"दस साल का उत्तराखंड"
पहाड़ के विकास के लिए,
उत्तराखंड है काफी,
राजधानी के बारे में,
मांग रहे नेता माफी.
राजधानी के पक्ष में,
आज है नेता कौन,
हाथ हो या फूल हो,
पूरी जमात है मौन.
पलायन तनिक नहीं रूका,
खाक हुए सबके सपने,
वे तो आज कर रहे,
सपने पूरे अपने.
सूनापन है छा गया,
जहाँ हमारे गाँव,
देख दुर्दशा आज उनकी,
ठिठकते हैं पाँव.
पहाड़ छूटा हाथ से,
मन में पीड़ा और प्रवास,
राज्य बन गया लौटेंगे,
यही थी मन में आस.
दस साल का हो गया,
अपना उत्तराखंड,
इस बरसात में दे गई,
प्रकृति पर्वतजनों को दंड.
राजधानी कहाँ हो,
सोचकर देना वोट,
ये है हथियार आपका,
मारो इसकी चोट.
हाथ पिलाएगा व्हिस्की,
फूल पिलाएगा रम,
आँख मूँदकर वोट देंगे,
फिर भी पर्वतजन हम.
राज्य स्थापना के लिए,
दिया जिन्होंने बलिदान,
दुखी होंगे वे स्वर्ग में,
आज हकीकत को जान.
ये सच्ची बात है,
कह रहा कवि "जिज्ञासु",
सपने साकार नहीं हुए,
आँखों में सबके आंसू.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(९.११.२०१०)
दिल्ली प्रवास से.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखण्ड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)