Uttarakhand > Development Issues - उत्तराखण्ड के विकास से संबंधित मुद्दे !

Should Gairsain Be Capital? - क्या उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण होनी चाहिए?

<< < (163/164) > >>

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Charu Tiwari
 
उत्तराखंड की जो हालत राजनेताओं ने कर दी है उसके प्रतिकार के लिये कुछ तो करना ही पड़ेगा। इन सत्रह सालों के राज्य में सत्ताधारियों ने केवल हमारी जमीनों का सौदा कर दिया है, बल्कि अब हमारे जमीर को भी ललकार रहे हैं। गैरसैंण राजधानी का सवाल सिर्फ एक जगह विशेष को लेकर नहीं है। यह अलग बात है कि गैरसैंण व्यावहारिक रूप से भी राज्य के केन्द्र में पड़ता है। यह इत्तफाक है। लेकिन हमारी गैरसैंण के बहाने पूरे उत्तराखंड के सवालों पर बहस करने की है। जनकवि शेरदा ‘अनपढ़’ ने एक कविता लिखी थी। यह राजधानी को उलझाने वाली भाजपा-कांग्रेस के चरित्र को समझा देती है। हालांकि शेरदा ने इसे राजधानी के संदर्भ में नहीं लिखा था, लेकिन आज यह राजधानी विरोधियों पर सटीक बैठती है। इस कविता में उन्होंने पूछा- ‘अरे! सालों तुम किसके बेटे हो।’

ओ सालो! तुम कैक छा?

तुम सुख में लोटी रया,
हम दुख में पोती रया।

तुम स्वर्ग, हम नरक,
धरती में, धरती आसमानौ फरक।

तुमरि थाइम सुनुक रवट,
हमरि थाइन ट्वाटे-ट्वाट।

तुम ढडुवे चार खुश,
हम जिबाई भितेर मुस।

तुम तड़क-भड़क में,
हम बीच सड़क में।

तुमार गाउन घ्यंूकि तौहाड़,
हमार गाउन आसुंकि तौहाड़।

तुम बेमानिक र्वट खानयां,
हम इमानांक ज्वात खानयां।

तुम समाजक इज्जतदार,
हम समाजक भेड़-गंवार।

तुम मारबे ले ज्यूने भया,
हम ज्यूने लै मरिये भयां।

तुम मुलुक कें मारण में छा,
हम मुलुक पर मरण में छा।

तुमुल मौक पा सुनुक महल बणें दी,
हमुल मौक पा गरदन चड़े दी।

लोग कुनी एक्के मैक च्याल छा,
तुम और हम
अरे! हम भारत (पहाड़ी) मैक छा
ओ सालो! तुम कैक छा?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Charu Tiwari
January 12 at 1:27pm ·
गैरसैंण राजधानी के सवाल को जिस तरह भाजपा—कांग्रेस ने उलझाया। हमारे ही प्रदेश में हमें बेगाना बना दिया। हमारी संवेदनाओं के सौदागरों ने जिस तरह पहाड़ को लूटने की साजिशें की हैं उन पर डॉ. मनोज उप्रेती की एक कुमाउनी कविता का हिन्दी भावार्थ—

'टुक्याव' दो इस पहाड़ से उस पहाड़ तक

बोलना—चालना
कहानी—किस्से करना
लड़ना—भिड़ना
चिल्लाना
फसक—फराव मारना
टुकारा लगाना
लेकिन याद रखना
मत लगाना 'धात'
मत करना आह्वान
मत होना एक साथ
आवाज लूट ली जायेगी
जुबान काट दी जायेगी
मत सुनना कोई ऐसी बात
जिसमें खिलाफत हो
नहीं तो कान काट दिये जायेंगे
डाल दिया जायेगा गरम तेल।

थाली बजाना
हुडुकी बजाना
डोलक बजाना
दमो—नागर बजाना
नाचना—कूदना
छलिया—छोलिया—स्वांग करना
खबरदार!
मत बजाना 'रणसिंग'न तुतरी
अपने हकों के लिये
बंद कर दिये जायेंगे गाजे—बाजे
कलम कर दिये जायेंगे हाथ—पांव

गीत गाना
फाग गाना
शकुनाखर गाना
झोड़ा गाना
न्यौली गाना
जोड़ मारना
लेकिन 'भाटों' की तरह
ऐसा कुछ मत कहना
जिससे टूट सकती है सत्ता की नींद,
छिन सकता है सत्ता का चैन

बाघ देखना
घुरड़ देखना
कीड़े—मकोड़े देखना
गोरु—भैंस—बाकर पालना
मत सोचना बाघ बनने की
कीड़े—मकोड़े हो
वैसे ही रहना
नहीं तो कुचल दिये जाओगे
बूंटों के तले, बंदूक की बटो से।

क्यो बोलना चाहते हो?
क्यों नाचना चाहते हो?
क्यो बजाना चाहते हो?
शेर बनने की क्यों सोचते हो?
सपने देख रहे हो खुली आंखों से
या नींद में अलसाये हो
जो लगा रहे हो पानी में आग!

चेतना थी! चेतना रहेगी!!
फिर उठो!
लगाओ 'धात'
छोड़ो 'टुक्याव'
इस पहाड़ से उस पहाड़ तक
खड़े हो जाओ लेकर नगाड़े—निसाण
उनके लिये जो हमेशा
देते रहे हमें धोखा
उनकी नींद—उनकी चैन
उनकी भूख—प्यास उड़ा दो।
बता दो कि नींद टूट गई हमारी
फिर देखो कैसे आता है 'सुराज'

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Charu Tiwari
January 12 at 12:43pm ·
वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं कुमाउनी कवि डॉ. मनोज उप्रेती की एक कविता जो उत्तराखंड की मौजूदा व्यवस्था पर न केवल चोट करती है, बल्कि सत्ता को चेताती भी है—

इथां—उथां घन्तर नी मारो
यो जाम जाल
लगाल ठोकर
लगाल अत्याड़
घुरियेला
फुटाल ख्वार—घुन
क्वै गुम चोट लागली
कैं पड़ली नील
कैंबे बगल ल्वै तुमर
माठु—माठु यों ढुंग
सुमीयाल
ठुल हा्ल
पहाड़ बण बेर
ठाड़ है जाल
तुमर सामणी
ख्वारम बजाल नागर यों
बण जाल अंग्याल
मिल बेर बकौल दगै
लगाल आग
करि द्याल खारुड़
साजि समझि बेर मारिया हां घन्तर।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Charu Tiwari
January 7 at 7:28am ·
गैरसैंण आंदोलन-3

‘गैरसैंण’ की चिट्ठी राजधानी विरोधियों के नाम
टोपी बचाने के लिये सिर और स्वाभिमान बचाने के लिये दिल में आग जरूरी

प्रिय डेढ दशक के सत्ताधारी,
आशा है आप आनंद से होंगे। आपकी खबर मुझे बहुत देर में मिलती है। तब जब कुछ ‘सिरफिरे’ आकर मुझमें राज्य के विकास का अक्श देखते हैं। वे हमेशा से सोचते रहे हैं कि मेरे बिना उनका अस्तित्व नहीं है। मुझे तो यह नहीं पता, लेकिन अब मैं भी बहुत भावनात्मक रूप से इनके साथ जुड़ गया हूं। बहुत लंबा रिश्ता है मेरा इन लोगों से। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के जमाने से। उन्होंने सबसे पहले कहा था कि मुझे ही राजधानी बनाया जाना चाहिये। अस्सी के दशक में राज्य आंदोलन की अगुआई करने वाले लोगों ने मुझे अपनी राजधानी घोषित कर दिया। बहुत बड़े समारोह में। मेरा नामकरण भी किया। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम पर मेरा नामकरण हुआ ‘चन्द्रनगर’। इन लोगों ने एक बोर्ड भी लगा दिया- ‘राजधानी चन्द्रनगर (गैरसैंण) में आपका स्वागत है।’ मैं गर्व से फूला नहीं समाया। मुझे लगा कि मेरी जनता मुझे कितना मान देती है। उसी वर्ष वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली की प्रतिमा लगाकर मेरा श्रंृगार भी कर दिया। स्वाभिमान के साथ। ताकत के साथ। संकल्प के साथ। संघर्ष की एक इबारत लिख दी गई मेरे शरीर में। बहुत आत्मीयता के साथ। संवेदनाओं के साथ। इस उम्मीद के साथ कि जब राज्य बनेगा तो मुझे ही अपनी राजधानी के रूप में विकसित किया जायेगा। बहुत बसंत देखे मैंने। जब भी तुमने मेरे लालों को भरमाने की कोशिश की वे मेरे पास आये। मैं भी तनकर खड़ा रहा। एक बार लगा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने एक सरकारी समिति बनाकर पूरे राज्य के लोगों से पूछ लिया कि मुझसे किसी को कोई परेशानी तो नहीं। अल्मोड़ा, नैनीताल, काशीपुर, पौड़ी, देहरादून और लखनऊ में सबसे पूछा गया। सबने एक स्वर में मेरा चयन भी कर दिया। सरकारी समिति ने भी अपना फैसला मेरे पक्ष में सुना दिया। मेरे महत्व को देखते हुये कुछ कार्यालय खोलने की कवायद भी चली।

नब्बे के दशक में एक बार राज्य आंदोलन फिर तेज हो गया। मुझे उस समय भी लोगों ने उसी शिद्दत के साथ याद किया। 2000 में राज्य भी बन गया। हमारे साथ दो और राज्य बने। उनकी राजधानी भी तय हो गई। एक और राज्य बना उसने भी अपनी राजधानी बना दी। इन राज्यों की जहां राजधानी बनी वह तो वहां की जनता के स्वाभिमान का प्रश्न भी नहीं था, लेकिन हुआ उल्टा। हमारे यहां मुझे राजधानी चुनने के लिये आंदोलन करने पड़े। बाबा मोहन उत्तराखंडी की शहादत हो गई। तुम लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा। तुमने मेरे चयन के लिये एक आयोग बैठा दिया जो ग्याहर साल तक मेरा परीक्षण करता रहा। मुझ पर दोष ढूंढता रहा। लांछन भी लगाता रहा। कई विशेषज्ञों को लाकर यह भी बताने की कोशिश की गई कि मैं भूगर्भीय दृष्टि से बहुत संवेदनशील हूं। हालांकि मेरी समझ में यह बात कभी नहीं आई कि जब मेरे क्षेत्र में बने सदियों पुराने मंदिर और सैकड़ों साल पहले बने मकानों में बड़ी भूगर्भीय हलचलों के बाद दरार तक नहीं आई तो क्या भूकंप राजधानी बनने का इंतजार कर रहा है?

खैर, यह बात लंबी हो जायेगी। मैं आपसे कभी कुछ नहीं कहता। बहुत मजबूरी में यह पत्र लिख रहा हूं। तुम्हारे झूठ-फरेब से तंग आकर। मुझे लगता है कि अब मुझे भी अपने अस्तित्व के लिये आंदोलन में शामिल हो जाना चाहिये। तुम लोग कितनी बेशर्मी पर उतर आये हो। कितना जनविरोधी चेहरा है तुम्हारा। कितने धूर्त हो तुम लोग। मेरा नाम लेकर ठगने की कला सीख ली है तुमने। बहुत छला है तुमने मुझे। यहां आकर तुमने बहुत सारे भवन खड़े कर दिये। रेस्ट हाउस बना दिये। विधानसभा भवन भी बना दिया। यहां आकर तुम करोड़ों के वारे-न्यारे कर विधानसभा सत्र भी लगा जाते हो। मैं पूछना चाहता हूं कि जब तुम यह सब कर रहे हो तो मुझे राजधानी क्यों नहीं घोषित कर रहे हो? इससे साबित होता है कि तुम किसी बड़ी साजिश को अंजाम देने के फिराक में हो। तुम्हारे एक विधानसभा अध्यक्ष गोबिन्द सिंह कुंजवाल तो मेरे नाम पर राजधानी के ‘नायक’ ही बन गये। एक बार लग रहा था कि वे अपनी ‘जान पर खेलकर’ भी राजधानी बना देंगे। उनके आका तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत मैदान में अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में गैरसैंण को राजधानी घोषित करने की बजाय गोबिन्दसिंह कुंजवाल के कंधे में बंदूक रखकर गोली चलाते रहे। लेकिन उन्हें सजा मिली। मैदानी क्षेत्र के दोनों सीटों से चुनाव हारकर उन्हें एहसास हो गया होगा कि ‘आंसू हमेशा आंखों से आते हैं घुटनों से नहीं।’ उनसे पहले के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा पहले नेता थे जिन्होंने यहां विधानसभा सत्र शुरू किया। बताते हैं कि इसके पीछे सतपाल महाराज का दबाव था। आज वे दोनों ‘शुद्ध’ होकर भाजपा में हैं। सतपाल महाराज तो मंत्री हैं उन्हें भी अब मेरी जरूरत महसूस नहीं होती। इनकी पार्टी भाजपा ने जिस तरह का रवैया मेरे खिलाफ अपनाया है उसका प्रतिकार जनता तो कर ही रही है, मुझे भी भारी घुटन महसूस हो रही है। मुझे लगता है कि तुम्हारे काले कारनामों को अब एक बार सबके सामने लाना ही होगा।

पिछले एक-दो महीने से जब कुछ ‘सिरफिरे’ मुझे राजधानी बनाने की मांग को लेकर सड़कों पर आये तो मेरी समझ में आया कि मेरा राजधानी के लिये चयन करना किसी स्थान का चयन नहीं है। यह आम जनता के सरोकरों से जुड़ा है। जो बातें उन्होंने मुझे बताई उससे लगा कि पूरा पहाड़ हमारे हाथ से निकल रहा है। मैं तो बहुत दूर पहाड़ में रहता हूं। देहरादून में तो रहता नहीं हूं। मुझे तो जो कुछ बताती है जनता ही बताती है। मुझे पता चला कि इन सत्रह सालों में तुमने हमारे 3600 प्राइमरी स्कूल बंद कर दिये हैं। पता चला कि 246 हाईस्कूलों की लिस्ट भी बंद होने के लिये बन गई है। मुझे पता चला कि हमारे दो मेडिकल काॅलेज सेना के हवाले कर दिये हैं। मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र के तीन अस्पताल भी एक बड़ी मेडिकल युनिवर्सिटी को सौंप दिये गये हैं। कई को फाउंडेशनों को देने की तैयारी है। नदियां तो पहले ही थापर, रेड्डी और जेपियों के हवाले कर दी हैं। केदारनाथ के पुनर्निर्माण में भी कई पूंजीपति पैसा लगाने वाले हैं। शराब तो खोली ही अब बंद बारों को भी खोलने की संस्तुति दे दी गई है। मजखाली और पोखड़ा की बेशकीमती जमीन को जहां तुमने पूंजीपतियों को स्कूल और इंटस्टीट्यूट बनाने को दिये, वहीं हमारे एनआईटी के लिये तुम्हारे पास जमीन नहीं है। हमारे साढ़े तीन सौ गांव जो विस्थापन की राह देख रहे हैं उनके लिये एक इंच जमीन नहीं है। देहरादून से लेकर पिथौरागढ़, कोटद्वार से लेकर धूमाकोट तक, हल्द्वानी से लेकर रामगढ़ तक, टनकपुर से लेकर चंपावत तक जमीनों को जिस तरह से खुदबर्द किया गया उससे पूरे पहाड़ का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। अभी टिहरी के बाद पंचेश्वर बांध परियोजना से 134 गांवों को डुबाने का ऐलान भी हो चुका है। सरकार बड़ी बेशर्मी से ‘पलायन आयोग’ बना रही है। जब मुझे राजधानी बनाने का आंदोलन करने वालों ने पूछा कि तुम ये सब क्यों कर रहे हो तो तुम्हारा जबाव था कि सरकार यह सब काम करने की स्थिति में नहीं है। मेरा कहना है कि जब सब काम जिंदल, थापरों ने करना है तो आप सरकार में क्यो हैं? किसी जिंदल, थापर, रेड्डी को मुख्यमंत्री बना दो तुम उनके प्रवक्ता (लाइजनर) बन जाओ। बंद आंखों से पहाड़ को देखने वालो थोड़ा आंखों की शर्म तो कर लेते। बहुत सारी और बातें भी हैं जो मेरे मर्म को समझने वाले बता गये हैं, उसे फिर अगली चिट्ठी में लिखूंगा। फिलहाल मैं इस चिट्ठी के माध्यम से तुम्हें आगाह करना चाहता हूं कि तुमने पूरे हिमालय में बारूद बिछा दिया है। तुमने हिमालय की शांत वादियों में इतनी तपन पैदा कर दी है कि हिमालय लाल होने लगा है। मैं बहुत नजदीक से उस तपन को महसूस कर सकता हूं। हिमालय के लोगों के बारे में दागिस्तानी कवि रसूल हमजातोव ने लिखा है- ‘पहाड़ का आदमी दो चीजों की हमेशा हिफाजत करता है। एक अपनी टोपी की और दूसरा अपने स्वाभिमान की।’ टोपी बचाने के लिये उसके नीचे ‘सिर’ का होना जरूरी है और स्वाभिमान को बचाने के लिये दिल में ‘आग’ का। अब हमारे लोग अपनी टोपी बचाने के लिये सिर को ‘मजबूत’ कर रहे हैं और स्वाभिमान को बचाने के लिये दिल में ‘आग’ पैदा कर रहे हैं। बस मुझे अभी इतना ही कहना है।

शुभेच्छु
तुम्हारा ही उपेक्षित
‘गैरसैंण’

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
सुनो ...............

ये घर कुछ बोल रहे हैं ?
दिल की आवजों को टटोल रहे हैं
जड़ों से अपने जो दूर हो रहे
ये घर कुछ बोल रहे हैं ?

वीरान सुनसाना कहानी
आबाद थी कभी यहाँ की जवानी
चहल पहल कभी खूब था यहाँ पर
उसी गुमशुदा उम्मीद को ढूंढ रहे हैं

दुख है उसका तो निवारण भी होगा
कर्ता तेरा कुछ कारण भी होगा
जड़ों से जोड़ी जो विरासत छोड़ रहे हैं
पहचान पर शर्मिंदगी हैं वो बोल रहे हैं

साये में धूप है फिर भी वो जी रहा हैं
टूटी कड़ियों को जोड़ने कोशिश कर रहा है
आज आपने छूटे टूटे द्वार वो खोल रहा है
मिट्टी चलो फिर से जोड़ें फिर बोल रहा है

इनके टूटे खव्बों का बोझ उठाना पड़ेगा
दूर गया तुझे लौट कर फिर आना पड़ेगा
झड़ती पत्तियाँ अपने जड़ों की ओर झडेंगी नहीं
तभी तक इन पर वो नई कलियाँ खिलेंगी नहीं

ये घर कुछ बोल रहे हैं ? ...........

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http://balkrishna-dhyani.blogspot.in/search/
http://www.merapahadforum.com/

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version