्युत आपूर्ति के अलावा बाहर भी बिजली बेची जा सकेगी। उन्होंने जो तर्क दिए हैं वे बचकाना हैं। दुनिया की कोई भी जलविद्युत परियोजना ऐसी नहीं है जो रोजगार पैदा करती हो। इस तरह की परियोजनायें ठेकेदार और दलाल तो पैदा करती हैं लेकिन रोटी पैदा नहीं करतीं। हर परियोजना पर्यावरणीय विनाश के साथ विस्थापन और पलायन लाती है। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देश अपने यहां बने बांधों को तोड़ रहे हैं। वे अपने यहां ऊर्जा के नए स्रोत तलाश रहे हैं। यह तथ्य हम अपने ही आसपास कोरबा, सोनभद्र या उन अनेक उदाहरणों से पा सकते हैं जहां कोयला या बांधों से बिजली बनाई जाती है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में तो अनेक बिजली घर हैं पर उस राज्य में उद्योग क्यों नहीं हैं सिवाय खनिज उद्योगों के जो प्राकृति संसाधनों के निर्मम दोहन से जुड़े हैं? विकास का यह विनाशकारी मॉडल हिमालय के संसाधनों की अंधी लूट की साजिश है जिसे यहां के सत्ताधारी वर्ग – नेताओं, अखबारों और अब बुद्धिजीवियों – के सहयोग से अंजाम दिया जा रहा है।
 
 गंगा को बचाने के लिए विकास और पर्यावरण की इस बहस के बीच उन सवालों को तलाशना जरूरी है जो वहां के निवासियों के लिए परेशानी का कारण बने हैं। उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन में कुछ बुद्धिजीवी द्वारा चलाए जा रहे सुनियोजित षडयंत्रकारी अभियान इस बात का प्रमाण हैं कि हिमालय में मुनाफाखोरों की पैठ मजबूत हो चुकी है। विशेषकर दो-तीन कथित बुद्धिजीतियों की राष्ट्रीय मीडिया में बयानबाजी गौर करने लायक है। सच यह है कि उनके पास न कोई तथ्य हैं और न ही हिमालय और वहां के जीवन के बारे में कोई आधारभूत जानकारी। है भी तो वे उन पर बात नहीं करना चाहते। सबसे ज्यादा हास्यास्पद बातें पद्मश्री सम्मान को अपने सीने से लगाये कवि लीलाधर जगूड़ी ने दिल्ली से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका में लिखे लेख में की हैं। उन्होंने जलविद्युत परियोजनाओं पर एक प्रवक्ता की तरह बोलना शुरू कर दिया है। इससे कई तरह की शंकाएं होती हैं। यह वही जगूड़ी हैं जिन्होंने राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को ‘उत्तराखंड पिता’ कहा था। तब पहाड़ के लोगों ने कहा था कि स्वामी जगूड़ी के पिता हो सकते हैं, उत्तराखंड का ठेका वह न लें। उत्तराखंड की उस भाजपाई सरकार में उन्हें लालबत्ती से नवाजा गया था। एक बार फिर वह बांधों का समर्थन कर उत्तराखंड के स्वयंभू ठेकेदार बनना चाहते हैं।
 
 अपने लेख में उन्होंने जो बेहूदे तर्क दिए हैं वे मजेदार हैं (देखें बाक्स) और इस बात का संकेत हैं कि जगूड़ी न आधुनिकता का अर्थ समझते हैं, न ही प्रकृति और पर्यावरण का महत्त्व। इसके बावजूद पूरे विश्वास के साथ तथाकथित विकास का समर्थन कर रहे हैं। होशो-हवाश का कोई आदमी उनकी इन बातों से सहमत हो सकता? क्या इस तरह की अवैज्ञानिक, अतार्किक और मूर्खतापूर्ण बातों को छापा जाना चाहिए था?
 
 प्रमाणिकता को छोड़ दें तो भी स्पष्ट है कि जगूड़ी को जलविद्युत परियोजनाओं के प्रभावों की सामान्य जानकारी तक नहीं है। लगता है उन्होंने शुरुआती भूगोल भी नहीं पढ़ा है।
 
 इन वैज्ञानिक बातों को छोडिय़े। यहां सवाल कुछ और ही है। पहली बात यह कि गंगा का सवाल पर्यावरण और आस्था का बिल्कुल नहीं है। गंगा को बचाने की बात साधु-संत कैसे करते हैं यह उनका मसला है, इससे प्राकृतिक धरोहरों को बचाने का सवाल समाप्त नहीं हो जाता। विश्व हिंदू परिषद या उनकी जैसी कोई संस्था अपने हिसाब से गंगा की बात कर रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम बांधों के समर्थक बन जाएं। असल में यह जलविद्युत परियोजनाओं और विकास के नाम पर राज्य को लूटने और लोगों को बेघर करने की साजिश है। जगूड़ी को पता नहीं कहां से इलहाम हुआ कि सुरंगों (टनलों) में जाने के बाद पानी शुद्ध हो जाता है। विद्युत परियोजनाओं के लिए जितनी भी सुरंगें बनती हैं वे पानी को शुद्ध करना तो दूर पूरे क्षेत्र की पारिस्थितिकी को भी बिगाड़ती हैं। जब कभी भी नदी के पानी के उपयोग की बात आती है तो उसे रन ऑफ द रीवर के माध्यम से उपयोग में लाया जाना ही वैज्ञानिक माना जाता है। इस तरह की परियोजनाओं से किसी को कोई ऐतराज भी नहीं है। लेकिन अभी जिन परियोजनाओं की बात हो रही है वे सभी सुरंग आधारित हैं। सभी परियोजनाओं में लंबी दूरी की सुरंगें बनायी जा रही हैं।
 
 सुरंगों में जाकर कोई पानी शुद्ध नहीं होता है। असलियत यह है कि सुरंगों से निकलने वाला पानी नए तरह के रासायनिक तत्व अपने साथ लाता है। हिमालय की भूगर्भीय स्थिति अभी रासायनिक और भूगर्भीय हलचलों की है इसलिए सुरंगों में पानी का जाना बहुत खतरनाक है। सुरंगों को बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भारी मशीनों से यहां की भौगोलिक संरचना पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है वह छिपा नहीं है।
 
 परियोजनाओं के समर्थकों का दूसरा बड़ा तर्क यह है कि इन विद्युत परियोजनाओं से गांवों को बिजली मिलेगी। यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है। राज्य में जो बिजली बनती है वह सेंट्रल ग्रिड में जाती है वहीं से बिजली का बंटवारा होता है। पावर हाउस से लोगों के घरों में सीधे तार नहीं खींचें जाते। कुल मिला कर राज्य को उसके हिस्से की बिजली ही मिलेती है जो बहुत कम होती है। इस संदर्भ में इस वर्ष गर्मियों में उत्तराखंड में बिजली की जो किल्लत हुई उसे याद किया जा सकता है। राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में जो बिजली की कुल खपत होती वह संभवत: उतनी भी नहीं है जितनी कि देहरादून में होती होगी। पहाड़ों में मुश्किल से ही पंखे चलते हैं। एसी तो शायद ही कहीं होंगे। उद्योगों की तो बात ही अर्थहीन है। दूसरी ओर आज भी उत्तराखंड में जितनी बिजली का उत्पादन होता है उसका वह पांच प्रतिशत भी शायद ही उपभोग करने की स्थिति में हो। तब पूरे पहाड़ी क्षेत्र में बिजली क्यों काटी जा रही थी?
 
 अब आते हैं नौकरी के सवाल पर।
 
 उत्तराखंड में आजादी के बाद लगभग 37 लाख लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया है। राज्य बनने के इन 12 वर्षों में ही राज्य से 19 लाख लोग स्थायी रूप से पहाड़ छोड़ चुके हैं। राज्य के पौने दो लाख घरों में ताले लटके हैं। दो साल पहले आयी आपदा ने लगभग 3,500 गांवों को अपनी चपेट में लिया। पहाड़ पर जमीनों का टूटना जारी है। इससे पलायन और तेज हुआ है। पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों ने कृषि को पूरी तरह अलाभ कारी बना दिया है। शेष जो भी छोटे-मोटे रोजगार थे सब घटे हैं। अब इन बांधों के निर्माण से पांच लाख लोगों के विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। सिर्फ पंचेश्वर बांध से ही सवा लाख लोगों का विस्थापन होगा। ये स्थितियां नयी तरह के सोच और नियोजन की मांग करती हैं पर हमारे नेता सिर्फ एक बात जानते हैं और वह है बांध बनाने की। यह सवाल है आखिर ये पद्मश्री प्राप्त बुद्धिजीवी किन की लड़ाई लडऩे में लगे हैं?
 
 दूसरा पक्ष है बांधों के विरोध करने वालों का। इनमें साधु-संतों के अलावा पर्यावरणविद हैं। साधु-संतों को गंगा अविरल चाहिए, स्वच्छ चाहिए। गंगा को वे अपनी मां मानते हैं। दुनिया और विशेषकर योरोप के देशों में नदियों को कोई अपनी मां नहीं मानता। वहां गाय और पेड़ भी पूजे नहीं जाते हैं। बावजूद इसके वहां की नदियों को साफ रखने की संस्कृति है। हर छोटे से छोटे नाले को भी उन्होंने प्रदूषण से मुक्त रखा है। वहां के लोगों ने अपने जंगलों और जैव विविधता को बनाये रखा है, उससे नदियों को मां और पेड़ों को भगवान मानने वाले संतों को सबक लेना चाहिए। संत-महात्माओं को अभी भी अपने आस्था के दरकने की चिंता है। वे इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि जब लोग रहेंगे तभी आस्था रहेगी। वे गंगा को बचाने की बात तो करते हैं, धारीदेवी की चिंता उन्हें है लेकिन गंगा में आचमन करने और धारी देवी को पूजने वाले लोगों के बारे में वे नहीं सोचते। असल में नदियों के किनारे रहने वाले लोगों और हिमालय की जैव विविधता को बनाए रखने वाले गांवों और आबादी को बचाए रखना बहुत जरूरी है। यदि वहां के गांव खाली होते हैं तो हिमालय और गंगा को कोई नहीं बचा सकता। पिछले दो दशक से खाली होते गांवों ने इस बात को साबित भी किया है। तथ्य यह है कि कई वनस्पतियां और प्राणी ऐसे हैं जो बिना मनुष्य के नहीं रह सकते।
 
 उत्तराखंड में मौजूदा समय में चालीस हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। ये सभी पर्यावरण संरक्षण, जंगलों को बचाने, जलस्रोतों के संरक्षण और नदियों पर काम कर रहे हैं। राज्य में सत्रह हजार गांव हैं। इस लिहाज से हर गांव में तीन एनजीओ का औसत बैठता है। इन्हें देश-विदेश से भारी पैसा मिलता है। दुर्भाग्य से जितना एनजीओ और उनके काम करने का क्षेत्र बढ़ा है उतना ही पहाड़ से पानी, जंगल और पर्यावरण गायब होता गया। इसलिए पहाड़, विकास, पर्यावरण और गंगा के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है।
 
 मध्य हिमालय में बन रही सुरंगों को बनाने के लिए उपयोग की जा रही तकनीक ने पहाड़ों को हिला दिया है। प्रतिवर्ष मानवजनित आपदा से पहाड़ डरे-सहमे हैं। लगातार भूस्खलन और पहाड़ों के टूटने की घटनायें सामने आ रही हैं। उत्तराखंड में जहां भी बांध बन रहे हैं उसके चारों ओर 15 किलोमीटर की दूरी तक सारे जलस्त्रोत सूख गये हैं। टिहरी के पास प्रतापनगर का क्षेत्र प्रतिवर्ष अपने सैकड़ों जलस्त्रोतों को खोता जा रहा है। इन क्षेत्रों से पलायन लगातार जारी है। रही-सही कसर सरकारी योजनाओं ने पूरी कर दी है। अब पहाड़ इन बांधों से अपने ताबूत में अंतिम कील ठुकने के इंतजार में हैं। इसलिए गंगा और हिमालय के सवाल को यहां के लोगों की बेहतरी के साथ जोड़कर देखा जाना जरूरी है। सबको यह बात समझनी होगी कि हिमालय जब तक बसेगा नहीं वह बचेगा भी नहीं। गंगा को आचमन के लिए बचाने की लफ्फाजी, पर्यावरण की राजनीति और विकास के छलावे से बाहर निकलकर जनता के दर्द को समझते हुए गांवों को बचाने की पहल होनी चाहिए।
 
 
 काव्य का स्वार्थ-विज्ञान
 
 पद्मश्री अलंकृत और साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी कवि लीलाधर जगूड़ी इन दिनों उत्तराखंड में विकास और प्रगति के झंडाबरदारों में हैं। उन्होंने केंद्रीय सरकार को धमकी दी है कि अगर प्रदेश में भगीरथी और उसकी सहायक नदियों पर बांध बनाने शुरू नहीं किए गए तो वह पद्मश्री लौटा देंगे। उनका एक लेख ‘प्रगति विरोधी इस पाखंड से लडऩा जरूरी’ शीर्षक से 15 जून के साप्ताहिक शुक्रवार में प्रकाशित हुआ है। पत्रिका ने उन्हें उत्तराखंड में ”उन बुद्धिजीवियों में शामिल” बताया है ”जो जलविद्युत परियोजनाओं का समर्थन करते हैं। ”
 
 यहां प्रस्तुत इस लेख के चुनिंदा अंश बतला देते हैं कि उत्तराखंड में विकास की बात करनेवाले वास्तव में वहां की स्थितियों और पर्यावरण को कितना जानते हैं। प्रश्न है तो फिर वह अपना पूरा व्यक्तिव्त क्यों दांव पर लगा रहे हैं? उनकी बातों के जवाब भी (इटालिक)में साथ दिए जा रहे हैं:
 
 1. ”जो पानी चट्टानों से टकराता है, वह अगर बिजली घर की टरबाइन से भी टकरा जाए तो पानी की प्रत्येक टक्कर की सार्थकता बढ़ जाएगी। टरबाइन से टकराता हुआ नदी का पानी खुद के लिए स्वच्छ आक्सीजन (प्राणवायु) ग्रहण करता है और टरबाइन का पहिया घुमाकर विद्युत उत्पन्न कर देता है जिससे सामाजिक जीवन का अंधकार दूर हो जाता है।”
 
 (वैज्ञानिकों का कहना है कि बांधों में रुके पानी में आक्सीजन कम हो जाती है। सुरंगों में तो आक्सीजन होती ही नहीं फिर वह उससे बहनेवाले पानी में कहां से आयेगी? मात्र टरबाइन से टकराने से उस आक्सीजन की पूर्ति कैसे हो जाएगी जो अन्यथा मीलों खुले में चलनेवाले पानी में होती है? वैसे सामाजिक जीवन का अंधकार ज्ञान से दूर होता है, बशर्ते वह सही हो।)
 
 2. ”हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि खुले आसमान से भी ब्रह्मांडीय प्रदूषण नदियों में प्रविष्ट होते रहते हैं। ब्रह्मांड की धूल भी नदियों को प्रदूषित करती है। प्रकृति में कतिपय प्रदूषणों की अत्यंत रचनात्मक भूमिका है। जल-मल के बिना अंकुरण हो ही नहीं सकता। … सारे प्रदूषण तिरस्कार योग्य नहीं हैं बल्कि कुछ प्रदूषण तो बहुत ही जीवनदायी हैं। …”
 
 ( वह क्या कहना चाहते हैं कि नदी में मल-मूत्र को जाने दिया जाए? कहां किस तरह की स्थितियां हैं और कब क्या होना चाहिए का अंतर भी न किया जाए? क्या जगूड़ी अपने पीने के पानी में भी इसी तरह के तिरस्कार के अयोग्य प्रदूषण को रखना चाहेंगे?)
 
 3. ”दुनिया की सारी नदियां समुद्रों में जाकर गिर रही हैं। क्या गंगा भी समुद्र में ही गिरने के लिए पृथ्वी पर आई है? नहीं, मैं तो कहूंगा बिहार और बंगाल के बीच गंगा को समुद्र में जाने से रोको और उसे पंजाब, राजस्थान और गुजरात की ओर मोड़ दो। भारत के पश्चिम से उसे कर्नाटक की तरफ मोड़ो और उसके बाद केरल, मुंबई और चेन्नई में ले जाकर धनुषकोटि के समुद्र में डाल दो। तब गंगा संपूर्ण भारत की भाग्यलिपि बन सकती है।”
 
 (अगर जगूड़ी केरल से मुंबई और फिर चेन्नई जाना चाहते हैं तो हम उनके भौगोलिक ज्ञान पर कुछ कहना उचित नहीं समझते, पर यह प्रश्न जरूर पूछना चाहेंगे कि वह आखिर गंगा को सारे देश में क्यों ले जाना चाहते हैं? उन्हीं कारणों से जिनके चलते वह संतों के पाखंड की आलोचना कर रहे हैं? इस तरह की दुविधा के और भी संकेत उनके लेख में देखे जा सकते हैं। वरना क्या वह बतलाएंगे कि गंगा में कितना पानी है जो सारे भारत में जाता रहेगा? उन्हें पता नहीं है कि गंगा के कारण उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल ही नहीं बल्कि बांग्लादेश का जनजीवन चलता है? इसके बिना यह पूरा क्षेत्र रेगिस्तान में बदल जाएगा। आशा है उन्होंने सुंदरवन के बारे में सुना होगा।
 
 इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रकृति की हर स्वाभाविक स्थिति का अपना महत्त्व है। कोई पहाड़ कहां है, कोई नदी किसी दिशा में क्यों बह रही है, इससे भौगोलिक ही नहीं मानव सभ्यता, उसका समाज और संस्कृति जुड़ी होती है। इस तर्क से तो वह कल को कहने लगेंगे कि नंदादेवी पर्वत को काटकर मध्यभारत में रोप दिया जाए इससे पूरा भारत ठंड का आनंद उठा सकेगा। कोई इस तरह की बेसिर-पैर की बातें कर सकता है ,यह अपने में आश्चर्यजनक है।)
 
 4. ”नदी और पानी के बारे में कई तरह के अंधविश्वास दूर करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए गंगा को लें जो कि हिममूल (ग्लेशियर) से उत्पन्न होती है। हिमालय पर्वत का हिमाच्छादित भू-भाग बर्फ की शीतलता से जलकर काला पड़ जाता है। वहां तृण भी नहीं उग सकता। अब बताइए उसमें औषधीय गुण कहां से आ जाएंगे?”
 
 (कवि जी यह कह रहे हैं कि गंगा में कोई विशिष्ट तत्त्व नहीं हैं। माना नहीं हैं। पर तब क्या यह गलत है कि अभी कुछ दशक पहले तक गंगा का पानी वर्षों रखने के बाद भी खराब नहीं होता था?
 
 दूसरी बात, जिस पर रोना आता है, वह यह है कि गंगा चूंकि ग्लेशियर से निकलती है इसलिए उसमें कोई औषधीय गुण नहीं हैं। उसमें औषधीय गुण हैं या नहीं यह दीगर बात है, प्रश्न यह है कि क्या गंगा में सिर्फ वही पानी रहता है जो गोमुख के ग्लेशियर से निकलता है? या क्या इसमें सिर्फ वही नदियां मिलती हैं जिनका उद्गम ग्लेशियर हैं? बच्चा भी जानता है कि हर बड़ी नदी में कई तरह के छोटे-बड़े नदी-नाले मिलते हैं। इसलिए यह कहना कि चूंकि गंगा ग्लेशियर से निकलती है इसलिए इसमें औषधीय तत्त्व नहीं होते, बल्कि उन नदियों में होते हैं जो ग्लेशियरों से नहीं निकलतीं, क्या वाजिब बात है? क्या यह तर्क संगत है कि औषधीय तत्व सिर्फ वनस्पतियों में होते हैं विभिन्न किस्म की उन चट्टानों के खनिजों में नहीं, जिन से होकर पहाड़ी नदियां गुजरती हैं।)
 
 5. ”टनलों में डालने से पानी ब्रह्मांडीय धूल के प्रदूषण से बचा रहता है। नहरों में आसपास का सारा कूड़ा उड़कर आ जाता है। सबसे स्वच्छ, निर्मल और पवित्र पावर हाउस की टरबाइन से निकलनेवाला जल होता है। उसमें प्रदूषण का एक भी कण नहीं होता। पॉवर हाउस की टनल और टरबाइन आधुनिक वैज्ञानिक विधि से बनाई जाती हैं।”
 
 (इस तर्क से तो दुनिया की नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए टनलों में डाल दिया जाना चाहिए। अजीब बात है कि टनल और नहर का अंतर ही लेखक को मालूम नहीं है। नहरें सिंचाई के लिए होती हैं न कि टरबाइन चलाने के लिए। फिर आधुनिक विधि से बनी हर चीज बेहतर होती है यह कैसे मान लिया जाए? टरबाइन से ज्यादा आधुनिकता से तो परमाणु ऊर्जा पैदा करने के उपकरण बनते हैं, इस लिहाज से तो परमाणु संयंत्रों के कूड़े को जरा भी हानिकारक नहीं होना चाहिए।)

 

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