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Author Topic: Should Gairsain Be Capital? - क्या उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण होनी चाहिए?  (Read 192187 times)

Charu Tiwari

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आठ साल, दो सरकारें, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढ़ायें गये कार्यकाल के बाद जो फैसला राजधानी चयन आयोग ने दिया वह न केवल हास्यास्पद है बल्कि नीति-नियंताओं के राजनीतिक सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वहीं हुआ जिसकी सबको आजंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हालांकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने में दीक्षित आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए वह राजधानी के मसले पर ढाल बनी। इस आयोग की सिफारिस पर दोनों की सहमति है। राजधानी चयन आयोग के अधयक्ष वीरेन्द्र दीक्षित ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह राज्य के लोगों की जनाकांक्षाओं के खिलाफ है। राजधानी के लिए चार स्थानों के नाम पर विचार कर उसने राजनीतिक दलों के एजेन्ट के रूप में कार्य करने के आरोप पर मुहर भी लगा दी है। रिपोर्ट में गैरसैंण के साथ रामनगर, देहरादून, कालागढ़ और आडीपीएल के नामों पर विचार करने की संस्तुति ने गैरसैंण की मुहिम को कमजोर करने का काम किया है। गैरसैंण को राजधानी बनाकर उसे चन्द्रनगर का नाम देने वाले उत्तराखंड़ क्रान्ति दल के सरकार में शामिल होने और उसी के समय में आयोग के एक और कार्यकाल के बढ़ने से जनता का विज्वास उठ गया था। पिछले दिनों देहरादून में आयोग की सिफारिश के खिलाफ सिर मुडंवाकर प्रदर्शन करने वाले उक्रांद के लिए भी अब यह गले की हड्डी बन गया है। विभिन्न आंदोलनकारी संगठनों की लामबंदी से एक बार फिर इस मुद्दे पर व्यापक आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। पंचायत चुनाव के शोर के बाद अब सरकार और राजनीतिक दलों के लिए राजधानी का मसला सबसे बड़ी चुनौती होगा।
   जब से राजधानी चयन के नाम पर जस्टिस बीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में आयोग बना लोगों को इससे बहुत उम्मीदें नहीं थी। फिर भी एक आयोग के काम और उसके फैसले पर सबकी नजरें जरूर थीं। पिछले दिनों जब उसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो वही हुआ जिसकी सबको आजंका थी। गैरसैंण के साथ राजधानी के लिए और नामों पर भी विचार करने की संस्तुति कर आयोग ने राजनीतिक दलों की मुराद पूरी कर दी। आयोग ने अपनी रिपोट्र में बताया है कि राजधानी चयन के लिए जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था उसमें विभिन्न वर्गों से सुझाव मां्गे थे। इनमें से आयोग को 268 सुझाव मिले। इनमें 192 व्यक्तिगत, 49 संस्थागत एनजीओ, 15 संगठनात्मक पार्टीगत और 12 ग्रुपों के सुझाव थे। इनमें गैरसैंण के पक्ष में 126, देहरादून के पक्ष में 42, रामनगर के पक्ष में 4, आईडीपीएल के पक्ष में 10 थे। कुछ सुझाव अंतिम तारीख के बाद मिले। आयोग ने इन्हें भी शामिल कर लिया था। इसके अलावा 11 सुझावों में किसी अन्य के विकल्प के रूप में गैरसैंण भी शामिल है। पांच में कुमांऊ-गढ़वाल के केन्द्र स्थल के नाम आये हैं। इन्हें यदि गैरसैंण मान लिया जाये तो यह संख्या 142 पहुंच जायेगी। रामनगर के पक्ष में सिर्फ 4 सुझाव हैं पर अन्य स्थलों पर एक विकल्प रामनगर को भी मानने वाले सुझावों की संख्या 21 है। इस तरह रामनगर के पक्ष में 25 सुझाव मिले हैं। कालागढ़ के पद्वा में 23 सुझाव मिले हैं। कालाढूंगी, हेमपुर, काजीपुर, भीमताल, श्रीनगर, श्‍यामपुर, कोटद्वार आदि पर भी सुझाव आये हैं। राजनीतिक दलों की तरु से आये 15 सुझावों में से 6 गैरसैंण के पक्ष में हैं। दो गढ़वाल और कुमाऊं के मधय बनाने के लिए हैं। देहरादून के पक्ष में दो और कालागढ़ के पक्ष में तीन सुझाव राजनीतिक दलों की ओर से आये हैं। दो सुझावों में किसी स्थल का नाम नहीं हे। यह सरसरी तौर पर इस रिपोर्ट की सिफारिश है।
   फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरु किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने किसी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृटि से खतरनाक साबित करने की कोजिज की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृटि से सवेदनशील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भीषण भूकंप में नहीं गिरे, राजधानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे शहरों को बसाया जा सकता है तो राजधानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेशान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्रह नदियों पर बन रहे 200 से अधिक विनाशकारी बांध और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रीकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधानी के लिए कुतर्क पेश कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधी रास्ता अख्तियार कर रहे हैं।
   सही नियोजन और जनपक्षीय विकास के माॅडल की मांग के साथ शुरू हुआ राज्य आंदोलन अपने तीन दशक की संघर्ष यात्रा में विभिन्न पड़ावों से गुजरा। राट्रीय राजनीतिक दलों की घोर उपेक्षा और राट्रद्रोही कही जाने वाली मांग के बीच क्षेत्रीय जनता ने राज्य की प्रासंगिता का रास्ता खुद ढूंढा। तीन दशकों के सतत संघर्ष, 42 लोगों की शहादत और लोकतांन्त्र्कि व्यवस्था में अपनी मांग के समर्थन में रैली में जा रही महिलाओं के अपमान के बाद राज्य मिला। यह किसी की कृपा और दया पर तो नहीं मिला लेकिन जो लोग कल तक राज्य का विरोध कर रहे थे वे अब अचानक इस आंदोलन को हाई जैक करने में सफल हो गये। बाद में वही राज्य बनाने का श्रेय भी ले गये। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो वह नये रूप और नये रंग का था। उत्तराखंउ की जगह उत्तरांचल के नाम से राज्य अस्तित्व में आया और भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जिसने नाम के अलावा राजधानी के लिए भी साजिश की। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधश वीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में एक सदस्यीय राजधानी चयन आयोग का गठन कर लोगों की भावना के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया। आठ साल में वह किसी न किसी बहाने इस पर रोडे अटकाती रही। सरकार की प्राथ्मिकता में राजधानी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए वह इस आयोग का मनमाना कार्यकाल बढ़ाती रही। भाजपा की अंतरिम सरकार ने इसका गठन किया तो कांग्रस ने लगातार इसके कार्यकाल को बढ़ाया। जितनी बार कार्यकाल बढ़ा उतनी बार गैरसैंण के खिलाफ कुतर्क ढूंढ़े गये। इस बीच राजधानी के सवाल को लेकर लंबे समय से संघर्ष करने वाले बाबा उत्तराखंड़ी ने अपनी शहादत दी और एक छात्र् कठैत ने आत्महत्या की। बावजूद इसके इन दोनों सरकारों ने आयोग के माधयम से जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। आठ साल के बाद दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ने राज्य की जनता के साथ ऐसा छलावा किया जो  एक नये आंदोलन को जन्म देने के लिए काफी है।
   जहां तक राज्य की राजधानी का सवाल है, यह राज्य आंदोलन के दौरान निर्विवाद रूप से तय थी। गैरसैंण को राजधानी बनाने का मुद्दा भावनात्मक नहीं बल्कि यह राज्य के विकास की परिकल्पना के अनुरूप था। विकास के विकेन्द्रीकरण की सोच के साथ राज्य के मधय में राजधानी बनाने का विचार आंदोलन के प्रारंभिक दौर में ही आंदोलनकारियों के जेहन में थां। जब आंदोलन तेज हुआ तो राज्य के लिए एक प्रारूप भी जन्म लेने लगा उसमें विभिन्न संगठनों ने अपने-अपने ब्लू प्रिन्ट तैयार किये। कमोवेश सभी ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहये। उस समय इस आंदोलन का घ्वजवाहक क्षेत्रीय राजनीतिक दल उक्रांद ने 1992 में बागेश्‍वर में अपना ब्लू प्रिन्ट जारी किया। इसमें पहली बार गैरसैंण को राजधानी के रूप में चुना गया। 24 और 25 जुलाई 1993 में गैरसैंण में भारी जनसैलाब के बीच पेशावर कांड के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर इसका नामकरण चन्द्रनगर के नाम से कर दिया गया। यहीं से यह राज्य के लोगों के लिए राजधानी के रूप में जानी जाने लगी। 1994 में तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार ने राज्य के औचित्य को लेकर वरिष्‍ठ मंत्री रमाशंकर कौशिक की अधयक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इसमें प्रदेश के तीन और मंत्री शामिल थे। इसके सचिव तत्‍कालीन पर्वतीय विकास सचिव आरएस टोलिया को बनाया गया। कौशिक समिति असल में राज्य का प्रारूप तैयार करने वाली सबसे प्रामाणिक थी। इसने उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में जाकर विभिन्न मुद्दों पर समाज के विभिन्‍न वर्गों की राय ली। इसमें राजधानी का सवाल भी था। समिति को 68 प्रतिशत लोगों ने कहा कि राजधानी चन्द्रनगर गैरसैंण होनी चाहिए। यही वह बिन्दु है जिसे जनता की व्यापक भावना के रूप में समझा जाना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से लोकतंत्रत्रिक व्यवस्था की दुहाई देने वाले नीति-नियंताओं ने जनता की बात को कसौटी में कसने के लिए आयोग के हवाले कर दिया जो अपने आप में अलोकतांत्रिक कदम था।
   फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरह से आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरू किया वह हमेशा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने भी राज्य की जनता से सीधे संवाद की कोशिश नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रेस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’ष्‍िट से खतरनाक साबित करने की कोशिश की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृटि से सवेदनशील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भीषण भूकंप में नहीं गिरे, राजधानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि ऐसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम आबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे शहरों को बसाया जा सकता है तो राजधानी के लिए गैरसैंण को विकसित करने में सरकारें क्यों परेशान हैं, यह समझ में नहीं आता।

पंकज सिंह महर

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सत्य बचन चारु दा,
        अगर गैरसैंण भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील है या वहां पर पानी की कमी है तो सरकार को वहां के निवासियों को पुनर्वासित करना चाहिये, वह भी उत्तराखण्ड की जनता हैं और उन्हें भी जीने का अधिकार है.....तो क्यों सरकार उन्हें मौत के मुंह में रहने दे रही है... क्या गैरसैंण वासी किसी दूसरे प्रदेश या देश के निवासी हैं?
      ये सब उलझाने की बातें हैं, सबको देहरादून की बासमती और मौसम भा गया है, यहं की सुविधाओं की आदत पड़ गई है, जान-बूझकर यह मामला लगातार लटकाया जा रहा है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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[quote author=आठ साल, दो सरकारें, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढ़ायें गये कार्यकाल के बाद जो फैसला राजधानी चयन आयोग ने दिया वह न केवल हास्यास्पद है बल्कि नीति-नियंताओं के राजनीतिक सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वहीं हुआ जिसकी सबको आजंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हालांकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने में दीक्षित आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए वह राजधानी के मसले पर ढाल बनी। इस आयोग की सिफारिस पर दोनों की सहमति है। राजधानी चयन आयोग के अधयक्ष वीरेन्द्र दीक्षित ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह राज्य के लोगों की जनाकांक्षाओं के खिलाफ है। राजधानी के लिए चार स्थानों के नाम पर विचार कर उसने राजनीतिक दलों के एजेन्ट के रूप में कार्य करने के आरोप पर मुहर भी लगा दी है। रिपोर्ट में गैरसैंण के साथ रामनगर, देहरादून, कालागढ़ और आडीपीएल के नामों पर विचार करने की संस्तुति ने गैरसैंण की मुहिम को कमजोर करने का काम किया है। गैरसैंण को राजधानी बनाकर उसे चन्द्रनगर का नाम देने वाले उत्तराखंड़ क्रान्ति दल के सरकार में शामिल होने और उसी के समय में आयोग के एक और कार्यकाल के बढ़ने से जनता का विज्वास उठ गया था। पिछले दिनों देहरादून में आयोग की सिफारिश के खिलाफ सिर मुडंवाकर प्रदर्जन करने वाले उक्रांद के लिए भी अब यह गले की हड्डी बन गया है। विभिन्न आंदोलनकारी संगठनों की लामबंदी से एक बार फिर इस मुद्दे पर व्यापक आंदोलन की सुगबुगाहट “शुरू हो गयी है। पंचायत चुनाव के शोर के बाद अब सरकार और राजनीतिक दलों के लिए राजधानी का मसला सबसे बड़ी चुनौती होगा।
   जब से राजधानी चयन के नाम पर जस्टिस बीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में आयोग बना लोगों को इससे बहुत उम्मीदें नहीं थी। फिर भी एक आयोग के काम और उसके फैसले पर सबकी नजरें जरूर थीं। पिछले दिनों जब उसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो वही हुआ जिसकी सबको आजंका थी। गैरसैंण के साथ राजधानी के लिए और नामों पर भी विचार करने की संस्तुति कर आयोग ने राजनीतिक दलों की मुराद पूरी कर दी। आयोग ने अपनी रिपोट्र में बताया है कि राजधानी चयन के लिए जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था उसमें विभिन्न वर्गों से सुझाव मोंगे थे। इनमें से आयोग को 268 सुझाव मिले। इनमें 192 व्यक्तिगत, 49 संस्थागत@एनजीओ, 15 संगठनात्मक@पार्टीगत और 12 ग्रुपों के सुझाव थे। इनमें गैरसैंण के पक्ष में 126, देहरादून के पक्ष में 42, रामनगर के पक्ष में 4, आईडीपीएल के पक्ष में 10 थे। कुछ सुझाव अंतिम तारीख के बाद मिले। आयोग ने इन्हें भी “ाामिल कर लिया था। इसके अलावा 11 सुझावों में किसी अन्य के विकल्प के रूप में गैरसैंण भी “ाामिल है। पांच में कुमांऊ-गढ़वाल के केन्द्र स्थल के नाम आये हैं। इन्हें यदि गैरसैंण मान लिया जाये तो यह संख्या 142 पहुंच जायेगी। रामनगर के पक्ष में सिर्Q 4 सुझाव हैं पर अन्य स्थलों पर एक विकल्प रामनगर को भी मानने वाले सुझावों की संख्या 21 है। इस तरह रामनगर के पक्ष में 25 सुझाव मिले हैं। कालागढ़ के पद्वा में 23 सुझाव मिले हैं। कालाढंूगी, हेमपुर, काजीपुर, भीमताल, श्रीनगर, “यामपुर, कोटद्वार आदि पर भी सुझाव आये हैं। राजनीतिक दलों की तरु से आये 15 सुझावों में से 6 गैरसैंण के पक्ष में हैं। दो गढ़वाल और कुमाऊं के मधय बनाने के लिए हैं। देहरादून के पक्ष में दो और कालागढ़ के पक्ष में तीन सुझाव राजनीतिक दलों की ओर से आये हैं। दो सुझावों में किसी स्थल का नाम नहीं हे। यह सरसरी तौर पर इस रिपोर्ट की सिफारिश है।
   फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरु किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने किसी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोजिज की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृ’िट से सवेदन’ाील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्र्ह नदियों पर बन रहे 200 से अधिाक विनाजकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधाी रास्ता अिख्तयार कर रहे हैं।
   सही नियोजन और जनपक्षीय विकास के माॅडल की मांग के साथ “ाुरू हुआ राज्य आंदोलन अपने तीन दजक की संघर्’ा यात्र में विभिन्न पड़ावों से गुजरा। रा’ट्रीय राजनीतिक दलों की घोर उपेक्षा और रा’ट्रद्रोही कही जाने वाली मांग के बीच क्षेत्र्ीय जनता ने राज्य की प्रासंगिता का रास्ता खुद ढंूढा। तीन दजकों के सतत संघर्’ा, 42 लोगों की “ाहादत और लोकतान्त्र्कि व्यवस्था में अपनी मांग के समर्थन में रैली में जा रही महिलाओं के अपमान के बाद राज्य मिला। यह किसी की कृपा और दया पर तो नहीं मिला लेकिन जो लोग कल तक राज्य का विरोधा कर रहे थे वे अब अचानक इस आंदोलन को हाई जैक करने में सQल हो गये। बाद में वही राज्य बनाने का श्रेय भी ले गये। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो वह नये रूप और नये रंग का था। उत्तराखंउ की जगह उत्तरांचल के नाम से राज्य अस्तित्व में आया और भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जिसने नाम के अलावा राजधाानी के लिए भी साजिज की। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधाीज वीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में एक सदस्यीय राजधाानी चयन आयोग का गठन कर लोगों की भावना के खिलाQ काम करना “ाुरू कर दिया। आठ साल में वह किसी न किसी बहाने इस पर रोडे अटकाती रही। सरकार की प्राथ्मिकता में राजधाानी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए वह इस आयोग का मनमाना कार्यकाल बढ़ाती रही। भाजपा की अंतरिम सरकार ने इसका गठन किया तो कांग्रस ने लगातार इसके कार्यकाल को बढ़ाया। जितनी बार कार्यकाल बढ़ा उतनी बार गैरसैंण के खिलाQ कुतर्क ढंूढ़े गये। इस बीच राजधाानी के सवाल को लेकर लंबे समय से संघर्’ा करने वाले बाबा उत्तराखंड़ी ने अपनी ‘ाहादत दी और एक छात्र् कठैत ने आत्महत्या की। बावजूद इसके इन दोनों सरकारों ने आयोग के माधयम से जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। आठ साल के बाद दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ने राज्य की जनता के साथ ऐसा छलावा किया जो  एक नये आंदोलन को जन्म देने के लिए काQी है।
   जहां तक राज्य की राजधाानी का सवाल है, यह राज्य आंदोलन के दौरान निर्विवाद रूप से तय थी। गैरसैंण को राजधाानी बनाने का मुद्दा भावनात्मक नहीं बल्कि यह राज्य के विकास की परिकल्पना के अनुरूप था। विकास के विकेन्द्रीकरण की सोच के साथ राज्य के मधय में राजधाानी बनाने का विचार आंदोलन के प्रारंािम दौर में ही आंदोलनकारियों के जेहन में थां। जब आंदोलन तेज हुआ तो राज्य के लिए एक प्रारूप भी जन्म लेने लगा उसमें विभिन्न संगठनों ने अपने-अपने ब्लू प्रिन्ट तैयार किये। कमोवेज सभी ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि पहाड़ी राज्य की राजधाानी पहाड़ में ही होनी चाहए। उस समय इस आंदोलन का घ्वजवाहक क्षेत्रीय राजनीतिक दल उक्रांद ने 1992 में बागेज्वर में अपना ब्लू प्रिन्ट जारी किया। इसमें पहली बार गैरसैंण को राजधाानी के रूप में चुना गया। 24 और 25 जुलाई 1993 में गैरसैंण में भारी जनसैलाब के बीच पेजावर कांड के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर इसका नामकरण चन्द्रनगर के नाम से कर दिया गया। यहीं से यह राज्य के लोगों के लिए राजधाानी के रूप में जानी जाने लगी। 1994 में तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार ने राज्य के औचित्य को लेकर वरि’ठ मंत्री रमाजंकर कौजिक की अधयक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इसमें प्रदेज के तीन और मंत्री ‘ाामिल थ। इसके सचिव ततकालीन पर्वतीय विकास सचिव आरएस टोलिया को बनाया गया। कौजिक समिति असल में राज्य का प्रारूप तैयार करने वाली सबसे प्रामाणिक थी। इसने उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में जाकर विभिन्न मुद्दों पर समाज के विभिनन वर्गों की राय ली। इसमें राजधाानी का सवाल भी था। समिति को 68 प्रतिजत लोगों ने कहा कि राजधाानी चन्द्रनगर गैरसैंण होनी चाहिए। यही वह बिन्दु है जिसे जनता की व्यापक भावना के रूप में समझा जाना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से लोकतंत्रत्रिक व्यवस्था की दुहाई देने वाले नीति-नियंताओं ने जनता की बात को कसौटी में कसने के लिए आयोग के हवाले कर दिया जो अपने आप में अलोकतांत्र्कि कदम था।
   Qिलहाल राजधाानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्Q इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधाानी देहरादून को स्थायी राजधाानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना “ाुरू किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने कीाी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना “ाुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैंं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोजिज की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृ’िट से सवेदन’ाील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्र्ह नदियों पर बन रहे 200 से अधिाक विनाजकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधाी रास्ता अिख्तयार कर रहे हैं।
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Now it is ok.
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पंकज सिंह महर

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देहरादून: उक्रांद के वरिष्ठ नेता और हिल्ट्रॉन के अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी ने गुरुवार को प्रेस क्लब में आयोजित पत्रकार वार्ता के दौरान श्री ऐरी ने कहा कि राजधानी गैरसैंण से कम पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा। सरकार तुरंत दीक्षित आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक करने के साथ ही गैरसैंण में राजधानी की स्थापना के लिए कार्य शुरू कराए।  

पंकज सिंह महर

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रामनगर : उत्तराखण्ड आन्दोलन में अपनी भागीदारी निभा चुके राज्य आंदोलनकारी गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए अब फिर लामबंद होने लगे हैं। इस सम्बन्ध में 15 सितम्बर को रामनगर में सभी आंदोलनकारियों की एक बैठक आयोजित की गई है। बैठक में आंदोलन की रणनीति बनाई जाएगी। राज्य आंदोलनकारी सम्मेलन के आयोजक प्रभात ध्यानी ने यह जानकारी देते हुए बताया कि राज्य सरकार राजधानी के मामले में पूरी तरह चुप्पी साध कर साजिश रचने का प्रयास कर रही है। जिन लोगों ने राज्य आन्दोलन के लिए अपने प्राणों की आहुति दे डाली उनके अरमानों के अनुरूप राज्य की राजधानी को गैरसैंण में बनाया जाना चाहिए लेकिन प्रदेश सरकार इस मामले में मौन धारण किए हुए है। राज्य के आंदोलनकारी व जनता तो पहले ही गैरसैंण को राजधानी घोषित कर चुकी है। उन्होंने बताया कि राजधानी के सवाल पर एक बार फिर से सभी आंदोलनकारियों को एकजुट किया जा रहा है।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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This issue has now come a crux which seems a very difficult task to be solved..

I fear . Do we need one more movement for shifting Captial ??/

रामनगर : उत्तराखण्ड आन्दोलन में अपनी भागीदारी निभा चुके राज्य आंदोलनकारी गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए अब फिर लामबंद होने लगे हैं। इस सम्बन्ध में 15 सितम्बर को रामनगर में सभी आंदोलनकारियों की एक बैठक आयोजित की गई है। बैठक में आंदोलन की रणनीति बनाई जाएगी। राज्य आंदोलनकारी सम्मेलन के आयोजक प्रभात ध्यानी ने यह जानकारी देते हुए बताया कि राज्य सरकार राजधानी के मामले में पूरी तरह चुप्पी साध कर साजिश रचने का प्रयास कर रही है। जिन लोगों ने राज्य आन्दोलन के लिए अपने प्राणों की आहुति दे डाली उनके अरमानों के अनुरूप राज्य की राजधानी को गैरसैंण में बनाया जाना चाहिए लेकिन प्रदेश सरकार इस मामले में मौन धारण किए हुए है। राज्य के आंदोलनकारी व जनता तो पहले ही गैरसैंण को राजधानी घोषित कर चुकी है। उन्होंने बताया कि राजधानी के सवाल पर एक बार फिर से सभी आंदोलनकारियों को एकजुट किया जा रहा है।
 


Charu Tiwari

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चन्‍द्र नगर गैरसैंण को स्‍थाई राजधानी बनाने के लिए जनता में एक बार फिर सुगबुगाहट शुरू हो गई हैा यह कोई अचानक आई प्रतिक्रिया नहीं है आठ साल, चार मुख्‍यमंत्री और ग्‍यारह बार बढाये गये राजधानी चयन आयोग के कार्यकाल के बाद जो फैसला आया है असल में वह यहां की जनता को चिढाने वाला हैाा चन्‍द्रनगर गैरसैंण को लेकर लंबे समय से चले जनता के आंदोलन को किसी न किसी रूप से कुचलने या दमन करने या लोगों का ध्‍यान बंटाने की साजिशें होती रही हैंा जब भी इसके पक्ष में जनगोलाबंदी शुरू हुई राष्‍टीय राजनीतिक दलों ने इसके खिलाफ अपनी साजिशें शुरू कर दी और इसी बहाने नये कुतर्क गढ्ने शुरू कर दियेा राजधानी के बारे में वे लोग भी अपना मत देने लगे जिन्‍हें यहां का भूगोल भी मालूम नहीं हैा जिन लोगों ने कभी गैरसैंण देखा भी नहीं वह उसके विरोध में बयान देने लगेा राजधानी के मामाले में एक जनपक्षीय सोच आने के बजाय कुतर्कों को गढ्ना पहाड के हित में नहीं हैा    गैरसैंण, चन्‍द्रनगर को राजधानी बनाना इसिलए जरूरी है क्‍योंकि विकास के विकेन्‍द्रीकरण की शुरूआत राजधानी से ही होनी चाहिएा पहली बात तो यह है कि गैरसैंण राजधानी क्‍यों बनेा गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए आंदोलित जनता का राजधानी के लिए न तो राजनीतिक पूर्वाग्रह है और न ही प्रदेश के बीच राजधानी बनाने की जिद, सही अर्थों में यह आंदोलन यहां के अस्‍तित्‍व, अस्‍मिता और विकास के विकेन्‍द्रीकरण की मांग भी हैा    जो लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने की बजाय विकास पर जोर देने की बात करते हैं उन्‍हें पहले तो विकास का चरित्र मालूम नहीं है या वह जानबूझकर लोगों का ध्‍यान मूल बात से हटाना चाहते हैंा यह पहाड विरोधी राष्‍टीय राजनीतिक दलों और उनके उन समर्थकों की साजिश है जो पहाड से बाहर बैठकर इन दलों की दलाली में लग कर अपने स्‍वार्थों की सिद्वि में लगे रहते हैा जहां तक राजधानी का सवाल है आज भी पहाड की 70 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में हैा  1994 में बनी कौशिक ने अपनी सिफारिश में कहा कि राज्‍य की 68 प्रतिशत जनता गैरसैंण को राजधानी चाहती हेा इसमें मैदानी क्षेत्र की जनता भी शामिल रहीा 2000 में जब राज्‍य बना तो भाजपा की अंतिरम सरकार ने जनभावनाओं को रौंदते हुये उस पर एक आयोग बैठा दिया जो पिछले आठ सालों में जनता के सवालों को उलझााता रहा और भाजपा एवं कांग्रेस के एजेण्‍ट के रूप में काम करता रहाा भाजपा जो सुविधाभोगी राजनीति की उपज है और जिसका पहाड के हितों से कभी कोई लेना देना नही रहा उसने जनमत के परीक्षण के लिए आयोग बनाकर अलोकतांत्रिक काम कियाा कांग्रेस ने अपने शासन में इस आयोग को पुनर्जीवित कर देहरादून को राजधानी बनाने की अपनी मंशा साफ कर दीा  असल में  ये राजनीतिक दल देहरादून या मैदानी क्षेत्र में राजधानी बनाने का माहौल इसिलए तैयार कर रहे हैं क्‍योंकि जनता के पैसे पर ऐश करने की राजनेताओं और नौकरशाहों की मनमानी चलती रहेा जो लोग राजधानी के सवाल से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण विकास के सवाल को मानते हैं उन्‍हें यह समझना चाहिए कि राजधानी और विकास एक दूसरे के पूरक हैंा राजधानी का सवाल इसिलए भी हल होना चाहिए कि देहरादून से संचालित होने वाले राजनेता, नौकरशाही और माफिया का गठजोड ने जनिवरोधी जो रवैया अपनाया है उससे राज्‍य की जनता आहत हैा    गैरसैंण को स्‍थायी राजधानी बनाने में जिन दिक्‍कतों को बताया जा रहा है वास्‍तव में वह काल्‍पिनक हैंा सही बात यह है कि अंग्रेजों के जाने के बाद पहाड में नये शहरों का निमार्ण नहीं हुआ और न ही शहरों को विकसित किया गयाा अंग्रेजों ने जिन शहरों को अपने एशो आराम के लिए विकिसत कियाा आजादी के बाद नैनीताल, मसूरी, रानीखेत, लैंसडाउन और देहरादून जैसे शहर नोकरशाहों के ऐशगाह बने रहेा इसके अलावा अन्‍य शहरों के विकास की ओर कोई ध्‍यान नहीं दिया गयाा इसका दुष्‍पिरणाम यह हुआ कि विकास का केन्‍द्रीकरण हुआा विकास की किरण आम आदमी तक नहीं पहुंचीा उत्‍तरांचल का यह दुर्भाग्‍य रहा कि यहां एक नया शहर नई टिहरी के रूप में अस्‍तित्‍व में आया जिसके लिए एक संस्‍क़ित, इतिहास और सभ्‍यता की बिल देनी पडी विकास के नाम पर जिस तरह का छलावा हुआ वह आज पहाड के लिए सबसे बडे नासूर के रूप में सामने हैा नई टिहरी का बनना विकास का के दौर की शुरूआत नहीं बिल्‍क यह पहाड में बोधों के माध्‍यम से विनाश का नया रास्‍ता खोलता हैा इस पर सभी की सहमित रहीा अब जब विकास के रास्‍ते पर चलने के लिए जनता एक शहर को बसाने की बात कह रही है तो सबको यह अच्‍छा नहीं लग रहा हैा इससे साफ है कि राजनेताओं की नीयत में भारी खोट हैा इतिहास भी इस बात का गवाह है कि शहरों का निमार्ण विकास के लिए और नई जीवन शैली को विकिसत करने वाला रहा हैा कत्‍यूरों, चंदों और पंवार वंश के समय में रंगीली बैराट, बैजनाथ, श्रीनगर, जोशीमठ, बोगश्‍वर, चंपावत, अलमोडा, रूद्रपुर, काशीपुर के अलावा कई छोट बडे शहरों का निमार्ण हुआा इसी का परिणाम था कि यह जगहें सामाजिक, सांसक़ितक और आर्थिक संपन्‍नता में अग्रणी रहेा  इन शहरों को बसाने के पीछे विकास का व्‍यापक सोच भी रहाा गैरसैंण को नये शहर के रूप में विकसित करने के पीछे  विकास का यही दर्शन रहा हैा उत्‍तराखंड क्रान्‍ति दल ने जुलाई 1992 में पेशावर कांड के नायक वीर चन्‍द्र सिह गढवाली के नाम से इसका नामकरण चन्‍द्रनगर के नाम से कियाा यहां उनकी आदमकद मूर्ति लगाकर इसे राजधानी भी घाषित कर दियाा इसके पीछे यह सोच भी प्रभावी ढंग से रखा गया कि यह शहर भावनाओं से ज्‍यादा विकास पर केन्‍द्रित होगाा
   जहां तक जनभावनाओं का सवाल है इसमें कोई दो राय नहीं कि गैरसैंण उत्‍तराखंडी लोगों के िलए कोई जगह नहीं, यहां की आत्‍मा हैा इसमें किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए कि देर सबेर एक बार तमाम सवालों को लेकर फिर जनता गोलबद होगीा  गैरसैंण को लेकर क्षेत्रीय ताकतों द्वारा शुरू किया यह आंदोलन अभी शुरूआत हैा इस मुददे पर जनता का गुस्‍सा फिर फूट सकता हैा

पंकज सिंह महर

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रामनगर: उत्तराखण्ड आन्दोलन में अपनी भागीदारी निभा चुके आंदोलनकारी प्रदेश की राजधानी गैरसैंण बनाने के मुद्दे पर सोमवार को नगर पालिका में आंदोलन की रणनीति बनाने के लिए एकत्रित हो रहे है। राज्य आंदोलनकारियों के सम्मेलन की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई है। पालिका के सभागार में स्व विपिन त्रिपाठी द्वार एवं बाबा उत्तराखण्डी द्वार भी बनाए गए है।
 

पंकज सिंह महर

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‘U’khand Sayunkt Sangharsh Samiti’ plans Non-Cooperation Movement
« Reply #108 on: September 16, 2008, 01:40:08 PM »


Ramnagar, 15 Sept: The Uttarakhand Sayunkt Sangharsh Samiti decides Non-Cooperation Movement from 2 October. This was announced at a conference, here, today.
The Sangharsh Samiti organised the conference, here, on the issue of making Gairsen the capital. The subject of the seminar was ‘Gairsen Rajdhani Banao Sammelan’.
Many state agitationists and social activists were present at the conference. They discussed several suggestions on the issue of Gairsen as capital. They demanded that Gairsen become the permanent capital of Uttarakhand as soon as possible.
It was announced that the Samiti would hold a day long ‘Dharna and Satyagrah’ at the Dehradun ‘Shahid Smarak’ on 25 September. They also decided on an ‘Uttarakhand Bandh’ on 2 October and beginning of a non-cooperation movement all over the state on demand for Gairsen as capital.
The ‘Boston Proposal’ of non-resident Uttarakhandis of America and Canada was also welcomed at the conference.   
The conference was held at the municipal hall, which was christened ‘Late Baba Mohan Singh Uttarakhandi Campus’ for the occasion. The gate was named the ‘Late Vipin Tripathi Dwar’.
Dhirendra Pratap, PC Tiwari, JP Pande, Prabhat Dhyani, Manish Sundriyal, Puran Dangwal, DP Rawal, HP Kala, Sumitra Bisht, Navin Naithani, Madhav Singh Negi, Yogesh Sati, Dharampal Bharti, Pratap Singh, Narayan Singh Rawat, etc., were present at the conference.

source- garhwalpost.com

पंकज सिंह महर

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 रामनगर: उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारियों के सम्मेलन में राज्य सरकार एवं अन्य दलों की हीला- हवाली को देखते हुए दो अक्टूबर से पूरे राज्य में असहयोग आंदोलन चलाने का निर्णय लिया गया। सोमवार को नगर पालिका के सभागार में आयोजित सम्मेलन के माध्यम से दो अक्टूबर को राज्य की अस्सी लाख जनता से उत्तराखण्ड बंद का आवाह्न किया गया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य एवं पूर्व मंत्री धीरेन्द्र प्रताप की अध्यक्षता एवं आंदोलनकारी प्रभात ध्यानी के संचालन में सम्पन्न सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि 25 सितम्बर को गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए देहरादून शहीद पार्क में एक दिवसीय धरना एवं सत्याग्रह किया जाएगा। सम्मेलन में सर्वसम्मति से राज्य के सभी 13 जिलों के प्रत्येक गांव व शहर में संयुक्त संघर्ष समिति को पुनर्जीवित करने का भी निर्णय लिया गया। सम्मेलन में वक्ताओं का कहना था कि राज्य की राजधानी गैरसैंण बनाने के लिए राजनैतिक दल अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहे हैं। अब समय आ गया है कि राज्य का नागरिक एक आदर्श राज्य एवं उसकी राजधानी गैरसैण बनाने के लिए सड़कों पर उतर कर अपनी आवाज को तेज करे। सम्मेलन में अमेरिका व कनाडा में रह रहे उत्तराखण्ड के लोगों द्वारा राज्य की राजधानी गैरसैण बनाने के बोस्टन प्रस्ताव का स्वागत किया गया। सम्मेलन में पूरन सिंह डंगवाल, डीपी रावत, हर्ष प्रकाश काला, सुमित्रा बिष्ट, पीसी तिवारी, जेपी पाण्डे, डीएस रावत, योगेश सती, प्रेम अरोड़ा, नवीन नैंथानी, माधव सिंह नेगी, धर्मपाल भारती, नारायण सिंह रावत, प्रताप सिंह, सोनू सरदार लाल चंद्र कश्यप आदि ने विचार रखे।  

 

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