Uttarakhand > Development Issues - उत्तराखण्ड के विकास से संबंधित मुद्दे !

Reason For Forest Fire - उत्तराखंड में आग ज्यादा, पानी कम: कारणों कि खोज

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मदन मोहन भट्ट:
आदरणीय मित्रो,

एक थ्रेड को पढ़ने से यह बात निकल कर आई कि पहाडो मैं पेय जल संकट है जिसका एक कारण हमारे चीड के जंगल भी हैं.   यह सभी ने देखा होगा कि चीड के जंगलों मैं आग बहुतायत मैं लगती है यही नहीं चीड के जंगल आग कि तरह फैलते भी बहुत तेज हैं.  क्योकि चीड का बीज स्यौत में से निकलकर हवा के साथ कई किलोमीटर तक उड़ सकता है इसलिए वह कई किलोमीटर दूर भी अपना प्रभुत्व कायम कर सकता है.  लीसा होने कि वजह से चीड आग पेट्रोल कि तरह पकड़ता है और चन्द पलों में ही चीड का जंगल दावानल में बदल जाता है. जबकि जिन जंगलों में बाज, काफल, गुबरी, बामौर आदि के पेड़ हैं, वहां आग लगने का खतरा कम होता है.  इसका मुख्य कारण है कि बाज के जंगल पानी का स्रो़त होते हैं. जहाँ बाज के जंगल होंगे वहां पानी अवश्य मिलेगा और वातावरण भी ठंडा होगा. यह बात अलग है कि बाज एक निश्चित उचाई पर ही पैदा होता है.  अब क्योकि उचाई में बसे गाँव ही पानी के लिए ज्यादा तरसते हैं, वहां चीड कि बजाय बाज का होना अति उत्तम है.  

उत्तराखंड की सरकार को चाहिए कि खुद वह इस बारे में विशेषज्ञों कि राय लेकर और सभी जगहों का सर्वेक्श्यन कर चीड के जंगलों को अन्य प्रकार के पानी देने वाले और फलदार पेड़ों से बदलने का काम करे, इससे आने वाले दस पंद्रह सालों में पानी और आग कि समस्या कुछ हद तक तो नियंत्रित हो ही जायेगी.

मैं सभी प्रबुद्ध मित्रों से निवेदन करता हूँ कि वे इस बारे में अपने बिचार अवश्य व्यक्त करें.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

This is one of the serious issues of Uttarakhand where rivers are getting dried. In another hand every year due to fire heavy losses are incurring to the forest. In recent past, Govt never seen to be serious on this issue. Truly speaking Uttarakhand has become a land of issues with no solution.

पंकज सिंह महर:
चीड़ के पेड़ लगाने का उद्देश्य उससे स्वरोजगार बढ़ाने के लिये किया गया होगा, लेकिन चीड़ की प्रकृति के कारण उसने अपना फैलाव इतना ज्यादा कर लिया कि  पहाड में जंगल का मतलब ही चीड का जंगल हो गया। चीड़ को मेरे हिसाब से सड़क के किनारे लगाया जाय, ताकि सड़क के ऊपर और नीचे की जमीन को इसके पेड़ पानी विहीन कर दें और मिट्टी को पकड़ लें, साथ ही इसके पेड़ों से प्राप्त होने वाले लीसे का उचित दोहन किया जाये।
       पहाड़ के जंगलों में चौड़ी पत्ती वाले पेडों को लगाया जाना चाहिये और ऊंचे स्थानों में बांज, बुरांश, काफल, देवदार, उतीस, फल्यांट आदि ईको और ह्यूमन फ्रेंडली पेड़ लगाये जाने चाहिये। वर्तमान राज्य में सबसे अधिक 35,394 वर्ग कि०मी० के सापेक्ष 399329 हेक्टेयर क्षेत्र में चीड़ के जंगल हैं। जो कि एक चिन्ताजनक विषय है, सरकार को जनता को साथ लेकर चीड के जंगल का कटान कर चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित वन का निर्माण करना होगा।
       लेकिन इस कार्यक्रम को व्यापक जनसहभागिता के साथ और ईमानदारी से चलाना होगा, लोगों की विमुखता जो जंगल पर अपने अधिकार न रहने से आई है, सबसे पहले इसका निराकरण करना होगा।

हेम पन्त:
चीङ (सल्ला) पहाङों में बहुतायत से पाया जाने सुईदार पत्ती वाला पौधा है. चीङ के गुण व दोषों पर पर्यावरणविद व वनवैज्ञानिक कभी एक राय नही हो पाये. कुछ लोगों का मानना है कि चीङ की जङें मिट्टी को मजबूती से पकङ कर भू-क्षरण को रोकती हैं इसके तनों से निकलने वाला लीसा तारपीन का तेल, पैन्ट-वार्निश बनाने के काम आता है, इसकी पत्तियों को रोजगार परक बनाने के लिये कई शोध भी चल रहे हैं.

लेकिन एक गम्भीर और सर्वमान्य बात यह है कि पहाङों के जंगलों में आग फैलने का सबसे बङा कारण भी चीङ ही है. इसकी सूखी नुकीली पत्तियां और तने पर लगा लीसा आग को बहुत तेजी से फैलाता है. चीङ के जंगल बहुत तेजी से फैलते हैं और यह जमीन से पानी सोख कर उसे पथरीला बना देता है. कई सालों से चीङ के प्रसार को हतोत्साहित करने की बात चल रही है लेकिन पिछले दिनों आये एक शोध ने चीङ को पहाङों के लिये एक अतिआवश्यक और लाभकारी पौधा साबित करने का प्रयास किया है.

चीङ के जंगलों के भारी प्रसार से बांज के जंगल तेजी से सिमट रहे हैं. पहाङों में पानी की कमी का यह भी एक प्रमुख कारण है. इसके अलावा पारंपरिक पानी के अधिकांश श्रोत जैसे नौले, धारे आदि उपेक्षित हो चुके हैं. यह सार्वजनिक श्रोत रखरखाव और साफ-सफाई के अभाव में सूखने लगते हैं. गांव के लोग और सरकार भी इन्हें बचाने का कोई खास प्रयास नहीं करती. अभी पिछले सालों में मुख्य सङक मार्गों के किनारे पर कई हैण्डपम्प खुदवाये गये थे, जिनमें करोङों रुपये खर्च हुए, लेकिन मुझे लगता है इनमें से 90% हैण्डपम्प अब सूखे पङे हैं. सरकार को ऐसी परियोजनाओं में पैसा लगाने की बजाय पारंपरिक जलश्रोतों के जीर्णोद्धार की तरफ़ ध्यान देना चाहिये.   

पारम्परिक रूप से पहाङों में गांवों के ऊपरी इलाके में बांज व बुरांश के जंगल होते थे जो कि अपनी जङों में पानी संचय करते थे. इस तरह के गांवों में पानी की कभी कमी नहीं रहती थी.  मेरे गांव के आसपास के इलाके में ’सिमल्या’ नाम का एक पौधा होता है, इसकी खासियत यह है कि इसकी छाया में एक जलश्रोत (नौला या धारा) जरुर होता है. सम्भवतं यह भी जमीन के अन्दर से पानी को सोखकर जङों में संचित करता होगा. ऐसी ही कई अन्य वनस्पतियां हैं जिन पर व्यापक शोध करने की आवश्यकता है. 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

There is water crisis everywhere in Uttarakhand specially hill areas which is a serious issue.

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