Author Topic: Existence of Crow & other birds at stake in Pahad- पक्षियों का अस्तितव खतरे में  (Read 9065 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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गिद्द भी गायब हो गए हैं उत्तराखंड से
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जब हमें अपने गाँव-देहात या शहर के नुक्कड़ों पर कुदरत के सफाईकर्मी कहे जाने वाले गिद्धों के दर्शन आसानी से हो जाते थे। आज इस विशाल पक्षी के गायब हो जाने से पर्यावरण पर गंभीर खतरा मँडरा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक अस्सी के दशक में भारत में साढे़ आठ करोड़ गिद्ध थे।

 मगर आज उनकी संख्या महज 4,000 ही रह गई है। हालांकि सुकून की बात यह है कि कॉर्बेट नेशनल पार्क से सटे जंगलों में इन दिनों गिद्धों के झुण्ड दिखाई दे रहे हैं। मगर वन विभाग और संबधित एजेंसियाँ सचेत न होने से उम्मीद की यह किरण भी बुझ सकती है। वजह, गिद्धों के सफाए का कारण बनी डाइक्लोफिनेक नाम की दवा की आसपास के क्षेत्रों में धड़ल्ले से हो रही बिक्री है।

भारत में गिद्धों की कुल 9 प्रजातियों में से उत्तराखण्ड में आठ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें हिमालयन ग्रिफन, व्हाइट बेक्ड, सिलैन्डर ब्ल्डि, रैड हैडैड, इजिप्शियन, सिनेरियस, लामरगियर आदि मुख्य हैं। ये पक्षी मांसाहारी हैं और मृत सड़े-गले जानवरों को खाकर गुजारा करते हैं।

 मगर जानवरों को दी जाने वाली डाइक्लोफिनेक दवा के बुरे असर से गिद्धों का खात्मा होता गया है। इसके चलते लौंग बिल्ड, व्हाइट बेक्ड और सिलैन्डर बिल्ड प्रजाति के 99.9 प्रतिशत गिद्धों का सफाया हो चुका है।

 वर्ष 2004 में गिद्धों के सफाये की वजह के रूप में डाइक्लोफिनेक के सामने आने के बाद 2006 में जानवरों के इस्तेमाल के लिये इसकी बिक्री और प्रयोग पर पाबंदी लगा दी गयी। मगर इंसानों के लिए इस दर्द निवारक का निर्माण और बिक्री जारी है। दुकानों पर आसानी से उपलब्ध यही डाइक्लोफिनेक गिद्धों के लिये तबाही ला सकता है।

 क्योंकि जानकारों के मुताबिक 760 में से एक डाइक्लोफिनेक उपचारित पशु ही वर्तमान गिद्धों के सफाये को काफी है। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि गाँवों में बीमार पशुओं को इंसानों वाले डाइक्लोफिनेक से उपचारित किया जा रहा हैं।

विनोद सिंह गढ़िया

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खुद के संरक्षण की गुहार लगा रहा मोनाल
संकट में देवभूमि के राज्य पक्षी का जीवन, प्रदेशभर में महज 919 पर सिमटी तादाद

कहने को वह राज्य पक्षी है। लेकिन उसके संरक्षण की प्रदेश सरकार को कोई परवाह नहीं। यही वजह है कि आज राज्य पक्षी मोनाल की संख्या सिमट कर सिर्फ 919 रह गई है। सिंधु सतह से करीब 13 हजार फीट की ऊंचाई पर पाए जाने वाले इस पक्षी का जीवन संकट में है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत दुर्लभ घोषित मोनाल को उत्तराखंड मेंराज्य पक्षी का दर्जा दिया गया है। लेकिन अफसोस, राज्य गठन के साढ़े दस साल बाद भी इसके संरक्षण के लिए कोई ठोस योजना नहीं बन पाई। बेशक, गढ़वाल के कांचुलाखर्क में मोनाल का ब्रीडिंग सेंटर बनाने का प्रयास हुआ पर यह कोशिश सफल नहीं हो पाई।



हिमालयी रेंज के सबसे खूबसूरत पक्षियों में एक मोनाल (जंतु वैज्ञानिक नाम-लोफोफोरस इंपेजानस) आमतौर पर नौ हजार फीट की ऊंचाई तक उतरता है। इस पर शिकारियों की नजर तो रहती ही है साथ में मांसाहारी पक्षी भी मोनाल के लिए आफत हैं। अक्तूबर में अंडों से मोनाल के बच्चे बाहर आते हैं और इसी वक्त इसके जीवन पर संकट की घड़ी आती है। जनवरी से मार्च तक प्रजनन की समाप्ति के बाद जब मादा मोनाल जुलाई में अंडे देती है तो मांसाहारी पक्षी घोंसलों में रखे अंडों को विकसित होने से पहले ही नष्ट कर देते हैं। बुग्यालों, छोटे बुरांश तथा रिंगाल के जंगलों में ही इसकी ब्रीडिंग होती है। इन्हीं जंगलों में अक्तूबर तक घोंसले बनाकर मादा मोनाल अंडों को विकसित करती है। मुनस्यारी के बुग्यालों में इस समय झुंड में मोनाल के दीदार होने लगे हैं। क्योंकि इसी समय अंडों से बच्चे निकलते हैं। राज्य गठन के बाद जब हिमालय के इस पक्षी को राज्य पक्षी घोषित किया गया तो 2008 में पहली बार इनकी गणना शुरू हुई। तब सिर्फ केदारनाथ में ही सर्वाधिक 367 मोनाल देखे गए। उत्तरकाशी, मंसूरी, केदारनाथ, पिथौरागढ़, टिहरी, बदरीनाथ, रामनगर, पौड़ी और बागेश्वर आदि के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भी ये देखे जा सकते हैं। हालांकि इनकी संख्या में कमी के पीछे जलवायु परिवर्तन को बड़ा कारण माना जा रहा है। वन विभाग के अधिकारी मानते हैं कि हिमालय की तलहटी में जहां मोनाल का बसेरा है, वहां बर्फबारी कम होने से इसके जीवन के लिए मौसम प्रतिकूल हो रहा है। जब ये बुग्यालों की तरफ आते हैं तो शिकारियों की नजरें इन पर पड़ जाती हैं। 2008 के बाद से दोबारा इसकी गिनती नहीं हुई है और वन विभाग के रिकॉर्ड में राज्यभर में अभी सिर्फ 919 मोनाल हैं।



साभार : अमर उजाला

विनोद सिंह गढ़िया

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विलुप्त होने की कगार पर पहुंचे पक्षियों के संरक्षण को लेकर सरकार कुछ प्रयास करने लगी है।   बाघ, तेंदुआ और हाथी जैसे बड़े वन्यजीवों के अलावा लुप्त होने की कगार पर पहुंचे पक्षियों के संरक्षण को लेकर भी कोशिश शुरू हो गई है। अमर उजाला के खबर के अनुसार जंगलात ने इसके लिए ‘आपरेशन गरुड़’ योजना तैयार की है। इसमें एक साथ, एक ही दिन पूरे कुमाऊं में गिद्धों की गणना होगी। इस गणना में वन कर्मियों के साथ वाइल्ड लाइफ इंस्टीटूट ऑफ इंडिया (डब्लूआईआई) के वैज्ञानिक, वन्यजीव संरक्षण से जुड़े एनजीओ से लेकर स्कूली बच्चे भी मदद करेंगे।
गिद्धों को प्राकृतिक सफाई कर्मी कहा जाता है। यह पक्षी अक्सर हमारे आसपास दिख जाते थे। ऐसे जानवर जिन्हें कभी दर्द निवारक दवा दी गई हो उनका मांस खाने से गिद्धों का जीवन संकट में पड़ गया और उनकी संख्या अचानक कम हो गई। इसके बाद से संरक्षण को लेकर कोशिश शुरू हुई है। उत्तराखंड में विभिन्न ऊंचाइयों पर स्पेलेंडर वल्चर, वाइट बैक, हिमालयन ग्रिफिन वल्चर समेत आठ प्रजातियां मिलती हैं, इनकी संख्या कितनी है, वास स्थल में क्या बदलाव आया है आदि का पता करने को जंगलात ने ‘आपरेशन गरुड़’ योजना बनाई है।
क्या जंगलात का 'आपरेशन गरुड़' सफल रहेगा और आगे भी सरकार इसी प्रकार के कार्यक्रम चलाकर पक्षियों के संरक्षण में क्या कदम उठाती है, साथ ही यह प्रश्न उठता है कि ये उपाय विलुप्त होने की कगार पर पहुंचे पक्षियों के संरक्षण कितने कारगर सिद्ध होते हैं ?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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