Author Topic: Uttarakhand Govt. Should Face Truth - सच का सामना: उत्तराखंड सरकार जवाब दे  (Read 6081 times)

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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millions doller question puchh liya aapne, in netao ko jab ghotalu se phursat milegi tab hi to aur pahalu dekhe jayange.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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You are right Dayal Ji.

Questions will never end but it seems that these people don't have any answer of these questions.

 a) Where is the Film Policy of Uttarakhand?


CA. Saroj A. Joshi

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विकास की बात करे तो बहुत विकास हुआ है ...??? मेरे गृह नगर मै पहले एक शराब का बार था आज सात है ..पहले हरियाली थी, चौड़े रास्ते थे अब कंकरीट का जंगल है ....पहले जब हम कालेज जाते थे तब सब सड़के साफ़,  सभी पैदल चलते थे आज रास्ते  जाम रहते है जहा तहां शोरगुल गाडियों की भीड़ ..इतनी गाड़ियाँ क्या ये समृधि का प्रतीक नहीं ??. पहले हमारे क्षेत्र से IIT मेडिकल , IAS ,PCS CDS की परीक्षा हर वर्ष अनेको छात्र सफल होते थे अब भी होते है.BBA BCA  PGD MBA मै  और संस्थान  इतने कि छात्रो को मेहनत की जहमत ही नहीं उठानी पड़ती    ... शिक्षा मै तो अब बहुत प्रगति हुई है ..पहले दसवी की परीक्षा फल के दिन गाँव गाँव मै मातम होता था अब कोई तनाव नहीं ..?? वैश्विक बाजारीकरण के साथ साथ शिक्षा आज उचित व्यवशायिक साधन बन गया है . लाला की दुकान मै राशन के अलावा अब डिग्रीयां भी मिलती है ..जमीनों का भाव हर घंटे बढ़ रहा है ..चोरी हिंसा की वारदातों मै कमी हुए है क्यूंकि अब ध्यान जमीन की खरीद फरोख्त मैं चला गया है... एक ईमानदार IAS (चूँकि ये सबसे सम्मानित सेवा मानी जाती है ) पूरे जीवन मैं  वो इतना नहीं कमा सकते कि वो ठीक जगह पर एक भूखंड खरीद पाए पर विडंबना देखिये रोज खरीद फरोख्त हो रही है !!!! ये क्या आर्थिक प्रगति का सूचक नहीं है ....??? ..सिडकुल बनने से जो जगहे कभी वीरान थी जो कई भूखो  से पेट भरती थी ....अब वो  और  बहार ले आई है मेरे उस देवभूमि के धरती आज सोने की जगह धुवां उगल रही है कई उद्योगपतियों को वो मालामाल कर रही है कई हमारे उत्तराखंडी भाइयो को उन्होंने रोजगार दिया है १० घंटे कड़ी मेहनत के बाद ५०००/- कमा   रहे है ..और कितना कम लेंगे ये बंधुवा मजदूर ...प्रबंधकीय कार्यो मै वो भी आर्थिक उन्नति   कर सकते थे पर उधोगपतियो ने कसम खायी है को वो प्रबंधकीय वर्ग मै पहाडियों के सेवा नहीं लेगी .....ये सब विकास ही तो है ?उद्योग विकास मुद्रा विकास ......?? पानी की समस्या का हल अब लोगो को पता है वो जानते है कि  पेयजल मंत्री के वादे तो वादे है वादों का क्या !!  अब लोगो ने इसका हल  ढूंढ़ लिया है .नौले,  धारे प्राकृतिक श्रोतो  के आसपास पड़ी पेप्सी . कोका , बियर की बोतले ये सबूत दे रही है waterpurifier कम्पनियों ने भी खूब प्रगति की है..राज नैतिक ज्ञान भी हमने खूब सीख लिया  है खंडूरी जी की हार निशंक जी की जीत बहुत कुछ बता रही है.....पलायन से स्वतंत्रता मिलती है घर पर जींस पेंट पहनकर हम खेती कैसे कर सकेंगे ?? यहाँ शिक्षा तो मिल जाएगी पर आज़ादी कहा मिलेगी ..पिताजी तो facebook के लिए भी मना करते है वो क्या हमे "कांटा लगा' जींस पहनने देंगे ...???    ये सब विकास ही तो है ...पर इस विकास की दिशा कहाँ ???? ये एक प्रश्न चिन्ह है ???
 

हेम पन्त

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जोशी जी आपकी इन पंक्तियों ने सोचने पर मजबूर कर दियाप.हाड़ की स्थिति सुधारने के लिए क्या कदम उठाये जाने चाहिए, इस विषय पर भी आपके विचार रखिए.

CA. Saroj A. Joshi

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पन्त जी आपका धन्यवाद . सर मैं ज्यादा अनुभवी तो नहीं पर दो तीन प्रमुख बाते रख सकता हूँ !
१) पर्यटन के छेत्र मै बहुत अवसर है आवश्कता है हम अपने शहर के साफ़ रखे ..जिस प्रमुख बात के लिए हम पहाड़ी  पहले जाने जाते थे " ईमानदारी, निश्वार्थ प्रेम , अतिथि के प्रति समर्पित सेवा भाव ..जिससे हमारे छेत्र मै पर्यटक आये , स्थानीय लोगो को रोजगार मिले
२) उधोग नीतियाँ पहाड़ ने अनुरूप  बनाई जाये जिससे पहाड़ो मै प्रदुषण न हो जैसे दुर्लभ जड़ी बूटी , आयुर्वैदिक दवाओ ,प्रसाधनो , मौलिक खान पान , मौलिक परिधान , हस्त शिल्प इत्यादि ...और  उद्योग सहकारी सहायता नीति पारदर्शी हो .
३) शिक्षा एक महत्वपूर्ण मार्ग है ... व्यव्शायिक नहीं बल्कि एक माहौल बनाया जाये जैसा आप लोग कर रहे है मेरोपहाद के माध्यम से ..मीडिया के माध्यम से .. मूल संस्कारो को बढ़ावा ..एक दुसरे को मदद ...आगे शराब बंदी महिला स्थति सुधार इत्यादि 
ऐसे कई मुद्दे है जिन पर चिन्तन हो सकता है !!!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Summer season is in peak. I believe there is water crisis in entire Uttarakhand hill areas but Govt can not provide facility.

It is a coincidence that national river like Gagna is originating from uttarakhand but still people are thrust.

Can govt quench the thrust of people ?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Why un-employment has increased in Uttarakhand?


उत्तराखंड में बेरोजगारों की संख्या बढ़ी
बीएस संवाददाता / देहरादून June 03, 2012

बुरी आर्थिक स्थिति के बाद उत्तराखंड एक नई समस्या का सामना कर रहा है। राज्य में बेरोजगारी बढ़ी है। हाल के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 मार्च 2012 तक कुल 6,66,677 युवाओं ने रोजगार कार्यालय में पंजीकरण कराया है, जबकि पिछले साल यह संख्या 5.65 लाख थी। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि बेरोजगारों की संख्या और ज्यादा हो सकती है, क्योंकि बड़े पैमाने पर बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में राज्य छोड़कर जा चुके हैं। सरकार के सामने बड़ी समस्या यह है कि ज्यादातर बेरोजगार युवक शिक्षित तो हैं, लेकिन कुशल नहीं हैं। मंदी की हालत में सरकार उद्योग, पर्यटन और बिजली के क्षेत्र में रोजगार सृजन में कामयाब नहींं हो रही है। राज्य के 6.66 लाख बेरोजगार युवकों में 89,588 ही कुशल हैं। कुशल युवकों के सामने भी सरकारी क्षेत्र के अलावा कहींं रोजगार की संभावना नहीं है। एक उद्योगपति ने कहा, 'हाल की मंदी के चलते विनिर्माण उद्योग ने स्थानीय युवकों को नौकरी देने से हाथ खींच लिया है।' सरकार ने बेरोजगार युवकों को 5,00 से 1,000 रुपये बेरोजगारी भत्ता देने का वादा किया था, लेकिन जानकारों का कहना है कि इतनी महंगाई में यह मजाक ही है।

http://hindi.business-standard.

lalit.pilakhwal

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कुमाऊँ की तराई में बसाये गये बंगाली विस्थापितों को पट्टे पर दी गई कृषि जमीनों में मालिकाना हक दिये जाने के एवज में सितारगंज से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर एमएलए चुने गये किरन मंडल ने पार्टी और विधायकी से इस्तीफा देकर कांग्रेस का दामन थाम लिया है। इसी रोज उत्तराखंड सरकार के मंत्रिमण्डल ने प्रदेश में गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट-1895 के तहत खेती के निमित्त पट्टे पर दी गई जमीन पर पट्टाधारकों को मालिकाना हक देने का फैसला ले लिया। एक तरफ राज्य सरकार ने किरन मंडल की शर्त के मुताबिक कैबिनेट में प्रस्ताव पास किया, दूसरी तरफ मंडल ने पार्टी और विधायकी को अलविदा कहा। मंडल और उत्तराखंड सरकार के बीच का यह समझौता फौरी तौर पर मंडल और उनकी विरादरी और कांग्रेस के लिए बेशक फायदे का नजर आ रहा हो। लेकिन इससे तराई के भीतर पिछले पचास सालों से लटके भूमि सुधार के मामले और जमीनों से जुडी़ दूसरी बुनियादी समस्याओं का समाधान होने वाला नहीं है। विधायकी की महज एक अदद सीट के लिए हुआ यह समझौता इस नये राज्य की भावी सियासी दशा और दिशा और खासकर कांग्रेस के लिए काफी मंहगा साबित हो सकता है। आनन-फानन में लिये गये इस फैसले से उत्तराखंड की जमीनी हकीकत को लेकर पहाड़ के नेताओं की तदर्थ सोच अवश्य जगजाहिर हो गई है।

सरकार ने कहा है कि इस फैसले से 1950 से 1980 के बीच समूचे राज्य में गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट के तहत कृषि जमीन का पट्टा पाए करीब 60 हजार से ज्यादा पट्टा धारकों को फायदा मिलेगा। सरकार के इस फैसले के अगले ही रोज 24 मई को एक कैबिनेट मंत्री सुरेन्द्र राकेश ने आसामी पट्टाधारियों को भी मालिकाना हक देने की मॉग उठा दी है। उन्होनें मुख्यमंत्री से मिलकर कहा है कि तात्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गॉधी के आदेश पर 1973 से 1976 के बीच नैनीताल, उद्यमसिंहनगर, देहरादून और हरिद्वार जिलों में करीब 17 हजार दलितों को दिये गए आसामी पट्टाधारियों को भी सरकार मालिकाना हक दे। उत्तराखंड के मौजूदा सियासी गणित को अपने हक में करने की मजबूरी में लिए गए राज्य सरकार के ताजा फैसले से इन दिनों तराई समेत पूरे उत्तराखंड में भूमि सुधार का मुद्दा फिर चर्चा में आ गया है। इस बहाने भविष्य में कुमाऊँ और खासकर तराई में भूमि सुधार कानूनों को अमल में लाने के मुद्दे के जोर पकड़ने के आसार नजर आने लगे है।

दरअसल अपनी समृद्ध जमीन और वनसंपदा की वजह से तराई का इलाका मुगल काल से ही लडाईयों का केन्द्र रहा है। ऐतिहासिक नजरिये से तराई-भावर गुप्त काल से कुमाऊँ राज्य का हिस्सा रहा। उन दिनों कुमाऊँ में कत्यूरी वंश का राज था। कत्यूरी कुमाऊँ का सबसे पुराना राजवंश है। कत्यूरी शासन काल में तराई का यह इलाका खूब फूला-फला। ग्यारहवीं ईसवी में तराई को लेकर मुस्लिम शासकों और कत्यूरों के बीच अनेक बार झड़पे भी हुई।

अकबर के शासन काल के दौरान कुमाऊँ में चंद वंश के राजा रूप चंद का शासन था। तब तराई को नौलखिया माल और कुमाऊँ के राजा को नौलखिया राजा कहा जाता था। उन दिनों यहॉ के राजा को तराई से सालाना नौ लाख रूपये की आमदनी होती थी। चंद राजा ने तब तराई को सहजगीर (अब जसपुर) कोटा- (अब काशीपुर), मुडैय्या-(अब बाजपुर), गदरपुर भुक्सर -(अब रूद्रपुर), बक्शी -(अब नानकमता ), और चिंकी- (सुबड़ना और बहेड़ी) सात परगनों में बॉटा था।


चंद वंश के चौथे राजा त्रिमूल चंद ने 1626 से 1638 तक कुमाऊँ में राज किया। त्रिमूल चंद के राज में तराई बहुत समृद्ध थी। तराई की समृद्धि के मद्देनजर अनेक राजाओं ने तराई पर नजर गडा़नी शुरू कर दी, तराई को हाथ से निकलते देख त्रिमूल चंद के उत्तराधिकारी राजा बाज बहादुर चंद ने दिल्ली के मुगल सम्राट शाहजहॉ से समझौता कर लिया। बदले में कुमाऊँ की सेना ने काबुल और कंधार की लडा़ईयों में मुगलों का साथ दिया। औरंगजेब के शासन काल में 1678 ई. को कुमाऊँ के राजा बाज बहादुर चंद ने तराई में अपने प्रभुत्व का मुगल फरमान हासिल किया। 1744 से 1748 ई. के दौरान रूहेलखण्ड के रूहेलों ने कुमाऊँ पर दो बार आक्रमण किए। 1747 ई. में मुगल सम्राट ने फिर तराई पर कुमाऊँ के राजा का प्रभुत्व कबूल किया।


1814-1815 को सिंगौली की संधि के बाद 1815 में कुमाऊँ में ब्रिट्रिश कंपनी का आधिपत्य हो गया। 1864 में ब्रिट्रिश हुकुमत ने तराई और भावरी क्षेत्र के कुछ हिस्सों को मिलाकर यहॉ की करीब साढे़ चार लाख एकड़ जमीन को “तराई एण्ड भावर गवर्नमेंट इस्टेट“ बना दिया। इसे “खाम इस्टेट“ या “क्राउन लैण्ड“ भी कहा जाता था। उस दौर में यहॉ करीब पौने पॉच सौ छोटे-बडे़ गॉव थे, इनमें से करीब पौने चार सौ गॉव इस्टेट के नियंत्रण में थे। ब्रिट्रिश सरकार अनेक स्थानों पर इस्टेट की जमीनों को खेती के लिए लीज पर भी देती थी। उस दौरान इस इलाके को बोलचाल में तराई-भावर इस्टेट कहा जाता था। 1891 में नैनीताल जिला बना। इस क्षेत्र को नैनीताल जिले के डिप्टी कमिश्नर के अधीन कर दिया गया।

तराई के ज्यादातर नगर कस्बे चंद राजाओं के शासन काल में बने। राजा रूद्र चंद ने रूद्रपुर नगर बसाया। रूद्र चंद के सामंत काशीनाथ अधिकारी ने काशीपुर और राजा बाजबहादुर चंद ने बाजपुर बसाया। ब्रिट्रिश हुकुमत के दिनों चंद वंश के उत्तराधिकारी को तराई -भावर जागीर मंे दे दी गई। उन्हें राजा साहब काशीपुर की पदवी से नवाजा गया। 1898 ई. में तराई में इंफल्युएंजा की बीमारी फैल गई। 1920 में यहॉ जबरदस्त हैजा फैला। इस दरम्यान यहॉ सुलताना डाकू का भी जबरदस्त खौफ था। इन सब वजहों से तराई में आबादी कम होती चली गई। अतीत में भी तराई कई बार बसी, और कई बार उजडी़। विश्व युद्ध के दौरान अनाज की कमी और पूर्वी पाकिस्तान से आये विस्थापितों को बसाने की मंशा से तराई-भावर के बहुत बडे भू-भाग के जंगलों को काटकर वहॉ बस्तियॉ बसाने को सिलसिला शुरू हुआ। दिसम्बर, 1948 को पंजाब के विस्थापितों का पहला जत्था यहॉ पहुॅचा। अगस्त 1949 में उन्हें भूमि आवंटन कि प्रक्रिया शुरू हुई।

तराई उत्तराखंड का सबसे ज्यादा मैदानी इलाका है। यह बेहद उपजाऊ क्षेत्र है। गन्ना , धान और गेंहूं की उपज के मामले में तराई को देश के सबसे ज्यादा उपजाऊ वाले इलाकों में गिना जाता है। ब्रिट्रिश हुकुमत के दिनों से तराई के जंगलों में खेती करने का चलन तो था। पर तब तराई का ज्यादातर हिस्सा बेआबाद था। 1945 में यहॉ दूसरे विश्व युद्ध के सैनिकों को बसाने की योजना बनी। आजादी के बाद रक्षा मंत्रालय ने इस पर अमल करना था। 1946 में प्रदेश की पहली विधानसभा ने इस क्षेत्र में कुमाऊँ और गढ़वाल के लोगों को बसाने की योजना बनाई। पर यह कामयाब नहीं हो सकी। 1950 तक तराई की पूरी जमीन सरकार की थी। इसे खाम जमीन कहा जाता था।

1947 में भारत पाक विभाजन के वक्त आए विस्थापितों को तराई में बसाने की योजना बनी। योजना के तहत पहले-पहल 1952 में पंजाब से आए हरेक विस्थापित परिवार को 12 एकड़ जमीन दी गई। फिर बंगाल से आए विस्थापित को जमीनें दी गई। बाद के सालों में इस योजना मंे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी शामिल किये गये। तराई में निजी व्यक्तियों और सहकारी समितियों को भी 99 साल की लीज पर जमीनें बॉटी गई। इस तरह दूसरे विश्व युद्ध के सैनिक, उत्तराखंड के वे लोग, जिनके पास जमीन नहीं थी। पंजाब एवं बंगाल से आये विस्थापित , भूमि हीन स्वतंत्रा संग्राम सेनानी, युद्ध में अपंग या शहीद सैनिकों के परिवार और तराई के पुराने वाशिन्दे थारू-बुक्सा, अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लोगों को तराई की जमीन का असल हकदार बनाया गया। पर हकीकत में ऐसा नहीं हो सका। जमीन के आवंटन में बरती गई धाधलियों के चलते राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, फिल्मी हस्तियॉ, पुराने नवाब, अफसर और सरकारी मुलाजिम तराई की जमीन के असली मालिक बन बैठे। रक्षा मंत्रालय के जरिये सैनिकों को बॉटी जाने वाली जमीनों का ज्यादातर हिस्सा सेना के चंद अफसरों ने हथिया लिया। पंजाब से आये विस्थापितों को जमीन बॉटने का फायदा भी राजनीतिक पंहुच वाले प्रकाश सिंह बादल और सुरजीत सिंह बरनाला सरीखे चंद नेताओं ने उठाया। पहाड़ के गरीब लोगों के नाम पर कुछ बड़े नेताओं, अफसरों और सरकारी मशीनरी ने जमीने घेरी। कुछ लोगों ने बंगाली विस्थापितों को मिली जमीनें खरीदी, तो कुछ ने थारू-बुक्सा जनजातियों की जमीनें और सरकारी जमीनों पर कब्जा कर अपना रकवा बढा़या। इस तरह चंद लोगों ने तराई में बेहिसाब उपजाऊ और बेशकिमती जमीनें हथिया ली।

1964 में बंगलादेश के वजूद में आने के बाद यहॉ हजारों की तादाद में बंगालादेशी विस्थापित आये। इसी साल बंगाली विस्थापितों को पुनर्वासित करने के लिए ग्राम-लमरा और शिमला बहादुर के बीच करीब साढे़ तीन सौ एकड़ जमीन पुनर्वास विभाग को दी गई। यहॉ ट्रांजिट कैम्प बना। करीब दो सौ परिवारों को पक्के मकानों के अलावा दो से ढाई एकड़ कृषि ज़मीनें दी गई। करीब तीन सौ परिवारों को व्यवसाय के लिए एक मुश्त रकम और पक्के मकान दिये गये। बंगलादेशी विस्थापितों को दिनेशपुर, शक्तिफार्म, रूद्रपुर, किच्छा, मुड़ियाफार्म, सितारगंज, महतोष मोड़, खानपुर और गदरपुर आदि क्षेत्रों में बसाया गया। उन्हें मुख्य रूप से दिनेशपुर और शक्तिफार्म में जमीनें आवंटित की गई। शक्तिफार्म में 2233 बंगाली विस्थापितों को पट्टे दिये गये थे। आवंटन में लीज जैसी किसी शर्त का जिक्र नहीं किया गया था। 1971 के बंगलादेश युद्ध के समय भी चटगॉव, वारीसाल, खुलना, फरीदपुर और ढाका वगैरह जिलो से भी बंगलादेशी विस्थापित तराई में आ बसे है। यह सिलसिला कमोवेश छुटपुट तौर पर आज भी जारी है। आज रविन्द्र नगर, संजय नगर, आदर्श कालोनी, जगतपुरा, भतईपुरा, रम्पुरा मुहल्ला और राजीव नगर में भी बंगाली विस्थापितों की कालोनियॉ बसी है।

तराई में जिस रफ्तार से फार्म हाउसों का रकवा बढ़ता गया, ठीक उसी रफ्तार से भूमि हीन और खेत मजदूरों की तादाद भी बढ़ती गई। कुछ लोग जमीन बटवारें के वक्त ही जमीन नहीं पा सके। जिन्हें मिली, उन्हें किसी न किसी तरह बेदखल कर दिया गया। जमीदारी फैलाव की चपेट में तराई के जंगलों के पुराने वाशिन्दे थारू-बुक्सा जनजाति के लोग आये। आजादी के बाद थारू-बुक्सा को जनजाति का दर्जा देकर उनकी जमीनों की खरीद-फरोख्त पर कानूनी पाबंदी लगा दी गई। पर यह कानून भी थारू-बुक्सा को भूमिहीन बनाने से नहीं रोक पाया। जमीन के असमान बटवारंे के चलते पंजाबी विस्थापितों में राय सिख, बंगाली शरणार्थी और पहाड़ के ज्यादातर लोगों को जमीने नहीं मिल पाई। इनमें से सबसे ज्यादा बुरे हाल बंगाली विस्थापितों के हुए। तराई में आज ज्यादातर बंगाली विस्थापित खेत मजदूर बनकर रह गये है।


बंगाली विस्थापितों को आवंटित भूमि में से आधी से ज्यादा जमीनें दस से एक सौ रूपये कीमत के स्टॉप पेपरों में दाननामा और दूसरे तरीकों से बिक चुकी है। बंगाली विस्थापितों के पट्टे वाली इन जमीनों में से कुछ जमीनें दूसरे बंगाली विस्थापितों ने ही खरीद ली। बाकी दूसरे लोगों ने। कुछ बंगाली विस्थापित शुरूआती दिनों में ही अपनी पट्टे वाली जमीने बेचकर चले गए। अब उनका कोई अता-पता नहीं है। खरीददार और बेचनेवालों के बीच अदालतों में कई मुकदमें भी चल रहे है। जमीन किसी और को अलॉट हुई थी, मौके पर कब्जा किसी और का है। 1971 में आये बंगाली विस्थापितों में से अभी कई परिवारों को पुनर्वासित नहीं किया जा सका है।

जमीदारी उन्मूलन एक्ट के तहत तराई के कुछ लोगों को उनके कब्जे वाली जमीन में मालिकाना हक पहले ही मिल गये। तराई में बडे़ नेताओं, उद्योगपतियों, चंद सेना के अधिकारियों और फिल्मी सितारों के हजारों एकड़ के फार्म हाउस बन गये। एस्कोर्ट फार्म, पेगा फार्म (काशीपुर), प्राग फार्म (किच्छा), अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल का फार्म, चीमा फार्म, राणा फार्म, शर्मा फार्म(बाजपुर) मंजीत फार्म, बिष्टी फार्म, टिंगरी फार्म, सिसैइया फार्म, नकहा फार्म (सितारगंज) जैसे फार्म हाऊसों की लंबी फेहरिस्त है। तराई में सैकडो़ एकड वाले फार्मो की तादाद सैकडो़ में है। प्रभावशाली लोगों के फार्म हाऊसों के रकवे की ठीक-ठीक जानकारी सरकारी अमले के पास भी नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार तराई में तीन फीसदी किसानों के कब्जे में चौबीस प्रतिशत जमीन है। जबकि बाकी पचपन फीसदी किसान सिर्फ पन्द्रह प्रतिशत जमीन पर काबिज है।

तराई में 1972 में सीलिंग कानून लागू होना शुरू हुआ। सीलिंग कानून की चपेट में मझौले किसान ही आ पाये। फार्म हाऊसों के मालिकों के कद के सामनें सीलिंग कानून भी बौना साबित हुआ। सिंचाई वाली जमीन को असिंचित दिखाकर सीलिंग की हद से ज्यादा जमीनों में फर्जी स्कूल, मकान, सड़क-रास्ते दर्शाकर या फिर रेवन्यू रिकार्ड़ में बेनामी जमीने दर्ज कराकर फार्म हाऊसों के मालिक सीलिंग कानून से बचते रहे। तराई में आज भी सीलिंग के अधिकांश मामले विभिन्न न्यायालयों में विचाराधीन है। सीलिंग के गिरफ्त में आये लोग एक बार अदालत से फैसला हो जाने के बाद उसी जमीन में किसी दूसरे के नाम से नये सिरे से मुकदमे बाजी शुरू कर देते है। सुप्रीम कोर्ट के सख्त रूख के बाद कुछ साल पहले प्रशासन ने एस्कोर्ट फार्म में सीलिंग की कार्यवाही की। यहॉ पहले ही गैरकानूनी रूप से जमीन खरीदकर मौके पर काबिज लोगों को जमीने बॉट दी गई। सीलिंग की खानापूर्ति के लिए निकाली गई जमीन भूमि हीनों को बॉटनें के बजाय आईएमए के हवाले कर दी गई।

पी.यू.डी.आर. की एक रिपोर्ट के मुताबिक तराई में सीलिंग कानून लागू करते वक्त सरकार ने केवल 1.4 फीसदी जमीन अतिरिक्त घोषित की थी। सरकार इस में से 64 फीसदी जमीन ही अपने कब्जे में ले पाई। कब्जें में ली गई जमीन में से 61 फीसदी जमीन लोगों को बॉटी गई। बाकी सीलिंग में निकली जमीन पर भी प्रभावशाली लोग हाथ मार गये। सीलिंग में निकली जमीन में से सिर्फ 0.4 फीसदी जमीन भूमि हीनों को मिल पाई । इनमें से एक चौथाई लोगों को बडी़ जोत वालों ने बेदखल कर दिया। छोटे किसानों के अधिकार वाली ज्यादातर जमीने भी बडी़ जोत वाले किसानों के फार्मों का हिस्सा बनकर रह गई। तराई में पिछले करीब पचास सालों से भूमि सुधार कानूनों को लागू करने की मॉग उठती रही है। लेकिन यहॉ प्रदेश सरकार ने राजनीतिक फायदे-नुकसान के मद्देनजर हरेक वर्ग के लिए अलग-अलग कानून बनाये और लागू किये। शुरू में सभी विस्थापितों को गवर्नमेंट ग्रांट एक्ट के तहत जमीने आवंटित की गई थी। माली और सियासी तौर पर मजबूत लोगों को बहुत पहले मालिकाना हक दे दिया गया। हालत यह है कि राजनेताओं, नौकरशाहों और भू-पतियों के अंतरंग गठजोड़ के चलते जमींदारी उन्मूलन एक्ट भी बडे़ फार्म हाऊस मालिकों के हक में गया। नतीजन पिछलें चार दशकों से यहॉ सीलिंग और चकबंदी कानून पर जमीनी अमल नहीं हो पाया है। तराई में आज तक जमीन की पैमाईश नहीं कराई गई।


तराई में जमीनों के गड़बड़झाले को लेकर पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश सरकार ने 27 जुलाई, 1968 को तब उत्तर प्रदेश बोर्ड ऑफ रेवन्यू के सदस्य वरिष्ठ आईसीएस अफसर बी.डी. सनवाल की अध्यक्षता में चार सदस्यीय “तराई लैण्ड जॉच कमेटी“ बनाई थी। इस कमेटी ने 1969 को अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौपीं। उत्तर प्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा अपने कार्यकाल के दौरान गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज रूद्रपुर का उद्घाटन करने को यहॉ आये। लोगों ने श्री बहुगुणा से तराई के भीतर जमीनों के असमान बटवारें की शिकायत की और यहॉ सीलिंग और चकबंदी कानून को अमल में लाने की गुजारिश की। इस मामले को गम्भीरता से लेते हुए हेमवती नन्दन बहुगुणा ने 8 फरवरी, 1972 को उत्तरप्रदेश विधान सभा और विधान परिषद की “उत्तर प्रदेश भूमि व्यवस्था जॉच समिति“ नाम से एक साझा जॉच समिति बनाई। मंगल देव विशारद को इस जॉच समिति का अध्यक्ष बनाया गया था। इस समिति ने मार्च, 1974 को अपनी विस्तृत जॉच रपट राज्य सरकार को सौपीं। रिपोर्ट में कहा गया कि तराई में 185 खातों में 474 खातेदारों के नाम 25379 एकड़ जमीन दर्ज है। यानी हरेक खातेदार के नाम औसतन 137 एकड़ जमीन दर्ज है। कहा गया कि सैकड़ों खातों में 50 एकड़ से ज्यादा जमीनें दर्ज है। जिनका इन्द्राज कई लोगों के नाम पर है। लेकिन जमीन का वास्तविक मालिक एक ही व्यक्ति है। रिपोर्ट में कहा गया कि तराई में स्थित गॉव सभा, गोदान, भू-दान, बाधो तथा जलाशयों की अतिरिक्त भूमि, वन विभाग को पौधारोपण के लिए दी गई भूमि, वनभूमि, खामभूमि, वर्ग-चार और वर्ग-आठ की भूमि और वन पंचायतों की बेहिसाब भूमि भी कब्जा ली गई है। कहा गया है कि बाजपुर और रामनगर में 55 बुक्सारी गॉव थे। अब वहॉ के मूल वाशिन्दे थारू-बुक्साओं की जमीनें भी छिन रही है। मंगल देव विशारद जॉच कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बडे़ फार्म हाऊसों के कब्जे की अतिरिक्त जमीनों का विस्तृत और प्रमाणिक ब्यौरा दिया था। इस समिति ने उत्तर प्रदेश अधिकतम् जोत सीमा आरोपण अधिनियम- 1960 के तहत तराई में सीलिंग में निकलने वाली जमीनों को बॉटनें के लिए बकायदा तरीका भी सुझाया था। समिति ने सिफारिश की थी कि सीलिंग में अतिरिक्त निकली जमीनें क्रमशः युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिक के भूमि हीन आश्रितों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के भूमि हीन खेतहर मजदूरों, अन्य भूमिहीन खेतहर मजदूरों, भूमिहीन भूतपूर्व सैनिक व भूमिहीन राजनीतिक पीड़ितों और छोटे कास्तकारों, जिनके पास 31ध्8 एकड़ से कम जमीन है, को बॉटी जाए। शुरूआत में समूचे उत्तर प्रदेश में मंगलदेव विशारद जॉच कमेटी की इसी रिपोर्ट के आधार पर ही सीलिंग की कार्यवाही होती थी। बाद में राजनेताओं, नौकरशाहों और भू-स्वामियों के नापाक गठजोड़ ने इस रिपोर्ट को पूरे प्रदेश से एक प्रकार से गायब ही करा दिया।

आज तराई में वनभूमि, वर्ग-चार, वर्ग-आठ की भूमि और सिंचाई विभाग की हजारो हेक्टयर भूमि में कब्जे है। बिन्दुखत्ता से नेपाल की सीमा तक वन भूमि पर कब्जा हो चुका है। पिछले पचास सालों से भूमि सुधार के मामले लटके है। उत्तराखंड को अलग राज्य बने साढे़ ग्यारह साल बीत गये है। लेकिन राज्य सरकार ने इस दिशा में सोचने-विचारने तक की जहमत नहीं उठाई। नतीजन यह समस्या वक्त के साथ बडी़ होती चली जा रही है। बेहतर होता कि राज्य सरकार सियासी नफा-नुकसान के मद्देनजर टुकडो़ में निर्णय लेने के बजाय, तराई में वर्षों से अधर में लटके भूमि सबंधी मामलों को निपटाने के लिए व्यापक और सार्वभौमिक नीति बनाती, जिससे यहॉ रह रहे सभी वर्ग के कमजोर और जरूरतमंद लोगों को फायदा मिलता। लेकिन उत्तराखंड के मौजूदा सियासी हालातों में इस बात की उम्मीद करना शायद बेमानी होगा।

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Devbhoomi,Uttarakhand

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