Author Topic: Water Crisis In Uttarakhand : पानी की समस्या से जूझता उत्तराखण्ड  (Read 17981 times)

Rajen

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पानी की किल्लत ने बिगाड़ी पर्वतीय क्षेत्र की दिनचर्या   (Dainik Jagran)
 
 नैनीताल: गर्मी से तपते पहाड़ में पानी की किल्लत ने लोगों की दिनचर्या बिगाड़ कर रख दी है। ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी नदियों व गधेरों के सूखने से हालात दिन पर दिन विकराल हो रहे है। पानी के लिए ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में पैदा हो रहे हालात से सरकार का पूरा तंत्र बेबस नजर आ रहा है।

अप्रैल में ही मई-जून जैसी गर्मी से इस बार कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में पानी को लेकर गंभीर स्थिति पैदा हो गई है। पर्वतीय क्षेत्रों में अधिकांश शहरी क्षेत्र जहां बहुत हद तक पेयजल लाइनों पर निर्भर है, वहीं गांवों में प्राकृतिक जल स्त्रोतों पर निर्भरता कम नहीं हुई है। लेकिन इस बार हालात कुछ ज्यादा ही खराब है। अधिकांश पेयजल योजनाओं के मूल छोटी नदियां व गधेरे सूखने के कगार पर जा पहुंचे है, तो प्राकृतिक जल स्त्रोतों में पानी का स्तर न्यूनतम जा पहुंचा है। परिणाम स्वरूप पर्वतीय क्षेत्रों में इन दिनों लोगों की दिनचर्या पानी पर सिमट गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो तड़के तीन बजे ही लोग पानी के लिए नींद से जाग रहे है,फिर भी पानी मिलने की गारंटी नहीं है। हर बार की तरह इस बार भी सरकार के नुमाइंदे पानी की समस्या के स्थाई समाधान के बजाय सिर्फ चिंता जताने तक सीमित रह गए है।

जल संकट से निपटने के लिए सरकारी महकमा ही नहीं योजनाओं को तैयार करने वाले भी बेबस नजर आ रहे है। सरकार नगरी क्षेत्रों में जहां टैकरों से पेयजल आपूर्ति की दावे कर रही है, लेकिन सड़क से वंचित गांवों में पानी कैसे पहुंचाया जाय, इसको लेकर सरकार के पास कोई योजना नहीं है। अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ व चंपावत के अलावा नैनीताल के पर्वतीय क्षेत्र में इन दिनों पानी के लिए आंदोलनों की बाढ़ सी आ गई है। जिस कारण सरकारी अफसर बेहद मुसीबत में है। पानी की किल्लत ने काश्तकारों की खेतीबाड़ी का धंधा ही अंतिम सांसें गिन रहा है।

Rajen

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मंत्री के जाते ही जल संस्थान का पेयजल टैंकर भी गायब    (Dainik Jagran)


थल(पिथौरागढ़)। ऐतिहासिक थल मेले में जलापूर्ति के लिये कस्बे में पहुंचा पेयजल टैंकर मंत्री के जाते ही गायब हो गया। इसके चलते यहां आने वाले श्रद्धालुओं को पेयजल समस्या से जूझना पड़ा। विभाग की इस कार्यप्रणाली के खिलाफ लोगों में गहरा रोष व्याप्त है।

मंगलवार से शुरू हुये ऐतिहासिक थल मेले के उद्घाटन के लिये प्रदेश के पेयजल मंत्री क्षेत्र में पहुंचे थे। इस दौरान जल संस्थान का एक टैंकर भी कस्बे में देखा गया। टैंकर के यहां पहुंचने से लोगों को पेयजल समस्या से निजात मिलने की उम्मीद थी। परंतु मंत्री के जाते ही जल संस्थान का यह टैंकर भी गायब हो गया। क्षेत्र में टैंकर नहीं होने से बुधवार को भारी संख्या में यहां पहुंचे श्रद्धालुओं को पीने का पानी उपलब्ध नहीं हो सका। विभाग की इस कार्यप्रणाली के खिलाफ स्थानीय लोगों और व्यापार मंडल में गहरा आक्रोश देखा गया। व्यापार मंडल के पदाधिकारियों का कहना है कि जल संस्थान द्वारा टैंकर यहां लाने के बाद अन्यत्र भेजा जाना सरासर गलत है। क्षेत्रवासियों ने मेले के आयोजन तक एक टैंकर कस्बे में ही उपलब्ध कराये जाने की मांग की है।

Rajen

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ढिकालगांव पंपिंग योजना को धन शीघ्र : गैरोला     (Dainik Jagran)

श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)। राज्य पेयजल सलाहकार अनुश्रवण समिति के अध्यक्ष बृजभूषण गैरोला ने कहा कि श्रीनगर से लगे 86 गांवों और तोकों के लिए अलकनंदा नदी से प्रस्तावित ढिकालगांव पंपिंग पेयजल योजना के निर्माण के लिए धनराशि शीघ्र स्वीकृत कर दी जाएगी। इस योजना की डीपीआर बन चुकी है।

श्रीनगर में बुधवार को पत्रकारों से वार्ता करते हुए उन्होंने कहा कि खिर्सू ब्लाक के गांवों में पानी का संकट बढ़ गया है। श्रीनगर शहरी क्षेत्र में पानी की जिन सार्वजनिक टंकियों पर लोगों ने अतिक्रमण किया है, उसे शीघ्र हटाया जाएगा। श्री गैरोला ने कहा कि श्रीनगर शहरी क्षेत्र के लिए पानी की आपूर्ति करने को लेकर क्षतिग्रस्त टैंक की जगह नए टैंक का निर्माण कार्य शीघ्र शुरू कराया जाएगा। क्षतिग्रस्त टैंक को तिरपाल से तुरंत ढकने के आदेश उन्होंने जलसंस्थान के सहायक अभियंता को दिये। जलनिगम जलसंस्थान और पौड़ी, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, चमोली के प्रशासन को निर्देश दिए गए हैं कि जिन स्थानों पर टैंकर नहीं जा सकते वहां के लिए घोड़े खच्चरों से पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करवायी जाय। खिर्सू ब्लाक क्षेत्र में चोरकंडी और झाला सहित अन्य पेयजल योजनाओं को दुरुस्त करने के आदेश भी उन्होंने जलसंस्थान को दिए। चारधाम यात्रा मार्गो पर लगे सभी हैंडपंपों की मरम्मत का कार्य अप्रैल माह तक पूर्ण कर दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि स्कूलों में पेयजल उपलब्ध कराने को सरकार ने प्राथमिकता से लिया है। पेयजल संकट वाले क्षेत्रों का रोड मैप तैयार कर सम्बन्धित विभागों से कार्य करने को कहा गया है। भाजपा मंडल अध्यक्ष भारत कुकरेती, क्षेपं सदस्य विभोर बहुगुणा, व्यापार सभा के महासचिव दिनेश असवाल सहित अन्य वरिष्ठ भाजपाई भी वार्ता में मौजूद थे। इससे पूर्व बृजभूषण गैरोला के श्रीनगर पहुंचने पर भाजपा मंडल अध्यक्ष भारत कुकरेती के नेतृत्व में भाजपाइयों ने उनका जोरदार स्वागत किया।



Kya in yojnaon par kabhee amal bhee hoga? ? ? ?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Some facts from the below article.


हिमालय के घाव   ....
.......................................भूपेन सिंह (जनसत्ता में प्रकाशित )
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प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध उत्तराखंड धीरे-धीरे पारिस्थिक तौर पर खोखला बनता जा रहा है. ऐसा करने का काम जनता का कोई घोषित दुश्मन नहीं बल्कि चुनी हुई सरकारें कर रही है. राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाने का दावा करने वाली उत्तराखंड सरकार ने केंद्र के साथ मिलकर वहां पर सैंकड़ों छोटी-बड़ी विद्युत परियोजनाएं शुरू की हैं. बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है. अगर सभी योजनाओं पर काम पूरा हो गया तो एक दिन जल स्रोतों के लिए मशहूर उत्तराखंड में नदियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे. इससे जो पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा उससे इंसान तो इंसान, पशु-पक्षियों के लिए भी अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा.

एक तरफ़ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है लेकिन उसकी मूल नदी भागीरथी अब पहाड़ी घाटियों में ही ख़त्म होती जा रही है. अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोड़ा आगे बढ़कर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह में देखना अब मुश्किल हो गया है. गंगोत्री के कुछ क़रीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व ख़त्म सा हो गया है. उस इलाक़े में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाक़ी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी. मनेरी-भाली परियोजना की वजह से भागीरथी को सुरंग में डालने से अब घाटी में नदी की जगह पर सिर्फ़ कंकड़ दिखाई देते हैं. यही हालत गंगा की दूसरी मुख्य सहायक नदी अलकनंदा की भी है. लामबगड़ में सुरंग में डाल देने की वजह से उसका भी पानी धरती की सतह पर नहीं दिखाई देता. नदी की जगह वहां भी पत्थर ही पत्थर दिखाई देते हैं. आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से अलकनंदा में कुछ पानी ज़रूर दिखाई देने लगता है.
ये हाल तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है. उत्तराखंड से निकलने वाली बाक़ी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. जिस वजह से धीरे-धीरे पहाड़ों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज़ से शुष्क होता जा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई क़रीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी. इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ़ नदी के निशान ही बचे रहेंगे. इससे उत्तराखंड की जैव विविधता पर क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. विकास के नाम पर कुदरत के साथ इस तरह का मज़ाक जारी रहा तो विकास चाहे जिसका हो नदियों से भौतिक और सांस्कृतिक तौर पर गहरे जुडे लोगों का जीना ज़रूर मुश्किल हो जाएगा. इन सभी चिंताओं को केंद्र में रखकर उत्तराखंड के विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया है. लेकिन हैरत की बात ये है कि पर्यावरण से हो रही इतनी बड़ी छेड़छाड़ को लेकर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है.

इस बात का अनुमान कोई भी साधारण बुद्धि का इंसान लगा सकता है कि अगर पहाड़ी नदियों को रोककर सुरंगों में डाला गया तो इससे नदी किनारे बसे गांवों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इस बात की शुरूआत हो भी चुकी है. जिन जगहों पर नदियों को सुरंगों में डाला जा चुका है. वहां लोगों के खेत और जंगल सूखने लगे हैं. पानी के नैसर्गिक स्रोत ग़ायब हो गए हैं. सुरंगों के ऊपर बसे गांवों में कई तरह की अस्वाभाविक भूगर्वीय हलचल दिखाई देने लगी हैं. कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं पर ज़मीन धंसने लगी है. चार सौ मेगावॉट की विष्णुप्रयाग विद्युत परियोजना की वजह से चांई गांव में मकान टूटने लगे हैं. भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर हैं.
जिन पहाड़ियों में सुरंग बन रही हैं. वहां बड़े पैमाने पर बारूदी विस्फोट किए जा रहे हैं. जिससे वहां भूस्खलन का ख़तरा बढ़ गया है. जोशीमठ जैसा ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व का नगर भी पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड़ की वजह से ख़तरे में आ गया है. उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावॉट की विष्णुगाड़-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है. डरे हुए जोशीमठ के लोग कई मर्तबा आंदोलन कर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर चुके हैं. लेकिन उनकी मांग सुनने के लिए सरकार के पास वक़्त नहीं है. कुमाऊं के बागेश्वर ज़िले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है. ग्रामीण इसके खिलाफ़ आंदोलन चला रहे हैं. ज़िले के मुनार से सलिंग के बीच का ये इलाक़ा उन्नीस सौ सत्तावन में भूकंप से बड़ी तबाही झेल चुका है. इसलिए यहां के ग्रामीण किसी भी हालत में सरयू नदी को सुरंग में नहीं डालने देना चाहते. यहां भी जनता के पास अपने विकास के रास्ते चुनने का अधिकार नहीं है.
उत्तराखंड में नदियों को सुरंग में डालने का विरोध कई तरह से देखने को मिल रहा है. एक तो इससे सीधे प्रभावित लोग और पर्यावरणविद् विरोध कर रहे हैं. दूसरा उत्तराखंड की नदियों को पवित्र और मिथकीय नदियां मानने वाले धार्मिक लोग भी विरोध में उतरे हैं. मसलन हरिद्वार में चल रहे महाकुंभ के दौरान साधुओं ने भी गंगा पर बांध बनाने का विरोध किया है. उनके मुताबिक़ गंगा पर बांध बनाना हिंदुओं की आस्था के ख़िलाफ़ है. इसलिए वे गंगा को अविरल बहने देने की वकालत कर रहे हैं. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने गंगा पर बांध बनाने की हालत में महाकुंभ का वहिष्कार करने और हरिद्वार छोड़कर चले जाने की धमकी दी. इस धमकी की वजह से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री निशंक को साधुओं से मिलना पड़ा. लेकिन बांध बनाने का काम शुरू कर चुकी सरकार किसी भी हालत में पीछे हटने को तैयार नहीं लगती. इसकी एक बड़ी वजह सरकार में निजी ठेकेदारों की गहरी बैठ है. अंदर खाने उत्तराखंड की भाजपा सरकार साधुओं को मनाने की पूरी कोशिश में जुटी है, क्योंकि साधु-संन्यासी उसका एक बड़ा आधार हैं. लेकिन अपने क़रीबी ठेकेदारों को उपकृत करने से वो किसी भी हालत में पीछे नहीं हटना चाहती. साधुओं की मांग पर सोचते हुए इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये मामला सिर्फ़ धार्मिक आस्था का नहीं बल्कि उससे कहीं ज़्यादा उत्तराखंड के लोगों के भौतिक अस्तित्व से जुड़ा है.

उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए क़रीब दस साल हो गए हैं. लेकिन आज भी वहां पर लोगों के पीने के पानी की समस्या हल नहीं हो पाई है. ये हाल तब है जब उत्तराखंड पानी के लिहाज़ से सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है. ठीक यही हाल बिजली का भी है. उत्तराखंड में बनने वाली बिजली राज्य से बाहर सस्ती दरों पर उद्योगपतियों को तो मिलती है लेकिन राज्य के ज़्यादातर गांवों में आज तक बिजली की रोशनी नहीं पहुंच पाई है. वहां एक पुरानी कहावत प्रचलित रही है कि पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी कभी उसके काम नहीं आता. उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे लोगों की अपेक्षा जुड़ी थी कि एक दिन उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार मिल पाएगा, विकास का नया मॉडल सामने आएगा और युवाओं का पलायन रुकेगा. लेकिन हक़ीक़त में इसका बिल्कुल उल्टा हो रहा है.
उत्तराखंड या मध्य हिमालय दुनिया के पहाड़ों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत नया और कच्चा पहाड़ है. इसलिए वहां हर साल बड़े पैमाने पर भूस्खलन होते रहते हैं. भूकंपीय क्षेत्र होने की वजह से भूकंप का ख़तरा भी हमेशा बना रहता है. ऐसे में विकास योजनाओं को आगे बढ़ाते हुए इन बातों की अनदेखी जारी रही तो वहां पर आने वाले दिन तबाही के हो सकते हैं, जिसकी सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हमारी सरकारें होंगी. हैरत की बात है कि उत्तराखंड जैसे छोटे भूगोल में पांच सौ अठावन छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. इन सभी पर काम शुरू होने पर वहां के लोग कहां जाएंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं है. उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पर्यावरण के खिलवाड़ के ख़िलाफ़ आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है. चाहे वो चिपको आंदोलन हो या टिहरी बांध विरोधी आंदोलन. लेकिन राज्य और केंद्र सरकारें इस हिमालयी राज्य की पारिस्थिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही है. सरकारी ज़िद की वजह से टिहरी में बड़ा बांध बनकर तैयार हो गया है. लेकिन आज तक वहां के विस्थापितों का पुनर्वास ठीक से नहीं हो पाया है. जिन लोगों की सरकार और प्रशासन में कुछ पहुंच थी वे तो कई तरह से फ़ायदे उठा चुके हैं लेकिन बड़ी संख्या में ग्रामीणों और ग़रीबों को उचित मुआवजा़ नहीं मिल पाया है. ये भी नहीं भूला जा सकता कि इस बांध ने टिहरी जैसे एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को भी डुबाया है. यहां के कई विस्थापितों को तराई की गर्मी और समतल ज़मीन पर विस्थापित किया गया. पहाड़ी लोगों को इस तरह उनकी इच्छा के विपरीत एक बिल्कुल ही विपरीत आबो-हवा में भेज देना कहां तक जायज था इस पर विचार करने की ज़रूरत कभी हमारी सरकारों ने नहीं समझी. सरकारों ने जितने बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन के दावे किए थे वे सब खोखने साबित हुए हैं. वहां सिर्फ़ एक हज़ार मेगावॉट ही बिजली पैदा हो पा रही है. जबिक योजना दो हज़ार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की थी. सबसे बड़ी बात कि इससे राज्य के लोगों की ज़रूरत पूरा करने के लिए राज्य सरकार के पास अधिकार भी नहीं हैं.

दुनियाभर के भूगर्ववैज्ञानिक इस को कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज़्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज़्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं. लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं. कुछ वक़्त पहले हिमालयी राज्यों के कुछ सांसदों ने मिलकर लोकसभा में एक अलग हिमालयी नीति बनाने को लेकर आवाज़ उठाई थी लेकिन उसका भी कोई असर कहीं दिखाई नहीं देता. हिमालय के लिए विकास की अलग नीति की वकालत करने वालों में से एक महत्वपूर्ण सांसद प्रदीप टम्टा उत्तराखंड के अल्मोडा-पिथौरागढ़ सीट से चुने गए हैं. कांग्रेस के नेता बनने से पहले वे चिपको और उत्तराखंड के जनआंदोलनों से जुड़े रहे, लेकिन अब वे भी अपने पार्टी हितों को तरजीह देते हुए राज्य में पर्यावरण से हो रहे खिलवाड़ के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल पा रहे हैं.
आज पहाड़ी इलाकों में विकास के लिए एक ठोस वैकल्पिक नीति की ज़रूरत है. जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो. ऐसा करते हुए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक और भूगर्वीय स्थितियों का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है. इस बात के लिए जब तक हमारी सरकारों पर चौतरफ़ा दबाव नहीं पड़ेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खड़ा कर विकास का भ्रम खड़ा करती रहेंगी. लेकिन एक दिन इस सब की क़ीमत आने वाली पीढ़ियों को ज़रूर चुकानी होगी. आज उत्तराखंड में अनगिनत बांध ही नहीं बन रहे हैं बल्कि कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीक़े से खड़िया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है. इसका सबसे ज़्यादा बुरा असर अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ ज़िलों में पड़ा है. इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ़ रहे हैं. नैनीताल में भी बड़े पैमाने पर जंगलों को काटकर देशभर के अमीर लोग अपनी ऐशगाह बना रहे हैं. अपने रसूख का इस्तेमाल कर वे सरकार को पहले से ही अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं. पर्यारण से हो रही इस छेड़छाड़ की वजह से ग्लोबल वार्मिंग का असर उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहा है. वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीक़े से घट-बढ़ रहा है. ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं. इस सिलसिले में पिछले दिनों राजेंद्र पचौरी की संस्था टेरी और पर्यावरण मंत्रालय के बीच हुआ विवाद का़फी चर्चा में रहा. वे इस बात पर उलझे रहे कि हिमालयी ग्लेशियर कब तक पिघल जाएंगे. लेकिन इसकी तारीख़ या साल जो भी हो इतना तय है कि सुरक्षा के उपाय नहीं किए गए तो भविष्य में ग्लेशियर ज़रूर लापता हो जाएंगे. तब उत्तर भारत की खेती के लिए बरदान माने जाने वाली नदियों का नामो-निशान भी ग़ायब हो सकता है. तब सरकारें जलवायु परिवर्तन पर घड़ियाली आंसू बहाती रहेगी.

टिहरी बांध का दंश राज्य के ग़रीब लोग पहले ही देख चुके हैं. अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है. ये बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा. ये योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली हैं. इससे छह हज़ार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है. इसमें भी बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ़ जमीन बांध में समा जानी है. इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गया है. सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में सिर्फ़ बांध ही बांध नज़र आएंगे. नदियां सुरंगों में चली जाएंगी. जो इलाक़े बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा. इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे. तब पहाड़ों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे.

http://nainitaali.blogspot.com/2010/04/blog-post_22.html

Devbhoomi,Uttarakhand

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                     जहाँ से होता है गंगा का उद्गम ,वहीँ की गागर हैं खाली

जिस गंगा की गोद से अभी-अभी करोडों लोग अपने पाप धोकर निकले हैं वहां आज भी प्यास पसरी है; गंगा की जन्मस्थली गंगोत्री गलेश्यिर के ठीक नीचे कई गांव में लोग पानी खरीद कर पी रहे हैं; उखीमठ जैसे कई क्षेत्र हैं जहां लोगों को जलाभिषेक तक के लिए पानी नहीं मिल रहा है; पानी के लिए दर-दर भटक रहे लोग आए दिन जलसंस्थान और जलनिगम से गुहार लगा रहे हैं;

 उत्तराखंड के पुरूष पानी के लिए धरने-प्रदर्शन और गांधीगिरी तक कर रहे हैं; महिलाएं और छोटे-छोटे बच्चे दिन भर पानी ढो रहे हैं; यही हालात कुमाउं के डीडीहाट, गंगोलीहाट, चंपावत और पिथौरागढ के है; यह स्थिति तब है जब दिल्ली में बैठे केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री मिनरल वाटर पीने के बाद देश की 86 प्रतिशत आबादी को शुद्ध पानी उपलब्ध करा देने का दावा कर रहे हैं;
राज्य में लगातार गहरा रहे जल संकट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 30 जून तक जलसंस्थान और जलनिगम के सभी अधिकारियों और कर्मचारियों की छुट्टियां निरस्त कर दी गई हैं;

 हालांकि अब तक सरकार गरमियों में होने वाले पेजजल संकट की राह तक रही थी; इसी का परिणाम है कि अभी तक इस समस्या से निपटने के लिए हुए इंतजाम सिफर हें; कुमाउं और गढवाल की अधिकांश पेयजल योजनाएं प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर हैं; प्राकृतिक जलस्रोत वनों के अंधाधुंध दोहन के कारण जवाब दे चुके हैं; सबसे अधिक नुकसान चौडी पत्ति वाले पेड काटने के कारण हुआ; जिससे जमीन के भीतर पानी संग्रहित नहीं हो पा रहा है; जिसका परिणाम गरमियों में यह समस्या और विकराल होकर उभर रही है;

आंकड बताते हैं कि 13 जिलों वाले इस राज्य में पौडी, टिहरी, चमोली, बागेश्वर, पिथौराढ, अल्मोडा, रूद्रप्रयाग और चंपावत में करीब 5 लाख की आबादी को पानी के लिए गरमियों में ही नहीं सर्दियों में भी कडी मशक्कत करनी पडती है; आबादी का एक बडा हिस्सा तीन से सात किमी दूर से पानी ढोने के लिए मजबूर है; पहाड में स्थिति और भी भयावह है; पिथौरागढ में गंगोलीहाट तहसील की बेलपट्टी से लेकर चकराता के उदावा गांव तक लोग गंदा पानी पीने के लिए मजबूर हैं; इन गांवों में डायरिया कई बार लोगों को मौत की नींद सुला चुका है लेकिन प्रशासन की नींद अभी तक नहीं टूटी;

अपनों पर सितम तो शासन-प्रशासन की आदत है; अब बारी है देवभूमि में तिर्थ को आने वालों की; चारधाम और कैलास मानसरोवर जैसी महत्वपूर्ण तिर्थयात्राएं हमारे सामने हैं; लेकिन तैयारी के नाम पर आश्वासन और दावो के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा है; यात्रामार्ग पर लगी पानी की टंकियां सूखी पडी है; इनमें पानी आए भी तो कहां से; गढवाल मंडल में लगे करीब 4000 हैंडपंपों में से अधिकांश ने हाथ खडे कर दिए हैं; कुछ हैंडपंप पानी के साथ बीमारी भी उडेल रहे हैं;

Devbhoomi,Uttarakhand

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हमारी इस देवभूमि में क्या-क्या हो रहा है और क्या क्या घटनाएं हो,और  परेशानी हो रही हैं उत्तराखंड के पहाड़ी गाँवों में,इन सभी परेशानी का जिम्मेदार कौन हैं? इसका ज्म्मेंदार हम लोग ही हैं! जो की यहाँ रहते हैं और  उत्तराखंड में केवल पानी की ही नहीं बल्कि बहुत सारी परेशानियां है ,जैसे उत्तराखंड के पहाड़ों में रहने वाले लोगों को पानी,बिजली ,और सड़क सभी की जरूरत है,हम इन आव्स्य्कताओं के लिए धरना देते हैं!

 और रैलियां निकालते हैं! लेकिन सायद हमें ये पता नहीं है कि ये तीनों अवास्कतायें कभी भी एक साथ पूरी नहीं हो सकती हैं क्यों कि ७० और ८० में जब मेरे गाँव में जब बिजली और सड़क नहीं थी तो वहां कभी पानी कि कोई कमी नहीं हुई ,चाहे कितनी भी कड़ाके कि गर्मी पड़ी हो लेकिन वहां का पानी कभी नहीं सूखा,लेकिन जब धीरे-धीरे वहां बिजली और सड़क का निर्माण होने शुरू हुवा तो वैसे वहां के पानी के धारे गाड-गधेरे सब सूखने शुरू हो गए हैं आजा आप वहां जायेंगे तो आपको पानी तो क्या पता भी नहीं चलता है हैं कभी ४५% की गर्मी में  भी पानी रहता होगा !

 धीरे-धीरे जैसा इन्वार्मेंट बदल रहा है वैसे -वैसे प्रकीर्ति की स्रोत भी गायब होते जा रहे हैं और लोगों को आज पानी की परेशानियों से झूझना पद रहा है एक तरफ तो हम कहतें हैं की हमारे गाँव में सडक और बिजली चाहिए ,और दूसरी तरफ हम लोग पानी के लिए तडपते हैं ! मुझे लगता है की सायद ही इन तीनों समस्याओं का हल एक साथ नहीं हो सकता है क्योंकि अगर किसी जगह पर बार्मासी है और वहां सडक नहीं तो जैसे ही वहां सडक पहुंचेगी तो वहां का पानी गायब हो जायेगा ,क्योंकि सड़कों को बनाने के लिए पहाड़ों की और पेड़ों दोनों की कटाई करनी पड़ती हैं और अगर पहाड़ और पैड दोनों काटे जांएगे तो पानी अप्निआप ही गायब हो जाएगा !

 मैंने उत्तराखंड के कई गावों आज भी देखा है जहाँ की आज भी पानी के धारे है लेकिन वहाँ सड़क और बिजली नहीं है और वहाँ आज तक कभी पानी की कमी नहीं हुई है लेकिन वहां कमी हैं तो सिर्फ बिजली और सड़क की ,जैसे वहां सडक का निर्माण होगा वैसे वहां का पानी गायब हो जायेगा ! मुझे तो लगता नहीं कि उत्तराखंड में सायद ही ऐसी कोई जगह या गाँव होगा जहाँ कि ये तीनों ,बिजली पानी और सड़क कि सम्स्यान्यें न हो !


 और ये तीनों समस्याओं का हल कभी भी एक साथ नहीं हो सकता है,अगर हमारे गान में बिजली और सडक है तो वहां का पानी सूख जाता है और उत्तराखंड में पानी के स्रोतों को खत्म करने वाला कौन है ?वो हैं हम लोग यानी जनता ,हम लोग ही जंगलों को काटकर,प्रकीर्ति के स्रोतों का विनास करते हैं कभी कोई जगलों में आग लगा देते हैं ! उत्तराखंड में पानी बिजली और सडक ये तीनों एक दुसरे के विनाशकारी हैं ,अगर ओप्को उत्तराखंड के पहाड़ों में बिजली पहुंचानी हो तो आपको वहां के पेड़ों को काटना पड़ेगा और इस्नके साथ-साथ जमीन कि खुदाई भी करनी पड़ेगी ,तभी हमारे गाँव में बिजली पहुच सकती है !

 और सडक चाहिए तो पहाड़ों और पेड़ों कि कटाई करनी पड़ेगी और उत्तराखंड में पानी के स्रोत ही पहाड़ और पेड हैं ,उत्तराखंड की सरकार भी इतनी भी जारुक नहीं हैं की वो हरगांव में या सहर में पानी के नल या हैण्ड पम्प लावाए ,आज तक उत्तराखंड में जितने भी पानी के हैण्ड पम्प लगे हैं ,उनमें से सायद ही १०० में से ५ हैण्ड पम्पों पर पानी आता है !

 अगर हमें उत्तराखंड में पानी समस्याओं का समाधान हम सबको एक साथ मिलकर लोगों को जागरूक करना होगा ,उत्तराखंड जलनिगम तो बहुत बड़ा चोर है ये कोग तो सरकारी नलों को या तो बेच देते हैं और नकली नलों को प्रयोग करते हैं जो कि एक साल के अन्दर कि साद जाते हैं और एक साल के अन्दर ही नल का पानी भी गायब हो जाता है !

Devbhoomi,Uttarakhand

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UTTARAKHAND KE EK HI JILE KE SAAT GANVON MAIN TADAP RAHE LOG PAANI KI EK -EK BOOND KE LIYE

              सिंगाली क्षेत्र के सात गांवों में गंभीर पेयजल संकट
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सिंगाली क्षेत्र के विभिन्न गांवों में गंभीर पेयजल संकट बना हुआ है। सूचना के बावजूद जल संस्थान द्वारा कोई सुध नहीं लिये जाने से क्षेत्रवासियों में रोष व्याप्त है। क्षेत्रवासियों ने दो दिन के भीतर योजनाओं में जलापूर्ति सुचारु नहीं किये जाने पर ओगला में चक्काजाम करने की चेतावनी दी है।

सिंगाली क्षेत्र पिछले एक माह से गंभीर पेयजल संकट से जूझ रहा है। योजनाओं में पानी नहीं आने से तल्लाओझा, मल्ला ओझा गांव, गनाई, सूनाकोट, बसाड़ी, उड़मा और जेठी गांव के लोग गधेरों से पानी जुटा रहे हैं।

 सूनाकोट के ग्राम प्रधान उमेश भट्ट ने बताया कि जल संकट की सूचना एक माह पूर्व विभाग को दी गयी थी। बावजूद इसके विभाग द्वारा सुध नहीं ली जा रही है। योजनाओं में पानी नहीं आ रहा है जबकि विभाग द्वारा यहां स्थापित किये गये हैंडपंपों से गंदा पानी निकल रहा है। इस पानी को मवेशी भी नहीं पी रहे हैं।

 इससे पशुपालकों के समक्ष बड़ी परेशानी खड़ी हो गयी है। उन्होंने कहा है कि दो दिन के भीतर यदि विभाग द्वारा पेयजल आपूर्ति सुचारु नहीं की गयी तो इसके खिलाफ ओगला में राष्ट्रीय राजमार्ग को जाम कर दिया जायेगा।


SOURCE DAINIK JAGRAN

पंकज सिंह महर

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हवा बुझाएगी पानी की प्यास
शालिनी जोशी
देहरादून से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए

खास मशीनें वातावरण में मौजूद आर्द्रता यानी नमी को खींचकर पानी में बदल देंगी.
 

हवा से पीने का पानी पैदा किया जाएगा. सुनने में ये भले ही अजीब लगे लेकिन उत्तराखंड में ये अनूठा प्रयोग किया जा रहा है.

पेयजल की समस्या से निपटने के लिए प्रदेश में ऐटमॉसफेयरिक वॉटर जेनेरेटर की खास मशीनें लगाई जा रही हैं जो वातावरण में मौजूद आर्द्रता यानी नमी को खींचकर पानी में बदल देंगी.

अमरीकी तकनीक से बनी ये मशीन एक बड़े कूलर की तरह है और इसमें पानी वैसे ही आता हुआ दिखता है जैसे कि दूध के सार्वजनिक बूथ से.

ये प्रयोग उन जगहों में कामयाब होगा जहां वायुमंडल में आर्द्रता की मात्रा 40 से 70 प्रतिशत होगी. प्रतिदिन इससे 500 से 1000 लीटर पेयजल की आपूर्ति हो पाएगी.

उत्तराखंड का पेयजल विभाग फिलहाल प्रदेश के आठ जगहों में पायलट प्रोजक्ट के तौर पर इस प्रयोग को शुरू कर रहा है.

प्रदेश के पेयजल मंत्री प्रकाश पंत कहते हैं, "हमारे यहां ऊँचाई में बसे इलाकों में पानी की काफ़ी किल्लत है, खासतौर पर गर्मियों में. वहाँ ये प्रयोग आसान और टिकाऊ साबित हो सकता है जहां पाइप लगाकर पानी पंहुचाना काफी मुश्किल और मंहगा है."

वातावरण पर असर

इस प्रयोग को लागू करने के पहले वायुमंडल पर इसके संभावित प्रभावों का समुचित अध्ययन होना चाहिए. जब आप वायुमंडल से नमी निकालेंगे तो हवा का संतुलन बदलेगा. दूसरे जलवाष्प भी एक ग्रीनहाउस गैस है और उसके रेडियेशन में भी क्या बदलाव आएगा ये भी देखना होगा

आनंद शर्मा, मौसम विभाग निदेशक, उत्तराखंड
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक सरकार का दायित्व है कि वो हर नागरिक को प्रतिदिन तीन लीटर पीने योग्य शुद्ध पानी उपलब्ध कराए.

प्रदेश के जल संस्थान में इस परियोजना के निदेशक पीसी किमोठी का दावा है कि ये प्रयोग उस लक्ष्य को हासिल करने में मददगार होगा.

वे कहते हैं, “हमने जांच कराई है और पहाड़ में अधिकांश जगहों पर इसके लिए आदर्श आर्द्रता मौजूद है .हवा से बनने वाले इस पानी की गुणवत्ता भी मानकों के अनुरूप है और बाज़ार में बिकनेवाले बोतलबंद पानी के समान है.”

लेकिन मौसम विशेषज्ञ इस बात को लेकर आशंकित हैं कि तत्काल राहत देनेवाली ये तकनीक जलवायु तंत्र को बिगाड़ न दे.

उत्तराखंड के मौसम विभाग के निदेशक आनंद शर्मा का कहना है,,“इस प्रयोग को लागू करने के पहले वायुमंडल पर इसके संभावित प्रभावों का समुचित अध्ययन होना चाहिए. जब आप वायुमंडल से नमी निकालेंगे तो हवा का संतुलन बदलेगा. दूसरे जलवाष्प भी एक ग्रीनहाउस गैस है और उसके रेडियेशन में भी क्या बदलाव आएगा ये भी देखना होगा.”

पायलट प्रोजेक्ट

हिमालय के पर्यावरण पर काम कर रहे ग़ैर सरकारी संगठन हेस्को के निदेशक डॉ अनिल जोशी की राय है कि विदेशी तकनीक को आयात करने से बेहतर है कि जल प्रबंधन के स्थानीय और परंपरागत तरीकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

वे कहते हैं, “इस तरह के प्रयोग स्थाई विकल्प नहीं हो सकते. फिर जिस तरह की व्यवस्था में हम काम करते हैं इसकी निगरानी बहुत ज़रूरी होगी कि ये जेनरेटर कहां लगाए जा रहे हैं .पहाड़ का पर्यावरण बहुत संवेदनशील है. नमी मिट्टी और खेती के लिए भी ज़रूरी है और इससे कोई खिलवाड़ नहीं होना चाहिए.”

सरकार का आश्वासन है कि पर्यावरण के प्रति सतर्कता बरती जाएगी और यदि कोई असंतुलन पाया जाएगा तो पुनर्विचार का विकल्प खुला है.

फिलहाल इस परियोजना का ज़ोर-शोर से प्रचार चल रहा है. पिथौरागढ़ औऱ नैनीताल सहित आठ जगहों में पायलट प्रोजक्ट के तौर पर इसे लागू किया जा रहा है और दावा है कि एक महीने के भीतर लोगों को इस तरह से पानी मिलने लगेगा. बहरहाल पानी की कमी से जूझ रहे पहाड़ में लोगों को इसका इंतज़ार है.

साभार- बी०बी०सी०

राजेश जोशी/rajesh.joshee

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हर बात के लिए सरकार को दोष देना और उसका मुंह ताकना यह हमारी नियति बन गयी है सरकार भी तो आखिर हम ही चुनते है। समस्या है संसाधनों के उचित दोहन की अब पहाड़ी की चोटी पर सरकार कहां से पानी पहुंचायेगी जब एक स्वस्थ व्यक्ति भी वहां बड़ी मशक्कत से पहुंचता है।  फ़िर पहुंचाये भी कहां से कही दूसरी जगह भी तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ढ हो।  इसलीए जल संरक्षण के उपायों पर ध्यान देना होगा जहां पर जल उपलब्ध है वहां पर उसके दुर्पयोग के लिए भी लोगों को सचेत करना होगा।  वायु की नमी से जल प्राप्त करने का आईडिया बहुत ऊचे दुरस्थ गांवो के लिए अच्छा तो है पर पर्यावरण पर भी ध्यान देना होगा आखिर कितने दिन वहां भी हवा में नमी बनी रह पायेगी?  हैण्डपम्प पहाड़ों को पहले ही खोखला कर रहे हैं।  जहां हैण्ड पम्प लगे हैं वहां पहाड़ों में एक-दो साल के बाद ही बरसात के अलावा उनमें पानी कभी नही आता, क्योंकि जो पानी निकल गया उसकी भरपाई नही हो पाती है।  जल संरक्षण के प्राचीन पारंपरिक तरीकों के जानकारी प्राप्त कर उनको कार्यान्वित करना बहुत जरूरी हो गया है।

हेम पन्त

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पानी पैदा करने के यह अपारंपरिक तरीके बिना जांचे-परखे इस्तेमाल में लाये गये तो इनका भी यही हाल होगा जैसा पहाड़ों में रोड के किनारे खोदे गये सैकड़ों हैण्डपम्पों का हो रहा है. कांग्रेस सरकार के जमाने में करोड़ों रुपये खर्च करके जगह-जगह खुदे इस पम्पों के बारे में यह प्रसारित किया गया था कि इनकी खुदाई की जगह ’सैटेलाइट’ से पानी ढूंढ कर निश्चित हुई है.. लेकिन जैसा कि जोशी जी ने कहा इनमें से अब शायद 20% हैण्डपम्प ही साल भर पानी दे पाते हैं.

"ऐसे अनूठे तजूर्बों से राम बचाये"

 

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