Author Topic: Water Land Forest Right In Uttarakhand- उत्तराखण्ड में जल, जंगल, जमीन का आधिकार  (Read 6301 times)

पंकज सिंह महर

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साथियों,
उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के सपने के पीछे आम आदमी के जल, जंगल और जमीन पर अधिकार की मांग भी थी। केन्द्र सरकार के अव्यवहारिक और तत्कालीन प्रदेश सरकार की उदासीनता ने आम आदमी को इस मूल अधिकार से वंचित कर दिया। १९८० के वन अधिनियम के लागू होने के बाद जनता इन तीनों से दूर होती चली गई। जबकि वन अधिनियम बनाने की मूल अवधारणा को हमारे ही प्रदेश के चिपको आन्दोलन से ही प्रेरणा मिली थी। लेकिन इस अधिनियम के बाद केन्द्रीय सरकारों की मनमानी से आज हमारे विकास कार्य बाधित हो रहे हैं। हमारे हक-हकूक छीने जा रहे हैं। इस विषय पर आप सभी के विचार आमंत्रित हैं।

पंकज सिंह महर

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जैसा कि सभी जानते हैं कि उत्तराखण्ड का ६७ प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित है। शेष भूमि पर नदियां, बस्तियां, कुछेक शहर और खेती-किसानी है। हमारे राज्य का कुछ क्षेत्रफल 53,483  वर्ग कि०मी० है, जिसमें 35,651वर्ग कि०मी० वन क्षेत्र है, अर्थात हमारे पास रहने, जीने और खाने के लिये मात्र 17,832 वर्ग किमी० क्षेत्र ही बचता है, जिसमें एक बड़ा भाग नदियों और उसके खादर का भी है। उत्तराखण्ड की आजीविका का स्रोत मूलतः जल, जंगल और जमीन ही था, लेकिन अधिनियमों, रिजर्व पार्कों, बायोस्फियरों के नाम पर आज उत्तराखण्ड के अधिकतम हिस्से और पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र इस कारण से त्रस्त है। इन कड़े और अव्यवहारिक कानूनों के कारण आज आम आदमी पलायन को मजबूर है, खेती करने के लिये, खेती के उपकरणों के लिये, वनोपजों के दोहन के लिये उत्तराखण्ड का पर्वतीय भाग हमेशा से ही वनों पर आश्रित रहा था। लेकिन इस कड़े और अव्यवहारिक कानूनों की आड़ में की जा रही तानाशाही और मनमर्जी के कारण आज आदमी वनों से दूर होता जा रहा है। सरकारों को यह भी समझना चाहिये कि जब तक जंगल और मानव में पारस्परिकता थी, तब दोनों एक-दूसरे का ध्यान रखते थे, उन दोनों में एक सामंजस्य था। जब आदमी को जंगल से दूर कर दिया गया तो वह भी उससे अब खिंच सा रहा है। इसका दुष्परिणाम हमारे सामने है कि आग लगने पर आम आदमी की अब कोई रुचि नहीं रही। आज चीड़ जैसे पेड़ के जंगल ही बढ़ रहे हैं, मिश्रित वन खत्म हो रहे हैं। अगर हम गहराई में जायेंगे तो पायेंगे कि उत्तराखण्ड के वनों में कई प्रजातियां अब खत्म होने की कगार पर होंगी।

पंकज सिंह महर

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चिपको आन्दोलन के कारण ही सरकारें चेतीं, जब विकास के नाम पर सरकारों ने वनों का अंधाधुंध दोहन करना शुरु किया तो सबसे पहले उत्तराखण्ड की जनता ने ही नारा दिया कि "जागिग्यां हम, बिजिग्यां हम, अब नि चललि चोरों कि, घोर अपणा, बन अपणा, अब नि चललि औरों कि"  "माटु हमरु, पाणि हमरु, हमरा ही छिन यो बौन बि, पितरों ने लगायूं बन, हमु ने त बचूंण बि"
पहाड़ के वनों और पानी का जब सरकारों ने दोहन शुरु किया और इसकी आड़ में ठेकेदारों ने स्वार्थ प्राप्ति शुरु की तो गौर्दा ने "वृक्षन को विलाप" कविता लिखकर लोगों को जागृत किया इसी की बानगी है कि गिर्दा ने जनगीत लिखा आज हिमाला तुमन कें धत्यूंछौ, जागो-जागो हे मेरा लाल, नि करण दियौ हमरि नीलामि, नि करण दियों हमरो हलाल
पहले तो यह कहा जाता था और सोचा भी जाता था कि १७ विधानसभा सीटों वाले उत्तराखण्ड की उ०प्र० सरकार उपेक्षा करती है और केन्द्र के सामने पैरवी नहीं करती है। लेकिन आज राज्य बन जाने के १० साल बाद हम कहां पर हैं, यह एक यक्ष प्रश्न है। केन्द्र सरकार एक गजट नोटिफिकेशन कर हमारे हक-हकूक खत्म कर देती है, रिजर्व पार्कों और बायोस्फियरों के नाम पर पूरा उत्तराखण्ड रिजर्व कर दिया गया है। सरकारों को पर्यावरण संरक्षण की चिन्ता तो जरुर सालती है, लेकिन उत्तराखण्ड की जनता जो पाषाण काल से ही यहां का हिस्सा रही है, उसके संरक्षण और उसके अधिकारों की उसे कोई चिन्ता ही नहीं है। उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़, चकराता, रामनगर, कालागढ़ आदि क्षेत्रों में इन अव्यवहारिक कानूनों के कारण आज हम एक बिजली का पोल नहीं लगा सकते।
सरकारों को यह भी बताना जरुरी है कि पहाड़ के लोगों ने इतने कठिन भू-भाग, जो अधिकांशतः बर्फ से ढंका रहता था, जो जमीन पथरीली थी, वहां पर अपने परिवार के खाने भर की खेती की जमीन रखकर बाकी हिस्से पर जंगल लगा दिया था। अपने कठोर परिश्रम से उन्होंने इन जंगलों की नींव रखी, इन जंगलों को अपने बच्चों की तरह पाला-पोसा और हमारे कई पीढियों ने इन जंगलों को अपना हिस्सा समझकर इसकी देखभाल की। आज अचानक एक कानून आया और उसने हमारे सदियों के रिश्ते में एक दीवार खड़ी कर दी और एक पतरौल इसकी निगरानी के लिये बिठा दिया।
केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय को यह भी जानना जरुरी है कि जिस जंगल पर मानवीय हस्तक्षेप घटाने के लिये वे धारा १४४ लगाने की बात कर रहे हैं, असल में वह जंगल उत्तराखण्डियों की एक पीढी ने लगाया था और हमारी कई पीढियों ने उसकी देखभाल की। इसके लिये न तो सरकारों में उन्हें कोई प्रोत्साहन दिया था, न किसी एन०जी०ओ० ने फंडिंग।

पंकज सिंह महर

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यह फोटो कोई जयराम रमेश जी तक भी पहुंचाये, ताकि उन्हें भी पता चले कि पहाड़ में आखिर वस्तु स्थिति क्या है। ए०सी० कमरों में नीति बनाने से पहले इन पहलुओं पर भी माननीय जी गौर फरमायें। रोटी नहीं है तो केक खाओ वाली नीति पर चलकर अंन्धे कानून आम जनता पर न थोपे। उन्हें यह भी बताया जाय कि इन जंगलों को हमारे पुरखों ने ही लगाया था और हमारी कई पीढियों ने इन्हें पाला-पोसा है। हमने अपने लिये उतनी ही जगह रखी, जितने की हमें जरुरत थी। १९८० से पहले तक तो सरकार हमारे पुरखों के लगाये जंगल काटने पर तुली थी। जंगल बचाने का नारा भी हमी ने दिया। आज पर्यावरण मंत्रालय हमें पर्यावरण का पाठ सिखलाता है। जब कि यह हमारी संस्कृति में रचा-बसा है। सालों पुराने ये जंगल लगाने के लिये हमारे पुरखों को न तो किसी सरकार ने प्रोत्साहित किया था, न किसी एन०जी०ओ ने फंडिंग।
 हमारे पुरखे चाहते तो अपने आवागमन के लिये चौड़े रास्ते भी बना सकते थे, लेकिन उन्होंने रास्ते को उतनी ही जगह दी, जिसमें आदमी और ढोर-डंगर चल सकें और बेटी की डोली और गांव वालों की अर्थी आराम से जा सके।

पंकज सिंह महर

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हमारा सरकारों से सिर्फ यह कहना है कि नीति निर्धारण करते समय आम आदमी के हक-हकूकों का भी ध्यान रखा जाय। जो आदमी जिस चीज पर सदियों से निर्भर रहा है, उससे आप कैसे अलग कर सकते हैं और वह भी बिना उसकी दीर्घकालिक क्षतिपूर्ति किये? आदमी को खेती करनी है तो हल चाहिये, नश्यूड़ चाहिये, जुआ चाहिये, बैलों के लिये चारा चाहिये, जिसके लिये वह सदियों से जंगल पर ही निर्भर है। लेकिन आज आपका कानून उससे उसे मरहूम कर देता है, अब वह कहां जांय। मेरे ख्याल से केन्द्र सरकार को तो यह भी नहीं मालूम होगा कि हम का निर्माण कैसे और किसकी लकड़ी से किया जाता है, जंगल में अगर आदमी को प्रतिबंधित किया गया है तो क्या बाजार में उपभोग्य वस्तु की उपलब्धता है, अगर उपलब्धता भी है तो क्या वहां के लोग उसे अफोर्ड कर सकते हैं?

आज हमारी स्थिति यह हो गई है कि माटु बिचिगे, पाणि बिचिगे, बिचिग्या हमारु बन बि, हाथ खाल्लि, पेट खाल्लि, ठिकानु नि कखि रूंण कि

ऐसी स्थिति का दुष्परिणाम यह हुआ कि आम आदमी खेती से जंगल से विमुख हुआ और पलायन करने के लिये मजबूर हुआ। आज जन हम हिमालय को बचाने की बात करते हैं तो यह बात हम नहीं समझ पाते कि हिमालय सेमिनारों से नहीं बचता, हिमालय को वही बचा सकता है, जो हिमालय को जानता है, समझता है। जिसे यह मालूम हो कि यहां पर कौन सा पेड़ लगेगा और कौन सा जंगल। जिस आदमी को यह मालूम हो कि इस जंगल को लगाने से पानी बढ़ेगा, नमी बढ़ेगी, वही हिमालय को बचा सकता है। हिमालय को बचाने के लिये हिमालय को बसाना जरुरी है, जब हिमालय बसेगा, तभी हिमालय बच सकता है। इसके लिये यह जरुरी है कि आम आदमी को उसके हम-हकूक दिये जांय और उसे हिमालय में रहने के लिये प्रेरित किया जाय।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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These three issues are big issues for Uttarakhand. The way natural sources of water are draying, Land Mafis are fully active in pahad and issue of forest.

Uttarakhand has been struggling for existence of these issues since long. Now the time has come that we must aggregate our strength and fight for the same.

Without these three things, the existence of the state is at stake. If we find the reasons, somewhere people from our state are also responsible for this plight now. If timely actions are not taken, the consequences will be more dire in future.

पंकज सिंह महर

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जहां तक आज की परिस्थिति में हम जमीन को देखें तो उत्तराखण्ड में पर्वतीय क्षेत्रों में जमीनें रिजोर्ट, स्पा सेंटर, आश्रम, धर्मशालाओं और ध्यान-योग केन्द्रों ने नाम पर निरन्तर खुर्द-बुर्द की जा रही है। जिस जमीन को हमारे पुरखों ने अपने श्रम से खेती के लायक बनाया आज वहां पर इन कानूनों के कारण लोग खेती से विमुख हुये और इस कारण उनके सामने आजीविका का संकट आ खड़ा हुआ। उसका तात्कालिक समाधान उन्होंने जमीन बेचने में दिखा और इस अज्ञानता के कारण कल तक वे जिस जमीन के मालिक थे, आज उसी जमीन में बने रिजोर्टों के वह चौकीदार बनकर रह गये है। रामगढ़, कौसानी, भीमताल, मुक्तेश्वर, चम्बा, टिहरी.....उत्तराखण्ड के हर हिस्से में भू-माफिया का कब्जा है और इन पूंजीपतियों और पहुंचपतियों के लिये कोई कानून नहीं है, वे पहाड़ में जंगलों को साफ कर अपना उद्योग बढ़ाते जा रहे है। हमारा अनुरोध है उत्तराखण्ड सरकार से की वह उत्तराखण्ड के लोगों को परम्परागत खेती के लिये, बागवानी के लिये प्रेरित करे। हमारा पड़ोसी हिमाचल प्रदेश इसका एक माडल है, वैसे भी उत्तराखण्ड में कृषि और उद्यान विभाग दोनों ही काम कर रहे हैं, उनके द्वारा लोगों को जागरुक और प्रोत्साहित किया जा सकता है।

उत्तराखण्ड में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के दो संस्थान है, एक तो विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान है और दूसरा पंतनगर वि०वि०। यह इस दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते है, वैसे भी उत्तराखण्ड की खेती मुख्यतः जलवायु आधारित है। तो इस सन्दर्भ में दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ हम काम करें तो निश्चित रुप से सुख्द परिणाम सामने आयेंगे।

पंकज सिंह महर

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खेती योग्य पर्वतीय क्षेत्र की जमीनों पर पता नहीं कहां-कहां के लीजधारी आकर बस गये हैं, जो मिनरल्स, खास तौर पर खड़िया खनन कर रहे हैं। उनका खनन का तरीका नितान्त अवैज्ञानिक है। यह सही है कि खड़िया का खनन होना चाहिये, लेकिन कमजोर पहाड़ी क्षेत्रों में मानव श्रम से ही उसे निकाला जाना चाहिये, विस्फोटों, जे०सी०बी० से नहीं। खनन के बाद खुदे गढ़्ढों को भर कर, समतल बनाकर उसमें खेती की जानी चाहिये। लेकिन होता यह है कि गढ़्ढ़े वैसे ही पड़े रहते हैं, जो बाद में भूस्खलन का कारण बनते हैं।

सरकार को यह नियम बनाना चाहिये कि जिस भी गांव से खनन किया जाये, उसी गांव के लोगों का उसमें हक हो, या लाभांश हो, अनिवार्य रुप से ग्राम सभा का लाभांश शेयर आदि के रुप में हो ही हो। जिससे गांव अपने आप में आर्थिक रुप से भी आत्म निर्भर हो सके। यह न हो कि थैलों में भरकर कोई आया और हमारा गांव तहस-नहस कर वापस चला गया। इसमें एक नियम यह भी बनाया जा सकता है कि जितने क्षेत्र पर खनन किया जाये, उतनी ही बेनाप या बंजर जमीन पर खेती करवाना भी अनिवार्य हो।

पंकज सिंह महर

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वन अधिनियम लागू होने से पहले वन विभाग की ऐसी भूमि, जिस पर जंगल नहीं उग सकता या जंगल से लगी ऐसी भूमि जिस पर पहले से खेती होती थी, लेकिन वह वन विभाग की प्रापर्टी में शामिल हो गया था। उसे वन विभाग गांव वालों को सिलसिलाकारत के नाम पर खेती के लिये देता था। श्रम कर सकने वाला व्यक्ति इस जमीन पर भी खेती करता था। लेकिन इस अधिनियम में अधिकांश जंगलों को रिजर्व फारेस्ट घोषित कर दिया, जिससे यह जमीन आज बंजर हो गई, आज उस पर न तो खेती होती है, न जंगल है। इन्हीं अव्यवहारिकताओं को दूर किये जाने की महती आवश्यकता है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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इन ही तीन मुद्दों जल, जमीन और जंगल के किये ही उत्तराखंड राज्य का निर्माण किया हुवा था लेकिन यही तीन मुद्दे फिर भी खतरे मई hai !


 

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