I might not sound fascinating but I don't think Uttarakhand is on the verge of shifting it's capitol to Gairsain. Moreover I can't find the reason why Gairsain is thought out to be the capitol of Uttarakhand. Capital is supposed to be a well planned city where the leaders of state or nation make deals about the planning and process. Dehradun is the best suitable place in Uttarakhand to be the capitol of state.
I totally disagree with the point that the capitol of a pahadi majority state should be a pahad only. This is just a sentimental talk without any fundamentals. I've visited Gairsain and Dehradun both places and nowhere I feel Gairsain capable of being turned out to be a capitol. Apart from few tea shops and some dhabas I couldn't even find a good hotel to stay there. I feel the local government of Uttarakhand supporting this fact haven't even thought of the consequences if Gairain is turned capitol. They should be more concerned about the development of villages and towns. If they think after Gairsain being the capitol the development will go faster, then they are living in a wonderland.
I respect the sentiments of you all to see the capitol in hills but if you see the practical aspect of doing so, you will see the hurdles in connectivity, development and anything else that counts for the existence but a high level of dignity to the people of Uttarakhand.
शायद आप उत्तराखण्ड आन्दोलन के बारे में जानते नहीं हैं और अगर जानते भी हैं तो समझते नहीं हैं।
दूसरी बात, शायद आप बहुत ज्यादा प्रेक्टिकल हैं, और शायद आपने आज का देहरादून ही देखा है, पहले का नहीं। २००० में जब राज्य बना था और देहरादून राजधानी तो यहां मात्र ६ ट्रेन आती थीं, बस अड्डा नहीं था, द्रोण होटल के पास थोड़ी सी जगह हुआ करती थी जिसमें आड़ी-तिरछी गाड़ी खड़ी होती थी, उस दौर में ८.३० बजे के बाद देहरादून में आटो-टैम्पो नहीं चलते थे, संकरी सड़के थी, जिसमें दो गाड़ी एक साथ पार नहीं हो सकती थी, सचिवालय से आगे राजपुर रोड पर इक्का-दुक्का ढाबे या पान की दुकान थी, मात्र डी०एफ०ओ० आफिस के सामने १-२ दुकानें थी, जो आज ई०सी० रोड है, जिसे आप वेल-मेन्टेण्ड सड़क कहते हैं, वो मात्र १५ फिट की थी और टूटी-फूटी, वहां पर नहर हुआ करती थी, जिसे भूमिगत कर आज सड़क बनी है, जौलीग्राण्ट में हवाई पट्टी थी, लेकिन कोई फ्लाइट वहां आती नहीं थी, छोटा सा रेलवे स्टेशन था, जिससे आखिरी गाड़ी ९.३० में छूटती थी, मसूरी एक्स्प्रेस और सुबह ८ बजे सहारनपुर पैसेंजर जाती थी। सड़कें इतनी संकरी थी कि हम लखनऊ से आये लोगॊं को देहरादून एक गांव से ज्यादा कुछ नहीं लगता था, सन्डे की छुट्टी में जाने के लिये एक अदद पार्क नहीं हुआ करता था यहां। खाना खाने के होटल भी दिने-चुने थे, रेलवे स्टेशन पर जैन, आहुजा, कस्तूरी और गौरव और घंटाघर के पास पायल और धर्मपुर में नीलकमल के अलावा देहरादून में खाने के होटल नहीं थे, रेस्टोरेंट के नाम पर मात्र कुमार और पंजाब (मोती महल के पास जो अब नहीं है) थे। कपड़े खरीदने के लिये अच्छी दुकानें नहीं थी, मात्र पल्टन में सुभाष और भोजा के यहां ही ढंग के कपड़े मिलते थे, सर्दियों के लिये मात्र एक दुकान थी वार्डरोब। मात्र ७ पैट्रोल पम्प हुआ करते थे, एक मारुति का शोरुम था यहां, हीरो होन्डा खरीदने के लिये १-१ महीने की बुकिंग हुआ करती थी। बारिश आते ही पूरा देहरादून डूब जाया करता था, जहां पर आज घंटाघर की पार्किंग है, वहां पर लो०निवि० का गेस्ट हाउस था, बारिश के दिन हम लोग भूखे ही रहते थे, क्योंकि सड़क और होटल दोनों पानी से लबालब रहती थीं।
ये सब मैने इसलिये यहां लिखा कि आप आज के गैरसैण और २००० के देहरादून में कैम्परीजन कर सकें, अब आप देखें तो उस समय के देहरादून और आज के गैरसैंण में ज्यादा अन्तर नहीं पायेंगे। जहां तक आपने बात की सेंटीमेंटस की तो मैं यह नहीं जानता कि आप जैसे हाईली क्वालीफाईड युवा के क्या सेंटीमेंट इस राज्य को लेकर हैं, लेकिन यह बताना जरुरी समझता हूं कि इस राज्य की मांग और गठन तक की लड़ाई सेंटीमेंटस पर ही लड़ी गई और ४२ शहादत और मुजफ्फरनगर जैसी शर्मनाक जलालत झॆलने के बाद जीती गई है। लाखों लोगों के सपने और सेंटीमेंटस को १०-२० हजार लोगों के आधुनिकता के शौक और ऎशो-आराम के लिये कुर्बान नहीं किया जा सकता है।