Author Topic: Reconsidering Delimitation - उत्तराखंड में परिसीमन पर फिर से हो विचार  (Read 22052 times)

पंकज सिंह महर

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परिसीमन का हर स्तर पर विरोध करेगा उक्रांद

कोटद्वार (पौड़ी गढ़वाल)। उक्रांद की कोटद्वार जिला इकाई की बैठक में परिसीमन का हर स्तर पर विरोध करने का निर्णय लिया गया।

सतपुली में हुई बैठक में वक्ताओं ने कहा कि वर्तमान परिसीमन से पर्वतीय क्षेत्र में प्रतिनिधित्व अभाव के साथ ही विकास कार्य भी प्रभावित होंगे। इस मौके पर वर्तमान परिसीमन का हर स्तर पर विरोध करने का निर्णय लिया गया। बैठक में केंद्रीय नेतृत्व से राज्य निर्माण आंदोलनकारियों के लिए स्पष्ट नीति बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने का अनुरोध भी किया गया। बैठक में निकाय एवं त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में दल की स्वतंत्र भागीदारी सुनिश्चित करने एवं सूबे के प्रत्येक जनपद में कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों के चिंतन प्रशिक्षण शिविरों के आयोजन करने पर जोर दिया गया। साथ ही पर्वतीय क्षेत्रों में प्रस्तावित बांधों की समीक्षा कर पुनर्विचार करने, व्यापारियों की समस्याओं के निदान को विशेष सेल गठित करने, राज्य आंदोलनकारी परिषद में उपाध्यक्ष पद जिले के आंदोलनकारी को देने, लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी एवं प्रीतम भत्र्वाण को सम्मानित करने सबंधी प्रस्ताव पारित किए गए।

राजेश जोशी/rajesh.joshee

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मित्रो
मेरे नजरिए से परिसीमन का मुद्दा एक बार जिलेवार सेतें तय करके हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए|  यह सही है कि इससे पहाड़ी जिलों को नुकसान होता है तथा पहाड़ और मैदान की परिस्थियों  मैं बहुत अन्तर भी है|  पर पहाड़ हो या मैदान हैं तो हमारे प्रदेश का हिस्सा ही, इसलिए इस पर राजनीती ठीक नही है|  पर प्रत्ये जिले मैं सेटों कि संख्या एक बार फिक्स करके जिलेवार परिसीमन कराया जन उचित होगा| जिससे भविष्य मैं कोई परेशानी न हो|

हेम पन्त

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राजेश दा! मैं एक बात रखना चाहता हूं. उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की मांग इस लिये उठी क्योंकि उ.प्र. सरकार पहाडी जिलों के विकास की तरफ ध्यान नहीं दे पाती थी. इसका प्रमुख कारण विधानसभा में हमारे प्रतिनिधियों की कम संख्या होना था.

अगर परिसीमन लागू हो गया तो फिर पुरानी स्थिति आ जायेगी. 'जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली' तर्ज पर मैदानों के अनुकूल नीतियां बनायी जायेंगी. पहाड का आदमी मुँह ताकता रह जायेगा.

आपकी इस बात का मैं समर्थन करता हूं कि जनपदवार सीटों की संख्या निर्धारित हो जानी चाहिये. लेकिन इसके लिये जनसंख्या को नहीं क्षेत्रफल को आधार बनाना चाहिये.

मित्रो
मेरे नजरिए से परिसीमन का मुद्दा एक बार जिलेवार सेतें तय करके हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए|  यह सही है कि इससे पहाड़ी जिलों को नुकसान होता है तथा पहाड़ और मैदान की परिस्थियों  मैं बहुत अन्तर भी है|  पर पहाड़ हो या मैदान हैं तो हमारे प्रदेश का हिस्सा ही, इसलिए इस पर राजनीती ठीक नही है|  पर प्रत्ये जिले मैं सेटों कि संख्या एक बार फिक्स करके जिलेवार परिसीमन कराया जन उचित होगा| जिससे भविष्य मैं कोई परेशानी न हो|

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Hem Da,

There is should strong oppose of this thing from  people like they did struggle for separate state.


राजेश दा! मैं एक बात रखना चाहता हूं. उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की मांग इस लिये उठी क्योंकि उ.प्र. सरकार पहाडी जिलों के विकास की तरफ ध्यान नहीं दे पाती थी. इसका प्रमुख कारण विधानसभा में हमारे प्रतिनिधियों की कम संख्या होना था.

अगर परिसीमन लागू हो गया तो फिर पुरानी स्थिति आ जायेगी. 'जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली' तर्ज पर मैदानों के अनुकूल नीतियां बनायी जायेंगी. पहाड का आदमी मुँह ताकता रह जायेगा.

आपकी इस बात का मैं समर्थन करता हूं कि जनपदवार सीटों की संख्या निर्धारित हो जानी चाहिये. लेकिन इसके लिये जनसंख्या को नहीं क्षेत्रफल को आधार बनाना चाहिये.

मित्रो
मेरे नजरिए से परिसीमन का मुद्दा एक बार जिलेवार सेतें तय करके हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहिए|  यह सही है कि इससे पहाड़ी जिलों को नुकसान होता है तथा पहाड़ और मैदान की परिस्थियों  मैं बहुत अन्तर भी है|  पर पहाड़ हो या मैदान हैं तो हमारे प्रदेश का हिस्सा ही, इसलिए इस पर राजनीती ठीक नही है|  पर प्रत्ये जिले मैं सेटों कि संख्या एक बार फिक्स करके जिलेवार परिसीमन कराया जन उचित होगा| जिससे भविष्य मैं कोई परेशानी न हो|

राजेश जोशी/rajesh.joshee

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पन्त जी,
मैं आपसे सहमत हूँ पर अगर उत्तराखंड को एक पहाडी राज्य के रूप में ही बनाया जाना था तो इसमे हरिद्वार और उधम सिंह नगर जनपदों को शामिल नही किया जाना चाहिए था| पर अब मेरा यह कहना है की अगर परिसीमन किया ही जाना है तो एक बार हर जनपद के लिए विधान सभा सीटों की संख्या फिक्स कर दी जानी चाहिए, भविष्य में अगर कोई परिसीमन होता है तो जनपद के अन्दर ही सीटों में फेरबदल होना चाहिए| किसी भी जनपद में विधान सभा सीटों की संख्या कम या ज्यादा नही होनी चाहिए|  अगर कोई नया जनपद बनता है तो उसके लिए भी विधान सभा सीटों की संख्या फिक्स कर दी जानी चाहिए|

खीमसिंह रावत

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हाय ये क्य हय / पै कै लिजी अलग उत्तराखंड बनाय / पहाडो कै जब पुर प्रतिनिधित्व नही देना है तो विकास कसिक हल / विकास कै लिजी छोट राज्य बनाय / एमले सीट क एरिया जब ठुल होला तो आम लोगो लिजी ली एमले दर्शन भारी हजाली / पै समस्या क समाधान कसिक होल हो महाराज / कुछ तो करो यक लिजी / कम से कम चिठ्ठी तो लिख सकदा /

हम सबुकै यक विरोध करण चहे / आपण आपण स्तर बै उत्तराखंडी लोगो कै यक विरोध और कार्यवाही करण चहे/ महर जी आप सबलोगों मार्गदर्शन करो , आघिन क्या करण / विरोधक तरीक क्या होण चाहेंच /

khim

पंकज सिंह महर

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राजेश जी की बात कुछ हदों तक सही है, इस समस्या का एक हल यह निकल सकता है कि परिसीम्न को जिलों तक सीमित कर दिया जाना चाहिये। जैसे पिथौरागढ़ जिले में ५ सीटें थीं तो ५ ही रहें, इनका आकार जिला स्तर पर ही परिवर्तित किया जाय।   
     जहां तक इस प्रश्न पर मेरी राय की बात है तो मैं इस स्थिति को मात्र उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि पूरे हिमालयी राज्यों के परिप्रेक्ष्य में कहूंगा कि इन राज्यों में परिसीमन क्षेत्रफल के आधार पर ही होना चाहिये। क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थितियां ऎसी हैं कि २ गांवों का फासला ३ कि०मी० होता है और वह भी पैदल। यदि ऎसी जगहों पर हुक्मरान यह फैसला लें कि परिसीमन जनसंख्या के आधार पर हो तो हमें इन सुदूर इलाकों के विकास की बात करनी ही नहीं चाहिये। लेकिन उत्तराखण्ड तो गांव में है, संस्कृति गांव में ही है, यदि उसका संरक्षण करना है तो गांवों को विकसित करना होगा, इस बारे में पूर्व में आंकड़ों सहित लिख चुका हूं।
       यदि यह परिसीमन व्यवस्था लागू होती है और संविधान में संशोधन समय रहते नहीं हुआ तो स्थिति और भी भयावह हो जायेगी। आज से ५० सालों के बाद पर्वतीय जिलों से शायद १ या २ ही विधायक विधान सभा में आ पायेंगे। तब क्या हम समग्र विकास की कल्पना कर सकते हैं? क्योंकि जनसंख्या तो मैदानी इलाकों में ही बढ़ेगी और पर्वतीय इलाकों में कम ही होगी, संसाधनों के अभाव और दो रोटी की जुगाड़ में हम नीचे आते हैं और जो एक बार आ गया, क्या वह फिर से उन्ही झंझावतों में अपनी पीढ़ी को परिचित करायेगा, जो उसने सही हैं। उसने देखा है पानी लाने चार मील भी जाना पड़ता था, फसल बोने से काट्ने, सुखाने तक हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी राशन की दुकान में लाइन लगाने के लिये ६ कि०मी० जाना, स्कूल पढ़्ने के लिये ५ कि०मी० पैदल और वहां भी अध्यापकों का अभाव.....! तो वह  समर्थ भी नहीं होगा तो भी कर्जा लेकर जैसे-तैसे वह यही कोशिश कर रहा है कि जो समस्यायें मेरे सामने आंई, वह मेरे बच्चों के समक्ष न आंये और वह ठीक भी कर रहा है, यही उसका दायित्व है।
       ऎसी स्थितियों में हम गांव तक सुविधा नहीं देंगे, जो थोड़ी बहुत सुविधा उसे विधायक के माध्यम से मिल रहीं हैं, उनको भी हम छीन लें, तो क्या वहां के लोगों के प्रति यह अन्याय नहीं होगा?

पंकज सिंह महर

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हाय ये क्य हय / पै कै लिजी अलग उत्तराखंड बनाय / पहाडो कै जब पुर प्रतिनिधित्व नही देना है तो विकास कसिक हल / विकास कै लिजी छोट राज्य बनाय / एमले सीट क एरिया जब ठुल होला तो आम लोगो लिजी ली एमले दर्शन भारी हजाली / पै समस्या क समाधान कसिक होल हो महाराज / कुछ तो करो यक लिजी / कम से कम चिठ्ठी तो लिख सकदा /

हम सबुकै यक विरोध करण चहे / आपण आपण स्तर बै उत्तराखंडी लोगो कै यक विरोध और कार्यवाही करण चहे/ महर जी आप सबलोगों मार्गदर्शन करो , आघिन क्या करण / विरोधक तरीक क्या होण चाहेंच /

khim

खीम दा, 
      इसके लिये व्यापक जनाआंदोलन की जरुरत है, लेकिन उत्तराखण्ड सोया है, उसकी यह झपकी उसके लिये और उसकी आने वाली पीढ़ी के लिये कितनी भयावह हो सकती है, वह सोच नहीं पा रहा। धीरे-धीरे मैदानी भागों में जन्संख्या बढ़ेगी और पर्वतीय भाग का लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व कम होता जायेगा।.....
. ???

पंकज सिंह महर

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पलायन और परिसीमन के कारण उत्तराखण्ड में लोकसभा चुनावों का गणित किस तरह बदला है, जानने के लिये पढिये वरिष्ट पत्रकार राजेन्द्र जोशी जी का यह लेख...

पर्वतीय ईलाकों में मूलभूत सुखसुविधाओं के अभाव के कारण हुए पलायन ने लोकसभा चुनाव में मतदाताओं की संख्या को लेकर चुनावी नक्शा ही बदल कर रख दिया है। मतदाता सूची में संशोधन के बाद आये ताजे आंकड़े तो कम से कम यह ही बयां कर रहे हैं। नये परिसीमन के बाद उभरी लोकसभा क्षेत्रों की तस्वीर में पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन किये ये लोग निर्णायक भूमिका में दिखायी दे रहे हैं।

पिछली बार वर्ष 2004 में हुये लोकसभा चुनाव में जहां टिहरी लोकसभा क्षेत्र में जहां 12 लाख 81 हजार 509 मतदाता थे वहीं इस बार होने वाले लोकसभा चुनाव में यहां से एक लाख 48 हजार 788 मतदाता कम हो गये हैं। इसी तरह पौड़ी गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र में जहां पिछली बार 10 लाख 66 हजार 840 मतदाता थे वहीं यहां इस बार 19 हजार 929 मतदाता कम हुए हैं। नैनीताल लोकसभा क्षेत्र में पिछली बार 12 लाख 50 हजार 345 मतदाता थे इस बार इस क्षेत्र में 9 हजार 937 मतदाता कम हुये हैं। जबकि हरिद्वार लोकसभा सीट पर पूर्व हुए चुनाव में 9 लाख 9 हजार 738 मतदाता थे यहां इस बार बढ़ कर यह संख्या 12 लाख 78 हजार 262 हो गयी है। जबकि अल्मोड़ा लोकसभा क्षेत्र में पूर्व में 10 लाख 9 हजार 457 मतदाता थे इस बार यहां भी यह संख्या बढ़ कर 10 लाख 16 हजार 301 हो गयी है। आंकड़ों के अनुसार इन चुनावों में राज्य के मैदानी ईलाकों में जहां मतदाताओं की संख्या में बढ़ोत्तरी साफ दिखायी दे रही है वहीं इस संख्या में पर्वतीय ईलाकों में कमी झलक रही है। मतदाताओं की इसी बेरूखी के कारण उम्मीदवारों को मैदानी क्षेत्रों को अब ज्यादा तवज्जों देनी होगी।

हेम पन्त

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Uttarakhand: A dream shattered
« Reply #49 on: March 25, 2009, 12:47:24 PM »
Source : http://www.ndtv.com/convergence/ndtv/story.aspx?id=NEWEN20090088667

Uttarakhand began as a struggle of the 'Highlanders' versus the 'Low Landers'. With the new delimitation in place now, the present Lok Sabha elections seem to defeat the very purpose for which a separate 'hill-state' was created.

Ladh kay lengay, bhidh kay lengay, lay kar rehnegay Uttarakhand," Atul Sharma's battle cry spawned a mass movement for a separate hill-state, today he feels dejected and cheated for what seemed a promising future is today.

Of the 70 Vidhan Sabha seats, 40 were in the hills and about 30 in the plains, but today as per the new delimitation policy, there are 38 seats in the plains and 32 seats in hills, giving the plains an edge or unfair advantage over the hills.

Iski sansktirit ek badey UP say bhin thi, isaliye ek kalpana ki gayee thi iskay alag hojaney say bahut sari bate ban jayegi. Lekin aise nahi hua aur is wajah say ek nirasha bani huee hai" Despite not reaching proportions, it has led to a battle-royal between the highlanders and the lowlanders. This hangs like a dark cloud over the very causes that lead to the creation of Uttarakhand. There is a feeling in the hills that the distribution of the Vidhan Sabha seats are biased towards the plains, as the new state was meant to look after the people of the hills something Kishore Upadhyaya, Congress MLA from Tehri reasserts.

Political parties are taking a cue from their varied areas of influence this election, the plains a strong vote bank for SP and the BJP while Congress looms larger than life in the remote mountains.

As Vinod Barthwal, SP General Secretary put its, "Parvtiya kshatre ko mehtvata milrahi hai aur milni bhi chahiye. Par yeh bhi nahi hona chahiye ki maidani bhaag uunkay saath anyaya ho aur unhay yeh mehsoos ho ki pervitya rajya maine judh kar humarey saath insaaf nahi ho raha hai yeh bhi uchit nahi hai."

The agitators who struggled for the creation of Uttarakhand never asked for Roorkee or Haridwar, nor did they fight for a state that was named Uttaranchal. Their 'Utopian Uttarakhand' has eluded them and it all boils down to scoring political brownie points with the electorate, as the dream of Uttarakhand lies defeated and dying. Just a pale imitation of Uttar Pradesh.

 

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