Author Topic: How To Save Forests? - कैसे बचाई जा सकती है वनसम्पदा?  (Read 38307 times)

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
मैं सोचता हूँ की जनता मै जंगलो के प्रति जागुरुकता होनी भी जरुरी है. कई बार देखा गया है की लोग अपने जरूरत के ज्यादा पेडो को काटते है.

मेहता जी,
      आम आदमी तो उतने ही पेड़ काटेगा, जितने की उसे जरुरत है, जंगलों को खतरा है वन-माफियाओं से, जो अंधाधुंध पेड़ काटते हैं।

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
गांवों में वनों का उचित प्रयोग सुनिश्चित करने के लिये वन पंचायतें काम करती हैं. कई बार देखा गया है कि वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकने के लिये गांववासियों द्वारा वनों को, किसी देवता को कुछ सालों के लिये चढा दिया जाता(समर्पित करना) है. इस दौरान उस जंगल में कोई दोहन नहीं किया जाता.

इस प्रकार कुछ सालों में जंगल को पुनः पनपने का समय मिल जाता है.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0


Bilkul sahi kaha hem da.

in our village, villagers have also done the same thing. But somewhere it is effective too. In the fear of God, people don't cut the jungle, particularly, baaj and cheed trees.

गांवों में वनों का उचित प्रयोग सुनिश्चित करने के लिये वन पंचायतें काम करती हैं. कई बार देखा गया है कि वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकने के लिये गांववासियों द्वारा वनों को, किसी देवता को कुछ सालों के लिये चढा दिया जाता(समर्पित करना) है. इस दौरान उस जंगल में कोई दोहन नहीं किया जाता.

इस प्रकार कुछ सालों में जंगल को पुनः पनपने का समय मिल जाता है.


पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
नहीं थम रही है जंगलों की आग

सोमेश्वर (अल्मोड़ा)। क्षेत्र में जंगलों का जलना जारी है। बीती रोज भतीनेश्वर के जंगल में भयंकर दावाग्नि के कारण लाखों की वन संपदा जलकर राख हो गई है। ग्राम पच्चीसी की महिलाओं के संयुक्त प्रयासों से लाइन काटकर धू-धू कर जलते जंगल की आग को दूसरे क्षेत्र में फैलने से रोक लिया गया। दूसरी ओर वन विभाग के कर्मचारी आग की घटनाओं के प्रति बिल्कुल गंभीर नहीं है।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
देहरादून। एक वक्त ऐसा भी आएगा जब पहाड़ की लोक कथाओं लोक गीतों में बसने वाला बांज का जंगल अतीत की बात हो जाएगा। लुप्त हो जाने वाले ये दुनिया के पहले वन होंगे। ग्लोबल वार्मिग हिमालय पर ऐसा ही बुरा असर डालने वाली है।
      गोविंद बल्लभ पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट के वैज्ञानिकों का शोध बांज के जंगलों के बारे में यही भविष्यवाणी करता है। वैज्ञानिक सुब्रत शर्मा और एसपी सिंह के शोध के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र अपनी विशेष भौगोलिक परिस्थितियों, जलवायु के कारण बेहद संवेदनशील है। ग्लोबल वार्मिग की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन का सीधा असर यहां उच्च हिमालय में स्थित बांज वनों पर पड़ेगा। हिमालयी भूरे बांज के वन अफगानिस्तान से म्यांमार तक पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जैसे-जैसे ग्लोबल वार्मिग की वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। बांज के जंगलों के लिए मुफीद स्थान उनके लायक नहीं रह पा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के साथ बांज खुद को दूसरी जगहों पर नहीं ले जा पा रहे हैं। शोध के मुताबिक बांज प्रजाति प्राकृतिक रूप से गर्म स्थान से ठंडी जगह पर शिफ्ट हो जाता है, लेकिन यह प्रक्रिया बेहद धीमी है। बहुत से कारण है जो इन्हें इनके उगने लायक परिस्थिति वाले क्षेत्रों में पहुंचने से रोकते हैं। बांज के वन अक्सर चोटियों के पास उगते हैं। आंतरिक हिमालयी क्षेत्रों में और ऊपर की ओर बहुत जगह नहीं बची है। यही नहीं अगर ऊंची चोटियों में उनके उगने लायक वातावरण पैदा भी हो जाए तो वहां उर्वरक मिंट्टी नहीं होती। वैज्ञानिकों के मुताबिक बांज के बीज एक तो पिंडज प्रकृति के होते हैं और उनके उगने की दर भी अन्य पेड़ों की अपेक्षा कम होती है। इतना ही नहीं बहुत से बीजों के भालू, बंदर आदि जानवर खा जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एक दिन हिमालयी क्षेत्रों से बांज के वन विलुप्त हो जाएं। पर्वतीय क्षेत्रों के पारिस्थितिकी तंत्र में बांज वनों का बहुत महत्व है। पहाड़ों में जल स्तर बनाए रखने और जल संचय में बांज वृक्षों को बहुत उपयोगी समझा जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में बांज की जडें़ पानी का स्रोत समझी जाती हैं। ऐसे में अगर बांज के वन विलुप्त हो गए तो पहले से ही जलसंकट से जूझ रहे पहाड़ को और भयावह जल संकट का भी सामना करना पड़ सकता है।

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
हल्द्वानी: वनों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप, अवैध शिकार, बदलते मौसम और इन दिनों जंगलों की आग ने वन्य जीवों को संकट में डाल दिया है। वन्य जन्तुओं पर हिमालयी की नमी समाप्त होने का भी असर पड़ा है उनमें हिम तेंदुआ, कस्तूरी मृग, हिमालयी भालू, निचली हिमालयी घाटियों में रहने वाले गुलदार तथा पक्षियों में डफिया, मोनाल तथा पहाड़ी बटेर आदि मुख्य हैं। इसके साथ ही हिमालयी क्षेत्र में तस्करों की नजर वन औषधियों पर भी पड़ी है जो 3 हजार मीटर से लेकर 5 हजार मीटर तक की ऊंचाई पर उगती है और जिनसे परंपरागत दवाएं बनायी जाती है।

हिमालय के मौसम के बिगड़ने की सबसे बड़ी मार हिम तेंदुए पर पड़ी है। वन विभाग की सूचना के अनुसार 1984-85 में गढ़वाल व कुमाऊं के हिमालयी क्षेत्र में हिम बाघों की संख्या छह थी। इसके बाद हिम बाघ दिखना बंद हो गये। 3600 मीटर से 4000 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने वाला मूल रूप से एशियाई प्रजाति का यह बाघ दो फुट लंबा व 50 किलो वजन तक का होता है, भेड़, बकरी, भालू, थार, कस्तूरी व खरगोश इसका भोजन हैं। यूरोपीय देशों में हिमबाघ की खाल से बनने वाले फर के कोटों की कीमत करीब 20 लाख रूपये तक है। इसी कारण इस प्रजाति का आज अतापता नहीं है।

यही हाल कस्तूरी मृग है यह बारहसिंघा व हिरन के मध्य का वन्य पशु है। हिमालयी क्षेत्रों में अकेला अथवा जोड़े में रहने वाला भूरे रंग का यह जानवर 2700 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले बुग्यालों व तीव्र ढलानों में पाया जाता है। इसमें पायी जाने वाली सुगंधित कस्तूरी के कारण इसका बेताहशा शिकार किया जा रहा है। जाड़ों में जब ऊपरी क्षेत्रों में बर्फ पड़ती है तब यह निचली घाटियों की और रुख करता है और शिकारियों की चपेट में आ जाता है।

वनों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप ने तेंदुवे को नरभक्षी बना दिया है। हालत यह है कि तेंदुवे के लायक न तो परंपरागत सघन वन क्षेत्र रह गये हैं और न ही इसके शिकार के वनों में इसके लिए भोजन बचा है। जिस कारण इसकी प्रवृत्ति नरभक्षी रह गई है। इसी कारण भोजन की तलाश में इसे जंगल छोड़ आबादी के बीच आना पड़ रहा हैं जहां यह कभी तो कभी इंसानों को अपना शिकार बना रहा है।

हिमालयी भालू का नाम अब किताबों तक सीमित रह गया है। पित्त व खाल की खातिर शिकारियों द्वारा इस जानवर का शिकार खूब शिकार किया गया है। नेपाल के वनों में विशेष रूप से इसे मारकर, इसके पित्त व खाल को तिब्बत के बाजार में बेचते हैं जहां से यह ताइवान व हांगकांग तक पहुंचता है इस भालू की खाल काठमांडो के तस्कर मार्केट में काफी महंगी बेची जाती है और इसके पित्त की कीमत 3500 रुपये प्रति 10 ग्राम तक है। आज यह हिमालयी भालू लगातार विलुप्त हो रही प्रजातियों की श्रेणी में आ गया है।


यही हाल हिमालय में पाये जाने वाले पक्षियों का भी है इसमें मोनाल उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में रतिया कबन, गढ़वाल में दतिया, सिक्किम में चमडोंज तथा नेपाल में डंफी नाम से जाना जाता है। इसकी सुंदरता कलगी तथा हरे कांसे व गहरे रंग के कारण यह हिन्दुस्तान के सबसे अधिक सजे-संवरे पक्षियों में से एक है। यही पक्षी घौसला नहीं बनाता किसी चट्टान या सूखे पेड़ के छेद में अंडे देता है। कोमल जड़ पदार्थो, कीड़े-मकोड़ों व फलों पत्तियों को अपना भोजन बनाते हैं। मोनाल का मुख्य आकर्षण इसकी पंख सहित खाल है जिसको उतारकर लोग सजावट के लिए प्रयोग करते हैं। इसी कारण इसका शिकार हो रहा है यह दुर्लभ पक्षियों की श्रेणी में आ गया है।

वन्य जीवों के संरक्षण के लिए यदि जल्द ही उचित कदम नहीं उठाये गये तो इनकी कहानियां किताबों में सिमट कर रह जायेंगी और उत्तराखण्ड के साथ ही देश के अन्य हिमालयी राज्यों में भी यह वन्य जन्तु और पशु गायब हो जायेंगे।

Risky Pathak

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 2,502
  • Karma: +51/-0
इस कलयुग के मनुष्य को क्या हो गया है, जो अपने स्वार्थ  के लिए  निर्मम पशुओ की हत्या कर देता है| ये एक चिंता जनक विषय है|

जहा तक मैने सुना है भालू का कलेजा किसी असाध्य रोग के इलाज के  लिए  होता है|  विदेशो मे इसकी कीमत करोडो  मे आंकी जाती है|

साथ ही साथ जंगली सुअरों  का शिकार भी उनकी खाल के लिए होता है|


हल्द्वानी: वनों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप, अवैध शिकार, बदलते मौसम और इन दिनों जंगलों की आग ने वन्य जीवों को संकट में डाल दिया है। वन्य जन्तुओं पर हिमालयी की नमी समाप्त होने का भी असर पड़ा है उनमें हिम तेंदुआ, कस्तूरी मृग, हिमालयी भालू, निचली हिमालयी घाटियों में रहने वाले गुलदार तथा पक्षियों में डफिया, मोनाल तथा पहाड़ी बटेर आदि मुख्य हैं। इसके साथ ही हिमालयी क्षेत्र में तस्करों की नजर वन औषधियों पर भी पड़ी है जो 3 हजार मीटर से लेकर 5 हजार मीटर तक की ऊंचाई पर उगती है और जिनसे परंपरागत दवाएं बनायी जाती है।

हिमालय के मौसम के बिगड़ने की सबसे बड़ी मार हिम तेंदुए पर पड़ी है। वन विभाग की सूचना के अनुसार 1984-85 में गढ़वाल व कुमाऊं के हिमालयी क्षेत्र में हिम बाघों की संख्या छह थी। इसके बाद हिम बाघ दिखना बंद हो गये। 3600 मीटर से 4000 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने वाला मूल रूप से एशियाई प्रजाति का यह बाघ दो फुट लंबा व 50 किलो वजन तक का होता है, भेड़, बकरी, भालू, थार, कस्तूरी व खरगोश इसका भोजन हैं। यूरोपीय देशों में हिमबाघ की खाल से बनने वाले फर के कोटों की कीमत करीब 20 लाख रूपये तक है। इसी कारण इस प्रजाति का आज अतापता नहीं है।

यही हाल कस्तूरी मृग है यह बारहसिंघा व हिरन के मध्य का वन्य पशु है। हिमालयी क्षेत्रों में अकेला अथवा जोड़े में रहने वाला भूरे रंग का यह जानवर 2700 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले बुग्यालों व तीव्र ढलानों में पाया जाता है। इसमें पायी जाने वाली सुगंधित कस्तूरी के कारण इसका बेताहशा शिकार किया जा रहा है। जाड़ों में जब ऊपरी क्षेत्रों में बर्फ पड़ती है तब यह निचली घाटियों की और रुख करता है और शिकारियों की चपेट में आ जाता है।

वनों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप ने तेंदुवे को नरभक्षी बना दिया है। हालत यह है कि तेंदुवे के लायक न तो परंपरागत सघन वन क्षेत्र रह गये हैं और न ही इसके शिकार के वनों में इसके लिए भोजन बचा है। जिस कारण इसकी प्रवृत्ति नरभक्षी रह गई है। इसी कारण भोजन की तलाश में इसे जंगल छोड़ आबादी के बीच आना पड़ रहा हैं जहां यह कभी तो कभी इंसानों को अपना शिकार बना रहा है।

हिमालयी भालू का नाम अब किताबों तक सीमित रह गया है। पित्त व खाल की खातिर शिकारियों द्वारा इस जानवर का शिकार खूब शिकार किया गया है। नेपाल के वनों में विशेष रूप से इसे मारकर, इसके पित्त व खाल को तिब्बत के बाजार में बेचते हैं जहां से यह ताइवान व हांगकांग तक पहुंचता है इस भालू की खाल काठमांडो के तस्कर मार्केट में काफी महंगी बेची जाती है और इसके पित्त की कीमत 3500 रुपये प्रति 10 ग्राम तक है। आज यह हिमालयी भालू लगातार विलुप्त हो रही प्रजातियों की श्रेणी में आ गया है।


यही हाल हिमालय में पाये जाने वाले पक्षियों का भी है इसमें मोनाल उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में रतिया कबन, गढ़वाल में दतिया, सिक्किम में चमडोंज तथा नेपाल में डंफी नाम से जाना जाता है। इसकी सुंदरता कलगी तथा हरे कांसे व गहरे रंग के कारण यह हिन्दुस्तान के सबसे अधिक सजे-संवरे पक्षियों में से एक है। यही पक्षी घौसला नहीं बनाता किसी चट्टान या सूखे पेड़ के छेद में अंडे देता है। कोमल जड़ पदार्थो, कीड़े-मकोड़ों व फलों पत्तियों को अपना भोजन बनाते हैं। मोनाल का मुख्य आकर्षण इसकी पंख सहित खाल है जिसको उतारकर लोग सजावट के लिए प्रयोग करते हैं। इसी कारण इसका शिकार हो रहा है यह दुर्लभ पक्षियों की श्रेणी में आ गया है।

वन्य जीवों के संरक्षण के लिए यदि जल्द ही उचित कदम नहीं उठाये गये तो इनकी कहानियां किताबों में सिमट कर रह जायेंगी और उत्तराखण्ड के साथ ही देश के अन्य हिमालयी राज्यों में भी यह वन्य जन्तु और पशु गायब हो जायेंगे।


हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
डीडीहाट(पिथौरागढ़)। जिले के नब्बे प्रतिशत वन आग की भेंट चढ़ चुके है। वनों की आग से जहां जैव विविधता को खासा नुकसान हुआ है वहीं वनों में उगे नये वृक्ष नष्ट हो चुके है। वनार्ग्नि रोकने के लम्बे चौड़े दावे करने वाले वन विभाग की आग नियंत्रण योजना फ्लाप रहने से करोड़ों रुपये की वन सम्पदा नष्ट हो चुकी है। अब आलम यह है कि चीड़ के खड़े हरे वृक्षों ने भी आग पकड़ ली है। जो भारी वर्षा होने पर ही शांत हो सकती है।

इस वर्ष मौसम के चलते अप्रैल माह के शुरू से ही वनों में आग लगनी शुरू हो गयी थी। दो तिहाई वन अप्रैल माह में ही जल गये थे। घास उत्पादन बढ़ाने के लिये लगायी गयी आग वनों में पतझड़ के दौरान गिरे सूखे पत्तों के चलते विकराल होती गयी। मई माह के प्रथम सप्ताह में हल्की वर्षा होने से आग पर कुछ हद तक नियंत्रण रहा, परन्तु जमीन में नमी बन सकने योग्य वर्षा नहीं होने के कारण आग पर पूर्ण नियंत्रण नहीं लग सका। दो दिन वर्षा रुकते ही जंगल आग की चपेट में आते जा रहे है।

जैव विविधता से परिपूर्ण अस्कोट अभ्यारण्य के घनधूरा जंगल में आग ने रिकार्ड तोड़ दिये। वनागिन् के चलते इस जंगल में अमूल्य जैव विविधता को व्यापक नुकसान हुआ। इन दिनों भी इस जंगल में आग लगी हुई है। वहीं अस्कोट रेज के भी सभी वन धू-धू कर जल रहे है। खोलियागांव के जंगलों में आग ने भयंकर रूप ले लिया है। इधर थल-मुनस्यारी मार्ग में रामगंगा नदी के किनारे स्थित नौलड़ा के जंगलों में तो आग बेकाबू हो चुकी है। यहां पर आग की चपेट में आने से चीड़ के वृक्ष जल रहे है। हॉलाकि इस क्षेत्र में पूर्व में ही आग से भारी नुकसान हो चुका है। लगभग एक दर्जन लोग आग बुझाने में झुलस गये थे। वर्तमान में वृक्षों के आग की लपटों से घिर जाने से आग बुझाना मानवीय शक्ति से बाहर हो चुका है। इस क्षेत्र में हो रही हल्की वर्षा भी आग पर नियंत्रण कर पाने में अक्षम साबित हुई है। आग को देखकर भारी वर्षा होने पर ही जंगलों का बचने की सम्भावना जतायी जा रही है।

हेम पन्त

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 4,326
  • Karma: +44/-1
पिथौरागढ़। प्रदेश के अस्कोट अभ्यारण्य की जैव विविधता को संरक्षित करने के लिए अब विश्व बैंक मदद करेगा। भारत सरकार विश्व बैंक के सहयोग से अभ्यारण्य में ग्रामीण आजीविका सुधार कार्यक्रम चलाने जा रही है। वन विभाग के शीर्ष अधिकारियों ने सोमवार को अभ्यारण्य का दौरा किया और अभ्यारण्य की सीमा में बसे गांवों के ग्रामीणों की जरूरतों को लेकर वार्ता की।

उत्तराखण्ड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ की धारचूला और डीडीहाट तहसील के 600 वर्ग मील क्षेत्र में अस्कोट अभ्यारण्य बनाया गया है। इस अभ्यारण्य में दुर्लभ वनस्पति, जड़ी बूटी और कई दुर्लभ प्रजाति के जानवर है। जैव विविधता के मामले में यह क्षेत्र राज्य में विशेष पहचान रखता है। इस विविधता को संरक्षित करने के लिए वन विभाग ने एक महत्वाकांक्षी योजना बनायी है। प्रभागीय वनाधिकारी राम गोपाल वर्मा ने बताया कि योजना को भारत सरकार ने स्वीकृति दे दी है। छह वर्ष की यह योजना विश्व बैंक के सहयोग से चलायी जायेगी। योजना के तहत अस्कोट अभ्यारण्य की सीमा में बसे सैकड़ों गांवों के ग्रामीणों के सहयोग से जैव विविधता को संरक्षित करने के प्रयास होंगे। योजना के तहत ग्रामीणों की आजीविका सुधार के लिए भी कार्यक्रम चलाये जायेंगे। ग्रामीणों को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से रोजगार दिया जायेगा साथ ही आय संव‌र्द्धन के कार्यक्रम चलेंगे।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
पौड़ी गढ़वाल। गढ़वाल वन प्रभाग के जंगलों में लगी भीषण आग के बाद हालिया बारिश ने विभागीय अधिकारियों को सुकून पहुंचाया है, किंतु आकडे़ बताते हैं कि इस दौरान दावानल की चपेट में आकर करीब 239 हेक्टेअर वन जल कर स्वाहा हो गए। इस दावानल से कई क्षेत्रों में रोपे गए पेड़-पौधे भी आग की भेंट चढ़ गए। हालाकि विभाग बसंत ऋतु में इन पेड़-पौधों के पुनर्जीवित होने का दावा कर अपना पल्ला झाड़ रहा है।

वनों की सुरक्षा एवं विकास के नाम पर हर वर्ष लाखों रुपये पानी की तरह बहाने के बावजूद भी अपेक्षित परिणाम धरातल पर नहीं उतर पा रहे है। आलम यह है कि प्रतिवर्ष 14 फरवरी से घोषित फायर सीजन के दौरान वन धू-धू कर जलने शुरू हो जाते हैं, जिसमें लाखों की वन सम्पदा जलकर स्वाहा हो जाती है। इस वर्ष भी फायर सीजन के दौरान वनों के जलने का सिलसिला शुरू हो गया था किंतु इस दौरान हुई बारिश ने विभागीय अधिकारियों की राहत पहुंचाई। गढ़वाल वन-प्रभाग की पैठाणी, पोखड़ा, दमदेवल एवं नागदेव रेंज के वन दावानल की चपेट में आकर धू-धू कर जलते रहे, हालांकि विभाग आग पर काबू पाने का दावा करता रहा। किंतु आंकड़ों पर यदि गौर करें तो इस फायर सीजन के दौरान लगी आग में करीब 239 हेक्टेअर वन दावानल की चपेट आए, जबकि नागदेव रेंज के खिर्सू बीट के वनों में लगभग दो हेक्टेअर वन में आग लगी, जिससे यहां रोपे गए बांज प्रजाति के करीब 300 पौधे जलकर नष्ट हो गए। इस बाबत गढ़वाल सर्किल के वन संरक्षक जेएस सुहाग ने बताया कि दावानल की चपेट में आकर नष्ट हुए पेड़-पौधे बसंत ऋतु में पुनर्जीवित हो जाएंगे। अलबत्ता हालिया बारिश के बाद वन विभाग के पदाधिकारियों ने राहत की सांस ली हो, किन्तु दावानल की घटनाएं यह इंगित कर रही है कि फायर सीजन में बढ़ती आग की घटनाओं पर यदि शीघ्र अंकुश लगाने की दिशा में कोई ठोस कार्यवाही अमल में नहीं लाई गई तो वन आग की भेंट चढ़ते ही रहेगे जो कि पर्यावरण असंतुलन के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी घातक साबित हो सकता है।

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22