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Burninig Issues of Uttarakhand Hills- पहाड़ के विकास ज्वलन्तशील मुद्दे

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

Dosto,

In this topic, we are sharing some important burning developmental, social & other issues of Uttarakhand. We hope people would read these article. We wish Govt must open eyes and work towards resolving this issues.

चन्द्रशेखर करगेती मानव जीवन बचाने के लिए हिमालय दिवस की पहल (दिनांक 9 सितम्बर)
 
 ”यूं तो पत्थर दिल है पहाड़,
 सब सह लेता है।
 प्रकृति का कोप,
 आदमी का स्वार्थ।
 लेकिन जब उसके
 रिसते नासूर पर,
 मरहम की जगह,
 भर दी जाती है बारूद,
 बेबस बिखर जाता है पहाड़
 टुकड़े-टुकड़े पत्थरों में।
 पहाड़ इसी तरह
 आदमी की मौत का
 सबब बनता है।
 आदमी सिर्फ नापता है
 उसकी संपदा, अपना हित,
 कभी भांपता नहीं है
 पहाड़ की पीड़ा।…”
 
 हिमालय की पहाडिय़ों पर वर्ष दर वर्ष बढ़ते जा रहे पारिस्थितिक व पर्यावरणीय संकट के संदर्भ में महेन्द्र यादव की यह कविता संपूर्ण हिमालय को लेकर शीघ्र गंभीर बहस की मांग करती है। हिमालय से जुड़े सवालों-सरोकारों पर बहस के लिए यह अनुकूल और महत्वपूर्ण समय भी है।
 
 उत्तराखंड के जन संगठनों एवं बुद्धिजीवियों की पहल पर 9 सितंबर 2010 से प्रत्येक वर्ष 9 सितंबर हिमालय दिवस मनाने की परंपरा शुरू की गई है । इस पहल का स्वागत होना चाहिए और साथ ही कोशिश हो कि यह पहल उत्तराखंड से बाहर देश के अन्य हिमालयी प्रांतों व देश से बाहर हिमालयी क्षेत्र वाले अन्य राष्ट्रों तक भी पहुंचे । विश्व के सबसे युवा, लेकिन सबसे ऊंचे पर्वत हिमालय की पारिस्थितिकी अत्यंत नाजुक है। धरती पर यह अकेली स्थलाकृति है जो अब भी निर्माण प्रक्रिया में है। इसकी ऊंचाई अब भी बढ़ रही है। ऐसे में विकास और नियोजन का जो नजरिया यहां थोपा जा रहा है, उससे तात्कालिक रूप से हिमालयवासियों का जीवन संकट में पड़ रहा है। वैश्विक तापवृद्धि के साथ पारिस्थितिक तंत्र का खंडित होना और उस पर सरकारों व योजनाकारों की अदूरदर्शिता खतरे की घंटी बजा चुका है। है कोई सुनने वाला ?
 
 ग्लेशियरों के सिकुडऩे के प्रमाण मिल चुके हैं। जलवायु और मौसम, नदियों और नदी तंत्र से निर्मित पारिस्थितिकी और उस पर निर्भर जीव व जंतु समाज पर गंभीर संकट की आशंका है। जिन स्थानों तक सर्दियों में हर वर्ष बर्फ पड़ती थी, वहां अब पांच-सात साल तक बर्फ दिखाई नहीं देती। बर्फ के भंडार (ग्लेशियर) खत्म हो रहे हैं और नई बर्फ गिर नहीं रही। मौसम चक्र बदलने से जैव विविधता के साथ ही बहुत सीमित और वर्षा आधारित खेती भी संकट में है।
 
 उत्तराखंड को सामने रखें तो कुछ और संकट इससे पहले ही आ चुके हैं। हाल के दिनों तक पर्यावरण के लिए पेड़ लगाने और भू, वन व खनन माफिया पर रोक लगाने की बात होती थी। लेकिन अब इससे भी बड़े संकट खड़े हो गए हैं। घने जंगलों वाले ढलान और घाटियां भी भूस्खलनों की चपेट में आ रही हैं। ढलानों पर बसे गावों में जन-जीवन संकट में है।
 
 भूस्खलन उन घाटियों में ज्यादा हो रहे हैं, जहां विकास परियोजनाओं के निर्माण में भारी विस्फोटों (डायनामाइट) का प्रयोग हो रहा है। बांध, बांध की सुरंगें, कालोनियां व सड़कें तो चीर फाड़ कर ही रही हैं, निर्माण की जल्दी और श्रम बचाने के लिए अंधाधुंध विस्फोटों से पड़ती दरारें। सरकार भी मान चुकी है कि करीब एक सौ गांवों के अस्तित्व पर संकट है। टिहरी बांध की झील से ऊपर बसे तीन गांव भूस्खलन के कारण दूसरी जगह बसाये जा रहे हैं। दर्जन भर और गांवों पर भी खतरा है, अभी जी.एस.आई. का सर्वे चल रहा है। इसी दौरान बांध के पावर हाउस के ठीक ऊपर की जमीन धंस गई तो परियोजना अधिकारियों को वहां बनाई गई अपनी ही कालोनी खाली करानी पड़ी। उत्तरकाशी, भटवाड़ी और जोशीमठ पर लगातार खतरा है। ये सभी उन्हीं घाटियों में हैं जहां बांध बने हैं या बन रहे हैं। ऊर्जा प्रदेश का ऐसा ही शोर रहा तो अगले दस-पंद्रह सालों में खतरे वाले गावों और कस्बों की की सूची चार-पांच सौ तक पहुंचने वाली है। तत्काल दूसरा बड़ा खतरा प्राकृतिक जलश्रोतों का लगातार सूखना भी है। यह भी उन क्षेत्रों में अधिक हो रहा है जहां विस्फोटों से पहाडिय़ां हिल रही हैं। जल संकट से दर्जनों गांव उजाड़ हो चुके हैं।
 
 जंगलों की आग भी साल दर साल विकराल हो रही है। महिनों जंगल धधकते रहते हैं। सरकारी तंत्र जले जंगलों के केवल आंकड़े एकत्र कर पाता है। कार्बनडाइ आक्साइड से सांस लेना मुश्किल हो जाता है। पानी होने से आग पहले गाड़-गदेरों को पार नहीं कर पाती थी। गाड़ गदेरे प्राकृतिक फायर लाइन बनाते थे। पानी सूखने से आग अब सूखे गाड गदेरों को पार कर जाती है। बुग्यालों तक आग की लपटें पहुंच रही हैं। इससे अनेक दुर्लभ जड़ी बूटियां हमेशा के लिए लुप्त हो जाएंगी । हिमालयी जीवन जरूर हमेशा कठिन व चुनौतीपूर्ण, लेकिन सुरक्षित था। अनादिकाल से यहां देव, दैत्य, यक्ष, गंधर्व, कोल, किन्नर, किरात व खस, सभ्यतायें स्थापित व विकसित हुईं और वह भी कंदराओं, गुफाओं में। हिमालय वासियों ने प्रकृति से बैर लेने की बजाय उसके अनुरूप जीवन को ढाला। उसकी चुनौतियों को स्वीकार किया, चुनौती नहीं दी ।
 
 चिपको आंदोलन के बाद हिमालय की संवेदनशीलता को मानते हुये उत्तराखंड में एक हजार मीटर से अधिक ऊंचे क्षेत्रों में पेड़ों का कटान रोक दिया गया था। अब इससे भी कहीं अधिक, दो-ढाई हजार मीटर ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बाधों के निर्माण में सैकड़ों टन डायनामाइट का प्रयोग हो रहा है। अब सोचिये जो क्षेत्र पेड़ कटने से अस्थिर हो सकते हैं, वे पहाड़ के अंदर बारूद भरकर विस्फोट करने से सुरक्षित रह सकेंगे ?
 
 हिमालयी प्रांत एक तरफ ग्रीन बोनस मांग रहे हैं और दूसरी ओर इस मांग के आधार (हरित पारिस्थितिकी) को ही नष्ट करने पर आमादा हैं। ग्रीन विरासत तो पूर्वजों ने हमें सौंपी है, और हम अगली पीढिय़ों के लिए बांधों से डूबी घाटियां, भूस्खलनों से उजाड़ ढलान, जल संकट से बंजर गांव और गांवों के नीचे सुरंगें छोड़ जाएंगे। विकास का जो तरीका अपनाया जा रहा है, वह बस एक पीढ़ी के लिए ही है।
 
 उत्तराखंड के इतिहास प्रसिद्ध भड़ (वीर) माधोसिंह भंडारी ने चार सौ साल पहले टिहरी जिले के मलेथा गंाव में छेणी-हथोड़ी से एक भूमिगत सिंचाई नहर बनाई थी जो आज भी वैसे ही काम कर रही है और शायद सैकड़ों वर्ष बाद भी ऐसी ही रहने वाली है। क्या आज के ऊर्जा प्रदेश की कोई भी योजना चार सौ साल के लिए है? चार सौ छोडिय़े, सौ साल में कोई जगह योजना के लिए तो दूर इनसान के रहने लायक भी शायद ही रहे। नदियां पट्टे पर बिक रही हैं। सभ्यताओं का पोषण करने वाले हिमालय सरकारी मंडियों में नीलाम हो रहा है। नदियों का विस्थापन और अंतत: विलोप हो जाएगा। करीब दो सौ बांधों से पंद्रह सौ किलोमीटर तक नदियां सुरंगों में कैद हो जाएंगी । कवि डा. नागेंद्र जगूड़ी ने लिखा है-
 
 ”चारों ओर विकास का जंगल राज है
 बस्तियां बचाओ-बचाओ चीख रही हैं
 इज्जत बचाने को नदियां
 आत्महत्या (सूख)कर रही हैं।…”
 
 बहस के लिए सवाल और भी हैं, हिमालय के जिन ताल-बुग्यालों में ऋषि, मुनि और तपस्वी ज्ञान-ध्यान के लिए आते थे, वहां अब पर्यटक धमा चौकड़ी करते हुए पहुंच रहे हैं और टनों प्लास्टिक पाालीथिन कचरा बिखरा कर लौट जाते हैं। निचली घाटियों में जैव विविधताभक्षी लैण्टाना झाड़ी का उन्मूलन तो हो न सका कि अब गाजर घास फैल रही है ।
 
 हिमालय का पारिस्थितिक तंत्र इस धरती पर सबसे नाजुक है, इस बात को जितना जल्दी हो समझ लेना चाहिए। हिमालय दिवस की पहल यह समझ विकसित कर सकेगा, ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए। पहल तो हिमालयवासियों को ही करनी है। उत्तराखंड से इसकी पहल ज्यादा सार्थक इसलिए कही जाएगी क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों के अवैज्ञानिक और भीषण शोषण की प्रयोगभूमि इसे बना दिया गया है ।
 
 अंत में सवाल यह भी कि आखिर हम हिमालय को अब तक समझ भी कितना पाए हैं। जो पर्वत अब भी निर्माण प्रक्रिया में है, उसके मिजाज को समझना आसान नहीं है ।
 
 (आभार: महिपाल सिंह नेगी ---------

M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

*
* आपदाओं का हिमालय.......

 (अपनी विशिष्ट भौगोलिक बनावट की वजह से हिमालय आपदाओं का घर है. यहां आपदाओं के होने की गति अन्य भैगोलिक क्षेत्रों से अधिक रहती है. उत्तराखण्ड हिमालय का ऐसा ही अभिन्न हिस्सा है. लेकिन पिछली कुछ सदी से इंसानों ने हिमालई आपदा को खुद ही गढ़ना शुरू किया है. अब मौजूदा नस्ल इसे भोग रही है. जयप्रकाश पंवार हिमालय की इन्हीं बारीकियों को हमसे साझा कर रहे हैं.)

 नोबल पुरूस्कार प्राप्त अमेरिकी राजनीतिज्ञ व पर्यावरण विशेषज्ञ अलगोर ने वैश्विक आपदाओं को लेकर एक वृतचित्र इन कनविनियेन्ट ट्रुथ (असुविधाजनक सत्य) का निर्माण कुछ वर्ष पूर्व किया था. इस डाक्यूमेंटरी फिल्म को बाद में आस्कर पुरूस्कार प्राप्त हुआ. फिल्म में दुनिया मंर न र्सिफ आम लोगों बल्कि सरकारों को भविष्यगत आपदाओं की तस्वीरों से परिचित व जागरूक करावाया गचया था. इसके कुछ समय बाद पृथ्वी पर मंडरा रहे संकटों पर विश्वव्यापी बहस का सिलसिला प्रारम्भ हुआ. होशियार देशों ने इसके लिए कठोर नीतिगत निर्णय लिए व पर्यावर्णीय संकट व आपदाओं से बचाव के उपाय प्रारम्भ कर उस पर अमल भी करना प्रारम्भ किया. हमारे देश मे भी एक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन सेल बना हुआ है और उत्तराखण्ड देश का पहला प्रदेश है जिसने आपदा प्रबन्धन विभाग बनाया.आपदाओं विशेषकर प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व भविष्यवाणी करने में दुनियां के वैज्ञानिक असफल ही रहे हैं लेकिन विज्ञान ने इतनी सफलता तो अवश्य हासिल की है कि वह कम से क पूर्व चेतावनी तो दे ही सकता है.

 यह हर खास वो आम को जानने की जरूरत है कि पृथ्वी व प्रकृति को नहीं बदला जा सकता है और न ही मानव इसमें कुछ अनोखा कर सकता है सिवाय स्वयं के बदलाव के. मानव को पृथ्वी की परिस्थितियों के अनुकूल स्वंय को ढालना होगा तभी वह आपदाओं से कुछ हद तक बचाव कर सकता है. यह महत्वपूर्ण संकेत आम लोगों से लेकर नीतिकारों को समझने की जरूरत हैं लेकिन अक्सर यहीं सब कुछ फेल हो जाता है.

 विशेषज्ञों की राय हैं कि आने वाले दिनों में अनेक देशों का आपदा बजट सबसे ज्यादा होने वाला है. इसमें किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए कि आपदायें दुनिया के सभी देशें में समान रूप से घटित होती रहती है. होशियार देशों ने इसके लिए ठोस योजना व्यवस्था,ढांचागत निर्माण जन जागरूकता व नीतियो को बनया है.लेकिन हमारा देश इस मामले में गंभीर नहीं है. इस मामले में सबसे बड़ी कमी समन्वयन की रहती है. नियमानुसार आपदाओं के प्रबन्धन हेतु प्रत्येक नागरिक व सरकारी व असरकरी एजेंसियां सब में संवेदनशीलता की कमी रहती है. यही कारण है कि जिससे आपदाओं से होने वाली क्षति कई गुना बढ़ जाती है.

 आपदा का गढ़.........

 अपनी विशिष्ट भौगोलिक बनावट की वजह से हिमालय आपदाओं का घर है. यहां आपदाओं के होने की गति अन्य भैगोलिक क्षेत्रों से अधिक रहती है. उत्तराखण्ड हिमालय का ऐसा ही अभिन्न हिस्सा है. आपदाओं के इतिहास पर नज़र डालें तो कोई भी ऐसा वर्ष नहीं रहा जब उत्तराखण्ड़ में आपदा ने कहर न बरपाया हो. जब भी राज्य में आपदाओं की ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र होता हैं उसमें 1803 का विनाशकारी भूकम्प 1970 के दशक की अलकनन्दा व भागीरथी की बाढ़ की ही चर्चा अधिक रही है. लेकिन 70 के दशक के बाद यह सिलसिला ऐसा जारी रहा कि नये राज्य में आपदा प्रबंधन विभाग बनाने पर विचार करना पड़ा. लेकिन दुर्भाग्य से इस विभाग की प्रासंगिकता व प्रायोगिक स्वरूप का असर कभी नहीं दिखा. यह महज बजट खपाने का एक नया माध्यम बन गया है.

 उत्तरकाशी की पीड़ा.........

 इतिहास बताता है कि 1803 में भूकम्प नहीं आता तो नेपाल कभी भी गढ़राज्य-गढ़देश गढ़वाल पर आक्रमण करने में सफल नहीं होता. उस वक्त के गढ़देश के कुछ विभीषणों ने नेपाल नरेश को यह सूचना दी थी कि गढ़वाल राज्य की प्रजा भूकम्प से मारी जा चुकी है. यही उचित समय है जब गढ़राज्य पर कब्जा किया जा सकता है. परिणामस्वरूप नेपाल राजा ने इस आपदा का फायदा लिया. राज्य पर कब्जा किया व 1815 तक राज किया.

 उत्तरकाशी तिब्बत सीमा से जुड़ा हुआ है. तिब्बत अब चीन के अधीन है. उत्तरकाशी शहर से 4-5 किलोमीटर दूर गंगोत्री मुख्य मार्ग पर स्थित गंगोरी पुल के बाढ़ में बहने के कारण जादुंग भटवाड़ी गंगोत्री को जाने वाली सड़क पूरे देश से कट गया. यानि दुर्भाग्य से चीन यदि इस क्षेत्र में घुसपैठ करता है तो इस क्षेत्र को सड़क मार्ग से समय रहते कोई सहायता नहीं पहंचायी जा सकती .बहुत कम लोगों को पता है कि असी गंगोरी पुल के बगल में 23 साल में एक ओर पुल बनाया जा रहा था लेकिन वह पूरा होने से पहले श्रीनगर-चैरास पुल की तरह भर भराकर गंगा में ढ़ह गया था.गंगोरी से 5 किलोमीटर दूर गणेशपुर का लोहे का पुल भी 1991 के भूकम्प में ढ़ह गया था. इस बार की आपदा ने तो पुराने सारे रिकार्ड तोड़ डाले. उत्तरकाशी शहर पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा है. पहले वरूणवत ने शहर को तहस-नहस किया व इस बार मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना के लिये भागीरथी के प्रवाह को सुरंग में डालने के लिए जोशियाड़ा में जो बांध बनाया गया हैं, उसने उत्तरकाशी शहर के नदी छोर को कुरेदकर भवनों व होटल को चिन्यालीसौंड बना डाला है. अगर जोशियाड़ा का बांध नहीं होता तो सम्भव है जितना नुकसान हुआ उतना नहीं होता. मैं इसे प्राकृतिक से ज्यादा मानव जनित विकास की विभीषिका मानूंगा. यहां बांध नही होता तो जल प्रवाह आसानी से आगे निकल जाता व लोगों के घर व जोशियाड़ा का पैदल पुल नही ढहते.

 चर्चित मानव वैज्ञानिक डा. हरीश वशिष्ठ ने उत्तरकाशी की आपदा पर अपना दर्द कुछ यूं व्यक्त किया है-

 आज फिर नदी को गुस्सा आया
 फिर से उसने रौद्र रूप दिखाया
 अपने बदन पर लगे घावों को
 फिर अपनी धारा से सहलाया
 लोगों को उसने फिर याद दिलाया
 लोभ-लालच में जिन्होंने उसकी राह को कबजाया…..
 आज नदी को फिर गुस्सा आया...

http://naukarshahi.in/?p=459 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
From : Chandra Shekhar Kargeti.

बारह साल बीते, नहीं मिली राजधानी (संपादित)
 मूल लेखक : हरीश चन्द्र चंदोला
 
 यह कैसा राज्य है जिसका काम-काज बारह साल से अस्थायी, कोने में पड़ी राजधानी से चल रहा है और जिसे पता ही नहीं कि कब, कहाँ उसकी राजधानी बनेगी ? इन बारह सालों में उत्तराखंड में छ: मुख्यमंत्री, जिनमें से एक ने भी स्थायी राजधानी के बारे में लोगों से बातचीत नहीं की। सभी यह विषय टालते रहे।
 
 इसकी अस्थायी राजधानी देहरादून देश की राजधानी दिल्ली तथा अन्य भागों से रेल, हवाई जहाज तथा सड़कों से अच्छी तरह जुड़ी है, किन्तु अपने राज्य से यह केवल एक बहुत ही बदहाल तथाकथित राजमार्ग, जो आए दिन कहीं न कहीं बंद रहता है, से जुड़ा है। राजधानी का अपने राज्य से बहुत कम संपर्क है। संपर्क ही नहीं, लोगों तथा सरकार के बीच संवाद भी कम है। यहाँ के लोगों ने अपने एक पर्वतीय राज्य की लड़ाई लड़ी और जीती थी। किन्तु संवाद न होने से यहां जनता की सबसे मुख्य तथा बडी मांग पर सरकार लगातार चुप्पी साधे रहती है। लोग कह रहे हैं: “पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो“, लेकिन देहरादून इतनी दूर है कि वहाँ तक यह आवाज शायद नहीं पहुंच पाती।
 
 देहरादून सुरसा के मुँह जैसा है। जो कुछ धन स्थायी राजधानी तथा विकास के लिए आता है, वह सब देहरादून के मुँह में चला जाता है। लाखों-करोड़ों रुपए देहरादून में विधानसभा, सचिवालय, राज भवन, अनेक प्रकार के कार्यालय, संस्थाएं, सड़कें, संचार साधन इत्यादि स्थापित करने में लगा दिये। इनको बनाने में वहाँ के ठेकेदार मालामाल हो गए और अभी भी हो रहे हैं। लेकिन वहाँ खर्च हुआ पैसा पहाड़ों मे नहीं आया। वहाँ ठेकेदार ही नहीं मज़दूर और लगभग सभी प्रकार के काम करनेवाले पहाड़ से बाहर के लोग हैं। पहाड़ों में बेरोजगारी बढ़ रही है, जिसे कम करने में देहरादून में किया गये काम का सहयोग नहीं मिला। इतना सारा धन आने पर देहरादून अन्य बडे शहरों का प्रतिरूप बन रहा है। वहाँ शापिंग माल, शेयर, आभूषण तथा अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं बेचने वालों की दूकानें खुल रही हैं और तरह-तरह के स्कूल तथा कालेज भी, जो हवाई जहाजों में परिचारिकाओं तक का काम सिखाते हैं, और जिनका पहाड़ की साक्षरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। देहरादून एक द्वीप बन गया है, अपनी चारों ओर की भूमि से कट कर। कितना भी धन देहरादून में खर्च किया जाये, उसका कोई भी प्रभाव पहाड़ों पर नहीं पड़ने वाला है। यह ऐसा ही होगा जैसे वह धन अमेरिका, योरोप या अंतरिक्ष में खर्च किया गया हो। इस सब के बावजूद उत्तराखंड में कोई पार्टी नहीं है जिसे खुल कर यह कहने का साहस हो कि प्रदेश राजधानी अब देहरादून में ही रहेगी और उसे वहीं रहने दो, क्योंकि ऐसा कहना लोगों की आशाओं के विपरीत होगा।
 
 आरंभ से ही मंत्री तथा नौकरशाह राजधानी को देहरादून में ही रखना चाहते थे। वहाँ सब सुविधाएं उपलब्ध थीं। देहरादून में मंत्री, राजनीतिज्ञ तथा नौकरशाह क्या कर रहे हैं, उसका पहाड़ के लोगों को पता नहीं चल पाता। देहरादून सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पर ही नहीं है, पहाड़ के लोगों से भावना से भी कटा है। दो-चार लाईन की खबरें जब अखबारों में छप जाती हैं तब कहीं सरकार के कामों के बारे में कुछ मालूम होता है। यहाँ पढे़ जाने वाले अखबार भी सभी देहरादून में बनते, छपते हैं। उनकी नीति है कि सरकार के काम के बारे में जितनी कम खबर दो उतना अच्छा है। उनका मुख्य काम है, सरकार की सराहना कर उसे खुश रखो। उनको सरकार साल भर में करोड़ों रुपए के विज्ञापन देती है, जो उनकी आमदनी का एक मुख्य साधन हो गए हैं। सरकारी नीतियों की विवेचना-आलोचना करने से फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है, इसलिए यही अच्छा है कि नीतियों का ज़िक्र ही नहीं करो !
 
 भावना के रूप में लोग पहाड़ की राजधानी के लिए गैरसैंण को ही उपयुक्त मानते हैं। उसका अर्थ केवल गैरसैंण कस्बा ही नहीं है, बल्कि चमोली के कर्णप्रयाग से अल्मोड़ा के चौखुटिया तक का सारा क्षेत्र है। यदि इस क्षेत्र में राजधानी बनती तो इन नौ सालों में इस राज्य की दशा ही बदल जाती। वहाँ जाने वाला एकमात्र राजमार्ग्, जिस पर बुरी हालत के कारण, बहुत धीमी गति से वाहन चल पाते हैं और जिस पर हर साल बीसियों हादसे होते हैं, अच्छी स्थिति में होता। उस पर पड़ने वाले नगर और गांवों का विकास होता। संचार साधन उत्तम बनते। अभी मोबाइल फोन से बात करने कुछ जगहों पर लोगों को पेड़ों पर चढ़ना पड़ता है, ताकि संचार टावरों से संपर्क हो सके। जो करोड़ों के ठेके देहरादून में राज्य सरकार साधनों के लिए देती है, वह पहाड़ के लोगों को मिलते और वह धन पहाड़ में समाता और काम आता। देहरादून में खर्च किया धन सब बाहर चला जाता है। उसमें से कुछ भी पहाड़ नहीं आता। पहाड़ में राजधानी बनती तो बहुत काम खुलता और यहाँ के लोगों की बेकारी दूर होती।
 
 मंत्री तथा अधिकारी यदि पहाड़ के किसी नगर में होते तो पहाड़ के लोगों को उनसे मिलने में आसानी होती। अभी तो पता भी नहीं लगता है कि मंत्री देहरादून में हैं या दिल्ली में ! राजधानी यदि पहाड़ के केन्द्र में होती तो मंत्री तथा अधिकारियों का राज्य से बाहर जाना इतना आसान न होता। यहाँ रहने से पहाड़ की समस्याएं जानने, सुनने वह अधिक समय देते।
 
 राजधानी कहाँ हो, यह तय करने एक कमीशन बैठाया गया था, जो सात-आठ साल वेतन लेने के बाद कह गया कि देहरादून ही राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त है। उसका एक भी तर्क सही नहीं था। उसने पहाड़ के लोगों की भावना की सरासर अनदेखी की थी। अब लोगों को राजधानी के सवाल पर विभाजित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि कई स्थान, जैसे टिहरी, उत्तरकाशी, कोटद्वार, पौड़ी, देहरादून राजधानी से निकट हैं। लेकिन वह कई स्थानों, जैसे मुन्स्यारी, से लगभग तीन दिन के रास्ते पर है। गैरसैण केन्द्र में पड़ता है और पहाड़ में कहीं से भी एक दिन से अधिक की दूरी पर नहीं है। राजधानी वहाँ बनने पर लोगों को वहाँं पहुँचने के लिए बहुत से मार्गों का विकास होता, जिससे वह और भी निकट हो जाता।
 
 देहरादून में पहाड़ के लोगों का कोई वर्चस्व नहीं है। वहाँ कुछ पहाड़ के लोग उच्च नौकरियों से अवकाश पा अवश्य बस गए हैं, लेकिन सरकार में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। वहां व्यापार, राजनीति, ठेकेदारी, सरकार का कामकाज अधिकतर गैर-पहाड़ी लोगों के हाथों में है। ऊपर से कुछ पहाड के मंत्री अवश्य हैं, जिनका काम है सरकारी धन बांटना-किस विभाग और क्षेत्र को कितना देना।
 
 इस बँटवारे में भ्रष्टाचार पनपता है। नगरपालिकाओं, निकायों, विकास खंडों, यहाँ तक कि ग्राम पंचायतों को यहीं से पैसा आबंटित होता है। किसी भी नगरपालिका से पूछ लीजिए कि उसे सरकारी पैसा पाने कितना प्रतिशत आबंटन करनेवाले विभाग को देना पड़ता है। जो बता सकेंगे, वे बताएँगे कि लगभग 10 प्रतिशत देहरादून में देना पडता है । यही सड़क, पानी इत्यादि विभागों के लोग बतलाएँगे । बजट का एक भाग आबंटित करने वाला विभाग सीधे-सीधे ले लेता है । यदि यह आबंटन देहरादून के बजाय पहाड़ों में होता तो संभव था कि खानेवाले इतना पैसा नहीं माँगते । जो अधिकारी उस मिले धन को औरों को देते हैं, उनका भी हिस्सा होता है । इसीलिए प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने तब कहा था, और उनके उत्तराधिकारी अब कह रहे हैं कि यदि सरकार एक रुपया देती है तो लोगों के पास उसमें से केवल दस पैसा पहुँचता है! इसमें कोई बदलाव नहीं आया। यहाँ भ्रष्टाचार विरोधी सेनानी, पूर्व मुख्यमंत्री कहते थे कि क्या कोई आपके घर आकर घूस माँगता है ? जी नहीं । लेकिन जो धन सरकार कार्यों के लिए देती है, वह भी तो लोगों के पास से ही तो आता है। मंत्री तथा अफसरों के घरों से तो नहीं। जो देते हैं, वे उसमें से अवश्य कुछ खा लेते हैं। हाँ, घर आकर नहीं माँगते । लेकिन उनके पास किसी कारण पहुँचो तो देखो !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
चन्द्रशेखर करगेती
August 22
भूली बिसरी यादें.......कुछ संस्मरण, कैसे थे हमारे आपके सबके गिर्दा ?

‘हमने युवा पीढ़ी को क्या दिया’
लेखक : त्रेपन सिंह चौहान

देहांत से डेढ़ हफ्ते पहले तो गिरदा का फोन आया था, मेरे स्वास्थ्य के हाल-समाचार पूछने। मैं एम्स में भर्ती था। ’’त्रेपन कैसी है बब्बा तबियत ?’’ मुझे मेरी बीमारी के बीच लगातार ढाँढस बँधाते रहे कि तुझे कुछ नहीं होगा, हम जल्दी मिलेंगे और खुद ही चले गये। मैं इतना भाग्यशाली भी तो
नहीं था कि उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल हो पाता।

गिरदा एक जनकवि, साहित्यकार, नाटककार थे, मगर उससे पहले एक जनयोद्धा थे। ऐसा योद्धा जो जनविरोधी व्यवस्था के खिलाफ जीवन भर बेधड़क खड़ा रहा। नौजवान पीढ़ी को यह संदेश देते हुए कि पहाड़ की बदहाली तब तक नहीं बदलेगी, जब तक इस व्यवस्था को ही न बदला जाये। ‘‘जैंता एक दिन तो आलो, उदिन यो दुनि में” में उनके सपनों का समाज है। गैर बराबरी और व्यवस्था के आतंक से मुक्त समाज का सपना उनके आँखों में सदा रहा।

गिरदा की पहाड़ों को देखने की समझ बेहद व्यापक और निर्दोष थी। वे हर किसी को दोष नहीं देते थे। जहाँ वे कर सकते थे, नहीं कर पाये तो उसे वे स्वीकर कर लेते थे। जब मैं कुमाउँनी लोक गीतों पर केन्द्रीय साहित्य अकादमी की द्विमासिक पत्रिका ‘इंडिया लिटरेचर’ के लिए काम कर रहा था, तब गिरदा से मिलना काफी होता था। गौर्दा, गुमानी से लेकर गिरदा तक की समृद्ध साहित्य यात्रा पर काफी बातें र्हुइं। बात आज की युवा पीढ़ी की चल निकली तो मैंने कहा, ’’हल्द्वानी से लेकर ऋषिकेश तक कहीं भी सुबह सबेरे बस से उतरो तो बाजार में बिकने वाले ऑडियो कैसेटो पर गाये जाने वाले गीतों को सुनने का मन नहीं करता है। आज का नौजवान जीजा-साली, देवर-भाभी, छोरा-छोरियों के चक्कर काटता हुआ दिखता है। पहाड़ की गंभीर समस्याओं को उठाने की समझ युवा पीढ़ी में नहीं दिखती है।’’

इस पर गिरदा ने कहा, ’’हम किसको दोष दे रहे हैं ? सच तो यह है कि हमने भी उनको (युवा पीढी) कुछ नहीं दिया। आयातित चीजें हमारी संस्कृति बन रही हैं। युवा पीढी भी वही सीख रही है।’’ ये थे गिरदा…..

गिरदा बहुत कुछ थे। पहाड़ों की गोद से निकलने वाली रामगंगा रामनगर जाती है। रामनगर में ब्याही पहाड़ की चेली जब रामगंगा का पानी अपनी अंजुली पर उठाती है उस पानी में उसे अपना मायका और मायके में छूटा अपना अतीत दिखाई देता है। अब रामगंगा का अस्तित्व ही संकट में है। चेली की रामगंगा ही नहीं रहेगी तो उसका मायका कैसे बच सकता है ? इतनी सूक्ष्म दृष्टि! बहरहाल मैं अभी संस्मरणों में नहीं जाना चाहता हूँ। संस्मरणों का सिलसिला तो लंबा ही जायेगा। लखनऊ की अंतिम यात्रा में चर्चित साहित्यकार नवीन जोशी के घर कहे उनके उदगार, ’’मान लो मुझे कुछ हो भी गया तो यहीं रहूँगा तुम लोगों के साथ।’’ आज गिरदा सशरीर हमारे बीच नहीं रहा तो क्या हुआ। हमारे दिलों में वह हमेशा रहेगा। इन पहाड़ों की घाटियों में, चोटियों में अपने गीतों के साथ और उस चेतना के साथ जो उसने बोया है इस पहाड़ में…..।
— with Trepan Singh Chauhan.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
चन्द्रशेखर करगेती इस माटी में हैं दम...............

 भारतीय क्रिक्रेट कंट्रोल बोर्ड की टीम इण्डिया के कैप्टन महेंद्र सिंह धौनी के बाद अब जूनियर टीम के कप्तान उन्मुक्त चंद ने साबित कर दिया है कि उत्तराखण्ड की माटी में क्रिकेट की जबदस्त महक है !

 धौनी और और चंद के अलावा रॉबिन बिष्ट , पुनीत बिष्ट , पवन सुयाल, मनीष पाण्डेय, पवन नेगी, एवं मह िला क्रिकेटर सुश्री एकता बिष्ट समेत कई क्रिकेटर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपना दमख़म दिखाने को बेताब हैं !

 कहने को उपरोक्त सभी क्रिकेटर उत्तराखण्ड मूल के हैं लेकिन इस सभी प्रतिभाओं की क्रिकेट क्षमता उत्तराखण्ड से बाहर के राज्यों में परवान चढी है, ये सभी क्रिकेटर अपनी प्रतिभा को ज़िंदा रखने के लिये दूसरे राज्यों का प्रतिनिधित्व करने को मजबूर हैं !

 ये प्रतिभाएं उत्तराखण्ड का भी प्रतिनिधित्व कर सकती है, और उत्तराखण्ड में ये सब संभव भी है, लेकिन यहाँ के नेताओं का अहम ऐसा नहीं होने दे रहा है l नेताओं की आपसी लड़ाई के कारण राज्य क्रिकेट एसोसिएशन नहीं बन पा रही है l एसोसिएशन न होने के कारण राज्य के न जाने कितने ही धौनी और उन्मुक्त अपनी क्रिकेट प्रतिभा नहीं दिखा पा रहें हैं, कोमोबेश यही स्थिति अन्य खेलों की भी है.........

 काश नेताओं के अहम के खेल इन वास्तविक खेलों से बड़े न होते.........

 (आभार: दैनिक हिन्दुस्तान)

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