Author Topic: Major Development News Of Uttarakhand - उत्तराखंड के विकास की प्रमुख खबरे  (Read 97564 times)

lalit.pilakhwal

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-पलाश विश्वास-

 

आजादी के बाद जो काम सबसे पहले होना चाहिए था, उसे आज भी अंजाम देने की ओर कोई ठोस पहल नहीं की गयी है। भूमि सुधार के बगैर सामाजिक​ ​न्याय या समावेशी विकास महज छलावा है। मनुस्मृति व्यवस्था दरअसल कोई सामाजिक या धार्मिक व्यवस्था नहीं है, यह निहायत आर्थिक और राजनीतिक स्थाई बंदोबस्त है, जिसके तहत संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर सत्तावर्ग का वर्चस्व हजारों साल से कायम है। इस स्थिति को तोड़ने की कोशिश हरगिज नहीं हुई।

 

देशभर में अंग्रेजी हुकूमत के जमाने में हुए किसान विद्रोह, आदिवासी और मूलनिवासी विद्रोह की मुख्य मांग ही दरअसल भूमिसुधार की रही​ ​है। बंगाल में संथाल, मुंडा, संन्यासी, नील विद्रोह के मूल में जल जंगल और जमीन के हक हकूक की लड़ाई प्रमुख थी। १९वीं सदी के प्रारंभ में नील विद्रोह से शुरू मतुआ आंदोलन ने दरअसल मनुस्मृति व्यवस्था को खारिज करके ब्राह्मणवादी धर्म के खिलाफ विद्रोह करके अछूत बहिष्कृत और पिछड़े​ ​समुदायों के लिए शिक्षा और संपत्ति के अधिकारों से अपनी लड़ाई शुरू की, जो बाद में चंडाल आंदोलन की बुनियाद बनी। मतुआ और चंडाल आंदोलन की मुख्य मांग भूमि सुधार की थी। इसी आंदोलन के फलस्वरूप बाबा साहेब अंबेडकर के आंदोलन से पहले ही बंगाल में १९११ में अस्पृश्यता निषेध का कानून लागू हो गया, भारत भर में सबसे पहले। पर भूमि सुधार की दिशा में कोई प्रगति नहीं हो पायी। बंगाल में पहली अंतरिम सरकार प्रजा कृषक पार्टी की फजलुल हक सरकार के एजंडे में भी भूमि सुधार को सर्वोच्च प्राथमिकता थी। इससे पहले बंगाल में ढाका के नवाब की पहल पर मुस्लिम लीग का गठन हो चुका ​था, जिसे आम मुसलमानों का कोई समर्थन हासिल नहीं था। पर हक मंत्रिमंडल में शामिल श्यामाप्रसाद की मौजूदगी और प्रभाव से मनुस्मृति बंदोबस्त कायम रहा और प्रजा कृषक समाज का भूमि सुधार कार्यक्रम फेल हो गया। खेत जोतने वाले अछूत और मुसलमान बहुसंख्यक किसानों के सामने तब मुस्लिम लीग की राजनीति के सिवा कोई विकल्प नहीं था।तब भी हिंदू महासभा के नेताओं की तमाम चालबाजी के बावजूद बंगाल मं सांप्रदायिक ध्रूवीकरण नहीं​ ​ हुआ और मुस्लिम लीग की अगुवाई में बनी नजीबुल्ला और सुहारावर्दी सरकारे अछूतों और मुसलमानों के गठबंधन का नतीजा रहीं, जिसमें अछूत नेता मुकुंद बिहारी मल्लिक और जोगेंद्रनाथ मंडल की खास भूमिका थी।

 

बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब ब्राह्मणवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन के तीन केंद्र रहे हैं। बंगाल के अछूतों, खासकर नमोशूद्र चंडालों ने डा भीमराव​ अंबेडकर को महाराष्ट्र में पराजित होने के बाद अपने यहां से जोगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंदबिहारी मल्लिक जैसे नेताओं की खास कोशिश के तहत ​​जिताकर संविधानसभा में भेजा। इसके बाद ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बयान आया कि भारत का विभाजन हो या नहीं, बंगाल का विभाजन ​​अवश्य होगा कयोंकि धर्मांतरित हिंदू समाज के तलछंट का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल ने विभाजन का​​ प्रस्ताव बहुमत से खारिज कर दिया, लेकिन ब्राह्मणबहुल पश्चिम बंगाल ने इसे बहुमत से पारित कर दिया।अंबेडकर के चुनावक्षेत्र हिंदूबहुल खुलना, बरीशाल, जैशोर और फरीदपुर को पाकिस्तान में शामिल कर दिया गया। नतीजतन अंबेडकर की संविधानसभा की सदस्यता समाप्त हो गयी। उन्हें कांग्रेस के समर्थन से महाराष्ट्र विधानपरिषद से दोबारा संविधानसभा में लिया गया और संविधान मसविदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक बंगाल और पंजाब के विभाजन से भारत में अछूतो, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का मनुस्मृति विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का अवसान तो हो गया पर अंबेडकर को चुनने की सजा बंगाली शरणार्थियों को अब भी दी जा रही है।

 

कुमाऊँ की तराई में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों को पट्टे पर दी गई कृषि जमीनों में मालिकाना हक दिये जाने के एवज में सितारगंज से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर एमएलए चुने गये किरन मंडल ने 23 मई को पार्टी और विधायकी से इस्तीफा देकर कांग्रेस का दामन थाम लिया है। इसी रोज उत्‍तराखण्ड सरकार के मंत्रिमण्डल ने प्रदेश में गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट-1895 के तहत खेती के निमित्‍त पट्टे पर दी गई जमीन पर पट्टाधारकों को मालिकाना हक देने का फैसला ले लिया। एक तरफ राज्य सरकार ने किरन मंडल की शर्त के मुताबिक कैबिनेट में प्रस्ताव पास किया, दूसरी तरफ मंडल ने पार्टी और विधायकी को अलविदा कहा। भाजपा विधायक किरण मंडल को तोड़कर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को विधानसभा पहुंचाने के लिए शक्तिफार्म के बंगाली​ ​ शरणार्थियों को भूमिधारी हक आननफानन में दे देने के कांग्रेस सरकार की कार्रवाई के बाद राजनीतिक भूचाल आया हुआ है। इसके साथ ही संघ परिवार की ओर से सुनियोजित तरीके से अछूत बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ घृणा अभियान शुरू करके उन्हें उत्तराखंड की मुख्यधारा से काटने का आपरेशन​ ​ चालू हो गया। इस राजनीतिक सौदे की जानकारी गांव से भाई पद्मलोचन ने हालांकि फोन पर मुझे मुंबई रवाना होने से पहले दे दी थी और राजनीतिक प्रतिक्रिया का मुझे अंदेशा था, लेकिन लिखने की स्थिति में नहीं था। मीडिया में तमाम तरह की चीजें आने लगीं, जो स्वाभाविक ही है। तिलमिलाये संघ परिवार ​​कांग्रेस का कुछ बिगाड़ न सकें तो क्या, शरणार्थियों के वध से उन्हें कौन रोक सकता है? जबकि उत्तराखंड बनने के तुरंत बाद भाजपा की पहली सरकार ने राज्य में बसे तमाम शरणार्थियों को बांग्लादेशी घुसपैठिया करार देकर उन्हें नागरिकता छीनकर देश निकाले की सजा सुना दी थी। तब तराई और पहाड़ के सम्मिलित प्रतिरोध से शरणार्थियों की जान बच गयी। अबकी दफा ज्यादा मारक तरीके से गुजरात पैटर्न पर भाजपाई अभियान शुरू हुआ है अछूत शरणार्थियों के खिलाफ। जैसे मुसलमानों को विदेशी बताकर उन्हें हिंदू राष्ट्र का दुश्मन बताकर अनुसूचित जातियों और आदिवासियों तक को पिछड़ों के साथ​ हिंदुत्व के पैदल सिपाही में तब्दील करके गुजरात नरसंहार को अंजाम दिया गया, उसीतरह शरणार्थियों को बांग्लादेशी बताकर उनके सफाये की नयी तैयारियां कर रहा है संघ परिवार, जो उनके एजंडे में भारत विभाजन से पहले से सर्वोच्च प्राथमिकता थी। नोट करें, यह बेहद खास बात है, जिसे आम लोग तो क्या बुद्धिजीवी भी नहीं जानते हैं। इसे शरणार्थियों की पृष्ठभूमि और भारत विभाजन के असली इतिहास जाने बगैर समझा नहीं जा सकता।

 

नैनीताल के वरिष्ठ पत्रकार हमारे मित्र प्रयाग पांडेय ने इस मुद्दे पर भूमि सुधार के प्रासंगिक सवाल खड़े किये हैं। पर शायद शरणार्थी समस्या के इतिहास से अनजान होने के कारण उन्होंने भी बंगाली शरणार्थी और बांग्लादेशियों को एकाकार कर दिया,​जो खतरनाक है। दिनेशपुर में ३६ कालोनियों में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों की बसावट सिख शरणार्तियों के साथ साथ १९५२ से लेकर १९५४ तक पूरी हो चुकी थी।इससे पहले ये लोग बंगाल और ओड़ीशा के विभिन्न शरणार्थी शिविरों में विभाजन के तुरंत बाद से रहते रहे हैं। जबकि शक्ति फार्म में भी बंगाली शरणार्थियों का पुनर्वास १९६० तक हो चुका था। पर जेल फार्म इलाके में विभिन्न शरणार्थी शिविरों में दशकों से रह रहे लोगों को बाद में बसाया गया। बांग्लादेश के जन्म से पहले उत्तराखंड में शरणार्थी आबादी है तो उन्हें बांग्लादेश से जोड़ने का क्या आशय है? भूमि सुधार संबंधी मुद्दों और तराई के इतिहास पर प्रयाग जी के लेख से सहमति रखते हुए भी शरणार्थियों की पहचान को लेकर भ्रम साफ करना जरूरी था, इसलिए मैंने मुंबई से कैविएट बतौर सबको यह जानकारी दे दी थी कि इस प्रकरण में कुछ स्पस्टीकरण जरूरी है। मालूम हो कि दिनेशपुर के ३६ कालोनी में बसे बंगाली शरणार्थियों को बूमिदारी हक १९६७ में पहली संविद सरकार के जमाने में ही मिल गयी थी। पर आदिवासी थारू बुक्सा की तरह जमीन हस्तांतरण पर रोक न होने से शरणार्थियों की ज्यादातर जमीन महाजनों, दबंगों और भूमाफिया ने हथिया ​​ली।शरणार्थियों की व्यापक पैमाने पर बेदखली हो गयी।शरणार्थियों के लगातार आंदोलन के बाद जब बंगाली शरणार्थी की जमीन सिर्फ बंगाली शरणार्थी को ही हस्तांतरण की शर्त लगी, तब तक आधे शरणार्थी अपनी जमीन से बेदखल हो चुके थे। शक्तिफार्म में भी अगर यह शर्त नहीं लगी तो दिनेशपुर की कहानी दुहराये जाने की आशंका है। जिस आनन फानन में शक्तिफार्म के शरणार्थियों को भूमिधारी हक मिला, उससे साबित होता है कि पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की कांग्रेस सरकारों ने इस मामले को जानबूझकर लटकाये रखा। जबकि शरणार्थी वोट बैंक के दम पर राजनीति करने वाले नारायण दत्त तिवारी तीन तीन बार उत्तरप्रदेश और फिर उत्तराखंड के भी मुख्यमंत्री रहे। कृष्णचंद्र पंत की सांसदी भी शरणार्थी वोट बैंक के सहारे चलती रही। इन नेताओं ने देश के दूसरे हिस्से में प्रचलित रस्म मुताबिक भाषाई अल्पसंख्यक बंगाली वोट बैंक का इसतेमाल ही किया। दंडकारण्य प्रोजेक्ट में भी शरणार्थियों को भूमिधारी हक मिला हुआ है। उन्हे ज्यादातर इलाके में नागरिकता प्रमामपत्र भी मिला है। उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश की कथा अलग क्यों हो गयी, इस पर विचार करना जरूरी है।

 

मुंबई में इसबार की यात्रा काफी तकलीफदेह रही है। हम तो स्लीपर क्लास में यात्रा करने वाले ठहरे। शालीमार कुर्ला एक्सप्रेस से गये तो न खान का इंतजाम था और न पानी का बंदोबस्त । भूखे प्यासे लू के थपेड़े झेलते हुए ७८ ढहराव पार करके जाना हुआ। लौटते हुए सीएसटी स्पेसल में पैंट्री तो मिली पर गरमी से राहत नहीं मिली। लेकिल इसबार मुंबई में अपने पुराने मित्रों से मुलाकात के अलावा खास मुलाकातें राम पुनियानी, असगर अली इंजीनियर और इरफान इंजीनियर से हुईं। गुजरात में हिंदुत्व की प्रयोगशाला को समझने में मदद मिली। उन सबसे शरणार्थी समस्या पर भी चर्चा हुई। हिंदुत्व के लिए और हिंदू राष्ट्र सिद्धांत के लिए बंगाली शरणार्थी और मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक समान दुश्मन हैं, इसके ऐतिहासिक कारण और पृष्ठभूमि हैं, जिसे समझना​ ​ भारत में लोकतंत्र, शांति, अहिंसा, संविधान और धर्मनिरपेक्षता, नागरिक मानव अधिकार के हिमायती हर नागरिक के लिए जरूरी है। पर​ ​ कोलकाता लौटने के बाद भी कहां गरमी से निजात मिली? बंगाल में अभूतपूर्व तापप्रवाह से अबतक सौ से ज्यादा जानें जा चुकी हैं। कल शाम आंधी पानी से कोलकाता में थोड़ी राहत जरूर मिली, पर तुरत मौसम बदलने के आसार कम है। कल दिन ३ बजे तक यह लेख पूरा लिख चुका था। पर सेव​ ​ करना भूल गया। खाना खाने गये, तो लोडशेडिंग। फिर कंप्यूटर पर बैठे तो लेख उड़ चुका था। आज दोबारा लिख रहा हूं।

 

उत्तराखंड में लोगों को मालूम होगा कि १९५८ में ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता थे हमारे दिंवंगत पिता पुलिन बाबू, जिनके तराई और पहाड़ के सभी समुदायों से गहरा रिश्ता रहा है। वे आजीवन शरणार्थी समस्या को लेकर देशभर में सक्रिय रहे। मेरा गांव आज भी एक संयुक्त परिवार है क्योंकि यह महज शरणार्थी गांव नहीं है, पिताजी के आंदोलन के साथियों का गांव है, जो बंगाल, ओड़ीशा और उत्तर प्रदेश ओड़ीशा में हर आंदोलन में साथ साथ रहे हैं। गांव काम बसंतीपुर मेरी मां के नाम पर है। यह गांव १९५६ में रूद्रपुर में हुए शरणार्थी आंदोलन के बाद बसा। हम संपूर्ण क्रांति, चिपको आंदोलन, किसान​ ​आंदोलन, उत्तराखंड आंदोलन में बाकी सबके साथ साझेदार रहे हैं। तो क्या हम बांग्लादेशी हुए? मैं खुद करीब चालीस साल से हिंदी साहित्य और पत्रकारिता से जुड़ा हूं। उत्तराखंड के अलावा झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तरपूर्व और भारतभर के जनांदोलनों से लगातार जुडा हूं। तो क्या फिर भी मैं बांग्लादेशी हूं? तेलंगाना और ढिमरी ब्लाक आंदोलनों से कम्युनिस्ट ब्राह्मण नेताओं की गद्दारी के कारण वामपंथ से पिता का मोहभंग हो गया और मैं उनके २००१ में निधन तक वामपंथ से सक्रिय तौर पर जुड़ा रहा। पिता अंबेडकर और गांधी के अनुयायी रहे आजीवन। गांधी की तरह १९५६ के बाद उन्होंने कभी ​​कमीज नहीं पहनी। वे १९६० में असम के दंगापीड़ितों के बीच काम करते रहे। बाबरी विध्वंस के बाद दंगापीड़ित मुसलमान इलाकों में भी उन्होंने काम किये। वे जोगेंद्रनाथ मंडल के सहयोगी थे और ज्योति बसु के विरोधी। तो क्या मेरे पिता बांग्लादेशी रहे, जनके उनकी मृत्युपर्यंत भारत के हर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से संवाद थे? मुश्किल यह है कि हमारे सारे लोग मेरी तरह अपनी बात नहीं कह सकते और न सामाजिक जीवन में उनकी उतनी भागेदारी है, तो क्या वे सारे के सारे जिनमें से ज्यादातर जन्मजात भारतीय हैं, हिंदू हैं पर अछूत हैं, और उनकी मातृभाषा बांग्ला है, बंगाल के इतिहास और भूगोल से जबरन काट दिये जाने के बाद। मैं हर गांव के हर शख्स को , हर चेहरे को दशको से जानता रहा हूं, जैसे में पहाड़ की हर घाटी, हर चोटी, हर नदी, हर कस्बे और हर शहर को जानता रहा हूं।नैनीताल मेरा गृह नगर है और पहाड़ के चप्पे चप्पे में मेरे अपने लोग। बंगाल में पिछले २१ -२२ साल से रहने के बावजूद दिल ओ दिमाग से आज भी मैं पहाड़ी हूं।मेरे दिल में धड़कता है , धधकता है पहाड़ जंगल में आग की तरह।पिता के कैंसर से 2001 में अवसान के बाद से मैं इस संकट से जूझ रहा हूं। चूंकि बंगाली शरणार्थियों का कोई माई-बाप नहीं है और पुलिनबाबू रीढ़ की हड्डी में कैंसर होने के बावजूद रात-बिरात आंधी-पानी में उनकी पुकार पर देश में हर कोने, और तो और सीमा पार करके बांग्लादेश में दौड़ पड़ते थे। इस पारिवारिक परंपरा का निर्वाह करना अब हमारी मजबूरी है। कहीं से भी फोन आ जाये, तो दौड़ पड़ो! चूंकि पिता महज कक्षा दो तक पढ़े़ थे, हमारी दूसरी तक न पहुंचते-पहुंचते तमाम महकमों, राजनीतिक दलों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों को​ दस्तखत या पत्र लिखने की जिम्मेवारी हमारी थी। हमें कविता-कहानी से लिखने की शुरुआत करने का मौका ही नहीं मिला। शायद यही वजह है कि पिता की मौत के बाद कविता-कहानी की दुनिया से बाहर हो जाने को लेकर मेरे मन में कोई पीड़ा नहीं है। हम तो अपने लोगों की जरूरत के मुताबिक लेखक बना दिये गये। तो क्या हम सारे लोग बांग्लादेशी हुए किरण मंडल के पार्टी छोड़ने से बहुत पहले से संघ परिवार यही साबित करने में लगा है। क्या बाकी लोगों की भी यही राय है? पिता की मौत के तुरंत बाद 2001 में ही उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने बंगाली शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया। हमारे लोग आंदोलन कर रहे थे। अब मेरे लिए उनके साथ खड़ा होने के सिवाय कोई चारा नहीं था। पर इस लड़ाई में विचारधारा ने हमारा साथ नहीं दिया।

 

तब से लेकर अब तक देश के कोने-कोने गांव-गांव भटक रहा हूं, हमारे लोगों की नागरिकता के लिए। गौरतलब है कि नागरिकता संशोधन कानून पास करवाने में पहले विपक्ष के नेता बाहैसियत संसदीय सुनवाई समिति के अध्यक्ष बतौर और फिर सत्ताबदल के बाद मुख्य नीति निर्धारक की हैसियत से उनकी भूमिका खास रही है। 1956 तक पासपोर्ट वीसा का चलन नहीं था। भारत और पाकिस्तान की दोहरी नागरिकता थी। पर नये नागरिकता कानून के तहत 18 जुलाई 1948 से पहले वैध दस्तावेज के बिना भारत आये लोगों ने अगर नागरिकता नहीं ली है, तो वे अवैध घुसपैठिया माने जाएंगे। इसी कानून के तहत उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले के रामनगर इलाके के 21 लोगों को देश से बाहर निकाला गया। जबकि वे नोआखाली दंगे के पीड़ित थे और उन्होंने 1947-48 में सीमा पार कर ली थी। राजनीतिक दल इस कानून की असलियत छुपाते हुए 1971 के कट आफ ईयर की बात करते हैं। कानून के मुताबिक ऐसा कोई कट आफ ईयर नहीं है। हुआ यह था कि 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के बाद यह मान लिया गया कि शरणार्थी समस्या खत्म हो गयी। इंदिरा मुजीब समझौते के बाद इसी साल से पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों का पंजीकरण बंद हो गया। फिर अस्सी के दशक में असम आंदोलन पर हुए समझौते के लिए असम में विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए 1971 को आधार वर्ष माना गया, जो नये नागरिकता कानून के मुताबिक गैरप्रासंगिक हो गये हैं।​जब तक यह कानून नहीं बदलता, तब तक बिना कागजात वाले समूहों और समुदायों मसलन शरणार्थी, देहात बेरोजगार शहरों में भागे आदिवासी, अपंजीकृत आदिवासी गांवों के लोगों, खानाबदोश समूहों और महानगरों की गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को कभी भी देश से निकाला जा सकता है।

 

यही राय होती तो हमारे लोग तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र, अंडमान, महाराष्ट्र,राजस्थान, उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, ​​झारखंड, असम, ओड़ीशा, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल में छितरा दिये जाने के बाद कहीं भी ठहर नहीं पाते। बल्कि वे तो हर कहीं मुख्यधारा में सम्मिलित हैं और हर कहीं उन्हें स्थानीय जनता का भरपूर सहयोग मिलता रहा है। इसके उलट बंगाल से उन्हें सहानुभूति तक नहीं मिलती। बंगाल में जो शरणार्थी बसाये गये हैं या जिन्हें आ​जतक पुनर्वास नहीं मिला , उनकी तुलना में बंगाल से बाहर बसे बंगाली शरणार्थी काफी बेहतर हाल में हैं।बल्कि माकपा ने १९७७ से पहले दंडकारण्य के शरमार्थियों को बंगाल बुलाकर कांग्रेस को परास्त करने की रणनीति के तहत मरीचझांपी आंदोलन ​​शुरु किया। मध्यप्रदेश के पांच बड़े शरणार्थी शिविरों को छत्तीसगढ़ के माना कैंप को केंद्र बनकर टारगेट किया गया। ज्योति बसु, राम चटर्जी,​​ किरणमय नंद ने इन कैंपों में जाकर शरणार्थियों से बंगमाता की घर लौटने की अपील सुनाते रहे। पिताजी ने शुरू से इस आंदोलन का विरोध किया और उत्तर भारत के शरणार्थी झांसे में नहीं आये। जब शरणार्थी ज्योति बाबू की अपील पर सुंदरवन के मरीचझांपी पहुंचे, तब तक मुसलमानों के समर्थन से बंगाल में माकपा का भारी वोट बैंक बन चुका था और शरणार्थी वोट बैंक की जरुरत नहीं थी। ज्यति बसु मुखयमंत्री बन चुके थे और चिंतित थे कि दंडकारण्य की तरह भारतभर से शरणार्थी बंगाल कूच करने लगे तो अछूतों का राज कायम हो जायेगा। १९७९ की जनवरी में मरीचझांपी नरसंहारकांड को अंजाम दिया गया। इसके तमाम सबूतों के साथ हमारे मित्र तुषार भट्टाचार्य ने एक फिल्म बनायी, जिसके अनुवाद और संपादन में हमारा मामूली सहयोग रहा। चुनाव से पहले ममता दीदी ने मरीचझांपी को मुद्दा बनाया, पर पोरिबर्तन के बाद मां माटी मानुष की सरकार ने तमाम जांच कमिटियां बनाने के बावजूद मरीचझांपी कांड पर कोई कार्रवाई नहीं की। शरणार्थियों के प्रति बंगाल के ब्राह्मण तंत्र, जो हिंदुत्व राजनीति में हमेशा अगुवा रहा है और भारत के हिंदू राष्ट्र एजंडे को भारत विभाजन के जरिये जिसने हकीकत की शक्ल दी, के रवैये को जानने के लिए मरीचझांपी पर यह फिल्म जरूर देखें, जो मेरे ब्लागों में वर्षों से अपलोड हैं।

 

बंगाली​ ​ शरणार्थियों की बंगाल में न कोई पहचान है और न कोई वजूद। समाज के किसी भी क्षेत्र में उन्हें कोई स्थान नहीं है। जो स्थापित हुए, वे ब्राह्मण,​​ कायस्थ, वैद्य सवर्ण जमींदारों के वंशज हैं।उन्हीं के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए हिंदू महासभा की अगुवाई में जनसंख्या स्थानांतरण के तहत मूलनिवासी किसान आंदोलन की शक्ति को खंडित करने के लिए बंगाल के भद्रलोक नेताओं ने भारत विभाजन को अंजाम दिया, क्योंकि बंगाल में विभाजन पूर्व तीनों अंतरिम सरकारों की अगुवाई मुसलमान कर रहे थे, अछूतों के समर्थन से। पहली प्रजा कृषक समाज पार्टी की फजलुल ङक मंत्रिमंडल में श्यामाप्रसाद मुखर्जी मंत्री थे, जिंन्होंने पार्टी के भूमि सुधार एजंडे को फेल कर दिया और जिसके फलस्वरुप जिस मुस्लिम लीग को बंगाल को में कोई पूछने वाला नहीं ​​था, उसको अपनाने के सिवा बंगाल के अछूत और मुसलमान किसानों के सामने कोई चारा नहीं बचा था। पर हिंदू महासभा के एनसी चटर्जी,जो सोमनात चटर्जी के पिता हैं और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की तमाम कोशिशों के बावजूद दलित मुस्लिम एका नहीं टूटा और न ही बंगाल का सांप्रदायिक ध्रूवीकरण हुआ। यहां तक कि जब बंगाल में विभाजन के दौरान दंगे हो रहे थे, तब भी तेभागा आंदोलन में हिंदू मुसलमान किसान साथ साथ जमीन के हक हकूक और भूमि सुधार की मांग लेकर बंगाल के कोने कोने में साथ साथ कंधा से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे। इसका सिलसिलावार ब्योरा इस आलेख के अंत में जुड़ा है, जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेढक्षता, संविधान और सामाजिक न्याय के लिए जानना बहुत जरूरी है।

 

बंगाल से शुरू हुआ राष्ट्रीय दलित आन्दोलन , जिसके नेता अंबेडकर और जोगेन्द्र नाथ मंडल थे। बंगाल के अछूत मानते थे कि गोरों से सत्ता का हस्तान्तरण ब्राह्ममों को हुआ तो उनका सर्वनाश। मंडल ने साफ साफ कहा था कि स्वतन्त्र भारत में अछूतों का कोई भविष्य नहीं है। बंगाल का विभाजन हुआ। और पूर्वी बंगाल के दलित देश भर में बिखेर दिये गये। बंगाल से बाहर वे फिर भी बेहतर हालत में हैं। हालिए नागरिकता कानून पास होने के बाद ब्राह्मण प्रणव बुद्ध की अगुवाई में उनके विरुद्ध देश निकाला अभियान से पहले भारत के दूसरे राज्यों में बसे बंगाली शरणार्थियों ने कभी किसी किस्म के भेदभाव की शिकायत नहीं की।पर बंगाल में मूलनिवासी तमाम लोग अलित, आदिवासी, ओबीसी और मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक हैं।अस्पृश्यता बदस्तूर कायम है।

 

वामपंथी राज में क्या हाल थे। मैंने पहले ही लिखा है। आपको याद दिलाने के लिए वही पुरानी बाते उद्धृत कर रहा हूं...

 

राजनीतिक आरक्षण बेमतलब। पब्लिक को उल्लू बनाकर वोट बैंक की राजनीति में समानता मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं। मीना - गुर्जर विवाद हो या फिर महिला आरक्षण विधायक, हिन्दूराष्ड्र हो या गांधीवाद समाजवाद या मार्क्सवाद माओवाद सत्तावर्ग का रंग बदलता है, चेहरा नहीं। विचारधाराएं अब धर्म की तरह अफीम है और सामाजिक संरचना जस का तस।

 

ये दावा करते रहे हैं की अस्पृश्यता अब अतीत की बात है। जात पांत और साम्प्रदायिकता , फासीवाद का केंद्र है नवजागरण से वंचित उत्तर भारत। इनका दावा था कि बंगाल में दलित आन्दोलन की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यहां समाज तो पहले ही बदल गया है।

 

दरअसल कुछ भी नहीं बदला है। प्रगतिवाद और उदारता के बहाने मूलनिवासियों को गुलाम बनाकर ब्राह्मण तंत्र जीवन के हर क्षेत्र पर काबिज है। बंगाल और केरल वैज्ञानिक ब्राह्मणवाद की चपेट में हैं।

 

बंगाल में वाममोर्चा नहीं, ब्राह्मणवाद का राज है।

 

बंगाल में ब्रह्मणों की कुल जनसंख्या २२.४५लाख है, जो राज्य की जनसंख्या का महज २.८ प्रतिशत है। पर विधानसभा में ६४ ब्राह्मण हैं । राज्य में सोलह केबिनेट मंत्री ब्राह्मण हैं। दो राज्य मंत्री भी ब्राह्मण हैं। राज्य में सवर्ण कायस्थ और वैद्य की जनसंख्या ३०.४६ लाख है, जो कुल जनसंख्या का महज ३.४ प्रतिशत हैं। इनके ६१ विधायक हैं। इनके केबिनेट मंत्री सात और राज्य मंत्री दो हैं। अनुसूचित जातियों की जनसंख्या १८९ लाख है, जो कुल जनसंख्या का २३.६ प्रतिशत है। इन्हें राजनीतिक आरक्षण हासिल है। इनके विधायक ५८ है। २.८ प्रतिशत ब्राह्मणों के ६४ विधायक और २३.६ फीसद सअनुसूचितों के ५८ विधायक। अनुसूचितो को आरक्षण के बावजूद सिर्फ चार केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री, कुल जमा छह मंत्री अनुसूचित। इसी तरह आरक्षित ४४.९० लाख अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या , कुल जनसंख्या का ५.६ प्रतिशत, के कुल सत्रह विधायक और दो राज्य मंत्री हैं। राज्य में १८९.२० लाख मुसलमान हैं। जो जनसंख्या का १५.५६ प्रतिशत है। इनकी माली हालत सच्चर कमिटी की रपट से उजागर हो गयी है। वाममोर्चा को तीस साल तक लगातार सत्ता में बनाये रखते हुए मुसलमानों की औकात एक मुश्त वोटबैंक में सिमट गयी है। मुसलमाल इस राज्य में सबसे पिछड़े हैं। इनके कुल चालीस विधायक हैं , तीन केबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री। मंडल कमीशन की रपट लागू करने के पक्ष में सबसे ज्यादा मुखर वामपंथियों के राज्य में ओबीसी की हालत सबसे खस्ता है। राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या ३२८.७३ लाख है, जो कुल जनसंख्या का ४१ प्रतिशत है। पर इनके महज ५४ विधायक और एक केबिनेट मंत्री हैं। ४१ प्रतिशत जनसंखाया का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक मंत्री करता है। वाह, क्या क्रांति है।

 

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक मंडल और उत्‍तराखण्ड सरकार के बीच का यह समझौता फौरी तौर पर मंडल और उनकी बिरादरी और कांग्रेस के लिए बेशक फायदे का नजर आ रहा हो। लेकिन इससे तराई के भीतर पिछले पचास सालों से लटके भूमि सुधार के मामले और जमीनों से जुडी़ दूसरी बुनियादी समस्याओं का समाधान होने वाला नहीं है। विधायकी की महज एक अदद सीट के लिए हुआ यह समझौता इस नये राज्य की भावी सियासी दशा और दिशा और खासकर कांग्रेस के लिए काफी मंहगा साबित हो सकता है। आनन-फानन में लिये गये इस फैसले से उत्‍तराखण्ड की जमीनी हकीकत को लेकर पहाड़ के नेताओं की तदर्थ सोच अवश्य जगजाहिर हो गई है।

 

सरकार ने कहा है कि इस फैसले से 1950 से 1980 के बीच समूचे राज्य में गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट के तहत कृषि जमीन का पट्टा पाए करीब 60 हजार से ज्यादा पट्टा धारकों को फायदा मिलेगा। सरकार के इस फैसले के अगले ही रोज 24 मई को एक कैबिनेट मंत्री सुरेन्द्र राकेश ने आसामी पट्टाधारियों को भी मालिकाना हक देने की मॉग उठा दी है। उन्होंने मुख्यमंत्री से मिलकर कहा है कि तात्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गॉधी के आदेश पर 1973 से 1976 के बीच नैनीताल, उद्यमसिंहनगर, देहरादून और हरिद्वार जिलों में करीब 17 हजार दलितों को दिये गए आसामी पट्टाधारियों को भी सरकार मालिकाना हक दे। उत्‍तराखण्ड के मौजूदा सियासी गणित को अपने हक में करने की मजबूरी में लिए गए राज्य सरकार के ताजा फैसले से इन दिनों तराई समेत पूरे उत्‍तराखण्ड में भूमि सुधार का मुद्दा फिर चर्चा में आ गया है। इस बहाने भविष्य में कुमाऊँ और खासकर तराई में भूमि सुधार कानूनों को अमल में लाने के मुद्दे के जोर पकड़ने के आसार नजर आने लगे है।

 

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक दरअसल अपनी समृद्ध जमीन और वनसंपदा की वजह से तराई का इलाका मुगल काल से ही लडाइयों का केन्द्र रहा है। ऐतिहासिक नजरिये से तराई-भावर गुप्त काल से कुमाऊँ राज्य का हिस्सा रहा। उन दिनों कुमाऊँ में कत्यूरी वंश का राज था। कत्यूरी कुमाऊँ का सबसे पुराना राजवंश है। कत्यूरी शासन काल में तराई का यह इलाका खूब फूला-फला। ग्यारहवीं ईसवी में तराई को लेकर मुस्लिम शासकों और कत्यूरों के बीच अनेक बार झड़पें भी हुई। अकबर के शासन काल के दौरान कुमाऊँ में चंद वंश के राजा रूप चंद का शासन था। तब तराई को नौलखिया माल और कुमाऊँ के राजा को नौलखिया राजा कहा जाता था। उन दिनों यहॉ के राजा को तराई से सालाना नौ लाख रुपये की आमदनी होती थी। चंद राजा ने तब तराई को सहजगीर (अब जसपुर), कोटा- (अब काशीपुर), मुडियया -(अब बाजपुर), गदरपुर भुक्सर -(अब रूद्रपुर), बक्शी -(अब नानकमत्‍ता) और चिंकी- (सुबड़ना और बेहडी़) सात परगनों में बॉटा था। चंद वंश के चौथे राजा त्रिमूल चंद ने 1626 से 1638 तक कुमाऊँ में राज किया। त्रिमूल चंद के राज में तराई बहुत समृद्ध थी। तराई की समृद्धि के मद्देनजर अनेक राजाओं ने तराई पर नजर गडा़नी शुरू कर दी, तराई को हाथ से निकलते देख त्रिमूल चंद के उत्‍तराधिकारी राजा बाज बहादुर चंद ने दिल्ली के मुगल सम्राट शाहजहॉ से समझौता कर लिया। बदले में कुमाऊँ की सेना ने काबुल और कंधार की लडा़ईयों में मुगलों का साथ दिया।औरंगजेब के शासन काल में 1678 ई. को कुमाऊँ के राजा बाज बहादुर चंद ने तराई में अपने प्रभुत्व का मुगल फरमान हासिल किया। 1744 से 1748 ई. के दौरान रूहेलखण्ड के रूहेलों ने कुमाऊँ पर दो बार आक्रमण किए। 1747 ई. में मुगल सम्राट ने फिर तराई पर कुमाऊँ के राजा का प्रभुत्व कबूल किया। 1814-1815 को सिंगौली की संधि के बाद 1815 में कुमाऊँ में ब्रिटिश कंपनी का आधिपत्य हो गया। 1864 में ब्रिटिश हुकूमत ने तराई और भावरी क्षेत्र के कुछ हिस्सों को मिलाकर यहॉ की करीब साढे़ चार लाख एकड़ जमीन को “तराई एण्ड भावर गवर्नमेंट इस्टेट“ बना दिया। इसे “खाम इस्टेट“ या “क्राउन लैण्ड“ भी कहा जाता था। उस दौर में यहॉ करीब पौने पॉच सौ छोटे-बडे़ गॉव थे, इनमें से करीब पौने चार सौ गॉव इस्टेट के नियंत्रण में थे। ब्रिटिश सरकार अनेक स्थानों पर इस्टेट की जमीनों को खेती के लिए लीज पर भी देती थी। उस दौरान इस इलाके को बोलचाल में तराई-भावर इस्टेट कहा जाता था। 1891 में नैनीताल जिला बना। इस क्षेत्र को नैनीताल जिले के डिप्टी कमिश्नर के अधीन कर दिया गया।

 

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक तराई के ज्यादातर नगर कस्बे चंद राजाओं के शासन काल में बने। राजा रूद्र चंद ने रूद्रपुर नगर बसाया। रूद्र चंद के सामंत काशीनाथ अधिकारी ने काशीपुर और राजा बाजबहादुर चंद ने बाजपुर बसाया। ब्रिटिश हुकुमत के दिनों चंद वंश के उत्‍तराधिकारी को तराई -भावर जागीर में दे दी गई। उन्हें राजा साहब काशीपुर की पदवी से नवाजा गया। 1898 ई. में तराई में इंफल्युएंजा की बीमारी फैल गई। 1920 में यहॉ जबरदस्त हैजा फैला। इस दरम्यान यहॉ सुलताना डाकू का भी जबरदस्त खौफ था। इन सब वजहों से तराई में आबादी कम होती चली गई। अतीत में भी तराई कई बार बसी, और कई बार उजडी़। विश्व युद्ध के दौरान अनाज की कमी और पूर्वी पाकिस्तान से आये विस्थापितों को बसाने की मंशा से तराई-भावर के बहुत बडे़ भू-भाग के जंगलों को काटकर वहॉ बस्तियॉ बसाने को सिलसिला शुरू हुआ। दिसम्बर, 1948 को पंजाब के शरणार्थियों का पहला जत्था यहॉ पहुंचा। अगस्त 1949 में उन्हें भूमि आवंटन कि प्रक्रिया शुरू हुई।

 

तराई उत्‍तराखण्ड का सबसे ज्यादा मैदानी इलाका है। यह बेहद उपजाऊ क्षेत्र है। गन्ना, धान और गेहूं की उपज के मामले में तराई को देश के सबसे ज्यादा उपजाऊ वाले इलाकों में गिना जाता है। ब्रिटिश हुकुमत के दिनों से तराई के जंगलों में खेती करने का चलन तो था। पर तब तराई का ज्यादातर हिस्सा बेआबाद था। 1945 में यहॉ दूसरे विश्व युद्ध के सैनिकों को बसाने की योजना बनी। आजादी के बाद रक्षा मंत्रालय ने इस पर अमल करना था। 1946 में प्रदेश की पहली विधानसभा ने इस क्षेत्र में कुमाऊँ और गढ़वाल के लोगों को बसाने की योजना बनाई। पर यह कामयाब नहीं हो सकी। 1950 तक तराई की पूरी जमीन सरकार की थी। इसे खाम जमीन कहा जाता था।

 

प्रयाग पांडेय की रपट के मुताबिक 1947 में भारत पाक विभाजन के वक्त आए शरणार्थियों को तराई में बसाने की योजना बनी। योजना के तहत पहले-पहल 1952 में पंजाब से आए हरेक शरणार्थी परिवार को 12 एकड़ जमीन दी गई। फिर बंगाल से आए शरणार्थीयों को जमीनें दी गई। बाद के सालों में इस योजना में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी शामिल किये गये। तराई

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चन्द्रबदनी-दिल्ली बस सेवा जल्द होगी शुरू

परिवहन समाज कल्याण मंत्री सुरेंद्र राकेश ने देवप्रयाग में एआरटीओ उप कार्यालय व परिवहन डिपो भूमि चयन होने के बाद खोलने का आश्वासन दिया। उन्होंने चन्द्रबदनी दिल्ली बस सेवा को पुन: शुरू किए जाने की घोषणा की।

परिवहन व समाज कल्याण मंत्री बागी बनगढ़ कथा यज्ञ व विकास मेला कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर पहुंचे थे। उन्होंने कहा कि विधवा, विकलांग आदि पेंशन के वितरण में अधिकारियों की लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

साथ ही उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिए कि गौरादेवी कन्या धन योजना से कोई पात्र बालिका वंचित न रहे। देवप्रयाग विधानसभा में उन्होंने पेंशन कैंप लगाने के भी निर्देश दिए। साथ ही कहा कि स्पेशल कम्पोनेंट प्लान के तहत अनुसूचित बस्तियों में बारातघर, शौचालय आदि का निर्माण करवाया जाएगा।


 साथ ही कीर्तिनगर, बनगढ़, हिसरियाखाल बस सेवाएं शुरू करने के लिए परीक्षण किया जाएगा। परिवहन मंत्री ने कहा कि अब समाज कल्याण की पेंशन तीन माह के भीतर वितरित करने की व्यवस्था बना दी गई है।

 बसपा नेता सुरेंद्र रावत ने लखनऊ में बसपा सुप्रीमो मायावती की मूर्ति को खडिंत किए जाने की निंदा की। क्षेत्रीय विधायक व पेयजल मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी ने कहा कि सरकार अब जनता के द्वार आई है जिससे समस्याओं का हल हो सकेगा।


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NIT to be set up in Sumari, Pauri: Bahuguna
« Reply #472 on: July 31, 2012, 02:56:19 AM »
NIT to be set up in Sumari, Pauri: Bahuguna   Lay     Dehradun: A National Institute of Technology (NIT) would soon be set up in Sumari area of Pauri district, Uttarakhand Chief Minister Vijay Bahuguna has said.

 Bahuguna told a delegation of Sumari residents, led by MLA Ganesh Godiyal, that appropriate land is being identified for the purpose, an official release said here.

 
 
The residents have been on a dharna for the last 90 days over their demand of setting up an NIT in Sumari.

 Principal Secretary, technical education, Rakesh Sharma also handed over to Godiyal a letter in this regard.

  Bahuguna asked the MLA to ask the agitating residents to end their stir as there should be no doubts about setting up of an NIT at Sumari.

 He said the Centre has already provided its approval in principle and Rs 100 crore have already been sanctioned for the purpose.

 The Chief Minister said Commissioner of Garhwal and the Pauri District Magistrate have been asked to identify land for setting up the institute. He expressed hope that all formalities in this regard would be completed within a period of three months.

(Source Zeenews.com

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With the interest of Mahindra & Mahindra and Volkswagen, Uttarakhand may emerge as next automotive hub in India

After Haryana and Gujarat, the state of Uttarakhand is emerging fast as the latest automotive hub in the country. Automotive giants like domestic brand Mahindra & Mahindra and German car maker, Volkswagen have shown their interest in setting-up a manufacturing plant in Uttarakhand This move came as a reaction to Maharashtra State government, wherein both the companies are operating and have declared that only cars manufactured in the state will be eligibly for VAT refund. This seems to have irked the car makers who are scouting for new locations with Uttarakhand being on top of the list.  Earlier, Gujarat was expected to benefit the most from Maharashtra's new VAT system. However, now Uttarakhand is being touted as the next possible gainer from the aforementioned new system being implied in Maharashtra. Uttarakhand is already a home for manufacturing facilities of Hero MotoCorp and Tata Motors at Haridwar and Pantnagar. Though considering the dearth of land for industrial development at Haridwar and Pantnagar, the state is developing Sitarganj as next possible location for industrial utilisation.
 Coming back to Mahindra & Mahindra, the car maker has asked for 700 acres of land in the state to establish its new manufacturing facility over there. The country's largest utility vehicle manufacturer is said to have lined-up an investment worth Rs. 30 billion in Uttarakhand, as the state officials.The proposed plant will have an annual production capacity of 2,50,000 units.On August 2, 2012, President, Automotive and farm sector, M&M, Pawan Goenka met Bahuguna to discuss the production possibilities in the state. On the other hand, German car maker has demanded 200-300 acres of land for the same purpose from Uttarakhand government.
 If the plans of both the car makers to set-up plants in the new state come along well, it would mean a considerable improvement in the development process of India as a whole. This will also conclude that the Indian automotive market will no longer be concentrated in certain areas like Tamil Nadu, Gujarat and Maharashtra.
 As of now, Mahindra has set up its manufacturing plants in Tamil Nadu, Andhra Pradesh and Maharashtra. Meanwhile, Volkswagen only has a single car manufacturing factory at Chakan, near Pune. However, the German car marque is also present in Aurangabad, wherein the models of its Audi and Skoda brand are developed.


http://www.cartrade.com/car-bike-news

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वर्ल्ड बैंक से उत्तराखंड को मिलेंगे 800 करोड़

भाषा ॥ देहरादून : उत्तराखंड में सामुदायिक सहभागिता के आधार पर चल रही जलागम विकास परियोजना 'ग्राम्या' के प्रथम चरण में मिली सफलता को देखते हुए विश्व बैंक ने इसके दूसरे चरण के लिए भी 800 करोड़ की स्वीकृति दे दी है। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि राज्य के मुख्य सचिव आलोक कुमार जैन से रंजन सामत्रे के नेतृत्व में विश्व बैंक की टीम ने गुरुवार शाम मुलाकात के दौरान 'ग्राम्या' पर विचार विमर्श किया। इस दौरान विश्व बैंक द्वारा 800 करोड़ की स्वीकृति दिए जाने की जानकारी दी गई। राज्य के 10 पहाड़ी जिलों की 550 ग्राम पंचायतों के 3 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में विश्व बैंक की सहायता से विकेंद्रीकृत जलागम विकास परियोजना 'ग्राम्या' फेज दो शुरू की जाएगी।

(source navbhrat times)
 

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 वरदान साबित होगी टिहरी झील: सीएम

   जागरण संवाददाता, नई टिहरी: मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा कि अकादमी के शुरू होने पर टिहरी बांध की झील प्रदेश के विकास में वरदान साबित होगी। यह झील पर्यटन के मामले में अब टिहरी विश्व मानचित्र पर अलग स्थान स्थापित करेगा।


  पाच सौ करोड़ की लागत से केंद्र सरकार की मेगा-मेगा प्रोजेक्ट के तहत चयनित टिहरी झील के पास कोटी कालोनी में बुधवार को राजीव गाधी साहसिक खेल अकादमी का मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने शिलान्यास किया। इस प्रोजेक्ट के तहत 50 करोड़ रुपये अवमुक्त हो चुके है इससे अकादमी का निर्माण कार्य किया जाएगा।


 सीएम ने कहा कि अकादमी के बनने से झील में कई साहसिक खेलों का आयोजन किया जाएगा। इससे यहा की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी, वहीं इससे यहा पर्यटन भी बढ़ेगा। उन्होंने बताया कि इस अकादमी में 24 साहसिक खेलों का प्रशिक्षण दिया जाएगा और यह एक विश्वविद्यालय के तौर पर कार्य करेगा। साथ ही इसको ख्याति प्राप्त किसी अंतर्राष्ट्रीय विवि से भी जोड़ा जाएगा।


 इस संस्थान में देश ही नहीं बल्कि विदेश के बच्चे भी प्रशिक्षण लेंगे। पर्यटन मंत्री अमृता रावत ने कहा कि ऊर्जा एवं पर्यटन प्रदेश बनने से ही उत्तराखंड स्वावलंबी बन सकता है। उन्होंने कहा कि टिहरी बाध की झील में तीन चरणों में वाकिंग, साइक्लिंग तथा मोटर बाईकिंग होगी ताकि सभी लोग इसका लुत्फ ले सके। झील में स्कूबर ड्राईविंग, कैनाईग, कयाकिंग, मोटर बोट, हाउस बोट, डल झील की भाति शिकारा भी संचालित किए जाएंगे।


 शिक्षा मंत्री श्री मंत्री प्रसाद नैथानी ने कहा कि इस अकादमी की पूरे उत्तराखंड में शाखाएं खोली जानी चाहिए। कृषि मंत्री व जिले के प्रभारी मंत्री हरक सिंह रावत ने कहा कि अब टिहरी बाध की झील के दिन बहुरेगे और यहा के स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। इस मौके पर विधायक सुबोध उनियाल, विक्रम नेगी, भीमलाल आर्य, पलिकाध्यक्ष उमेश चरण गुसाई ने भी विचार रखे।
 टिहरी को दिए कई तोहफे


Source Dainik Jagran

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उत्तराखंड में 600 करोड़ निवेश  करेगी कोकाकोला
देहरादून —
एचसीसीबीपीएल कोका कोला उत्तराखंड में 600 करोड़ रुपए का निवेश करने जा रही है। इस संबंध में बुधवार को सचिवालय में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की उपस्थिति में सिडीकुल, उत्तराखंड सरकार व हिंदोस्तान कोका कोला बेवरेजेज प्राइवेट लिमिटेड के मध्य एमओयू साइन किया गया। कंपनी की ओर से एग्जीक्यूटीव डायरेक्टर शुक्ला वासन व सिडीकुल की ओर से प्रबंधक निदेशक राकेश शर्मा ने हस्ताक्षर किए। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा कि कोकाकोला जैसी कंपनी के राज्य में निवेश करने से पूरे उद्योग जगत में सकारात्मक संदेश जाएगा और अन्य कंपनियां भी यहां निवेश के लिए आगे आएंगी। राज्य सरकार ने प्रदेश में निवेश का वातावरण बनाने का प्रयास किया है। सिडकुल फेज दो ऐसा ही प्रयास है। उद्योगों को एकल खिड़की सुविधा दी जा रही है। राज्य का विकास निवेश पर निर्भर है। उत्तराखंड एक शांत राज्य है। यहां अपराध दर तुलनात्मक रूप से काफी कम है और श्रम संबंधी समस्याएं नहीं हैं। राज्य में विकसित मानवीय संसाधन उपलब्ध है। कंपनी के सीनियर वाइस पे्रजिडेंट पैट्रिक जॉर्ज ने अरनेस्ट मनी व प्रोसेसिंग चार्जेज के रूप में एक करोड़ 60 लाख रुपए का चेक सौंपा। उन्होंने सरकार द्वारा किए गए सहयोग के लिए आभार व्यक्त करते हुए कहा कि कंपनी इस प्रोजेक्ट पर लगभग 600 करोड़ रुपए का निवेश दो चरणों में करेगी, जिससे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 1000 व्यक्तियों को रोजगार मिलेगा। रोजगार में स्थानीय लोगों को विशेष प्राथमिकता दी जाएगी। सिडीकुल के प्रबंध निदेशक राकेश शर्मा ने बताया कि हिंदोस्तान कोका कोला बेवरेजेज प्राइवेट लिमिटेड देहरादून के विकासनगर तहसील के ग्राम छरबा, लांघा रोड़ में 60 एकड़ भूमि पर अपना प्लांट लगाएगी। यहां कंपनी नोन एल्कोलिक कार्बोनेटेड जूस और फलों के पेय पदार्थों का उत्पादन करेगी। इस अवसर पर मुख्य सचिव आलोक कुमार जैन, कंपनी के एसोसिएट वाइस प्रेजिडेंट राजीव रंजन, व अन्य अधिकारीगण उपस्थित थे।

http://www.divyahimachal.com/

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चंडीगढ़ से ऋषिकेश के लिए दो नई ट्रेनें इसी साल से
सिटी ब्यूटीफुल से उत्तराखंड में कोटद्वार और ऋषिकेश के लिए दो नई ट्रेनें इसी साल शुरू की जाएंगी।

ये ऐलान केंद्रीय रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने टिहरी गढ़वाल विकास परिषद की ओर से रविवार को यहां आयोजित रंगारंग कार्यक्रम ‘अपणू मुल्क’ के शुभारंभ पर किया।

उन्होंने कहा कि कुमाऊं में लालकुआं से चंडीगढ़ के बीच ट्रेन का ऐलान तो वह रेल बजट में ही कर चुके हैं।

अमर उजाला के सहयोग से चंडीगढ़ सेक्टर-10 स्थित लेजर वैली में आयोजित कार्यक्रम में उत्तराखंड के लोगों की उमड़ी भीड़ को देखकर गदगद हुए रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने कहा कि शहर की समृद्धि में योगदान देने वाले गढ़वाली समाज की सुविधा के लिए वह नई ट्रेनें जल्द देने का प्रयास करेंगे।

इससे चंडीगढ़ में रह रहे समाज के लोग अपनी जन्मभूमि से हर पल जुड़े रहें। गढ़वाल के लिए एक साथ दो ट्रेनों का ऐलान होते ही कार्यक्रम में मौजूद भारी भीड़ ने बंसल के समर्थन में नारे लगाने शुरू कर दिए।

बंसल ने कहा कि वह उत्तराखंड के लोगों की जायज मांग को पूरा करके खुद को भी गौरान्वित महसूस कर रहे हैं।

इस मौके पर केदारनाथ की विधायक शैला रानी रावत, केंद्रीय मंत्री हरीश रावत के पुत्र, उत्तराखंड के पूर्व मंत्री किशोर उपाध्याय, सूरवीर सिंह सजवाण और चंडीगढ़ के मेयर सुभाष चावला, पूर्व मेयर प्रदीप छाबड़ा और पार्षद गुरुबख्श रावत मौजूद रहीं।

Source
http://www.amarujala.com/news/states/punjab/chandigarh/chandigarh-to-rishikesh-train-will-start-from-this-year/

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उत्तराखंड में बनेगा 'नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम'जागरण संवाददाता, देहरादून: स्टेट वाइल्डलाइफ बोर्ड की बैठक में सूबे में नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम बनाने, गढ़वाल व कुमाऊं में एक-एक वाइल्डलाइफ वार्डन की तैनाती समेत कई प्रस्तावों को मंजूरी भी दी गई। इस मौके पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा कि वन एवं पर्यावरण से जुड़े राज्य के उन मसलों को वह स्वयं देखेंगे, जो सुप्रीम कोर्ट व केंद्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत किए जाने हैं। उन्होंने ऐसी फाइलें उन्हें प्रेषित करने के निर्देश दिए। वन्यजीवों के हमले में मवेशियों की मौत पर दी जाने वाली मुआवजा राशि को काफी कम बताते हुए इसमें वृद्धि के  निर्देश दिए।
 शनिवार को सचिवालय में हुई बैठक में श्री बहुगुणा ने वन्यजीव अपराध रोकने के लिए कर्मचारियों को उचित संसाधन मुहैया कराने और और सीटीआर की सुरक्षा को ई-सर्विलांस की संभावना पर विचार करने को कहा। उन्होंने निर्देश दिए कि वन एवं वन्यजीवों से जुड़े विभिन्न मसलों पर विशेषज्ञों के सुझावों पर गंभीरता से विचार किया हो। साथ ही, संरक्षित क्षेत्रों में प्रस्तावित सड़कों और परियोजनाओं के सभी पहलुओं पर विचार के लिए सब कमेटी बनाने की भी बात कही।
 बैठक में विभिन्न मसलों पर चर्चा के बाद कई प्रस्तावों को हरी झंडी दी गई। इस मौके पर पर्यटन मंत्री अमृता रावत, विधायक हरीश धामी, वन एवं ग्राम्य विकास आयुक्त विनीता कुमार, प्रमुख सचिव उद्योग राकेश शर्मा, पीसीसीएफ डॉ. आरबीएस रावत, मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक एसएस शर्मा और बोर्ड के सदस्य मौजूद थे।
 ये हुए फैसले
 -गढ़वाल और कुमाऊं दोनों मंडलों में होगी एक-एक वाइल्ड लाइफ वार्डन की तैनाती
 -नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम बनाने को हरी झंडी। इसमें रखे जाएंगे विभाग के विभिन्न भंडारों में जमा हाथी दांत, खाल, सींग, हड्डियां
 -विभिन्न सड़कों और परियोजनाओं का हर पहलू से अध्ययन को बनाई जाएगी स्टैंडिंग कमेटी
 -राजाजी पार्क की धौलखंड पश्चिमी रेंज में बाघ पुनर्वास को कार्बेट टाइगर रिजर्व से दो जोड़े बाघ लाने की मंजूरी
 -नंधौर और पवनगढ़ अभयारण्यों के सिलसिले में बोर्ड को लिखित में प्रस्ताव भेजेगा वन विभाग
 -राजाजी पार्क में ग्रासलैंड विकसित किए जाएंगे, लेकिन इसके लिए किसी भी प्रकार के पेड़ नहीं कटेंगे
 -कार्बेट पार्क से लगे सुंदरखाल गांव के विस्थापन को पृथक से बनाई जाएगी समिति
 -कोसी, दाबका, शारदा व गौला नदियों के साथ ही देहरादून की जाखन व सौंग में खनन का अनुमोदन
 स्टैंडिंग कमेटी इन पर देगी रिपोर्ट
 -विष्णुगाड-पीपलकोटी जलविद्युत परियोजना
 -जखोल सांकरी जलविद्युत परियोजना
 -भारत आयल एंड वेस्ट मैनेजमेंट योजना
 -हरिद्वार-ऋषिकेश-देहरादून गैस पाइप लाइन परियोजना
 -पिथौरागढ़-तवाघाट मोटर मार्ग
 -रुद्रप्रयाग-गौरीकुंड मार्ग
 -जिन सड़कों के प्रस्तावों को मंजूरी नहीं मिली, उन पर भी रिपोर्ट देगी समिति
 सेंचुरी पर बंटे सदस्य
 सूबे में नंधौर और पवनगढ़ अभयारण्य बनाने के मसले पर वाइल्ड लाइफ बोर्ड के सदस्य बंटे नजर आए। कुछ का कहना था कि ये नई सेंचुरियां बननी चाहिए, जबकि कुछ इसके पक्ष में नहीं थे। इस पर तय हुआ कि इस संबंध में वन विभाग लिखित प्रस्ताव बोर्ड को भेजेगा, जिस पर वह विचार करेगा।
 पोचिंग पर नहीं हुई चर्चा
 कार्बेट पार्क समेत सूबे के अन्य क्षेत्रों में बाघ, गुलदार सहित दूसरे वन्यजीवों के शिकार की घटनाएं लगातार सुर्खियां बन रही हैं, लेकिन वाइल्डलाइफ बोर्ड की बैठक में इस पर चर्चा ही नहीं हुई।


http://www.jagran.com/uttarakhand/dehradun-city-9517216.html

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उत्तराखंड में बनेगा 'विश्व धरोहर केंद्र'

ऋषिकेश: यूनेस्को के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. रामभुज ने कहा कि उत्तराखंड में जल्द ही एशिया पेसिफिक स्तर का 'विश्व हेरिटेज केंद्र' स्थापित किया जाएगा। उन्होंने कहा कि यूनेस्को की ओर से गंगा को विश्व धरोहर की सूची में विचार के लिए शामिल कर दिया गया है।

परमार्थ निकेतन गंगा घाट पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग देहरादून मंडल की ओर से विश्व धरोहर सप्ताह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का उद्घाटन यूनेस्को के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. रामभुज, परमार्थ निकेतन की साध्वी भगवती, ईसावास्यम आश्रम के प्रमुख स्वामी राघवेंद्रानंद व आचार्य बैजनाथ शुक्ल ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्वलित कर किया। इस दौरान डॉ. रामभुज ने कहा कि गंगा को विश्व धरोहर घोषित करने के लिए गंगा एक्शन परिवार व परमार्थ निकेतन की ओर से प्रस्ताव भेजा गया था। जिसे विचार सूची में शामिल कर दिया गया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति को वैश्विक शांति की अग्रदूत संस्कृति बताया। उन्होंने कहा कि युद्ध व असंतोष सबसे पहले दिमाग में उपजते हैं। इसलिए दिमाग के संतोष के लिए अध्यात्म जरूरी है। मुख्य अतिथि साध्वी आभा सरस्वती ने परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद सरस्वती की ओर से गंगा को विश्व धरोहर की सूची में शामिल करने के लिए यूनेस्को का आभार जताया। उन्होंने कहा कि गंगा जहां जीव जगत के लिए प्राणवायु देती है, वहीं गंगा संस्कृति की भी वाहक है। इस दौरान मौजूद अतिथियों ने एएसआइ की ओर से प्रकाशित पुस्तक 'भारत में विश्व धरोहर एवं उत्तराखंड का पुरातात्विक इतिहास' का भी विमोचन किया। पुरातत्व विभाग देहरादून मंडल के अधीक्षण पुरातत्वविद् अतुल भार्गव ने सांस्कृतिक धरोहर व विश्वदाय धरोहरों पर विस्तार से प्रकाश डाला।

इस दौरान उप अधीक्षण पुरातत्वविद् लिली धस्माना, अशोक कुमार, मनोज जोशी, आइआइटी के पूर्व प्रोफेसर डॉ. डीएस भार्गव, वाईएस नयाल, राजेंद्र सिंह, देवधर दूबे, एसएस परमार आदि मौजूद थे। संचालन एएसआइ के उप अधीक्षण पुरातत्वविद डीके वर्मा ने किया।

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