राजेश जी की बात कुछ हदों तक सही है, इस समस्या का एक हल यह निकल सकता है कि परिसीम्न को जिलों तक सीमित कर दिया जाना चाहिये। जैसे पिथौरागढ़ जिले में ५ सीटें थीं तो ५ ही रहें, इनका आकार जिला स्तर पर ही परिवर्तित किया जाय।
जहां तक इस प्रश्न पर मेरी राय की बात है तो मैं इस स्थिति को मात्र उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि पूरे हिमालयी राज्यों के परिप्रेक्ष्य में कहूंगा कि इन राज्यों में परिसीमन क्षेत्रफल के आधार पर ही होना चाहिये। क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थितियां ऎसी हैं कि २ गांवों का फासला ३ कि०मी० होता है और वह भी पैदल। यदि ऎसी जगहों पर हुक्मरान यह फैसला लें कि परिसीमन जनसंख्या के आधार पर हो तो हमें इन सुदूर इलाकों के विकास की बात करनी ही नहीं चाहिये। लेकिन उत्तराखण्ड तो गांव में है, संस्कृति गांव में ही है, यदि उसका संरक्षण करना है तो गांवों को विकसित करना होगा, इस बारे में पूर्व में आंकड़ों सहित लिख चुका हूं।
यदि यह परिसीमन व्यवस्था लागू होती है और संविधान में संशोधन समय रहते नहीं हुआ तो स्थिति और भी भयावह हो जायेगी। आज से ५० सालों के बाद पर्वतीय जिलों से शायद १ या २ ही विधायक विधान सभा में आ पायेंगे। तब क्या हम समग्र विकास की कल्पना कर सकते हैं? क्योंकि जनसंख्या तो मैदानी इलाकों में ही बढ़ेगी और पर्वतीय इलाकों में कम ही होगी, संसाधनों के अभाव और दो रोटी की जुगाड़ में हम नीचे आते हैं और जो एक बार आ गया, क्या वह फिर से उन्ही झंझावतों में अपनी पीढ़ी को परिचित करायेगा, जो उसने सही हैं। उसने देखा है पानी लाने चार मील भी जाना पड़ता था, फसल बोने से काट्ने, सुखाने तक हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी राशन की दुकान में लाइन लगाने के लिये ६ कि०मी० जाना, स्कूल पढ़्ने के लिये ५ कि०मी० पैदल और वहां भी अध्यापकों का अभाव.....! तो वह समर्थ भी नहीं होगा तो भी कर्जा लेकर जैसे-तैसे वह यही कोशिश कर रहा है कि जो समस्यायें मेरे सामने आंई, वह मेरे बच्चों के समक्ष न आंये और वह ठीक भी कर रहा है, यही उसका दायित्व है।
ऎसी स्थितियों में हम गांव तक सुविधा नहीं देंगे, जो थोड़ी बहुत सुविधा उसे विधायक के माध्यम से मिल रहीं हैं, उनको भी हम छीन लें, तो क्या वहां के लोगों के प्रति यह अन्याय नहीं होगा?