Poll

Do you feel that the Capital of Uttarakhand should be shifted Gairsain ?

Yes
97 (70.8%)
No
26 (19%)
Yes But at later stage
9 (6.6%)
Can't say
5 (3.6%)

Total Members Voted: 136

Voting closed: March 21, 2024, 12:04:57 PM

Author Topic: Should Gairsain Be Capital? - क्या उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण होनी चाहिए?  (Read 242779 times)

पंकज सिंह महर

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दोस्तों आप सभी के बिचार पड़े बहुत अच्छा लगा, लेकिन राजधानी कहीं भी हो क्या फरक पड़ता है कोई विकास की किरण तो नजर नहीं आती हैं उत्तराखंड की तरफ, राजधानी मैं तो कहता हूँ की उन गणों मैं होनी चाहिए जहाँ आजतक न तो बिजली है और ना ही लोगों के लिए पीने का पानी हैं और मुझे लगता है कि अगर उत्तराखंड कि सरकार अगर ऐसे ही चलती रही तो सायदही कभी उन गावों मैं बिजली और पानी होगा !
जय उत्तराखंड


जाखी साहब,
     इसी अवधारणा के तह्त गैरसैंण राजधानी की मांग की जा रही है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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महर जी राम राम , आपकी बात बिलकुल सही है लेकिन क्या है हो सकेगा कि गैरसैण कभी उत्तराखंड कि राजधानी बनेगी, मुझे तो नहीं लगत कि ये कभी होगा, और ना ही , ये कड़ी के कपडों मैं छुपे हुयी सफेत रंग के चमगादड़ होने देंगें, इन चमगादड़ रुपी नेताओं ने रिस्पत लेकर देवभूमि को बर्बाद करके रख दिया है और विकाश के नाम पर ये लोग अपना और परिवार का ही विकाश करते हैं

Devbhoomi,Uttarakhand

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अंगद का पैर है उत्तराखण्ड की राजधानी

राजधानी वो बला है जो कि एक बार अंगद की तरह पैर जमा दे तो उसे फिर मोहम्द तुगलक जैसे पागल बादषाह ही दिल्ली से तुगलकाबाद खिसका सकते हैं। उत्तराखण्ड की राजधानी ने भी देहरादून में पांव जमा ही दिये हैं और उसे गैरसैंण ले जाने वाला तुगलक अब षायद ही पैदा हो। राजधानियां एक जगह से दूसरी जगह खिसकाना इतना आसान होता तो हिमाचल की राजधानी कब की षिमला से पालमपुर आ जाती और हरियाणा के लोग दूसरा चण्डीगढ़ बसा देते। जिस तरह पाकिस्तान के लिये कष्मीर स्थाई राजनीति का बहाना है उसी तरह गैरसैंण भी उत्तराखण्ड क्रांति दल जैसे कई दलों के लिये राजनीतिक रोजी का जरिया बनने जा रहा है।
यह बात दीगर है कि सत्ता में आते ही उक्रांद के नेताओं का गैरसैंण राग ठण्डा पड़ जाता है। वास्तविकता यह है कि राजधानी के लिये एक नया षहर बसाना आसान नहीं है। जो सरकारें बसे बसाये देहरादून का मास्टर प्लान तक नहीं बना पा रही हैं उनसे इतना बड़ा षहर बसाने की उम्मीद रखना ही फिजूल है। इतने बड़े शहर के लिये हजारों करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी और यह बिना केन्द्रीय मदद के सम्भव नहीं है। केन्द्र सरकार अगर मदद देने वाली होती तो उत्तराखण्ड से पहले हरियाणा को अपनी अलग राजधानी मिलती। नित्यानन्द स्वामी के नेतृत्व में उत्तराखण्ड की पहली सरकार द्वारा 11 जनवरी 2001 को गठित वीरेन्द्र दीक्षित आयोग ने स्थाई राजधानी के बारे में अन्ततः अपनी रिपोर्ट दे ही दी। अगर हाइ कोर्ट बीच में हस्तक्षेप नहीं करता तो पता नहीं कब तक यह आयोग चलता रहता और सूबे में बनने वाली सरकारें अपने सिर की बला आयोग पर डालती रहती।
फिर भी आयोग का कार्यकाल राज्य सरकार को 11 बार बढ़ाना पड़ा। हालांकि रिपोर्ट अभी गोपनीय है,क्योंकि इसे विधानसभा में रखा जाना है।यह भी अनिष्चित है कि रिपोर्ट का जिन्न कभी सरकार की आलमारी से बाहर आयेगा भी या नहीं। लेकिन सत्ता के गलियारों से जो सूचनाऐं छन कर आ रही हैं उनके अनुसार दीक्षित आयोग ने भी किसी एक स्थान के बारे में सिफारिष करने के बजाय चारों स्थानों के गुण दोष बता कर निर्णय फिर सरकार पर छोड़ दिया।
 दरअसल उत्तराखण्ड की जनता के साथ 9 नवम्बर 200 को उस समय ही छलावा हो गया था जब तत्कालीन सरकार ने दो अन्य नये राज्यों के साथ उत्तरांचल राज्य के गठन की घोषणा की थी। उस समय की सरकार ने छत्तीसगढ़ और झारखण्ड की राजधानियों की तो घोषणा कर दी मगर उत्तराखण्डियों को बिना राजधानी का राज्य थमा दिया। अगर उस समय की केन्द्र सरकार जनभावनाओं के अनुरूप गैरसैण को भावी राजधानी भी घोषित कर देती तो कम से कम गैरसैण पर सैद्धान्तिक सहमति मिल जाती और इस नये राज्य की भावी सरकारों को केन्द्र से राजधानी के लिये धन मांगने का यह आधार मिल जाता कि गैरसैंण या कहीं और भी राजधानी बनाने का वायदा आखिर केन्द्र ने ही किया था। लेकिन उस समय की बाजपेयी सरकार जनता के साथ राजनीति खेल गयी और उसने उत्तराखण्डियों के गले में सदा के लिये यह मामला लटका दिया। बाजपेयी सरकार ने हरिद्वार को उत्तराखण्ड में मिला कर दूसरा छल किया और इसका नाम उत्तरांचल रख कर पहाड़ के लोगों पर तीसरी चपत मारी।
 यह सही है कि आज की तारीख में देहरादून से अंगद का यह पांव खिसकाना लगभग नामुमकिन हो गया है। कांग्रेस या फिर भाजपा की सरकारें चाहे जो बहाना बनायें मगर हकीकत यह है कि देहरादून में ही राजधानी रम गयी है और उसकी सारी अवसंरचना यहीं जुटाई जा रही है। नयी विधानसभा और सचिवालय विस्तार के लिये राजपुर रोड पर जमीन का अधिग्रहण तक हो चुका था मगर मामला अदालत में चला गया। इसी दौरान देहरादून में विधायक होस्टल बन गया।
 सचिवालय का नया भवन भी चालू हो गया।सर्किट हाउस परिसर में ही नया राजभवन बन कर पूर्ण होने वाला है। मुख्यमंत्री खण्डूड़ी ने पहले तो सर्किट हाउस परिसर में पुराने मुख्यमंत्री आवास पर जाने के बजाय वहीं तोड़ फोड़ करा कर नया ढांचा बनवाया और अब दूसरे आलीषान निवास के लिये 15 करोड़ का ठेका दे दिया। मुख्यमंत्री का निवास राजधानी में ही होता है
और जब राज करने वाले ने देहरादून में ही रहना है तो राजधानी कैसे बाहर जा सकती है। दरअसल न तो सरकार के पास जनता को सच्चाई बताने की हिम्मत है और ना ही गैरसैंण समर्थक दल सच्चाई जानने को इच्छुक हैं। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने यह सच्चाई बताने की कोषिष की तो उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा और अन्ततः वह भी चुप हो गये। उत्तराखण्ड क्रांति दल(उक्रांद) स्वयं को गैरसैंण का अकेला झण्डाबरदार बताता है लेकिन यह सच होता तो जिस दिन खण्डूड़ी ने नये मुख्यमंत्री निवास का षिलान्यास किया था उसी दिन सरकार में बैठे उक्रांद मंत्री दिवाकर भट्ट का इस्तीफा हो जाता।
इस्तीफा देना तो रहा दूर अब दिवाकर और उनके समर्थक दूसरे बहानों से मामले पर लीपा पोती कर रहे हैं। यही नहीं एक बार तो दिवाकर ने यहां तक कह दिया था कि अगर गैरसैंण वालों को ही राजधानी की जरूरत होती तो वहां से विधानसभा चुनाव में उक्रंाद की जमानत जब्त नहीं होती और उसके प्रत्याषी को मात्र एक हजार वोट नहीं मिलते।
यही नहीं एक बार उक्रांद नेताओं ने यह भी चलाया कि राजधानी गैरसैंण के 50 कि.मी. के दायरे में कहीं भी हो सकती है। जबकि उक्रांद गैरसैंण में राजधानी का प्रतीकात्मक षिलान्यास कर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर से उसका नामकरण भी कर चुका है। वास्तव में गैरसैंण का मामला भावनात्मक अधिक है।



Devbhoomi,Uttarakhand

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उत्तराखंड की राजधानी का मुद्दा बरसों से ठंडे बसते में पड़ा हुआ हैं! उत्तराखंड राज्य और राजधानी का मुद्दा बाकायदा जुड़वे मुद्दा हैं और स्थाई राजधानी का मुद्दा उतना ही पुराना हैं जितना की उत्तराखंड राज्य की मांग का मुद्दा! सन १९९४ में, तत्कालीन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार द्वारा गठित कौशिक समिति ने उत्तराखंड राज्य गठन पर अपनी प्रस्तुत रिपोर्ट में भी गैरसैण को उत्तराखंड राज्य की राजधानी के लिए उपयुक्त स्थान बताया था!
 अब कथित तौर पर हमे एक अध्-कचरा राज्य तो मिल गया हैं, पर राज्य की स्थाई राजधानी का मुद्दा अभी भी ठन्डे बस्ते में पड़ा हुआ हैं! चाहे स्वामी/कोशियारी/खंडूरी की भाजपा सरकार हो अथवा नारायण दत्त तिवाड़ी की कांग्रेस सरकार, सब ने राजधानी के मुद्दे पर टाल-मटोली की! जनता ने समय समय पर राजधानी को गैरसैण स्थानान्तरित करने की मांग की जिसमे श्री मोहन सिंह नेगी जिन्हें बाबा उत्तराखंडी के नाम से भी जाना जाता था,
आमरण अनशन करते हुए अपने प्राण त्याग दिए थे! इनका मत यह हैं की अगर राजधानी मुद्दे पर कोई ठोस निर्णय ले लिया तो पहाड़ अथवा मैदानी भू-भाग के लोग भड़क सकते हैं! इसीलिए कांग्रेस की सरकार अपने पूरे कार्यकाल के दौरान 'राजधानी चयन आयोग' जिसको सर्वोसर्वा जस्टिस बिरेन्द्र दीक्षित हैं, उनका कार्यकाल बढाते गए,
 और यही पैमाना खंडूरी ने भी अपनाया जब उन्होंने नवम्बर २००७ में दीक्षित आयोग को अर्ध-वार्षिक विस्तार दे दिया फिर भारी विरोध के चलते दीक्षित कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पिछले वर्ष अगस्त में सरकार को सौंप दी, जिसे आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया हैं! और इसी बीच देहरादून में १८ करोड़ रुपये के मुख्यमंत्री आवास की भी नींव डाल दी!

पंकज सिंह महर

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गैरसैंण दूर नहीं, और कहीं मंजूर नहीं।
ना भाबर, ना सैंण, राजधानी सिर्फ गैरसैंण॥
राजनीति नहीं निर्णय करो, राजधानी गैरसैंण घोषित करो॥।

Tanuj Joshi

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I might not sound fascinating but I don't think Uttarakhand is on the verge of shifting it's capitol to Gairsain. Moreover I can't find the reason why Gairsain is thought out to be the capitol of Uttarakhand. Capital is supposed to be a well planned city where the leaders of state or nation make deals about the planning and process. Dehradun is the best suitable place in Uttarakhand to be the capitol of state.
I totally disagree with the point that the capitol of a pahadi majority state should be a pahad only. This is just a sentimental talk without any fundamentals. I've visited Gairsain and Dehradun both places and nowhere I feel Gairsain capable of being turned out to be a capitol. Apart from few tea shops and some dhabas I couldn't even find a good hotel to stay there. I feel the local government of Uttarakhand supporting this fact haven't even thought of the consequences if Gairain is turned capitol. They should be more concerned about the development of villages and towns. If they think after Gairsain being the capitol the development will go faster, then they are living in a wonderland.
I respect the sentiments of you all to see the capitol in hills but if you see the practical aspect of doing so, you will see the hurdles in connectivity, development and anything else that counts for the existence but a high level of dignity to the people of Uttarakhand.

Bhopal Singh Mehta

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In my opinion 'Gairsain" has an important and significant place in the history of formation of Uttrakhand. As regards shifting of capital to Gairsain, first  of all insfrastructure as required for a capital should be made available then only the shifting should be undertaken.  This is an important issue both from the point of development as well as people's emotions which should be met. However, we should keep this issue alive till the demand is met.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Mehta Ji,

i fully endorse your views and it one of long outstading demands of people of Uttarakhand ever since the state came in existance. It has both issues connected emotional (state martyres) and development (being this place centre of kumaon and Garwal region of Uttarakhand). 

In my opinion 'Gairsain" has an important and significant place in the history of formation of Uttrakhand. As regards shifting of capital to Gairsain, first  of all insfrastructure as required for a capital should be made available then only the shifting should be undertaken.  This is an important issue both from the point of development as well as people's emotions which should be met. However, we should keep this issue alive till the demand is met.

पंकज सिंह महर

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I might not sound fascinating but I don't think Uttarakhand is on the verge of shifting it's capitol to Gairsain. Moreover I can't find the reason why Gairsain is thought out to be the capitol of Uttarakhand. Capital is supposed to be a well planned city where the leaders of state or nation make deals about the planning and process. Dehradun is the best suitable place in Uttarakhand to be the capitol of state.
I totally disagree with the point that the capitol of a pahadi majority state should be a pahad only. This is just a sentimental talk without any fundamentals. I've visited Gairsain and Dehradun both places and nowhere I feel Gairsain capable of being turned out to be a capitol. Apart from few tea shops and some dhabas I couldn't even find a good hotel to stay there. I feel the local government of Uttarakhand supporting this fact haven't even thought of the consequences if Gairain is turned capitol. They should be more concerned about the development of villages and towns. If they think after Gairsain being the capitol the development will go faster, then they are living in a wonderland.
I respect the sentiments of you all to see the capitol in hills but if you see the practical aspect of doing so, you will see the hurdles in connectivity, development and anything else that counts for the existence but a high level of dignity to the people of Uttarakhand.

शायद आप उत्तराखण्ड आन्दोलन के बारे में जानते नहीं हैं और अगर जानते भी हैं तो समझते नहीं हैं।
दूसरी बात, शायद आप बहुत ज्यादा प्रेक्टिकल हैं, और शायद आपने आज का देहरादून ही देखा है, पहले का नहीं। २००० में जब राज्य बना था और देहरादून राजधानी तो यहां मात्र ६ ट्रेन आती थीं, बस अड्डा नहीं था, द्रोण होटल के पास थोड़ी सी जगह हुआ करती थी जिसमें आड़ी-तिरछी गाड़ी खड़ी होती थी, उस दौर में ८.३० बजे के बाद देहरादून में आटो-टैम्पो नहीं चलते थे, संकरी सड़के थी, जिसमें दो गाड़ी एक साथ पार नहीं हो सकती थी, सचिवालय से आगे राजपुर रोड पर इक्का-दुक्का ढाबे या पान की दुकान थी, मात्र डी०एफ०ओ० आफिस के सामने १-२ दुकानें थी, जो आज ई०सी० रोड है, जिसे आप वेल-मेन्टेण्ड सड़क कहते हैं, वो मात्र १५ फिट की थी और टूटी-फूटी, वहां पर नहर हुआ करती थी, जिसे भूमिगत कर आज सड़क बनी है, जौलीग्राण्ट में हवाई पट्टी थी, लेकिन कोई फ्लाइट वहां आती नहीं थी, छोटा सा रेलवे स्टेशन था, जिससे आखिरी गाड़ी ९.३० में छूटती थी, मसूरी एक्स्प्रेस और सुबह ८ बजे सहारनपुर पैसेंजर जाती थी। सड़कें इतनी संकरी थी कि हम लखनऊ से आये लोगॊं को देहरादून एक गांव से ज्यादा कुछ नहीं लगता था, सन्डे की छुट्टी में जाने के लिये एक अदद पार्क नहीं हुआ करता था यहां। खाना खाने के होटल भी दिने-चुने थे, रेलवे स्टेशन पर जैन, आहुजा, कस्तूरी और गौरव और घंटाघर के पास पायल और धर्मपुर में नीलकमल के अलावा देहरादून में खाने के होटल नहीं थे, रेस्टोरेंट के नाम पर मात्र कुमार और पंजाब (मोती महल के पास जो अब नहीं है) थे। कपड़े खरीदने के लिये अच्छी दुकानें नहीं थी, मात्र पल्टन में सुभाष और भोजा के यहां ही ढंग के कपड़े मिलते थे, सर्दियों के लिये मात्र एक दुकान थी वार्डरोब। मात्र ७ पैट्रोल पम्प हुआ करते थे, एक मारुति का शोरुम था यहां, हीरो होन्डा खरीदने के लिये १-१ महीने की बुकिंग हुआ करती थी। बारिश आते ही पूरा देहरादून डूब जाया करता था, जहां पर आज घंटाघर की पार्किंग है, वहां पर लो०निवि० का गेस्ट हाउस था, बारिश के दिन हम लोग भूखे ही रहते थे, क्योंकि सड़क और होटल दोनों पानी से लबालब रहती थीं।

ये सब मैने इसलिये यहां लिखा कि आप आज के गैरसैण और २००० के देहरादून में कैम्परीजन कर सकें, अब आप देखें तो उस समय के देहरादून और आज के गैरसैंण में ज्यादा अन्तर नहीं पायेंगे। जहां तक आपने बात की सेंटीमेंटस की तो मैं यह नहीं जानता कि आप जैसे हाईली क्वालीफाईड युवा के क्या सेंटीमेंट इस राज्य को लेकर हैं, लेकिन यह बताना जरुरी समझता हूं कि इस राज्य की मांग और गठन तक की लड़ाई सेंटीमेंटस पर ही लड़ी गई और ४२ शहादत और मुजफ्फरनगर जैसी शर्मनाक जलालत झॆलने के बाद जीती गई है। लाखों लोगों के सपने और सेंटीमेंटस को १०-२० हजार लोगों के आधुनिकता के शौक और ऎशो-आराम के लिये कुर्बान नहीं किया जा सकता है।

Rajen

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विधानसभा में पेश में होगी राजधानी आयोग की रिपोर्ट  (Jagran News) Jun 11, 02:34 am

देहरादून। राज्य मंत्रिमंडल ने आज राजधानी आयोग की रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर रखने का निर्णय लिया। विधानसभा का बजट सत्र 13 जुलाई से आहूत किया गया है।

मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे ने बताया कि सूबे की स्थायी राजधानी के मामले में गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट पर कैबिनेट ने मंथन किया। तय किया गया है कि इस रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर रखा जाए। सीएस ने कहा कि उम्मीद है कि 13 जुलाई से आहूत विधानसभा के सत्र में यह रिपोर्ट सदन में पेश कर दी जाएगी। यहां बता दें कि देहरादून उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी है। राज्य गठन के वक्त की गई यह तात्कालिक व्यवस्था अब राजनीतिक दलों के गले की फांस गई है। यहां एक मांग उठती रही है कि पर्वतीय राज्य की राजधानी पहाड़ में ही होनी चाहिए। इस समस्या का समाधान तलाशने को सूबे की अंतरिम सरकार ने एक सदस्यीय दीक्षित आयोग का गठन किया था। मामले ने तूल पकड़ा तो सरकार ने इस आयोग को निष्क्रिय कर दिया था। राज्य विधानसभा के पहले चुनाव में सत्ता कांग्रेस के हाथ लगी तो सरकार के मुखिया नारायण दत्त तिवारी ने इस आयोग को फिर से जीवित कर दिया। इसके बाद आयोग को लगभग 13 बार विस्तार दिया गया। भाजपा सरकार की तमाम कवायद के बाद आयोग ने आठ माह पहले अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। राजनीतिक नफा-नुकसान का आंकलन करने के बाद भाजपा सरकार ने इस रिपोर्ट को दबाए रखा। सूचना आयोग के हस्तक्षेप पर रिपोर्ट को छिपाए रखना संभव न होता देख अब कैबिनेट ने इस विधानसभा के पटल पर रखने का निर्णय लिया है।

 

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