Author Topic: Scope of Tea Gardens in Uttarakhand-पहाडो में चाय बगान की सम्भावनाये  (Read 5888 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

Uttarakhand State has huge scope of Tea gardening but due to slackness from Govt side, this sector has not got its due recognition. At present, tea is produced from some areas like Kausani, Berinag, Chamoli, Champawat etc. This needs more focus from Govt side so that opportunity of employment can also increase.

Here is news in good direction.

 उत्तराखंड में चाय बगान खोलेंगे रोजगार के नए द्वार : डीएम   जाका, अल्मोड़ा : प्रदेश सरकार ने राज्य के पर्वतीय अंचलों में चाय बगान विकसित कर स्वरोजगार के नए द्वार खोलने की योजना बनाई है। उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड के जरिए कुमाऊं व गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में मनरेगा मद से बगानों को विकसित किया जाएगा। यह जानकारी देते हुए चाय विकास बोर्ड के निदेशक अक्षत गुप्ता ने बताया कि उत्तराखंड के विभिन्न विकास खंडों में 4 सौ हेक्टेअर क्षेत्र में चाय के पौधों का रोपण किए जाने का प्रस्ताव है। उन्होंने बताया कि अब तक 13 हेक्टेअर क्षेत्र में पौधरोपण का कार्य किया जा चुका है। परियोजना के तहत कुमाऊं के कौसानी में 211 हेक्टेअर, चंपावत में 148, घोड़ाखाल में 78 हेक्टेअर व गढ़वाल के नौटी में 145 हेक्टेअर में पौधरोपण किया जा चुका है। डीएम ने बताया कि स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत उत्तराखंड के अनुसूचित जाति, जनजाति व लघु कृषकों के विकास के लिए बेरीनाग, गरुड़ में चाय विकास कार्य के संचालन के लिए 2006 में योजना स्वीकृत हुई थी इसी आधार पर दोनों विकास खंडों के 100 हेक्टेअर प्रति विकास खंड रोपण होना है। उन्होंने बताया कि इन विकास खंडों में 802.50 लाख रुपए का बजट निर्धारित किया गया है इस योजना से 289 को स्थायी व 1445 को अस्थायी रोजगार मिलेगा। इसकी विशेषता यह है कि इसमें 80 प्रतिशत भूमि अनुसूचित जाति, जनजाति के भूमिधरों की है। उन्होंने बताया इसमें गरुड़ में 112 हेक्टेअर व बेरीनाग में 50 हेक्टेअर भूमि में पौधरोपण किया जा चुका है। डीएम ने बताया कि भूमि के परीक्षण के आधार पर टीआरए, टोक्लाई एवं दार्जिलिंग क्षेत्र के विशेषज्ञों के अनुसार स्थापना की गई जिसमें टी-78, टी-383 उपासी-9, एबी-2 एटीएमएस 379 प्रजातियों का उत्पादन हो रहा है।
 इंसेट..
 4489410 चाय के पौधों की नर्सरी लगाई
 अल्मोड़ा : उत्तराखंड में अब तक चाय की नर्सरियों में लगाए गए पौधे कौसानी-252670, घोड़ाखाल-667104, नौटी-277776, चंपावत-487513 कुल 4489410 चाय के पौधों की नर्सरी लगाई जा चुकी है। मृदा परीक्षण के लिए भवाली में प्रयोगशाला स्थापित की गई है।
(Dainik Jagran)


M S Mehta

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Similar steps are to be taken in other parts of Uttarakhand.



अल्मोड़ा, जाका : जिले को चाय उत्पादन का प्रमुख केन्द्र बनाने की दिशा में पहल शुरू हो गई है। इस बावत चाय बोर्ड के निदेशक दर्बान सिंह गब्र्याल ने प्रदेश में चाय विकास की संभावनाओं पर विशेष अभियान शुरू किया है। चाय बोर्ड के निदेशक ने सहकारिता के आधार पर चाय फैक्ट्री खोलने की बात कही। उन्होंने कौसानी, हरिनगर व रीठा रैतोली के चाय बागानों का निरीक्षण किया। वहां पर की जा रही चाय के उत्पादन पर विस्तार से जानकारी ली। गब्र्याल ने टी बोर्ड के अधिकारियों को नए क्षेत्र विकसित करने के निर्देश दिए। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के लिए चाय उत्पादन काश्तकारों के लिए बेहतर आय का जरिया बनेगा। निजी भूमि पर चाय की खेती करने वालों को टी बोर्ड के जरिए दिए जा रहे प्रोत्साहन का भी उल्लेख किया। उन्होंने यह भी बताया कि अनुबंध की शर्तो के अनुसार पांच वर्षो में फैक्ट्री मालिक मजदूरों की मजदूरी बढ़ाएगा। भ्रमण के दौरान चाय विकास बोर्ड के भानु पांडे ने बताया कि 200 हेक्टेयर में 1 लाख 80 हजार किलो चाय पत्तियां एकत्र होंगी। स्पेशल कम्पोनेंट प्लान के तहत 112 हेक्टेयर क्षेत्र में 253 काश्तकारों ने चाय पौध का प्लांटेशन कार्य किया है। भ्रमण के दौरान दर्बान सिंह गब्र्याल ने काश्तकारों से मुलाकात की। उन्होंने काश्तकारों से कहा कि पर्वतीय क्षेत्र की चाय उत्पादन क्षमता को देखते हुए सहकारिता के आधार पर पृथक चाय फैक्ट्री खोली जाए ताकि काश्तकारों को उनका उचित मेहनताना मिल सके। इसके लिए उन्होंने टी बोर्ड के अधिकारियों को निर्देशित भी किया कहा कि फैक्ट्री ऐसे स्थान पर स्थापित करें जहां पर काश्तकारों को कम से कम दूरी तय करनी पडे़। चाय की फैक्ट्री स्थापना के लिए आने वाली लागत का इस्टीमेट तैयार करने के निर्देश टी बोर्ड के वित्त नियंत्रक गोवर्धन खोलिया को दिए। यदि फैक्ट्री स्थापित हुई तो निश्चित ही कौसानी सहित विभिन्न क्षेत्र चाय उत्पादन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएंगे।
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Go through this detailed report by Girish Negi.

चाय की खेती की असीम संभावनायें हैं उत्तराखंड में 
 
गिरीश नेगी
उत्तराखंड में चाय की खेती का प्रथम संदर्भ विशप हेबर ने सन् 1824 में अपनी कुमाऊँ यात्रा में दिया है। सरकारी वानस्पतिक उद्यान सहारनपुर के अधीक्षक डॉ. रामले उत्तराखंड में चाय की खेती हो सकने से पूर्णतया सहमत थे। इस आशय की रिपोर्ट 1827 में उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजी और जब गवर्नर लॉर्ड विलियम बैंटिक सहारनपुर आये तो उन्हें भी इस क्षेत्र में चाय उद्योग के विकास हेतु सुझाव दिया। बैंटिक ने 1834 में एक कमेटी का गठन किया, जिसका कार्य चाय के पौंधे प्राप्त करना, बागान लगाने योग्य भूमि ढूँढना तथा चीनी चाय विशेषज्ञों की मदद करना था। 1835 में कलकत्ता से 2,000 पौंधों की पहली खेप उत्तराखंड पहुँची, जिससे अल्मोड़ा के पास लक्ष्मेश्वर तथा भीमताल के पास भरतपुर में नर्सरी स्थापित की गई। आगे चलकर हवालबाग, देहरादून तथा अन्य स्थानों पर भी नर्सरी स्थापित की गई। उसी समय यहाँ चाय बनाने की छोटी इकाइयाँ भी स्थापित की गई। 1837-38 में यहाँ के बागानों की चाय उपभोग हेतु तैयार हो गई। कलकत्ता कॉमर्स चौम्बर ने भी यहाँ चाय को बहुत अच्छा बाजार भाव प्राप्त करने वाली बताया। 1880 तक मल्ला कत्यूर (506 एकड़), कौसानी (390 एकड़) तथा देहरादून टी कंपनी (1200) एकड़ जैसे बड़े बागान विकसित हो चुके थे। चौकोड़ी तथा बेरीनाग बागानों का क्षेत्रफल भी करीब 300 एकड़ था। 1940-65 तक बेरीनाग में चाय उत्पादन चरम पर था और मात्र अकेली यह फैक्ट्री 500 से अधिक लोगों को रोजगार मुहैया करा रही थी।
इस सबके बावजूद चाय उद्योग उजड़ता ही चला गया। निर्यात की समस्या, यातायात के साधनों की कमी, स्थानीय स्तर पर बाजार की अनुपलब्धता, राजनैतिक परिवर्तन, स्वतंत्रता प्राप्ति के कारण आसानी से रोजगार के अवसर प्राप्त होने से मजदूरों की समस्या खड़ी होना, स्थानीय स्तर पर चाय फैक्ट्री का न होना, तकनीकी शिक्षा का अभाव, परंपरागत कृषि पर बल, भारत में चाय का कम प्रचलन होना (चाय के अधिकांश उपभोक्ता भी अंग्रेज ही थे) एवं तत्कालीन बागान मालिकों द्वारा चाय बागानों की समुचित देखरेख न होने के साथ ही मालिकों द्वारा चाय बागानों का कुप्रबंधन आदि कुछ ऐसे कारण रहे जिनके रहते यह उद्योग लगभग बंदी के कगार पर पहुँच गया। जहाँ 1880 में 10,937 एकड़ क्षेत्रफल में फैले कुल 63 चाय बागान (जिनमें से 27 प्रमुख टी स्टेट्स थीं) थे, 1911 में मात्र 2,102 एकड़ में फैले कुल 20 चाय बागान ही रह गये। उत्पादन भी 1897 में 17,10,000 पौंड से घटकर 1908 में 1,05,000 पौंड रह गया। मशहूर बेरीनाग टी कम्पनी में 1949 तक भी 59,000 पौंड चाय बनती थी जो कि 1975 में मात्र 9,000 पौंड रह गई। अब बेरीनाग टी कंपनी ध्वस्त हो चुकी है एवं चौकोड़ी बागान में चाय के पुराने पौंधों से ही थोड़ी मात्रा में चाय का उत्पादन होता है। उधर आसाम एवं पश्चिम बंगाल में चाय उद्योग विकसित होते गये। शायद वहाँ उत्तराखंड जैसी समस्यायें नहीं रहीं होंगी। अंग्रेजों ने अपना ध्यान उसी क्षेत्र में लगाया और इस उद्योग का उत्तरोतर विकास होता ही चला गया। कलकत्ता में चाय का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार होना भी एक निर्णायक कारण रहा होगा।
हाल के वर्षों में उ.प्र. और अब उत्तराखंड सरकार ने पुनः इस दिशा में सोचा। वर्ष 1993 से कुमाऊँ मंडल विकास निगम एवं गढ़वाल मंडल विकास निगम को संभावित क्षेत्रों में चाय बागानों के विकास का दायित्य सौंपा गया। अब तक दोनों मंडलों में 246 हैक्टे. से अधिक भूमि में चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं तथा चयनित क्षेत्रों में चाय पौंधों का रोपण कार्य जारी है। नैनीताल, चम्पावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी एवं देहरादून आदि जिलों में चाय बागानों के विकास हेतु 6650 हैक्टे. भूमि का चयन किया गया। उपलब्ध जानकारी एवं हमारे सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि कुमाऊँ मंडल के अंतर्गत वर्ष 1995 से मार्च 2003 तक 181.77 है. भूमि पर चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं। उक्त चाय बागानों के विकास हेतु लगभग 50 से अधिक ग्रामों के 150 से अधिक काश्तकारों एवं पाँच वन पंचायतों से भूमि लीज पर ली गई है। उक्त विकसित बागानों से वर्ष 2001-2002 तक कुल 1921.89 कु. हरी पत्ती का उत्पादन किया गया। करीब 150 से अधिक काश्तकार एवं 5 वन पंचायतें सीधे तौर पर उक्त परियोजना से लाभान्वित हुए। जनपद चमोली में वर्ष 1996 से 2003 तक 92 है. भूमि चाय बागानों के विकास हेतु अधिग्रहीत की गई। वर्ष 2003 तक 64 है. भूमि में चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं। उक्त भूमि का 50 प्रतिशत से अधिक भाग वन पंचायतों एवं उत्तराखंड सरकार की भूमि है। चमोली जनपद के 12 विभिन्न स्थानों पर 214 छोटे-बड़े काश्तकारों एवं 12 वन पंचायतों तथा उत्तराखंड सरकार की भूमि अधिग्रहित की गई है। मई 2003 तक विकसित इन बागानों से कुल 94.72 कु. चाय की हरी पत्ती उत्पादित की गई। इन आंकड़ों से प्रतीत होता है कि यदि यह परियोजना जन भागीदारी के साथ आगे बढ़ी तो इसके अच्छे परिणाम होंगे। रोजगार सृजन के साथ यह भूमि कटाव की रोकथाम में भी सहायक सिद्ध होगी।
इस उद्योग हेतु ब्रिटिश काल में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता था। मगर अब उत्पादकता बढ़ाने हेतु अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फॉस्फेट, म्यूरेट ऑफ पोटाश आदि का तथा पौंधों को कीटजनित एवं विषाणुजनित रोगों से बचाने हेतु इन्डोसल्फान, कैलीथीन, फायटोलॉन, थायोडान आदि का प्रयोग हो रहा है। आसपास के जल स्रोतों पर इसके संभावित प्रभावों का अध्ययन करना आवश्यक है। इस क्षेत्र में कृषि भूमि में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक उर्वरकों का जल की गुणवत्ता पर पड़ रहे प्रभाव पर अभी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि रोगाणुओं को मारने हेतु प्रयुक्त सल्फर, क्लोरीन एवं फॉस्फेट आधारित रसायनिकों के कम अपघटन हो सकने वाले पदार्थों में बदल जाने के बाद फसल में जो अवशेष रह जाते हैं वह मानव उपयोग करने पर कभी-कभी खतरा पैदा करते हैं एवं जल, वायु एवं मृदा प्रदूषण भी करते हैं। इस क्षेत्र में जल गुणवत्ता पर किये गये कुछ प्रारम्भिक अध्ययनों में जल प्रदूषण अभी निम्न स्तर का पाया गया है। फिर भी शहरी आबादी के आसपास जल प्रदूषण में वृद्धि हुई है। इन अध्ययनों में नाइट्रेट की पेयजल में मात्रा 3-46 मिग्रा./लीटर, क्लोराइड (3-66 मिग्रा./लीटर), सल्फेट (2-46 मिग्रा./लीटर) एवं कुल हार्डनैस 30-140 मिग्रा/लीटर पाई गयी है। जल स्रोतों के उद्गम क्षेत्र में चट्टानों की प्रकृति का भी जल की गुणवत्ता पर स्पष्ट प्रभाव देखने को मिले हैं। नाइट्रोजन युक्त अवयव (अमोनियम लवण, नाइट्राइट एवं नाइट्रेट) मुख्यतया प्रोटीनयुक्त पदार्थों के अपघटन से एवं कृषि भूमि से बहने वाले जल में पाये जाते हैं। कृषि भूमि में प्रयुक्त होने वाले गोबर की खाद का भी इन क्षेत्रों में निकलने वाले जल स्रोतों की गुणवत्ता पर प्रभाव पाया गया है। ग्रीष्म ऋतु के दौरान जल में घुलनशील ऑक्सीजन की न्यून मात्रा एवं कार्बोनेट की उच्च सान्द्रता को पेयजल हेतु अनुपयुक्त पाया गया है।
प्रस्तुत अध्ययन हेतु परिणाम कौसानी क्षेत्र के अन्र्तगत सौड़धार (चाय बागान रोपण का वर्ष 1994-95), कौसानी मेन डिवीजन (रोपण का वर्ष 1997-98) व जौवड़ा (रोपण का वर्ष 1997-98) चाय बागानों के जल स्रोतों के जल का परीक्षण किया गया। जल गुणवत्ता के आंकड़ों से विदित होता है कि गुणवत्ता हेतु आवश्यक मुख्य आयनों की सान्द्रता वर्षा ऋतु में एक चाय बागान से दूसरे चाय बागान से भिन्न है। सौड़धार चाय बागान में लगभग सभी (फास्फेट के अलावा) तत्वों की सान्द्रता मेन डिविजन एवं जौवड़ा चाय बागान के अंतर्गत अन्य तत्वों की सान्द्रता से ज्यादा थी। जौवड़ा चाय बागान में क्लोराइड की सान्द्रता अप्रत्याशित रूप से अधिक पाई गई। तीनों चाय बागानों के अन्तर्गत जल स्रोत का पी.एच. चाय बागान के बाहर के जल स्रोत से अधिक पाया गया। इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि चाय बागानों की भूमि के भूगर्भीय रासायनिक प्रकृति का जल की गुणवत्ता पर मुख्यतः असर हुआ। अतः पर्यावरणीय दृष्टि से इस उद्योग का आंकलन अत्यन्त आवश्यक है। पर्वतीय जलागमों में बढ़ रही आबादी, शहरीकरण, नगरों से निकलने वाले कूड़े-कचरे एवं मल-मूत्र के निस्तारण एवं शुद्धिकरण की समुचित व्यवस्था न होने से यहाँ के घनी आबादी वाले क्षेत्रों में जल प्रदूषण की समस्यायें धीरे-धीरे उत्पन्न हो रही हैं। पुनः नकदी कृषि फसलों एवं पौंधों के व्यावसायिक रोपण में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के उपयोग पर भी हमें सावधानी रखनी होगी।
(source Nainital samachar)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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काश्तकारों का रूझान तेजी से चाय की तरफ हो रहा है। इसकी वजह है जंगली जानवरों द्वारा यहां की प्रमुख फसलों को नुकसान पहुंचाना। चाय की खेती करने से काश्तकारों को एक तरफ जहां आमदनी हो रही है, वहीं दूसरी तरफ जंगली जानवर भी इसको नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। चंपावत में किसानों द्वारा विकसित किए गए चाय के बागान प्राकृतिक सुंदरता भी बढ़ा रहे हैं।

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    photo    Tea Garden at Kausani, Uttrakhand, India Copyright for this photo belongs solely to Jitendra Singh. Image may not be copied, downloaded, or used in any way without the expressed, written permission of the photographer

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Tea Garden Vijaypur, Near Kanda.

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From - चन्द्रशेखर करगेती
 
    अमृत है उत्तराखण्ड़ की चाय......

    एक जमाने में उत्तराखण्ड़ के कुमाऊ जंगलों में चाय के पौधे खरपतवार की तरह लावारिस रूप् में उग आते थें। जगंली घास समझकर इन चाय के पौधों का कोई उपयोग भी नहीं करता था। लेकिन जब सन् 1823 में आसाम की धरती पर चाय की जंगली पौधों की खोज होने के बाद बिशप हेलर नामक सैलानी सन् 1824 में हिमालय क्षेत्र की यात्रा पर उत्तराखण्ड़ क्षेत्र में आया और उन्होने कुमाऊ के जगंलों में खडे़ लावारिस चाय के पौधों को देखा तो उन्होने यहां चाय की खेती संभावना व्यक्त की। उन्होने उत्तराखण्ड़ के भौगोलिक स्वरूप् व जलवायु को चाय की खेती के अनुकूल मानते हुए लोगों को उत्तराखण्ड में चाय की खेती की सलाह दी।

    उत्तराखण्ड़ के चिंतक रमित जोशी की माने तो सैलानी बिशप हेलर द्वारा चाय की खेती की बाबत दिए गए सुझाव को कार्य रूप् में लाने के लिए सहारनपुर के तत्कालीन सरकारी बोटेनिकल गार्डन चीफ डाक्टर रायले ने तत्कालीन गर्वनर जनरल विलियम बेंिटंग से उत्तराखण्ड़ पर्वतीय क्षेत्र में चाय का उद्योग विकसित करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करने का अनुरोध किया। जिस पर सन् 1834 में चाय उद्योग के लिए एक कमेटी का गठन किया गया और सन् 1835 में इस कमेटी के माध्यम से चाय की दो हजार पौध कोलकाता से उत्तराखण्ड़ के लिए मंगायी गई। जिसे कुमाउ क्षेंत्र के अलमोड़ा में भरतपुर ले जाकर रोपित किया गया। यही चाय की नर्सरी बनाकर चाय कि खेती का विस्तार कुमाउ के साथ-साथ गढ़वाल क्षेत्र में भी किया गया।

    अनुकूल जलवायु एवं चाय की उन्नत खेती तकनीक के चलते उत्तराखण्ड़ में जो चाय पैदा हुई वह गुणवता की दृष्टि से लाजवाब थी तभी तो सन् 1842 में चाय विशेषज्ञ द्वारा उत्तराखण्ड की चाय को आसाम की चाय से श्रेंष्ठ घोषित किया गया। इंग्लैण्ड में भेेजे गये उत्तराखण्ड़ की चाय के नमूनों को भी गुणवत्ता की दृष्टि से दुनिया भर की चाय से श्रेष्ठतम माना गया। जिससे उत्साहित होकर सरकारी प्रोत्साहन के बलबूते उत्तराखण्ड़ की धरती पर सन् 1880 तक चाय की खेती का विस्तार 10937 एकड़ क्षेत्रफल तक पहुंच गया और चाय के 63 बागानों के रूप् के रूप् में चाय की उन्नत खेती की गई।

    भले ही चाय उत्पादन के क्षेत्र में उत्तराखण्ड़ दार्जलिंग और असम की तरह चर्चित न हो लेकिन उत्तराखण्ड़ की आर्थोडाक चाय आज भी दुनिया की सबसे महंगी चाय में शुमार है। अमेरिका, नीदरलैण्ड़ और कोरिया समेत दुनिया भर के कई देशों में उत्तराखण्ड की चाय को लोग हाथों-हाथ लेते है । 1200 मीटर से 2000 मीटर की उंचाई पर उगाई जाने वाली आर्थोडाक चाय जिसे जैविक चाय भी कहा जाता है को चाय के पौधों पर आने वाली पहली दो कोमल पत्तियों को कली के साथ तोडकर एक दिन के प्रोसिस से तैयार किया जाता है । अल्मोडा के दिवान नगरकोटी ने बताया कि उत्तराखण्ड की चाय की सर्वाधिक किमत विदेशों में मिलती है। उन्होने जानकारी दी कि आर्थोडाक चाय का आयात लगभग दस हजार प्रति किलोग्राम की दर से किया जा रहा है। एक वर्ष में आर्थोडाक चाय की पैदावार करीब डेढ़ लाख किलोग्राम होने का अनुमान है ।

    उत्तराखण्ड चाय बोर्ड के पूर्व निदेशक डी एस गर्ब्याल ने भी स्वीकारा है कि उत्तराखण्ड की आर्थोडाक चाय का दुनिया भर में कोई मुकाबला नहीं है । लेकिन उत्तराखण्ड में चाय का बाजार विकसित न होने, यातायात संसाधनों की कमी और चाय के बाजारीकरण के लिए कोलकत्ता बदंरगाह पर ही निर्भर रहने के कारण उत्तराखण्ड की चाय अन्तर्राष्टीय बाजार में अभी पूरी तरह अपनी जगह नहीं बना पायी । जिसका एक बडा कारण उत्तराखण्ड में चाय के किसानों को चाय की खेती के प्रति पर्याप्त प्रोत्साहन की कमी माना जा सकता है । शायद यही कारण है कि कभी उत्तराखण्ड की रौनक माने जाने वाले चाय के 63 बागानों मे से अब मात्र गिनती की बागान ही रह गये है और वह भी भारी कीमत की आर्थोडाक चाय तक सिमट जाना चिंता का विषय है ।

    हालांकि आज भी कुमाउ क्षेत्र के रानीखेत, भीमताल, दूनागिरी, कौशानी, भवाली व बेरीनाग के जंगलों में चाय के पौधे खरपतवार के रूप् में खडे देखे जा सकते है। इस लिए यदि चाय की आधुनिक खेती के लिए उत्तराखण्ड के चाय किसानों को पुनः प्रात्साहित किया जाये और उन्हे यह विश्वास दिलाया जाये कि चाय लाभकारी फसल है तो किसानों का रूख चाय की ओर हो सकता है। जो उनकी जिंदगी बदल सकती है l

    (साभार : श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट)

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Good news.

हर्बल चाय की खेती करो, खूब कमाओ  Almora | अंतिम अपडेट 1 मई 2013 5:30 AM IST पर
  अल्मोड़ा। हर्बल चाय (कैमोमाईल) की खेती काश्तकारों के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रही है। हर्बल चाय की खेती करके किसान अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। हर्बल चाय के पौधे छह महीने में तैयार हो जाते हैं। कैमोमाईल के सूखे फूल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 430 से 500 रुपये प्रति किलो तक बिकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी हर साल दस टन की मांग है। अल्मोड़ा जिले के लमगड़ा ब्लाक के नैनी, कपकोट, तुलेड़ी, ढैली आदि गांवों में कई काश्तकार कैमोमाईल की खेती कर रहे हैं।
हर्बल चाय (कैमोमाईल) की बुआई सितंबर अक्तूबर में की जाती है। छह माह में फसल तैयार हो जाती है। हल्की तथा भारी दोमट भूमि में इसकी बुआई की जा सकती है। एक नाली क्षेत्र में 20 ग्राम बीज से करीब 2200 पौधे लगाए जा सकते हैं। 15 फरवरी से 15 अप्रैल तक इन फूलों को तोड़ लिया जाता है। फूलों को तोड़कर हल्की धूप में सुखाया जाता है। इन फूलों को ड्रायर में 40-45 डिग्री सेल्सियस पर सुखाकर रखने से गुणवत्ता बेहतर बनी रहती है। जानकारी के मुताबिक इन फूलों का उपयोग हर्बल टी के अलावा सौंदर्य प्रसाधन, एरोमाथेरेपी में भी किया जाता है। जड़ी बूटी शोध संस्थान गोपेश्वर से मिली जानकारी के मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी हर साल दस टन की मांग है।
कैमोमाईल की खेती करने में अधिक धनराशि खर्च करने की जरूरत नहीं है। काश्तकार कम खर्च में अधिक मुनाफा कमा सकते हैं। जड़ी बूटी शोध संस्थान गोपेश्वर के लमगड़ा ब्लाक मास्टर ट्रेनर संतोष सिंह ने बताया कि पांच नाली भूमि में कैमोमाईल के कृषिकरण के लिए संस्थान द्वारा नि:शुल्क बीज तथा पौध दी जाती है। लमगड़ा ब्लाक के नैनी, कपकोट, तुलेड़ी, ढैली आदि गांवों में काश्तकार कैमोमाईल की खेती कर रहे हैं। क्षेत्र पंचायत सदस्य प्रेमा देवी, नैनी के पूर्व प्रधान राम सिंह, आनंद सिंह ढैला, हरीश कपकोटी, खीम सिंह, पान सिंह ने बताया कि कैमोमाईल की अच्छी पैदावार हुई है। उन्होंने बताया कि हर्बल चाय की बाजार में काफी मांग है और इस क्षेत्र में काम कर रहे कुछ लोग उनकी उपज खरीद लेते हैं।

कैमोमाईल की खेती करने की विधि-
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भूमि- हल्की तथा भारी दोमट।
जलवायु- ठंडे सब ट्रोपिकल तथा धूप वाले टेम्परेट क्षेत्र।
बुवाई समय- सितंबर, अक्तूबर (सब ट्रोपिकल), फरवरी (टेम्परेट)
रोपण समय- नवंबर (सब ट्रोपिकल), मार्च (टेम्परेट)।
फसल अवधि- छह माह।
औषधीय उपयोग- हर्बल टी, सौंदर्य प्रसाधन, एरोमाथैरेपी आदि।

(amar ujala)

 

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