साथियो,
यह प्रश्न हमारी आस्था से भी जुड़ा हुआ भी है, दूसरा विषय इसमें हमारे पहाड़ की दूरस्थ, दुर्गम एवं विकट भौगौलिक परिस्थिति भी है, जहां पर मूलभूत चिकित्सा सुविधाओं की नितान्त कमी है। कोई बीमारी हो जाने पर लोगों को स्थानीय इलाज पर निर्भर रहना पड़्ता है और देवता के पास पूछ करने के लिये जाने का मतलब हमें यह नहीं निकालना चाहिये कि यह अंध विश्वास है, हमारे उत्तराखण्ड में घरेलू औषधीय उपचार की महान परम्परा रही है और हमारे बुजुर्ग आज भी इसको जानते हैं। जब उन दुर्गम इलाकों में कोई बीमार होता है तो वह इनके पास जाता है और वह उसका घरेलू विधि से उपचार करते हैं।
इसमें आस्था ही शामिल नहीं है, इसमें मजबूरी भी शामिल है, क्योंकि मरीज को ५० कि०मी० दूर जिला अस्पताल ले जाना है, क्योंकि पहाडों मे PHC or CHC में पूरी सुविधायें नही होती हैं, डाक्टर नहीं होते। तो यह उनकी नियति और मजबूरी भी है कि वह अपना इलाज गांव में सीमित साधनों से ही करे, व्यवहार में आप सभी लोगों ने देखा होगा कि केवल ग्रामीण और दुर्गम इलाकों में ही इसका चलन ज्यादा है और जो गांव सड़्क के किनारे हैं या शहर के नजदीक हैं, वह पहले डाक्टर के पास जाते हैं और वहां कुछ नहीं होता तो फिर देवता की शरण में आते हैं और जैसा मैने पहले भी कहा कि हमारे उत्तराखण्ड में घरेलू औषधीय उपचार की महान परम्परा रही है, उसमें जो झाड़ा जाता है, वह ब्लड की क्लांटिंग को समाप्त करता है और खून के ब्लाकेज को भी समाप्त करता है, तो इस प्रकार से अन्य इलाज भी होते हैं।
मेरा मानना यह भी है कि हमारे पहाडों में कुछ बीमारिया मानसिक और मनोवैग्य़ानिक भी होती हैं, जैसे छूत लगना आदि, तो इन बीमारियों का इलाज भी मानसिक ही करना पड़्ता है।
उत्तराखण्ड वैसे भी देवभूमि है, यहां तो आधा इलाज भगवान ही कर देते हैं।
उक्त तथ्यों के आलोक में यही निष्कर्ष है कि देवता पर चिकित्सा को छोड देना मात्र अधविश्वास ही नहीं मजबूरी भी है, शायद नियति भी........................।
जय उत्तराखण्ड!