Author Topic: Financial crisis in Uttarakhand State -उत्तराखंड में आर्थिक संकट  (Read 5169 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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आर्थिक बदहाली से जूझता उत्तराखंड   
कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार ने जब भाजपा को सत्ता सौंपी थी, तो राज्य ग्यारह हजार करोड़ रुपये के कर्जे में डूबा हुआ था. वर्ष 2009-10 में बढ़कर यह आंकड़ा उन्नीस हजार करोड़ को पार कर गया. यह रफ्तार लगातार बढती ही जा रही है....
शैलेन्द्र चौहान
आज से तकरीबन 12 साल पहले अस्तित्व में आये उत्तराखंड की हालत इन दिनों कुछ खास अच्छी नहीं है. बाहर से देखने पर तो यह एक चमकदार, तेजी से प्रगति करता हुआ और संभावनाशील राज्य नजर आता है, लेकिन इसकी आर्थिक दशा बेहद खराब है. इसका खुलासा 2011 में जारी कैग रिपोर्ट में हुआ है.

साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये के कर्ज के साथ उत्तर प्रदेश से अलग करके बनाये गये उत्तराखंड राज्य पर इन दिनों लगभग बाईस हजार करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ चुका है. भाजपा और कांग्रेस दोनों राजनीतिक दल बारी-बारी से यहां शासन कर के हैं, लेकिन दोनों ही इस नवजात राज्य की तकलीफों को न तो समझ सके हैं, न ही उसका निदान ढूँढने की कोशिश करते नजर आते हैं.
इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि अपने अस्तित्व में आने के एक दशक बाद भी यह राज्य स्थायी राजधानी के लिये तरस रहा है. देहरादून अस्थाई रूप से इसकी राजधानी है. उत्तरांचल का जब आंदोलन चला था तो श्रीनगर या गैरसैण राजधानी बनायी जानी थी. राजधानी मामले में आज तक अंतिम फैसला नहीं लिया जा सका है. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के बीच सम्पत्तियों का बंटवारा अभी तक नहीं हो सका है. उत्तराखंड ने अपना अलग राज्य सेवा चयन आयोग तो बना लिया है, लेकिन अभी हाल तक उसकी परीक्षाएं यूपी बोर्ड के तहत ही आयोजित की गयी हैं. इसी तरह वहां हाईकोर्ट का मसला भी फंसा हुआ है. कुमाऊं और गढ़वाल के बीच वर्चस्व की लड़ाई आज भी जारी है और यह दोनों एक म्यान में दो तलवारों जैसी हालत में किसी तरह रह रहे हैं.
उत्तराखंड के गठन के साथ ही यहां पर 9 नवम्बर 2000 को भाजपा के नित्यानंद स्वामी ने मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला था. वे उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री थे. 29 अक्टूबर 2001 को भाजपा हाईकमान द्वारा हटाये जाने के बाद 30 अक्टूबर 2001 को भगत सिंह कोश्यारी ने सत्ता की बागडोर संभाली. वे 1 मार्च 2002 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. इसके बाद प्रदेश में पहली बार विधानसभा चुनाव हुये जिसमें कांग्रेस ने भाजपा को पटखनी देते हुये सत्ता संभाली.
दो मार्च 2002 को इस राज्य की कमान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एनडी तिवारी को सौंपी गई, जो इससे पहले भी चार बार उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके थे. हालांकि कांग्रेस की जीत में तब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे और उत्तराखंड के तेजतर्रार नेता हरीश रावत का महत्वपूर्ण योगदान था. रावत और तिवारी के समर्थकों में भीतर ही भीतर गुटबाजी चलती रही. इसके बावजूद इस नवसृजित राज्य के विकास के लिये खासकर बुनियादी अवस्थापना (इंफ्रास्ट्रक्चर) के लिये तिवारी के संबंधों तथा विशाल राष्ट्रीय एवं अंतरर्राष्ट्रीय अनुभव का उत्तराखंड को खासा लाभ मिला. यहां पर इलेक्ट्रॉनिक्स और अन्य उद्योगों के स्थापना के लिये महत्वपूर्ण पहल की गयी.
सात मार्च 2007 को जब कांग्रेस सरकार का कार्यकाल समाप्त हुआ, तो प्रदेश में दूसरी बार विधानसभा चुनाव हुए. इसमें भुवनचंद्र खंडूड़ी को भाजपा की जीत के बाद राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया. 8 मार्च 2007 से 23 जून 2009 तक वे मुख्यमंत्री के पद पर बने रहे. इसके बाद रमेश पोखरियाल निशंक 24 जून 2009 को मुख्यमंत्री बने, फिर भुवन चन्द्र खंडूड़ी को भाजपा ने इसी कार्यकाल में मुख्यमंत्री पद पर बैठाया. इस बार यानी 2012 में कांग्रेस विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्रित्व में फिर सत्तासीन है.
मगर उत्तराखंड की अंदरूनी हालत जस के तस हैं या ये कहें कि बिगड़े ही हैं. यह किसी से छिपा भीनहीं है. फिजूलखर्ची, भ्रष्ट्राचार, अदूरदर्शिता और सियासी निकम्मेपन के बाद उत्तराखंड देश के शीर्ष राज्यों उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल की पंक्ति में खड़ा दिखायी दे रहा है. ये तमाम राज्य क़र्ज़ के बोझ तले दबे हुए हैं. कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार ने जब भाजपा को सत्ता सौंपी थी, तो राज्य ग्यारह हजार करोड़ रुपये के कर्जे में डूबा हुआ था. वर्ष 2009-10 में बढ़कर यह आंकड़ा उन्नीस हजार करोड़ को पार कर गया. यह रफ्तार लगातार बढती जा रही है.
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के अनुसार वित्तीय वर्ष 2005-06 में राज्य पर 11714 करोड़ का ऋण बोझ था जो 2009-10 में साठ फीसदी की रफ्तार से बढ़कर 18748 करोड़ हो गया. इस कर्ज बोझ में मुख्य अंश 14 हजार करोड़ लोक ऋण और 2953 करोड़ लघु बचत व भविष्य निधि खाते से लिये गये. इसके अलावा 1794 करोड़ के अन्य कर्जे भी शामिल हैं. सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक राज्य पर मौजूदा कर्ज बोझ राज्य के राजस्व प्राप्तियों का दोगुना और अपने संसाधनों का चार गुना है. इसके चलते राज्य के प्रत्येक नागरिक पर बीस हजार रुपये से अधिक का ऋण हो गया है. अगर यही दशा जारी रही तो आने वाले दिनों में इसके घातक दुष्परिणाम हो सकते हैं.
देश के सबसे ज्यादा कर्जदार राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्य शीर्ष स्थान पर खड़े हैं. 13वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के अनुसार किसी भी राज्य पर कर्ज बोझ उसके सकल घरेलू उत्पाद के तीस फीसदी के दायरे में रहना चाहिये, लेकिन यह सभी राज्य चालीस फीसदी की सीमा के पार खड़े हैं. विशाल आबादी वाले इन राज्यों का कर्ज तो समझ में आता है, लेकिन एकाएक दस साल में ही उत्तराखंड इतने कर्जों से घिर गया यह बात समझ से बाहर है.
उत्तराखंड की हालत तब और खराब होगी जब वर्ष 2013 से उसे कर्ज पर ब्याज की अदायगी के साथ-साथ मूलधन की भी वापसी करनी पड़ेगी. अभी यह राज्य मुख्य रूप से केन्द्र से मिलने वाले अनुदान पर ही निर्भर है. इतना तो तय है कि चुनाव वर्ष में केन्द्र की संप्रग सरकार इसकी अनुदान राशि में कोई कटौती नहीं करने जा रही है, लेकिन इस बात की कौन गारंटी देगा कि उत्तराखंड अगले दो-तीन सालों में अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा. उत्तर प्रदेश से अलग तो वह इसी सपने के साथ हुआ था.


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