Author Topic: Review Of Uttarakhand Movies/Albums - उत्तराखंडी फिल्मो की समीक्षा  (Read 15885 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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from DR ASHOK BARTHWAL <drashokbarthwal@yahoo.com>

वभूमि उत्तराखंड राम चमोली के गीतों की प्रथम प्रस्तुति

गायत्री फिल्मस द्वारा निर्मित देव भूमी उत्तराखंड उत्तराखंड के तीर्थ स्थलों पर आधारित राम चमोली के गढवाली गीतों का संकलन है। सीडी का मुख्य आकर्शण दीपक रावत और स्वाती पोल की आवाज में फिल्माया गया भजन जय गंगोत्री जय जमनोत्री जय बद्री केदार उत्तराखंड की देव भूमी तेरी जय जय कार.......। निर्माताओं का कहना है कि उन्होंने कहीं-कहीं राग भैरवी का प्रयोग किया है जो गढवाली-कुमाउनी गीतों में षायद ही सुनने को मिलती है।  लो बजट में निर्मित इस सीउी का फिल्मांकन मुंबई एवं उत्तराखंड में हुआ है। सीउी के निर्माता-निर्देषक श्री श्रीपाद जी ने कइ मराठी ओडियो-वी सीडी का फिल्मांकन किया है।

पौडी गढवाल में जन्में राम चमोली गीतकार के साथ-साथ एक अभिनेता भी हैं। उन्होंने रूबी भाटिया के साथ हेलो काउंट डाउन षो में छोटे अमीर खान और गुलजार का अभिनय किया है। राम चमोली एवं श्री श्रीपाद जी आजकल  गढवाली भजनों की नई सीउी के फिल्मांकन में व्यस्त हैं।
 
डा. अषोक 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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REVIEW : MR DINESH KOTHARI, A POET AND SENIOR JOURNALIST
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NARENDRA SINGH NEGI JI'S NEW RELEASE " SALYAANA SYALI

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मिन जु सम्झि -: सलाण्या स्यळी का मार्फत लड़ै जारी रालि.................।

   अप्रतिम लोककवि, गीतकार व गायक नरेन्द्र सिंह नेगी का लेटेस्ट म्यूजिक एलबम ‘सलाण्या स्यळी’ मंनोरंजन के साथ ही उत्तराखण्ड राज्य के अनुत्तरित सवालों और सांस्कृतिक चिंताओं को सामने रखते हुए एक संस्कृतिकर्मी के उद्‍देश्यों सहित जिम्मेदारियों को तय करने में अपनी भूमिका को निभाने में कामयाब दिखता है। सलाण्या स्यळी में नेगी ने जहां नई प्रतिभाशाली गायिकाओं गीतिका असवाल व मंजु सुन्दरियाल को मौका दिया है, वहीं कुछ प्रयोगों से भी वे नहीं चुके हैं। हां, पमपम सोनी का संगीत संयोजन अब निश्चित ही ऊबाउ सा होने लगा है। दूसरी ओर हालिया दौर में नेगी द्वारा युवाओं को फांसने के फेर में ‘डी टोन’ यूज करना उनकी स्वाभाविक आवाज पर प्रश्नचिह्न उभारता है।

   ‘बाँद’ यानि कि एक खुबसूरत महिला। लेकिन राज्य निर्माण के बाद पहाड़ के सांस्कृतिक धरातल पर गीत-संगीत के कई ‘ठेकेदारों’ ने अब तक पहाड़ी ‘बाँद’ को ऑडियो-विजुअल माध्यमों में बदशक्ल, बदमिजाज, बदनीयत सा कर डाला है। नरेन्द्र सिंह नेगी ‘सलाण्या स्यळी’ के पहले ही गीत ‘तैं ज्वनि को राजपाट’ में चुनौती के साथ ऐसे करतबों को न सिर्फ हतोत्साहित करते हैं। बल्कि प्रतिद्वन्दियों को भरपूर मात भी देते हैं। हालांकि मतलब से इतर गीत के बोलों को सपाट अंदाज में समझें तो ‘खुबसूरती के गुमान में इतराती लड़की’ का चुहलपूर्ण जिक्र इसमें है। जोकि अंदाजे-बयां काबिलेगौर भी है।

   पहाड़ में जीजा-साली के बीच हमेशा ही आत्मीय रिश्ता रहा है। तो, सलाण और गंगाड़ के बीच भी पारस्परिक संबन्धों के साथ ही स्यळी-भिना के रिश्तों में भी स्वस्थ प्रगाढ़ता और हाजिर जवाबी उन्मुक्त रही है। ऐसे में नेह के रिश्तों का जीवंत होना आर्श्‍चय भी नहीं। एलबम का शीर्षक गीत ‘सलाण्या स्यळी’ पुराने विषय को पारम्परिकता के साथ परोसता है। सलाण-गंगाड़ के परिप्रेक्ष्य में रचा यह गीत भले ही औसत लगे। फिर भी नेगी ने गीत की अंतराओं को कोरस के जरिये उठाकर अच्छा प्रयोग किया है, और यह कुछ हद तक सुन्दर भी बन पड़ा है, साथ ही गीत में नई गायिका की आवाज से ‘स्यळी की कच्ची उम्र जैसा स्वाद’ मिलता है। यह गीत युवाओं से ज्यादा पुरानी पीढ़ी को निश्चित ही पसंद आयेगा।
   हास्य-व्यंग्य के पैनेपन के साथ रचा तीसरा गीत ‘चल मेरा थौला’ मनोरंजन से अधिक गुत्थियों को बुनता है। सूत्रधार थैले के जरिये कहीं अति महत्वाकांक्षी वर्ग चरित्र तो कहीं सहज रास्तों पर ‘लक्क’ आजमाने की ख्वाहिशें, तो तीसरी तरफ अकर्म के बाद भी मौज की उम्मीदों जैसे भावों से गीत कई खांचों में बंटा लगता है। सुनने वालों की जमात में यह गीत किसी ‘आम’ की अपेक्षा कुछ ‘खास’ को ही तजुर्बा दे पायेगा। बाकी भरने की उम्मीद में जहां-तहां चल चुका ‘थौला’ कितना भरेगा, कितना खाली होगा, यह वक्त बेहतर बता सकेगा। इस गीत में नेगी का जवांपन कुछ अच्छा लगता है।

   ‘स्य कनि ड्यूटी तुमारी’ के भावों को जानने से पहले ही कहूं कि, यह गीत विषय, शैली, भाषा व धुन हर दृष्टि से एलबम की मार्मिक किंतु सबसे उल्लेखनीय रचना है। नरेन्द्र सिंह नेगी का नैसर्गिक मिजाज भी यही है। इसी के लिए वे श्रोताओं के बीच ख्यात भी हैं। पहाड़ और फौजी दोनों स्वयं में पर्याय हैं। ऐसे में जहां सीमाओं पर सैनिक अपने कर्तव्यों की मिसाल है तो, घर में उसका परिवार भी ‘जिन्दगी के युद्ध’ में मोर्चा लिए हुए जीवन पर्यन्त रहता है। दरोल्या-नचाड़ों के लिए ‘बेमाफिक’ यह कृति बाकी हर वर्ग को स्पंदित करने का माद्‍दा रखती है।

   नरेन्द्र सिंह नेगी के कैनवास पर एक और शब्दचित्र ‘बिनसिरि की बेला’ के रूप में बेहतर स्ट्रोक, रंगों व आकृतियों में उभरता है। इसमें पहाड़ का जीवंत परिवेश, जीवन की एक मधुर लय और कौतुहल के विभिन्न दृश्य स्वाभाविकता के साथ पेंट हुए हैं। यह गीत कुछ-कुछ ‘राज्य निर्माण के बाद अभिकल्पित ‘उदंकार’ की संभावना तलाशता भी लगता है। जहां गांव की आने वाली भोर शायद इस शब्दचित्र जैसी ही हो।

   ‘प्रेम न देखे जात और पांत......’। प्रेम के रिश्तों में बंदिशें सदियों से रही हैं। सामाजिक जकड़नों ने अपनी ‘गेड़ाख’ को आज भी ढीला नहीं किया है, तब भी प्यार प्लवित हुआ है। अन्तरजातीय रिश्तों की विवशताओं को रेखांकित करता गीत ‘झगुली कंठयाली’ इस संकलन की एक और कर्णप्रिय रचना है। इसमें लोकतत्व के साथ ही नेगी की लगभग डेढ़ दशक पुरानी छवि ताजा हो उठती है। जब उनके गीत अन्तर को झंकृत कर देते थे। नेगी के कला कौशल को समझने वालों के लिए यह गीत भी ‘संग्रह’ की काबलियत रखता है।

   लाटा-काला शायद ही समझें, क्योंकि ‘मिन त सम्झि’ को कई रिपीट के बाद मैं अनुमान तक भी नहीं पहुंच पाया हूं। गीतकार नेगी जिस भ्रम को खोलते हैं, वह एक चंचल स्त्री की हकीकत है या फिर ‘चंचल स्त्री’ के माध्यम से कुछ और.........ह्रास होने की पीड़ा का बयान। अपनी उलझनों के बावजूद मेरा मानना है कि, इस गीत में भी स्वस्थ सुनने वालों के लिए पर्याप्त स्पेस है।

   रिलीज से पहले ही मीडिया अटेंशन पा चुका ‘तुम बि सुणा’ सरकारों की मंशाओं को ही सरेआम नहीं करता, बल्कि जनादोलनों से थक चुके लोगों को भी कहता है ‘लड़ै जारी राली’। राजधानी के साथ ही पहाड़ के अनेक मसलों पर भाजपा-कांग्रेस के दो चेहरों को तो ‘मधुमक्खियों’ के अलावा सब जानते और मानते हैं। लेकिन यूकेडी की प्रतिबद्धताओं में घुल चुकी ‘जक-बक’ को नरेन्द्र सिंह नेगी ने देर से सही बखुबी पहचाना है। यों भी कलाकार ‘बिरादर’ न हो यह अच्छा है। यह गीत सुनने-सुनाने से ज्यादा गैरसैंण के पक्ष में मजबूत जमीन तैयार करता है। कर्णप्रियता और संगीत के लिहाज से यह खास प्रभावी नहीं लगता। तब भी यह नेगी के बौद्धिक चेहरे को जनप्रियता दिलाने में सक्षम है।

   सलाण्या स्यळी को सिर्फ राजधानी के मसले पर नरेन्द्र सिंह नेगी की तय सोच के रहस्योद्‍घाटन करने वाला संकलन मात्र मान लेना काफी नहीं होगा। बल्कि सलाण्या स्यळी को बेहतर गीतों, धुनों, शैली और रणनीतिक संरचना के लिए भी जानना उचित होगा। क्योंकि मसालों के साथ ही सलाण्या स्यळी में हर वर्ग, क्षेत्र तक पहुंचने और ‘कुछ’ को मात देने की रणनीतिक क्षमता भरपूर है। हां ‘बाजार’ में जवां होने के फेर में नेगी निश्चित ही खुद को खुरचते हैं और इसमें उन्हें ज्यादा अटेंशन मिल पायेगा, कम से कम मैं तो नहीं मानता। एलबम के शुरूआती तीन व आखिरी गीत औसत के आसपास ही हैं। वहीं चार से सात तक के गीतों को मैं सर्वाधिक अंक देना चाहूंगा, साथ ही यह कि, माया कू मुण्डारु की अपेक्षा सलाण्या स्यळी रेटिंग में अव्वल साबित होगी।

और आखिरी मा..................नेगी जी! पळन्थरौं मा धार लगदी रौ। मेरा सलाम!!!!!

सर्वाधिकार : धनेश कोठारी
kotharidhanesh@gmail.com

Bhishma Kukreti

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स्पेनी  सिनेमा  हौलिवुड के मकड़ जाल से  लगातार मुक्त होता आया है   

 

                                   (गढ़वाली कुमाउनी  फिल्म विकास पर  विचार विमर्श )

 

                                           भीष्म कुकरेती

 

 

                   आज जब भी मैं किसी गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्म हस्ती से क्षेत्रीय  फिल्म विकास पर बात करता हूँ तो अधिसंख्य हस्तियाँ राज्य सरकार की अवहेलना की ही बात करते हैं। उनकी बातों में दम अवश्य है लेकिन कोई भी हस्ती  राज्य सरकार और प्राइवेट सहभागिता से कुमाउंनी -गढ़वाली फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान देनी वाली किसी भी सटीक रणनिति पर बहस करने को तैयार नही दिखता है।

         वास्तव में इसका मुख्य कारण है कि मय प्रवासी समाज हमारा समाज अच्छी फिल्मों का चाह तो रखता है किन्तु उस समाज ने कभी भी  फीचर फिल्मों,वीसीडी फिल्मों,लघु फिल्मों, ऐल्बमों, डाक्यूमेंट्री फिल्मों से समाज को दूरगामी फायदों, गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम की समस्याओं, गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्योग के विकास को गम्भीरता पूर्वक लिया ही नहीं। छिट  पुट प्रयासों जैसे यंग उत्तराखंड दिल्ली  का सिने  अवार्ड;  विचार मंच मुंबई का पारेश्वर गौड़ को पुरुस्कृत , करना, देहरादून में गढ़वाल सभा द्वारा फिल्म सम्बधित फिल्म प्रोग्रैम को छोड़ कर   मैंने कोई समाचार नही पढ़ा कि किसी सामाजिक संस्था ने  गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम विकास  पर गम्भीरता पूर्वक  लिया हो। सरकार के कानो में जूं नही रेंगती के समर्थकों को समझना चाहिए कि पहले व्यक्ति, सामजिक सरोकारी  विचारकों, समाज की कानो में जूं रेंगना जरूरी है कि सरकारी अधिकारी व राजनीतिग्य   गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम विकास को गम्भीरता पूर्वक लें।

               केवल  गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम ही समस्या ग्रस्त नही है अपितु मैथली,मेघालयी, नागालैंड , हरयाणवी, राजस्थानी, मालवी , छतीस गढ़ी आदि भाषाई फ़िल्में भी उन्ही समस्याओं से जूझ रही हैं जिस तरह  गढ़वाली-कुमाउंनी फ़िल्में जूझ रही हैं। सभी उपरोक्त भाषाओं की फ़िल्में वास्तव में हिंदी फिल्मों की छाया के नीचे जकड़ी हैं और बौलिवुड की जकड़ इतनी खतरनाक है कि भोजपुरी फिल्मे जो एक धनवान फिल्म उद्योग में गिना जाता है वह भी हिंदी फिल्मों की कार्बनकॉपी ही सिद्ध हो रही हैं। 

        ऐसा नही है कि भारत में ही  स्थानीय भाषाएँ फिल्म विधा में बड़ी भाषाई फिल्म उद्योग के कारण समस्याएं झेल रही हैं अपितु अंतर्राष्ट्रीय पटल में भी ऐसा सिनेमा के शुरुवाती दिनों से होता आ रहा है।

           गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्मों के सन्दर्भ में गढ़वाली -कुमाउंनी समाज और गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्म कर्मियों -रचनाधर्मियों को वैचारिक स्तर पर स्पेनी  फिल्म उद्यम विकास की कथा को समझना आवश्यक है। 

        स्पेनी भाषी केवल स्पेन में ही नही हैं किन्तु स्पेन,क्यूबा अमेरिका अर्जेंटाइना स्विट्जर लैंड , चिली, और कई लैटिन अमेरिकी देशों में रहते हैं .इसलिए स्पेनी फिल्मों को बैलियों (डाइलेकट्स ),  भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामजिक , सांस्कृतिक वैविध्य के कारण कई चुनौतियों का सामना अपने जन्म से ही करना पड़ा है। किन्तु स्पेनी फिल्मों  ने हर चुनौती का सामना कर अपना एक अलग  साम्राज्य स्थापित किया।   

      सन 1910 से जब हौलिवुड में चलचित्र बनने लगे तो अमेरिकी फिल्म उद्योग साड़ी दुनिया पर हावी रहा और देखा जाय तो आज भी हौलिवुड फिल्म जगत का बादशाह है। शुरुवाती दिनों से ही दुसरे देशों में हौलिवुड के प्रभाव को दुसरे देशों के रचनाधर्मी प्रशंसा , डर, इर्ष्या के भावों से देखते थे और आज भी दुसरे देशों के रचनाधर्मियों में हौलिवुड की दबंगता के प्रति प्रशंसा, डर और जलन का असीम भाव प्रचुर मात्रा में मिलता है। जब हौलिवुड चलचित्र स्टूडियो फिल्मों में ध्वनि लाये तो कुछ समय तक विदेसी भाषाओं के रचयिताओं को समझ ही नही आया कि अंग्रेजी का पर्यार्य क्या है। भाषा युक्त ध्वनि का बजार उछाल ले रहा था और ध्वनियुक्त भाषाई कला अन्य देशों की स्थानीय भाषाओं को बड़े पैमाने पर चुनौती दे रही थी। मार्केटिंग रणनीति के हिसाब से हौलिउड फायदे की जगह खड़ा था।       हौलिउड चल-ध्वनि-युक्त फ़िल्में सभी जगह संस्कृतियों और अन्य कई परम्पराओं को भी चुनौती दे रहा था। जहां चलचित्रों में ध्वनि आने से हौलिउड की परम सत्ता में और भी इजाफा हुआ। लेकिन ध्वनि के साथ साथ हौलिउड को सन  1929 से  एक नई प्रतियोगिता से भी सामना करना पड़ा जैसे जर्मनी भाषाई फिल्मों से। सन  1930  में दुनिया व अमेरिका में एक बहस शुरू हुयी कि क्या हौलिउड की अंग्रेजी फ़िल्में स्थानीय भाषायी फिल्मों को शिकस्त देने में कामयाब होंगी? दुनिया खासकर यूरोप में स्थानीय भाषाओं की पत्रिकाएँ और समाज में भी बहस छिड़ गयी थी कि क्या स्थानीय भाषाई फ़िल्में  संसाधन युक्त हौलिउड अंग्रेजी की फिल्मों को कमाई और कला में चुनौती दे सकती हैं? इसी समय 1920 यूरोप के फिल्मकारों और विचारकों ने हौलिउड विरुद्ध 'द फिल्म यूरोप'   नाम से 'स्थानीय फिल्म आन्दोलन भी छिड़ चुका था।  'द फिल्म यूरोप' आन्दोलन से यूरोप के फिल्म निर्माताओं को एक अभिनव ऊर्जा मिली और जब फिल्मों में ध्वनि का प्रवेश हुआ तो उन्होंने ध्वनि (स्थानीय  भाषा ) में कई ऐसे प्रयोग किये जिसे मार्केटिंग भाषा में ' निश प्रोडक्ट ' का निर्माण  शुरू किया जो फिल्म मार्केटिंग इतिहास में कई बार उद्घृत किया जाता है कि किस तरह समाज और रचनाधर्मी व्यापारियों के सहायता से वैश्विक प्रतियोगिता को चुनौती दे सकने में सफल  हो सकते हैं। अमेरिकन' हौलिउड फिल्म उद्योग अंग्रेजी भाषाई फिल्मों में सब  टाइटल देकर और फिर डबिंग से स्थानीय भाषाओं की फिल्मों के लिए रोड़ा बना था। हौलिउड फिल्मो में हर युग में  भभ्य निर्माण  हौलिउड का सशक्त और पैना  हथियार रहा है और  'द फिल्म यूरोप' आन्दोलन के वक्त  भी  हौलिउड फ़िल्में स्थानीय भाषाई फिल्मों के मुकाबले अधिक भभ्य  होती थीं।  1939 के करीब  हौलिउड निर्माता समझ गये कि स्पेनिश दर्शक  अमेरिका में बनी अंग्रेजी फिल्मों के डबिंग वर्जन के मुकाबले निखालिस स्पेनिश भाषाई फिल्मों को तबज्जो देते हैं। और हौलिउड के निर्माता निखालिस स्पेनिश फिल्म निर्माण में ही नही उतरे अपितु उन्होंने स्पेन , लैटिन अमेरिका और स्पेनिश बहुल दर्शको वाले क्षेत्रों में वितरण व्यवस्था सुदृढ़ की। स्पेनिश भाषाई भावना इतनी  इतनी प्रबल थी कि  हौलिउड निर्माताओं को स्पेनिश फिल्म  निर्माताओं के साथ सह निर्माण करने को भी बाध्य किया। स्पेनिश भाषाई भावना ने धीरे  धीरे स्पेनिश भाषाई रचनाधर्मियों-कलाकारों -कर्मियों  का हौलिउड में प्रवेश भी दिलाया और एक स्पेनिश फिल्म उद्यम को बढावा भी दिलवाया। समाज, विचारक, व्यापारियों और रचनाधर्मियों के एक जुट  होने से ही स्पेनिश फिल्म उद्योग की सुदृढ़ नींव डाली।

                   हौलिउड की अंग्रेजी फिल्मों ने जब अन्य देशों संस्कृति और परम्पराओं पर प्रबल प्रभाव डालना शुरू किया तो स्पेनिश भाषाई सामजिक सरोकारियों  के मध्य  (अलग लग देस के निवासी) भी अपसंस्कृति की बहस शुरू हुयी। अमेरिकी फिल्मों में अप संस्कृति या परम्परा तोडू विषयों ने अमेरिका में बहस सालों से चल हे रही थी। हौलिउड की स्पेनिश भाषाई डब्ड या निखालिस स्पेनी भाषाई फिल्मों  में  स्पेनी भाषा और अलग अलग देशों में अलग अलग संस्कृति, रीती -रिवाजों,  व पर्म्पाराओं के टूटन की भी बहस चलीं। एक बहस अभी भी होती है कि क्या कोई स्पेनी फिल्म अलग अलग देशों में बसे स्पेनी  भाषाई लोगों का प्रतिनिधित्व कर  पायेगी ? 

                            गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्मों में भी इसी तरह कुछ अलग ढंग से प्रश्न किया जाता है कि क्या मुंबई, दिल्ली, कनाडा, न्युजीलैंड  में रह रहे प्रवासी रचनाधर्मी जिन्होंने  कई सालों से  पहाड़ नही देखे क्या गढवाली -कुमाउंनी  संकृति, समाज , सामयिकता को दशाने में सफल हो सकते हैं?   स्पेनी भाषाई फिल्मों में एक बहस और चली कि  एक फिल्म की स्पेनी भाषा अलग अलग देशों में बोली  जाने   वाली अलग 'बोली' (डाइलेक्ट ) वाले दर्शकों को कैसे संतोष देगी? स्पेनी भाषा कई देशों व क्षेत्रों की राष्ट्रीय भाषा है  जिसके और ऐसे में फिल्मों में मानकीकृत स्पेनी भाषा की बहस अभी भी खत्म नही हुयी। स्पेनी भाषाई फिल्मों  बाबत राष्ट्रीय पहचान, राष्ट्रीय गर्व व क्षेत्रीय संस्कृति में वैविध्य  की बहस आज भी विचारकों, फिल्मकारों, सामजिक शास्त्रियों के मध्य बंद नही हुयी। राष्ट्रीय पहचान, राष्ट्रीय गर्व व क्षेत्रीय संस्कृति स्पेनी फिल्मकारों के लिए सदा ही चुनौती रही है।  स्पेनी फिल्म लाइन में यह स्पेनी फिल्मकार है, वह क्युबियन  स्पेनी फिल्मकार है,  अर्जेटाइनी स्पेनी ,  वो  मैक्षिकन स्पेनी, हिस्पेनिक (अमेरिकी स्पेनी ), लैटिनो फिल्मकार आदि जुमले आज भी प्रसिद्ध हैं। हाँ स्पेनी फिल्म  अलग अलग  डाइलेक्ट  बोलने वाले स्पेनियों के मध्य एक स्वयं-समझो वाली मनोवृति भी लाये।     

         प्रथम गढ़वाली फिल्म 'जग्वाळ' के निर्माता पाराशर गौड़ अपने अनुभव से बताते हैं कि  'जग्वाळ' में असवालस्यूं व बणेलस्यूं  या कहें  चौंदकोटी बोली का ही बाहुल्य है। पौड़ी गढ़वाल में जब फिल्म देखी  गयी तो भाषाई बात दर्शकों ने नही खा। किन्तु चमोली गढ़वाल रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी में दर्शकों ने पराशर जी को पूछा कि इस फिल्म में किस 'देस' की भाषा है। कुमाऊं में तो 'जग्वाळ' के  दर्शक थियटर से जल्दी बाहर आ गये। 'सिपाही' फिल्म कुमाउंनी व गढ़वाली मिश्रित 'ढबाड़ी' भाषा की फिल्म है किन्तु भाषाई दृष्टि से फिल्म को अस्वीकृति ही मिली है। सामने तो नही किन्तु अपरोक्ष रूप से गढ़वाली फिल्कारों ने मानकीकृत गढ़वाली का ना होना (जो सबको शीघ्र समझ में आ सके ) गढवाली फिल्मों के लिए एक चुनौती है और फिर हिंदी युक्त गढवाली ही सहज विकल्प गढवाली फिल्कारों के लिए है।   

    अलग अलग देशों में स्पेनी फिल्म निर्माण के कारण  स्पेनी फिल्मों में स्वदेसी राष्ट्रीय पहचान और क्षेत्रीय गर्व वाली स्थानीय स्पेनी फिल्मों का  भी  वर्चस्व रहा है।  शुरू से ही स्पेनी फ़िल्में कला फिल्मों , ब्लॉकबस्टर फिल्मों, सामयिक फिल्मों, क्षेत्रीय अभिलाषा-इच्छाए सम्भावनाएं युक्त फिल्म बनती रही जो हौलिउड को चुनौती देती आ रही हैं और हर बार हौलिउड की छाया से निकलने में सफल भी हुयी हैं और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान के अलावा अपना सशक्त बजार बनाने में भी कामयाब हुयी हैं। स्पेनी फिल्मों के बनने में राजनीतिक स्थितियों की रोकथाम  व  प्रदर्शन में  अलग अलग देशों में राजनैतिक व सेंसर अवरोधों ने भी रोड़े अटकाएं  है किन्तु समय व स्पेनी भावना ने अवरोधों को दूर किया। किस तरह स्पेनी फिल्मों ने चुनौतियों का सामना कर  समाधान ढूंढा उसका  उदाहरण है विसेंटे अरांदा , जौम बलागुएरो, जौन अन्तानिओ, लुइस ग्रेसिया बर्लांगा ,   लुइस बर्नुइल,मारिओ कैमस, सेगुन्दो डि कुमौन, इसाबेल कोइक्जेट, विक्टर ऐरिस, राफेल गिल , जोस लुइस, गुएरिन,अलेक्ष डि ला इग्लेसिया, जुआन जोस बिगास लुना,जुलिओ मेडेम, बनितो पेरोजो,पियर पार्टेबेला , फ्लोरियन रे,कैरिओस साउरा,अल्बर्ट सेरा आदि फिल्मकारों की फ़िल्में हैं कि किस तरह हौलिउड के जाल से बाहर आया जा सकता है। 

  एल सेक्षिटो , ला अल्डिया माल्डिटा, लास हर्ड्स टियेरा सिन पान, इलोइसा इस्ता डेबाजो दे उन अलमेंद्रो, ला तोरे दी लॉस सिएट जोरोबाडोस, एल इस्प्वायर सिएरा दी तेरउअल, विदा इन सोम्ब्रास,ला कोरोना नेग्रा, बेइनवेनिडो मिस्टर  मार्शल,मुरते दे उन सिक्लेस्टा, ट्रीप्तिको एलिमेंटल दि इस्पाना, ला वेंगाजा, विरिदियाना, एल वरदुगो, एल एक्स्ट्रानो विआजे,ला तिया तुला , नुएव कार्टास अ बरता, ला काजा, दांते नो युनिकामेन्ते सेव्रो, अमा लुर,  नौकतर्नो, सेक्स्पिरियन्स , लॉस देसाफ्लोज, दितिराम्बो,आऊम, वैम्पाइर,कान्सिओन्स पारा देस्पुज दे उना गुएरा,लेजोस दे लोस आरबोल्स, अना य लॉस लोबोस,इल स्प्रिन्तु दे ला कोल्मेना, एल आर्बेरे दे गुर्मिका,बिलबाओ, एल कोराजोन देल बोस्क,एल क्रिमेन दे सुएनका,दिमोनिओस इन ऍफ़ जार्डिन, लॉस मोटिवो दे बर्टा,एल बौस्क ऐनिमादो, आतामे, वाकास,   ट्रेन दे सम्ब्रास,अलुम्ब्रामेंतो, अल सिएलो गिरा,हेबल कौन इला, ऑनर दे कावालेरिया, एल ब्राऊ ब्लाऊ, एल कांट डेल्स ओसेल्स, एल सोमनी, ऐता,काराक्रेमादा, फिनिस्तेरी आदि फिल्मों का ब्यौरा बताता है की , खानी फिल्मांकन, निर्देशन, संगीत आदि के हिसाब से स्प्नेइ फ़िल्में हौलिवुड़ से लोहा लेती आ रही हैं और हर चुनौती को खत्म कर नई प्रतियोगिता के लिए तैयार हुयी। 

     स्पेनी भाषाई फ़िल्में जन्म से ही कई बार संक्रमण काल से गुजरी किन्तु फिल्मकारों, समाज के सदस्यों  के जजबों ने हर बार मुश्किलों पर रोक लगाई।         

 

 Copyright@ Bhishma Kukreti 17 /3/2013

Bhishma Kukreti

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Bhupendra Kathait: a Promising Garhwali Animation Film Producer –Director

Life Sketches of Kumaon-Garhwali (Uttarakhandi) Film Activists- 23

Review of Development of Garhwali-Kumauni (Uttarakhandi) Films, Music Albums, Documentary films, Animation Films -35

                  Bhishma Kukreti
 
          It is difficult to produce experimental films or music albums in Garhwali and Kumaoni as it is financially not viable.

            However, there are language development enthusiastic personalities carrying out experiments in various field of film production. One of enthusiastic Garhwali film producers is Bhupendra Kathait.
           Though there have been trials for inserting animated characters in feature films as Kamli directed by Anuj Joshi or Nanda Jat documentary film by Bhupendra Kathait in past.
                     Four minutes animated film Panchayat of DB film claims to be the first Garhwali animated film broadcasted on net on 17/4/2013. However, the film seems to be either dubbed or copied as no way the film seems to be Garhwali barring language. There clips available of animated Garhwali video films on net as baby dancing, furki band and Kolavari de child version.
     Bhupendra Kathait produced, directed Garhwali animated film ‘Ek Tha Garhwal in 2013 too’.  The characteristics of film match with Garhwal. The film is based on problem of migration from rural Garhwal.   In real sense, from culture point of view, the two minute Ek tha Garhwal film would be called first Garhwali animated film
                   
  Bhupendra Kathait was born in 1972 in Bamradi village, Bangadsyun of Pauri Garhwal.  After taking junior education from Garhwal he came to Delhi where he took four year diploma in Designing. He joined animation filming job.
          He was connected with many animated films of Doordarshan and other TV channels. Chhotu Patlu film is one of his famous ventures.
         In 2008, Bhupendra made animated film for Shri Nagar Nagar Palika wherein he created many historical characters for history of Shrinagar. 
 He has tremendous love for his language. Due to love for his mother tongue he produced two minutes Garhwali animated film Ek Tha Garhwal. The film is a sensible film.
 Bhupendra lives in Dehradun and has plan to produce a one hour animated film



(Based on Telephonic Talk had with Bhupendra Kathait Dehradun, 9690071167)

Reference: Bhishma Kukreti, 2013, उत्तराखंडी फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास
Copyright@   Bhishma Kukreti 27/7/2013
Life Sketches of Kumaon-Garhwali (Uttarakhandi) Film Activists to be continued… 24

Review of Garhwali and Kumauni Films, music albums, documentary films, Animation films (Uttarakhandi) to be continued...36
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु a
भुला श्री सुरेन्‍द्र सिंह रावत (सरु दा) कू मैकु निमंत्रण मिलि, बल भैजि बदरपुर, नई दिल्‍ली मा सुबेरौ घाम फिल्‍म्‍ा देखण अवा तीन मई-2015 कू। मण्‍डाण कू अयोजन भिछ दगड़ा मा, जरा बगछट्ट करि नाचि भी जौला। कार्यक्रम का अनुसार मैं तीन मई कू 9 बजि फिल्‍म हाल मा पौंछ्यौ, जख सरु दा, श्री चंद्रकांत नेगी जी, श्री प्रताप रावत जी अर हौर भी उत्‍तराखण्‍डी भै बंधु सी भेंट कू सुअवसर प्राप्‍त ह्वै।

मण्‍डाण लगि, सब्‍बि भै बंध नाचण लगिन उत्‍तराखण्‍डी ढ़ोल की थाप फर। भीड़ भी भौत थे, लगभग 750 लोग अयां था। मंडाण मा लोग खूब बगछट्ट करिक नाच्‍यन। कनि रसाण आई, शब्‍द निछन मैमु, हमारी संस्‍कृति अर धरोहर छौ हि यनि छ।

हिमालयन न्‍यूज का संवाददाता फिल्‍म का बारा मा साक्षात्‍कार लेण लग्‍यां था। मैसि भी पूछि, बल फिल्‍म कनि छ, जबकि फिल्‍म मैंन तबरि देखि हि नि थै। मैंन अपणा कवि अंदाज मा गढ़वालि मा बताई, बात या निछ फिल्‍म कथ्‍गा सुंदर छ, गौर कन्‍न लायक बात यछ, भाषा प्रेम मा सब्‍बि उत्‍तराखण्‍डयौं तैं या फिल्‍म देखिं चैंदि, सब्‍बि देख्‍ला त फिल्‍म बणौण वाळौं का मन मा ऊलार पैदा होलु, हौर उत्‍तराखंडी फिल्‍म बणौण का खातिर ऊंका मन मा भी ऊलार पैदा होलु।

फिल्‍म देखण का बाद मैं सरु भुला का घर फर गयौं। सरु दा न मेरु दिल सी स्‍वागत करि, बल भैजि नाराज नि ह्वैन, मैंन बोलि भुला, तनु ना सोच, मैं भ्‍वीं मा सेण वाळु अर कोदु कण्‍डाळि खाण वाळु माटा कू मनखि छौं। हमारी छ्वीं बात्‍त लगिन, मैंन अपणि कविता घत्‍त, तीन पराणि, बुढड़ि अर झगुल्‍या सरु भुला तैं सुणाई, भुला का मन मा कुतग्‍याळि लगौण कू वातावरण बणाई। सरु भुला तैं मिल्‍या पुरुस्‍कारु की तस्‍वीर भी लिनि जू आप तक मैंन पौंछाई। आखिर मा हम द्वी जन पोथ्‍ला अपणा अपणा घोलु की तरफ जांदन, गयौं। हमारु संकल्‍प छ ज्‍युंदा ज्‍यु खाण कमौण का दगड़ा भाषा संस्‍कृति का श्रृंगार का खातिर समर्पित रौला, गीत अपणि जल्‍मभूमि का हि गौला।

 

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