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How do you rate Uttarakhand progress during these 9 yrs ?

Below 25 % Development
21 (43.8%)
25 % Development
11 (22.9%)
50 % Development
4 (8.3%)
75 %- Development
0 (0%)
Poor Performance
12 (25%)

Total Members Voted: 45

Voting closes: February 07, 2106, 11:58:15 AM

Author Topic: Development Survey Of Uttarakhand - उत्तराखंड राज्य के विकास का सर्वेक्षण  (Read 31034 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Our New Members would also like to give details on developmental progress in their village areas.


पंकज सिंह महर

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शंकर सिंह भाटिया, देहरादून: विकास की जिन उम्मीदों को लेकर उत्तराखंड राज्य की मांग की गई थी, नौ साल बाद उसके नतीजे और भयावह दिखाई दे रहे हैं। राज्य के अंदर ही पहाड़ और मैदान के बीच विकास की खाई और चौड़ी होती चली जा रही है। पहाड़ विकास में पीछे छूटता चला जा रहा है। मैदान विकास के नए प्रतिमान छू रहा है। विकास में चौड़ी होती खाई की बात राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों से प्राप्त आंकड़ों से साबित हो रही है। पर्वतीय जिलों में सिर्फ 60 प्रतिशत गांव सड़क से जुड़ पाए हैं, जबकि मैदानी जिलों के शत प्रतिशत गांव कनेक्टेड हैं। यदि कृषि उत्पाद से प्रति व्यक्ति आय की बात करें तो पौड़ी जिले में यह एक हजार रुपये से नीचे है, जबकि ऊधमसिंह नगर जिले में दो लाख रुपये से अधिक है। प्रति एक लाख व्यक्तियों पर टेलीफोन कनेक्शन की बात करें तो बागेश्र्वर जिले में एक लाख लोगों पर 1400 से कम कनेक्शन हैं, जबकि नैनीताल और देहरादून जिले में 8000 से अधिक हैं। उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, बागेश्र्वर और अल्मोड़ा जिलों में प्रति व्यक्ति विद्युत खपत सौ किलोवाट से कम है, देहरादून में यह 936 किलोवाट और हरिद्वार में 416 किलोवाट है। उद्योग और सेवा क्षेत्र में काम करने वाले हाथों की बात की जाए तो रुद्रप्रयाग और अल्मोड़ा में 27-27 प्रतिशत, बागेश्र्वर और उत्तरकाशी में 24-24 प्रतिशत हैं। देहरादून जिले में 78 प्रतिशत, हरिद्वार में 71 प्रतिशत, ऊधमसिंह नगर में 66 प्रतिशत और नैनीताल में 58 प्रतिशत लोग उद्योग और सेवा क्षेत्र में कार्यरत हैं। व्यावसायिक कृषि की तस्वीर और भी अंतर पैदा करने वाली है। बागेश्र्वर जिले में सिर्फ पांच प्रतिशत खेती व्यावसायिक होती है, जबकि हरिद्वार में यह 50 प्रतिशत है। पहाड़ी जिले पूरी तरह उद्योग शून्य हैं, जबकि राज्य के सभी शत प्रतिशत बड़े उद्योग मैदानी क्षेत्रों में हैं।


साभार- दैनिक जागरण

Rajen

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सिर्फ बिकास की बातें ही हो रहें हैं, धरातल पर कुछ ख़ास होता नहीं दिखाई देता.  हाँ, भ्रष्टाचार का बिकास कुछ ज्यादा ही तेजी से हो रहा है. 

Meena Rawat

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उत्तराखंड विकास के मामले में काफी पीछे है

आज भी काफी गाँव ऐसे है  जहा पे बिजली की पर्याप्त सुविधा नहीं है अगर बिजली है भी तो सिर्फ नाम की क्यंकि वह डिम रूप  में आती है !!!

पानी की भी समस्या काफी है, पर्याप्त मात्र में पानी नहीं आता है घरो के बाहर नल तो है लेकिन उनमे पानी नहीं आता है, नल सूखे पड़े है सरकार ने बस नल लगा दिए हा लेकिन उनमे पानी का नामोनिशान नहीं है !!!!

शिक्षा के मामले भी कंजूसी कर रही है उत्तराखंड सरकार छोटे छोटे स्कूल है तो सही लेकिन वह पे मास्टर नहीं है :( अगर स्कूल में मास्टर नहीं होगे तो बच्चो को कोंन पढाएगा ? इस बारे में कभी नहीं सोचती है सरकार....कितने सालो से मैं ये समस्या देख रही हूँ  लेकिन अभी तक्क इसमें मैंने कोई सुधार नहीं देखा है !!!!

Meena Rawat

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उत्तराखंड में गरीबी भी काफी है,

आज तक्क क्यूँ पर्याप्त रोजगार नहीं है ?
 
क्यूँ लोगो को अपना गाँव छोड़ के जाना पड़ता है ?

क्या कभी भी उत्तराखंड के  निवासियों को उत्तराखंड में ही रोजगार मिल पायेगा ?

मेरे गाँव में ९० % पुरुष अपने गाँव से दूर काम करने को आ रखे है!! ऐसा कब तक्क चलता रहेगा की पैसे क लिए अपना घर छोड़ना पड़ेगा?

Meena Rawat

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विकास के नाम पर एक बात मुझे सबसे अच्छी लगी की सड़को की हालत में काफी सुधार आया हा, सड़क का  कार्य काफी अच्छा चल रहा है

मिट्टी की सडको को डामर डाल के पक्का किया जा रहा हा :)
और इस काम में मैंने काफी लोगो को काम करते हुए देखा जो गाँव में रहते है ..इस से गाँव के आम आदमी को कुछ न कुछ कमाने को मिल रहा हा !

हुक्का बू

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विकास की क्या गजब कहानी गढ़ी जा रही है, इसकी बानगी देखने के लिये आप उत्तराखण्ड आ सकते हैं।
* पर्वतीय क्षेत्रों में उद्योग शून्य ही हैं, पर्वतीय ग्रामीण अंचलों में बिजली की आवश्यकता रात के समय उजाला करने और बच्चों को पढ़ाई करने के लिये ही चाहिये। लेकिन यह विडम्बना है कि हवाई दावों के बाद उत्तराखण्ड के सुदूर गांवों में आज भी रात में बिजली नहीं आती है और बिजली अगर गलती से आ भी गई तो इतनी डिम है कि उससे उजाला भी सही से नहीं हो पाता। हां बिजली इतनी जरुर आती है कि आप विद्यार्थी को यह बता सकते हैं कि देखो बल्ब में जो जल रहा है, वह टंगस्टन का तार है।

* सड़को पर डामरीकरण हो रहा है, लेकिन उसकी क्वालिटी और क्वांटिटी क्या है? डामर के नाम पर बस सड़कें काली कर दी जाती हैं, मुश्किल से १ इंच डामर भी नहीं किया जा रहा है।

* पानी के सूखे नल मीना नातिनी ने दिखा ही दिये हैं। इसके साथ ही ६०-६० हजार में लगे हैण्डपम्प भी सफेद हाथी ही साबित हुये हैं। उत्तराखण्ड राज्य की मांग का जो दर्द था, वह यह था कि मैदानी राज्य के परिप्रेक्ष्य में जारी की जा रही नीतियां हमारे लिये निष्प्रयोज्य ही होती थी। लेकिन वाह रे उत्तराखण्ड के हुक्मरान, इन्होंने फिर वही दोहराया और उत्तराखण्ड में भी हैण्ड पम्प लगवा दिये, जो १-२ साल हांफ-हांफ कर चुप्प हो गये।

* पहाड़ों की सड़को की हालत यह है कि उस पर पैदल चलना भी दूभर है, जो सड़क बरसात में टूट गई थी, वह अभी तक नहीं बन पाई है, कई जगह तो सड़क पर खुद ही अस्थाई सड़क बनाकर अपनी गाड़ी पार करवानी पड़ती है।

बहुत कुछ है......कहो तो क्या कहो, करो तो क्या करो, क्योंकि जो कर सकता है,......वह कुछ और ही कर रहा है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thanks for the inputs by all the Members.

The inputs given by you shows that Uttarakhand is nowhere on development Track even after passingn of 9 yrs of its coming into existence.

Two national level parties BJP and Congress have ruled in the state but so far both the parties have been failed to give the development pace.

What was the objective / dream for this hilly state, it does not seem to be proving true.

Though, i have alreay given a clear report out the development in my village and i have given only 5% to the development that is also too high.

Situation has become like speechless

God save us !


Bhopal Singh Mehta

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i am also dis-appointed with the development pace of Uttarakhand. It is really very-2 sad that during these 9 yrs, there is no remarkable development in hill areas.


Devbhoomi,Uttarakhand

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मुझे तो लगता नहीं है की कभी भी उत्तराखंड के पर्वतिये गाँवों मैं कभी विकास होगा ,ये बिलकुल गलत है कि उत्तराखंड की सरकार, गांवों के विकास के के लिए पैसा नहीं देती है, पैसा जितना पास होता है उतना गांवों के विकास के लिए जाता है है लेकिन, गांवों मैं सरकारी दफ्तरों मैं बैठने वाले भेडिये हैं,

 आधा से ज्यादा तो वो डकार देते हैं बाकी बचे आधे उनमें से आधे पहले ही गाँवों मैं जो विकास का काम करवाने वाले अपनिआप को ठेकेदार संझते हैं!

 आधे खा जाते हैं वो और जो भी काम कर्वालते हैं वो काम सिर्फ चार महीने तक ही सिमित रहता है, लगता है कि कुछ विकास हुवा लेकिन ये जानते ही नहीं हैं ये विकास का काम नहीं विनास कर रहे हैं इस देवभूमि का !

 

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