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Uttarakhand Film Industry - कब बनेगी उत्तराखंड की फ़िल्म इंडस्ट्री एव टीवी चैनल
Bhishma Kukreti:
उत्तराखंड फिल्म पत्रकारिता संस्कृति की आवश्यकता -मदन डुकलाण
प्रस्तुति: भीष्म कुकरेती
[ गढ़वाली -कुमांउनी फिल्म समीक्षा ने अभी कोई विशेष रूप अख्तियार नही की। इसी विषय पर गढ़वाली ,साहित्यकार सम्पादक , नाट्य कर्मी, गढ़वाली फिल्म -ऐल्बम कर्मी श्री मदन डुकलाण से फोन पर बातचीत हुयी। जिसका साक्षात्कार के रूप में रूपांतर किया गया है ]
भीष्म कुकरेती- गढ़वाली फिल्म पत्रकारिता के बारे में आपका क्या ख़याल है।
मदन डुकलाण - जी जब प्रोफेस्नालिज्म के हिसाब से गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म निर्माण ही नही हो पाया तो गढ़वाली -फिल्म पत्रकारिता में भी कोई काम नही हुआ
भीष्म कुकरेती- पर समाचार पत्रों में गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों के बारे में समाचार , विश्लेष्ण तो छपता ही है
मदन डुकलाण - कुकरेती जी ! अधिकतर सूचना या विश्लेषण फिल्मकारों द्वारा पत्रकारों को पकड़ाया गया विषय होता है जो आप पढ़ते हैं।
भीष्म कुकरेती- आप गढ़वाली फ़िल्मी पत्रकारिता की कितनी आवश्यकता समझते हैं?
मदन डुकलाण -गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों के लिए विशेष पत्रकारिता की आवश्यकता अधिक है। गढ़वाली-कुमाउनी फिल्म उद्योग को बचाने और इसे प्रोफेसनल बनाने के लिए गढवाली-कुमाउनी फिल्म जौर्नेलिज्म की अति आवश्यकता है।
भीष्म कुकरेती- आधारभूत फिल्म विश्लेषण पर ही बात की जाय कि किस तरह एक फिल्म का विश्लेषण किया जाना चाहिए
मदन डुकलाण -सर्व प्रथम तो पहले ही खंड में फिल्म के वारे में एक पंक्ति में विश्लेषक की राय या विचार इंगित हो जाना चाहिए
भीष्म कुकरेती- जी हाँ ! फिल्म समालोचना का यह प्रथम आवश्यकता भी है। इसके बाद ?
मदन डुकलाण -सारे आलेख में समालोचनात्मक रुख होना ही चाहिए
भीष्म कुकरेती- जी और ..
मदन डुकलाण -पत्रकार विश्लेषक को फिल्म के सकारत्मक व नकारात्मक पक्षों को पाठकों के सामने रखना चाहिए
भीष्म कुकरेती-पाठकों के सामने क्या क्या लाना आवश्यक है ?
मदन डुकलाण -तुलनात्मक रुख फिल्म समालोचना हेतु एक आवश्यक शर्त है कि पाठक के सामने फिल्म को किसी अन्य फिल्म या विज्ञ विषय के साथ जोड़ा जाय या फिल्म की तुलना की जाय जिससे पाठक फिल्म समालोचना के साथ ताद्यात्म बना सके।
भीष्म कुकरेती- जी हाँ तुलनात्मक रुख की उतनी ही आवश्यकता है जितनी फिल्म के बारे में राय। फिल्म विश्लेषक को कथा के बारे में कितना बताना जरूरी है ?
मदन डुकलाण -फिल्म विश्लेषक को कथा की सूचना देनी जरूरी है किन्तु अधिक भी नही और जो सीक्रेट/गोपनीय पक्ष हों उन्हें ना बताकर उन गोपनीय बातों के प्रति पाठक का आकर्षण पैदा कराना चाहिए।
भीष्म कुकरेती-जी !
मदन डुकलाण - फिर टैलेंट, प्रतिभा, कौशल, को समुचित या अनुपातिक प्रतिष्ठा , प्रशंसा या देनी चाहिए।
भीष्म कुकरेती- जी हाँ प्रतिभा के बारे में ही फिल्म विश्लेषण का एक मुख्य कार्य है
मदन डुकलाण -विश्लेषण बातचीत विधि में हो तो सर्वोत्तम
भीष्म कुकरेती-हाँ बातचीत विधि पाठकों को आकर्षित करती है और बातचीत की स्टाइल पाठकों की मनोवृति के हिसाब से ही होनी चाहिए
मदन डुकलाण - समीक्षक को फिल्म या ऐल्बम को शब्दों द्वारा फिल्म-एल्बम के वातावरण को पुनर्जीवित करना ही सही समीक्षा की निशानी है
भीष्म कुकरेती-जी! पाठकों को कुछ ना कुछ आभास हो जाना चाहिए की फिल्म या एल्बम का वातावरण कैसा है।
मदन डुकलाण -समीक्षक को अपने विचार नही थोपने चाहिए।
भीष्म कुकरेती- आपका अर्थ है कि फिल्म समीक्षा के वक्त समीक्षक को किसी वाद को आधार बनाकर समीक्षा नही करनी चाहये।
मदन डुकलाण -इमानदारी तो समीक्षा में हो किन्तु तुच्छता नही होनी चाहिए
भीष्म कुकरेती-हाँ यह बात भी फिल्म समीक्षा के लिए आवश्यक आयाम है।
मदन डुकलाण -फिल्म समीक्षक को ध्यान रखना चाहिए कि अपने पाठकों और स्मीक्षेतित फिल्म के प्रति बराबर उत्तरदायी है
भीष्म कुकरेती-हाँ समीक्षक कई उत्तरदायित्व सम्भालता है।
मदन डुकलाण - समीक्षा संक्षिप्त पर व्यापक प्रभाव देयी होनी ही चाहिए
भीष्म कुकरेती-जी
मदन डुकलाण -समीक्षा किसी को अनावश्यक प्रभाव डालनी वाली न हो याने विद्वतादर्शी न हो
भीष्म कुकरेती-गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों के समीक्षक का अन्य भाषाओं जैसे हिंदी फिल्म समीक्षा से अधिक उत्तरदायित्व है इस पर आपका क्या कहना है?
मदन डुकलाण -क्षेत्रीय फ़िल्में या नाटक हमेशा एक ना एक संक्रमण काल से गुजरते रहते हैं अत: क्षेत्रीय कला समीक्षक उस कला को पाठकों, दर्शकों की रूचि बनाये रखने का उत्तरदायित्व भी निभाता है।
भीष्म कुकरेती- इसी लिए आप कहते हैं कि गढ़वाली -कुमांउनी फिल्म व अलबमों के लिए एक विशेष फिल्म समीक्षा संस्कृति आवश्यक है
मदन डुकलाण- जी हाँ गढ़वाली -कुमांउनी फिल्म-ऐल्बम समीक्षा की विशेष संस्कृति आवश्यक है।
Copyright@ Bhishma Kukreti 14/3/2013
Bhishma Kukreti:
गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्मों के लिए विश्व सिनेमा की प्रासंगिकता
भीष्म कुकरेती
[उत्तराखंड फिल्म विकास विचार विमर्श; हिलिवुड फिल्म विकास विचार विमर्श; गढ़वाली फिल्म विकास विचार विमर्श; कुमाउंनी फिल्म विकास विचार विमर्श; मध्य हिमालयी फिल्म विकास विचार विमर्श; हिमालयी फिल्म विकास विचार विमर्श; उत्तर भारतीय क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; भारतीय क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; एशियाई क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; पूर्वी महाद्वीपीयक्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श लेखमाला -21वां भाग ]
प्रसिद्ध डौक्युमेंट्री रचनाधर्मी पॉल रोथा का सन 1930 में खा कथां आज भी तर्कसंगत है कि सिनेमा कला और व्यापार के मध्य एक अनिर्णय भरा समीकरण है।सिनेमा कला विषयी कमाऊ व्यापार है जिसने विश्व की प्रत्येक संस्कृति और समाज को प्रभावित किया है। गढवाली -कुमांउनी फिल्मो का दुर्भाग्य है कि इन भाषाओं की फिल्मों ने ना ही क्षेत्रीय कला विकास किया और ना ही धन कमवाया। विश्लेषकों का मानना है कि एक कारण यह भी है कुमाउंनी गढ़वाली फिल्मो के अधिकतर कारिंदों को विश्व सिनेमा का ज्ञान ही नही है।
कुमाउंनी -गढ़वाली फिल्मों में निर्माण , निर्देशन, छायांकन, संगीत , सम्पादन क्षेत्र में आने के लिए अधिक से अधिक अंतर्राष्ट्रीय क्लासिक फिल्मों को देखना नही भूलना नही चाहिए।
अ स्टार इज बौर्न (नि -विलियम वेलमैन 1937) फिल्म स्टारडम का अभिमान, असफलता की खीज, फिल्म उद्यम का ग्लैमर दिखाने में सफलतम फिल्मों में गिनी जाती है।
द लेडी वैनिसेज (1938 ) डेढ़ घंटे की अल्फ्रेड हिचकौक निर्देशित फिल्म अपनी कथा और फिल्म से दर्शकों को बाँधने के लिए प्रसिद्ध है।
गौन विद विंड (नि- विक्टर फ्लेमिंग 1939) फिल्म क्लासिक फिल्मो में मानी जाती है।
द विजार्ड ऑफ ओज (नि- विक्टर फ्लेमिंग 1939) पारिवारिक सम्बन्धो को दर्शाने वाली फिल्म आज भी प्रसांगिक
द ग्रेट डिक्टेटर (नि-चार्ली चेपलिन 1940 ) विषय की सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यात्मक फिल्मों में से एक फिल्म में गिनी जाती है।
सिटिजन कान -( नि- ओर्सन वेल्स ,1941 ) फिल्म कथा बुनावट , पटकथा और अभिनय के लए आज भी समालोचकों को भाति है
कासाब्लांका (नि- विक्टर फ्लेमिंग 1942 ) सिनेमा कला और अभिनय के लिए याद की जाती है
ब्रीफ इनकाउंटर (नि-डेविड लीन, 1945) -फिल्म प्रेम, प्रेम व्याख्या, वैवाहिक सम्बन्धो की नई तरह से खोज तो करती ही साथ में दर्शकों के मध्य एक रहस्य बनाने में भी सफल है।
द सेवन यियर इच ( बिली वाइल्डर , 1955) मस्ती , हास्य, अभिनय, नाटकीयता , जीवंत रोमांस और मजे के लिए यह फिल्म याद की जाती है।
द मैन हू न्यू टू मच (नि-अल्फ्रेड हिचकौक ,1956,) फिल्म सस्पेंस और अभिनय के लिए जानी जाती है।
नाईट टु रिमेम्बर (नि-रॉय बेकर 1958) का टिटेनिक जल-जहाज की दुर्घटना का करुणात्मक काव्यात्मक फिमांकन दर्शनीय है
वर्टिगो (नि- अल्फ्रेड हिचकौक 1958) रहस्य और पटकथा के लिए प्रशंसित होती है
बेन हूर (1959)- विलियम वाइलर निर्देशित बेन हूर फिल्म अपनी भव्यता और भावनाओं को दर्शाने, पटकथा, एक्टिंग के लिए जानी जाती है।
नार्थ बाई नार्थवेस्ट (नि- अल्फ्रेड हिचकॉक, 1959 ) रहस्य, डिजाइन , अभिनय, पुष्ट सम्पादन , छायांकान , नाटकीयता के लिए फिल्म उम्दा फिल्म मानी जाती है
वेस्ट साइड स्टोरी (नि-जीरों रौबिन्स और रॉबर्ट वाइज, 1961 )-रोमांटिक संगीत से ओत प्रोत फिल्म सौ श्रेष्ठ फिल्मों में से एक श्रेष्ठ फिल मानी जाती है।
ब्रेक फास्ट ऐट टिफनीज ( नि-ब्लैक इड्वार्ड्स 1961) फिल्म रोमांटिक हास्य फिल्मो में से एक उम्दा चलचित्र माना जाता है
टु किल अ मॉकिंगबर्ड (नि-रॉबर्ट मुलिगन , 1962) नाटकीयता , रहस्य केअलावा ग्रेगरी पैक की स्टाइलिश अभिनय के लिए फिल्म आज भी देखि जाती है।
लौरेंस ऑफ अरेबिया (नि- डेविड लीन 1962)- किस तरह एक महाकाव्य को भव्यता से फिल्माया जा सकने के लिए इस फिल्म की आज भी मांग है।
क्लेओपेट्रा ( 1963 जोसेफ मानकिविज द्वारा निर्देशित ) फिल्म ऐहासिक महाकव्य के कालखंडो को केवल तीन घंटो में कुशलता पूर्वक दर्शाने में सफल रही है और पटकथा व छायांकन के लिए बहुत ही उम्दा फिल्म है।
फ्रॉम रसिया विद लव ( नि- तिरेंस यंग 1963 ) फिल्म जेम्स बौंड सीरीज में सबसे उम्दा फिल्म मानी जाती है
माई मेरी पौपिन्स (नि -रॉबर्ट स्टीवेन्सन 1964) फिल्म संगीत , प्यार के आंतरिक पहलुओं को दर्शाने के लिए आज भी प्रशंसा पात्र है
फेयर लेडी (नि जॉर्ज कुकोर 1964 ) रोमांस, चित्रांकन व संगीत को काव्य रूप में दर्शाती यह फिल्म आम निर्देशकों के लिए सपना है।
गोल्डफिंगर ( नि - जी . हेमिल्टन 1964 ) जेम्स बौंड सीरीज की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक फिल्म
साउंड ऑफ म्यूजिक (नि -रॉबर्ट वाइज 1965) फिल्म रोमांस, संगीत, पहाड़ों के भव्य सीन फिमाकन के लिए स्मरणीय है।
2001: स्पेस ओडिसी ( स्टेनली कुब्रिक 1968) फिल्म वैज्ञानिक फैन्तासी फिल्मों में श्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है।
गौड़ फादर (नि- फ्रांसिस फोर्ड कपोला 1972 ) माफिया कार्यशैली , क्रूरता , मानवीय पहलू , छायांकन , निर्देशन , सम्पादन , अभिनय के लिए आज भी भीड़ जुटाती है।
टैक्सी ड्राइवर (नि-मार्टिन स्कोर्सेस, 1976) फिल्म एक मनोवैज्ञानिक व थ्रिलर फिल्म है और कलात्मक फिल्म साँस्कृतिक मूल्यों, मानवीयता की खोज करने वाली फिल्म है।
डियर हंटर ( नि-माइकेल सिमेनो ,1978) युद्ध विभिसका दर्शाती फिल्म अपनी नाटकीयता के लिए जानी जाती है।
गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मकारों को याद रखना चाहिए कि फिल्म कला , तकनीक और व्यापार का अनोखा संगम है और उन्हें कलात्मक फिल्मों का ज्ञान भी आवश्यक है।
विंग्स ऑफ डिजायर ( नि - विम वेंडर ); द क्रेन्स आर फ़्लाइंग (नि-मिखेल कालातोजोव ) , थ्री कलर्स रेड (नि-क्रेजीस्टोव केस्लोव्सकी ); इरेजर हेड (डेविड लिंच ); लघु फिल्म मेशेज ऑफ आफ्टरनून (नि- माया डेरिन, अलेक्जेंडर हामिद ); युद्ध विरोधी फिल्म हिरोशिमा मौन अमौर (नि-अलैन रेस्नाइस ); द इडियट्स ; अ डायरी फॉर ताईमाथी ; द बैटल शिप पोटमकिन , नेबर्स ; ग्लास ; वाइल्ड स्त्राबेरिज ; लेस कैरिबिनियर्स ; मेट्रोपोलिस (फ्रित्ज लैंग ); द पैसन ऑफ जून औफ़ आर्क ; मदर एंड सन (नि-अलेक्जेंडर सोकुरोव ); मौथलाईट (नि- स्टैन ब्रखेज ); सौंग ऑफ सीलोन ; ला स्ट्रादा (फेड्रीको फेलिनी ) कलात्मक फ़िल्में बताती हैं कि किस तरह कहानी को सेलुलाइड में तराशी जाती हैं।
छायांकन मोवियों को नया आयाम देता है। गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्मकारों को क्षेत्रीय फिल्मों को पुनर्जीवित करने के लिए फिल्माकन की गुणवत्ता बढ़ानी आवश्यक है और पाथेर पंचाली, ब्लो अप , रियर विंडो, बौर्न इन्टु ब्रदर्स , ली जेटी ; तेन स्पोटिंग,बाराका, साल्वेडौर जैसी फिल्म अवश्य देखनी चाहिए की किस तरह फोटोग्रैफी ने फिल्मों को कव्यात्मक व्याख्या प्रदान की। यदि गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों को एक पहचान देनी है तो फिल्मकारों को इन फिल्मों जैसी फिल्म देखना चाहिए .
विश्लेषकों का मानना है कि गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मकार पटकथा पर उतना परिश्रम नहीं करते जितना क्षेत्रीय फिल्मो (जंहा संसाधन का सूखा है) के लिए आवश्यक है और इसका कारण है कि गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों के पटकथाकारों को अन्तराष्ट्रीय स्तर के फिल्मों की पटकथा लेखन का ज्ञान नही है कि किस तरह पटकथा स्तरहीन कथा को बढिया फिल्मों की सीढ़ी प्रदान कर सकती है। जे एंड साइलेंट बौब स्ट्राइक बैक; फोन बूथ; रिजरव्वाइर डॉग; फोर रूम्स ; पल्प फिक्सन ; ट्रू रोमांस किल बिल ; डेथ प्रूफ ; नेचुरल बौर्न किल्लर्स ; फ्रॉम डस्क टिल डाउन आदि फ़िल्में गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मकारों को प्रेरणा दे सकती हैं कि पटकथा का फिल्मों में क्या स्थान है।
सम्पादन भी फिल्मों के लिये एक आवश्यक तकनीक है और कुमाउंनी -गढ़वाली फिल्म सम्पादकों को राल्फ डावसन; डेनियल मैंडल; फ्रेडरिक नुस्टोदन; गेरी हैम्ब्लिंग; माइकेल कान सरीखे ख्याति प्राप्त फिल्म सम्पादकों के काम को समझना आवश्यक हो जाता है।
क्षेत्रीय भाषाई सिनेमा की अपनी अहमियत है और क्षेत्रीय भाषाई फिल्मकारों को अपनी पहचान बनाने इ के लिए विश्व स्तरीय फिल्मों का तकनीकी स्तर पर ज्ञान आवश्यक है। तकनीक , कला और व्यापार ज्ञान प्रसिक्षण ,अनुभव,व अर्जित ज्ञान (फिल्म दर्शन )से आता है।
Copyright@ Bhishma Kukreti 16/3/2013
उत्तराखंड फिल्म विकास विचार विमर्श; हिलिवुड फिल्म विकास विचार विमर्श; गढ़वाली फिल्म विकास विचार विमर्श; कुमाउंनी फिल्म विकास विचार विमर्श; मध्य हिमालयी फिल्म विकास विचार विमर्श; हिमालयी फिल्म विकास विचार विमर्श; उत्तर भारतीय क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; भारतीय क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; एशियाई क्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श; पूर्वी महाद्वीपीयक्षेत्रीय भाषाई फिल्म विकास विचार विमर्श लेखमाला 21 वें भाग में जारी ...
Bhishma Kukreti:
स्पेनी सिनेमा हौलिवुड के मकड़ जाल से लगातार मुक्त होता आया है
(गढ़वाली कुमाउनी फिल्म विकास पर विचार विमर्श )
भीष्म कुकरेती
आज जब भी मैं किसी गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्म हस्ती से क्षेत्रीय फिल्म विकास पर बात करता हूँ तो अधिसंख्य हस्तियाँ राज्य सरकार की अवहेलना की ही बात करते हैं। उनकी बातों में दम अवश्य है लेकिन कोई भी हस्ती राज्य सरकार और प्राइवेट सहभागिता से कुमाउंनी -गढ़वाली फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान देनी वाली किसी भी सटीक रणनिति पर बहस करने को तैयार नही दिखता है।
वास्तव में इसका मुख्य कारण है कि मय प्रवासी समाज हमारा समाज अच्छी फिल्मों का चाह तो रखता है किन्तु उस समाज ने कभी भी फीचर फिल्मों,वीसीडी फिल्मों,लघु फिल्मों, ऐल्बमों, डाक्यूमेंट्री फिल्मों से समाज को दूरगामी फायदों, गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम की समस्याओं, गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्योग के विकास को गम्भीरता पूर्वक लिया ही नहीं। छिट पुट प्रयासों जैसे यंग उत्तराखंड दिल्ली का सिने अवार्ड; विचार मंच मुंबई का पारेश्वर गौड़ को पुरुस्कृत , करना, देहरादून में गढ़वाल सभा द्वारा फिल्म सम्बधित फिल्म प्रोग्रैम को छोड़ कर मैंने कोई समाचार नही पढ़ा कि किसी सामाजिक संस्था ने गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम विकास पर गम्भीरता पूर्वक लिया हो। सरकार के कानो में जूं नही रेंगती के समर्थकों को समझना चाहिए कि पहले व्यक्ति, सामजिक सरोकारी विचारकों, समाज की कानो में जूं रेंगना जरूरी है कि सरकारी अधिकारी व राजनीतिग्य गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम विकास को गम्भीरता पूर्वक लें।
केवल गढ़वाली-कुमाउंनी फिल्म उद्यम ही समस्या ग्रस्त नही है अपितु मैथली,मेघालयी, नागालैंड , हरयाणवी, राजस्थानी, मालवी , छतीस गढ़ी आदि भाषाई फ़िल्में भी उन्ही समस्याओं से जूझ रही हैं जिस तरह गढ़वाली-कुमाउंनी फ़िल्में जूझ रही हैं। सभी उपरोक्त भाषाओं की फ़िल्में वास्तव में हिंदी फिल्मों की छाया के नीचे जकड़ी हैं और बौलिवुड की जकड़ इतनी खतरनाक है कि भोजपुरी फिल्मे जो एक धनवान फिल्म उद्योग में गिना जाता है वह भी हिंदी फिल्मों की कार्बनकॉपी ही सिद्ध हो रही हैं।
ऐसा नही है कि भारत में ही स्थानीय भाषाएँ फिल्म विधा में बड़ी भाषाई फिल्म उद्योग के कारण समस्याएं झेल रही हैं अपितु अंतर्राष्ट्रीय पटल में भी ऐसा सिनेमा के शुरुवाती दिनों से होता आ रहा है।
गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्मों के सन्दर्भ में गढ़वाली -कुमाउंनी समाज और गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्म कर्मियों -रचनाधर्मियों को वैचारिक स्तर पर स्पेनी फिल्म उद्यम विकास की कथा को समझना आवश्यक है।
स्पेनी भाषी केवल स्पेन में ही नही हैं किन्तु स्पेन,क्यूबा अमेरिका अर्जेंटाइना स्विट्जर लैंड , चिली, और कई लैटिन अमेरिकी देशों में रहते हैं .इसलिए स्पेनी फिल्मों को बैलियों (डाइलेकट्स ), भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामजिक , सांस्कृतिक वैविध्य के कारण कई चुनौतियों का सामना अपने जन्म से ही करना पड़ा है। किन्तु स्पेनी फिल्मों ने हर चुनौती का सामना कर अपना एक अलग साम्राज्य स्थापित किया।
सन 1910 से जब हौलिवुड में चलचित्र बनने लगे तो अमेरिकी फिल्म उद्योग साड़ी दुनिया पर हावी रहा और देखा जाय तो आज भी हौलिवुड फिल्म जगत का बादशाह है। शुरुवाती दिनों से ही दुसरे देशों में हौलिवुड के प्रभाव को दुसरे देशों के रचनाधर्मी प्रशंसा , डर, इर्ष्या के भावों से देखते थे और आज भी दुसरे देशों के रचनाधर्मियों में हौलिवुड की दबंगता के प्रति प्रशंसा, डर और जलन का असीम भाव प्रचुर मात्रा में मिलता है। जब हौलिवुड चलचित्र स्टूडियो फिल्मों में ध्वनि लाये तो कुछ समय तक विदेसी भाषाओं के रचयिताओं को समझ ही नही आया कि अंग्रेजी का पर्यार्य क्या है। भाषा युक्त ध्वनि का बजार उछाल ले रहा था और ध्वनियुक्त भाषाई कला अन्य देशों की स्थानीय भाषाओं को बड़े पैमाने पर चुनौती दे रही थी। मार्केटिंग रणनीति के हिसाब से हौलिउड फायदे की जगह खड़ा था। हौलिउड चल-ध्वनि-युक्त फ़िल्में सभी जगह संस्कृतियों और अन्य कई परम्पराओं को भी चुनौती दे रहा था। जहां चलचित्रों में ध्वनि आने से हौलिउड की परम सत्ता में और भी इजाफा हुआ। लेकिन ध्वनि के साथ साथ हौलिउड को सन 1929 से एक नई प्रतियोगिता से भी सामना करना पड़ा जैसे जर्मनी भाषाई फिल्मों से। सन 1930 में दुनिया व अमेरिका में एक बहस शुरू हुयी कि क्या हौलिउड की अंग्रेजी फ़िल्में स्थानीय भाषायी फिल्मों को शिकस्त देने में कामयाब होंगी? दुनिया खासकर यूरोप में स्थानीय भाषाओं की पत्रिकाएँ और समाज में भी बहस छिड़ गयी थी कि क्या स्थानीय भाषाई फ़िल्में संसाधन युक्त हौलिउड अंग्रेजी की फिल्मों को कमाई और कला में चुनौती दे सकती हैं? इसी समय 1920 यूरोप के फिल्मकारों और विचारकों ने हौलिउड विरुद्ध 'द फिल्म यूरोप' नाम से 'स्थानीय फिल्म आन्दोलन भी छिड़ चुका था। 'द फिल्म यूरोप' आन्दोलन से यूरोप के फिल्म निर्माताओं को एक अभिनव ऊर्जा मिली और जब फिल्मों में ध्वनि का प्रवेश हुआ तो उन्होंने ध्वनि (स्थानीय भाषा ) में कई ऐसे प्रयोग किये जिसे मार्केटिंग भाषा में ' निश प्रोडक्ट ' का निर्माण शुरू किया जो फिल्म मार्केटिंग इतिहास में कई बार उद्घृत किया जाता है कि किस तरह समाज और रचनाधर्मी व्यापारियों के सहायता से वैश्विक प्रतियोगिता को चुनौती दे सकने में सफल हो सकते हैं। अमेरिकन' हौलिउड फिल्म उद्योग अंग्रेजी भाषाई फिल्मों में सब टाइटल देकर और फिर डबिंग से स्थानीय भाषाओं की फिल्मों के लिए रोड़ा बना था। हौलिउड फिल्मो में हर युग में भभ्य निर्माण हौलिउड का सशक्त और पैना हथियार रहा है और 'द फिल्म यूरोप' आन्दोलन के वक्त भी हौलिउड फ़िल्में स्थानीय भाषाई फिल्मों के मुकाबले अधिक भभ्य होती थीं। 1939 के करीब हौलिउड निर्माता समझ गये कि स्पेनिश दर्शक अमेरिका में बनी अंग्रेजी फिल्मों के डबिंग वर्जन के मुकाबले निखालिस स्पेनिश भाषाई फिल्मों को तबज्जो देते हैं। और हौलिउड के निर्माता निखालिस स्पेनिश फिल्म निर्माण में ही नही उतरे अपितु उन्होंने स्पेन , लैटिन अमेरिका और स्पेनिश बहुल दर्शको वाले क्षेत्रों में वितरण व्यवस्था सुदृढ़ की। स्पेनिश भाषाई भावना इतनी इतनी प्रबल थी कि हौलिउड निर्माताओं को स्पेनिश फिल्म निर्माताओं के साथ सह निर्माण करने को भी बाध्य किया। स्पेनिश भाषाई भावना ने धीरे धीरे स्पेनिश भाषाई रचनाधर्मियों-कलाकारों -कर्मियों का हौलिउड में प्रवेश भी दिलाया और एक स्पेनिश फिल्म उद्यम को बढावा भी दिलवाया। समाज, विचारक, व्यापारियों और रचनाधर्मियों के एक जुट होने से ही स्पेनिश फिल्म उद्योग की सुदृढ़ नींव डाली।
हौलिउड की अंग्रेजी फिल्मों ने जब अन्य देशों संस्कृति और परम्पराओं पर प्रबल प्रभाव डालना शुरू किया तो स्पेनिश भाषाई सामजिक सरोकारियों के मध्य (अलग लग देस के निवासी) भी अपसंस्कृति की बहस शुरू हुयी। अमेरिकी फिल्मों में अप संस्कृति या परम्परा तोडू विषयों ने अमेरिका में बहस सालों से चल हे रही थी। हौलिउड की स्पेनिश भाषाई डब्ड या निखालिस स्पेनी भाषाई फिल्मों में स्पेनी भाषा और अलग अलग देशों में अलग अलग संस्कृति, रीती -रिवाजों, व पर्म्पाराओं के टूटन की भी बहस चलीं। एक बहस अभी भी होती है कि क्या कोई स्पेनी फिल्म अलग अलग देशों में बसे स्पेनी भाषाई लोगों का प्रतिनिधित्व कर पायेगी ?
गढ़वाली -कुमाउंनी फिल्मों में भी इसी तरह कुछ अलग ढंग से प्रश्न किया जाता है कि क्या मुंबई, दिल्ली, कनाडा, न्युजीलैंड में रह रहे प्रवासी रचनाधर्मी जिन्होंने कई सालों से पहाड़ नही देखे क्या गढवाली -कुमाउंनी संकृति, समाज , सामयिकता को दशाने में सफल हो सकते हैं? स्पेनी भाषाई फिल्मों में एक बहस और चली कि एक फिल्म की स्पेनी भाषा अलग अलग देशों में बोली जाने वाली अलग 'बोली' (डाइलेक्ट ) वाले दर्शकों को कैसे संतोष देगी? स्पेनी भाषा कई देशों व क्षेत्रों की राष्ट्रीय भाषा है जिसके और ऐसे में फिल्मों में मानकीकृत स्पेनी भाषा की बहस अभी भी खत्म नही हुयी। स्पेनी भाषाई फिल्मों बाबत राष्ट्रीय पहचान, राष्ट्रीय गर्व व क्षेत्रीय संस्कृति में वैविध्य की बहस आज भी विचारकों, फिल्मकारों, सामजिक शास्त्रियों के मध्य बंद नही हुयी। राष्ट्रीय पहचान, राष्ट्रीय गर्व व क्षेत्रीय संस्कृति स्पेनी फिल्मकारों के लिए सदा ही चुनौती रही है। स्पेनी फिल्म लाइन में यह स्पेनी फिल्मकार है, वह क्युबियन स्पेनी फिल्मकार है, अर्जेटाइनी स्पेनी , वो मैक्षिकन स्पेनी, हिस्पेनिक (अमेरिकी स्पेनी ), लैटिनो फिल्मकार आदि जुमले आज भी प्रसिद्ध हैं। हाँ स्पेनी फिल्म अलग अलग डाइलेक्ट बोलने वाले स्पेनियों के मध्य एक स्वयं-समझो वाली मनोवृति भी लाये।
प्रथम गढ़वाली फिल्म 'जग्वाळ' के निर्माता पाराशर गौड़ अपने अनुभव से बताते हैं कि 'जग्वाळ' में असवालस्यूं व बणेलस्यूं या कहें चौंदकोटी बोली का ही बाहुल्य है। पौड़ी गढ़वाल में जब फिल्म देखी गयी तो भाषाई बात दर्शकों ने नही खा। किन्तु चमोली गढ़वाल रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी में दर्शकों ने पराशर जी को पूछा कि इस फिल्म में किस 'देस' की भाषा है। कुमाऊं में तो 'जग्वाळ' के दर्शक थियटर से जल्दी बाहर आ गये। 'सिपाही' फिल्म कुमाउंनी व गढ़वाली मिश्रित 'ढबाड़ी' भाषा की फिल्म है किन्तु भाषाई दृष्टि से फिल्म को अस्वीकृति ही मिली है। सामने तो नही किन्तु अपरोक्ष रूप से गढ़वाली फिल्कारों ने मानकीकृत गढ़वाली का ना होना (जो सबको शीघ्र समझ में आ सके ) गढवाली फिल्मों के लिए एक चुनौती है और फिर हिंदी युक्त गढवाली ही सहज विकल्प गढवाली फिल्कारों के लिए है।
अलग अलग देशों में स्पेनी फिल्म निर्माण के कारण स्पेनी फिल्मों में स्वदेसी राष्ट्रीय पहचान और क्षेत्रीय गर्व वाली स्थानीय स्पेनी फिल्मों का भी वर्चस्व रहा है। शुरू से ही स्पेनी फ़िल्में कला फिल्मों , ब्लॉकबस्टर फिल्मों, सामयिक फिल्मों, क्षेत्रीय अभिलाषा-इच्छाए सम्भावनाएं युक्त फिल्म बनती रही जो हौलिउड को चुनौती देती आ रही हैं और हर बार हौलिउड की छाया से निकलने में सफल भी हुयी हैं और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग पहचान के अलावा अपना सशक्त बजार बनाने में भी कामयाब हुयी हैं। स्पेनी फिल्मों के बनने में राजनीतिक स्थितियों की रोकथाम व प्रदर्शन में अलग अलग देशों में राजनैतिक व सेंसर अवरोधों ने भी रोड़े अटकाएं है किन्तु समय व स्पेनी भावना ने अवरोधों को दूर किया। किस तरह स्पेनी फिल्मों ने चुनौतियों का सामना कर समाधान ढूंढा उसका उदाहरण है विसेंटे अरांदा , जौम बलागुएरो, जौन अन्तानिओ, लुइस ग्रेसिया बर्लांगा , लुइस बर्नुइल,मारिओ कैमस, सेगुन्दो डि कुमौन, इसाबेल कोइक्जेट, विक्टर ऐरिस, राफेल गिल , जोस लुइस, गुएरिन,अलेक्ष डि ला इग्लेसिया, जुआन जोस बिगास लुना,जुलिओ मेडेम, बनितो पेरोजो,पियर पार्टेबेला , फ्लोरियन रे,कैरिओस साउरा,अल्बर्ट सेरा आदि फिल्मकारों की फ़िल्में हैं कि किस तरह हौलिउड के जाल से बाहर आया जा सकता है।
एल सेक्षिटो , ला अल्डिया माल्डिटा, लास हर्ड्स टियेरा सिन पान, इलोइसा इस्ता डेबाजो दे उन अलमेंद्रो, ला तोरे दी लॉस सिएट जोरोबाडोस, एल इस्प्वायर सिएरा दी तेरउअल, विदा इन सोम्ब्रास,ला कोरोना नेग्रा, बेइनवेनिडो मिस्टर मार्शल,मुरते दे उन सिक्लेस्टा, ट्रीप्तिको एलिमेंटल दि इस्पाना, ला वेंगाजा, विरिदियाना, एल वरदुगो, एल एक्स्ट्रानो विआजे,ला तिया तुला , नुएव कार्टास अ बरता, ला काजा, दांते नो युनिकामेन्ते सेव्रो, अमा लुर, नौकतर्नो, सेक्स्पिरियन्स , लॉस देसाफ्लोज, दितिराम्बो,आऊम, वैम्पाइर,कान्सिओन्स पारा देस्पुज दे उना गुएरा,लेजोस दे लोस आरबोल्स, अना य लॉस लोबोस,इल स्प्रिन्तु दे ला कोल्मेना, एल आर्बेरे दे गुर्मिका,बिलबाओ, एल कोराजोन देल बोस्क,एल क्रिमेन दे सुएनका,दिमोनिओस इन ऍफ़ जार्डिन, लॉस मोटिवो दे बर्टा,एल बौस्क ऐनिमादो, आतामे, वाकास, ट्रेन दे सम्ब्रास,अलुम्ब्रामेंतो, अल सिएलो गिरा,हेबल कौन इला, ऑनर दे कावालेरिया, एल ब्राऊ ब्लाऊ, एल कांट डेल्स ओसेल्स, एल सोमनी, ऐता,काराक्रेमादा, फिनिस्तेरी आदि फिल्मों का ब्यौरा बताता है की , खानी फिल्मांकन, निर्देशन, संगीत आदि के हिसाब से स्प्नेइ फ़िल्में हौलिवुड़ से लोहा लेती आ रही हैं और हर चुनौती को खत्म कर नई प्रतियोगिता के लिए तैयार हुयी।
स्पेनी भाषाई फ़िल्में जन्म से ही कई बार संक्रमण काल से गुजरी किन्तु फिल्मकारों, समाज के सदस्यों के जजबों ने हर बार मुश्किलों पर रोक लगाई।
Copyright@ Bhishma Kukreti 17 /3/2013
Bhishma Kukreti:
गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों के बहाने स्लोवाकियायी फिल्मों की बातें
(गढ़वाली कुमाउनी फिल्म विकास पर विचार विमर्श )
भीष्म कुकरेती
कुमाउंनी-गढ़वाली फिल्मों की समया यह रही है कि इस उद्यम पर वैचारिक, सामजिक , राजकीय, स्तर पर गंभीरता पूर्वक और दिशा निर्देशन हेतु कभी खुली बहसें हुयी ही नही। यही कारण है कि जब मैंने विश्व सिनेमा की बात रखी तो कुछ मित्रों ने पूछा
कि कहाँ गढवाली -कुमाउंनी फ़िल्में और कहाँ विश्व सिनेमा ? जब कि विश्व साहित्य के अनुपात में बंगाली साहित्य छोटा ही था किन्तु रवीन्द्र नाथ टैगोर व सत्यजीत रे ने बंगाली भाषा को विश्व पटल पर रख दिया था। मेरा मानना है कि यद्यपि कुमाउंनी-गढ़वाली फिल्मकार विश्व स्तर की फ़िल्में ना भी बना सकें किन्तु उन्हें विश्व सिनेमा पर विचार विमर्श करते रहना चाहिए।
स्लोवेकिया और कुमाउंनी -गढ़वाली फिल्मों की तुलना आसानी से नही की जा सकती क्योंकि कुमाऊं और गढ़वाल एवं स्लोवेकिया के सामाजिक , , राजनैतिक आर्थिक परिवेश में जमीन आसमान का अंतर है किन्तु भासा के बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से दोनों भाषाई फिल्मों की तुलना की जा सकती है।
चेक रिपब्लिक का पुराना भूभाग की स्लोवाकिया भाषा के बोलने वाले केवल पचास लाख तक हैं किन्तु स्लोवाकिया फिल्मों का एक विशेष स्थान विश्व सिनेमा में है। यूरोपीय शैली में होने के बावजूद स्लोवाकियी फिल्मों में अपना सामाजिक , भौगोलिक प्रकृति, ग्रामीण परिवेश, लोक संस्कृति और लोक मेलों की पूरी झलक मिलती है जो स्लोवेकियायि फिल्मों को अन्य यूरोपीय फिल्मों से अलग करती हैं। समानांतर फिल्मों भी स्लोवाकिया की भौगोलिक प्रकृति, परम्पराएं, लोक धर्म मिलता है जैसे -ओबरेजी स्तारेहो स्वेता ( 1972) तो पॉपुलर या हिट फिल्म जैसे त्रिसिक्रोकना विसेला (1983 ). अब तक करीब तीन सौ पचास फीचर फ़िल्में बन चुकी हैं और इतिहास, सामजिक सामयिक विन्यास अधिक मिलता है किन्तु हास्य , बाल , वैज्ञानिक, साहसिक विषयी फ़िल्में भी बनी हैं। कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा भी फिल्मों में रहा है।
स्लोवाकिया राजनैतिक उथल पुथल से भरा भूभाग रहा है और फिल्मों में शासकीय प्रभाव अवश्य रहा है और कई अच्छी फ़िल्में भी बनी हैं। स्लोवाकियायी भाषाई फिल्म जानोसिल्क (1921) दुनिया के दसवीं फीचर फिल्म है। इस फिल्म के बाद स्लोवाकियायी फिल्मों को सिनेमा हाल ना मिलने की समस्या से जूझना पड़ा। विश्व सिनेमा ने स्लोवाकियायी फिल्मों को सन 1933 से पहचानना किया जब इस साल वेनिस फिल्म फेस्टिवल में कारोल पलिका की 'जेम स्पीवा' फिल्म प्रदर्शित हुयी। इसी तरह सन 1935 में मार्टिन फ्रिक की 'जानोसिल्क' के नाम से ही फिल्म अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित हुयी।
अमेरिकी या नया बाहरी सहयोग से जब भी कोई कम्पनी फिल्म बनाने के लिए उतरी वह फिल्म प्रदर्शन के बाद व्यापारिक नुक्सान के कारण बंद होती गयीं हाँ डौक्युमेंट्री फ़िल्में बनती गयीं।
स्लोवाकिया फिल्मों के निर्माण में शासकीय संसाधनो का योगदान रहा है
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान व बाद में जब स्लोवाकिया कम्युनिस्ट शासन के तहत हुआ तो सन 1950 तक स्लोवाकियायी फ़िल्में ना के बराबर निर्मित हुईं। सन 1945 से सन 1989 तक स्लोवाकिया चेक या रूस की कम्युनिस्ट पार्टियों शासन तहत ही रहा । ईदस दौरान फिल्म कर्मी पूरी तरह सरकारी कर्मचारी ही रहे।
कुछ फिल्मों का विवरण देना वश्यक है जैसे-
सन साथ से शतर तक स्लोवाकिया भाषा में अधिक फिल्मों का निर्माण हुआ
सन 1962 की स्टेफान निर्देशित फिल्म सन इन नेस्ट एक ,प्रयोगधर्मी असलियत के नजदीक और कई परम्पराओं को तोड़ने वाली फिल्म थी .
जान कादर और इल्मार क्रोस की सन 1965 में प्रदर्शित द्वितीय विश्व युद्ध की राजनीति को दर्शाती फिल्म 'द शौप ओन में स्ट्रीट ' को ओस्कार पुरुष्कार मिला।
जुराज जाकुविसको की फिल्म डिजर्टर्स एंड पिल्ग्रिम्स सन 1968 में प्रदर्शित हुयी।
बर्ड्स औरफ्न्स ऐंड फूल (1969)एक पॉपुलर फिल्म थी किन्तु सोवियत अतिकर्मण के कारण यह फिल्म दर्शकों तक नही पंहुच पायी।
अलियान रॉब ग्रिलियत की फिल्म ईडन ऐंड आफ्टर (1970 ) प्रदर्शित हुयी
दुसान हानक निर्देशित 'पिक्चर ऑफ ओल्ड वर्ल्ड' (1972) फिल्म की यूरोपीय समीक्षकों ने प्रशंसा की।
दुसान हानक निर्देशित रोजी ड्रीम (1977) एक काव्यात्मक फिल्म मानी जाती है।
दुसान हानक की 'आई लव यु लव '(1980) मजदूरों की परेशानियों व गरमा गरम सीनों के लिए याद की जाती है इस फिल्म पर कम्युनिस्ट शासन की गाज भी पड़ी।
मार्टिन होली की 'नाईट राइडर्स' (1981) में प्रदर्शित हुयी।
स्टेफेन उहार निर्देशित 'शी ग्रेज्ड हॉर्सेज ओन कंक्रीट' (1982) एक औरत के संघर्ष कथा है।
जुराज जाकुबिस्को निर्देशित 'अ थौजेंड यियर ओल्ड बी' (1983) फिल्म सन 1800 से 1900 एक किसान परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी कहती है और शहर व ग्रामीण परिवेश अंतर बताने में भी कामयाब हुयी । इस फिल्म को वेनिस फिल्म फेस्टिवल में पुरुष्कार भी मिला।
जुराज जाकुबिस्को निर्देशित ' आई एम सिटिंग ओन अ ब्रांच ऐंड आई एम फाइन (1989) प्रदर्शित हुयी
.
स्वतन्त्रता की बाद दुसान हानक की 'पेपर हेड्स' (1995 ); मार्टिन सुलिक की द गार्डन ( 1995); जुराज जाकुबिस्को की 'बाथोरी '( 2008); जुराज लिहोत्स्की की 'ब्लाइंड लव्स ( 2008); ब्लादिमोर बालको की ओल एट पीस (2009) ; रिवर्स ऑफ बेबिलोन आदि फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया।
कई राजनैतिक उथल पुथल व कम संख्या के दर्शकों के बाद भी तीन सौ से अधिक स्लोवाकियायी फ़िल्में बनी और कई कामयाब फ़िल्में भी बनी . यह बात सत्य है कि सरकारी अनुदान से ही फिल्मों का निर्माण सम्भव हुआ। स्लोवाकियायी फिल्मों के विषय बहुआयामी व इस क्षेत्र की विशेस्ताएं व सामयिकता दर्शाने में भी सफल रही हैं।
सन्दर्भ -मार्टिन वोत्रुबा , 2005 हिस्टोरिकल एंड नेशनल बैक ग्राउंड ऑफ स्लोवैक फिल्ममेकिंग
Copyright@ Bhishma Kukreti 20 /3/2013
Bhishma Kukreti:
कुमाउनी फिल्म विकास पर विचार विमर्श )
भीष्म कुकरेती
इस्टोनिया और लातिविया बाल्टिक सागर तटीय छोटे छोटे यूरोपीय देस हैं जो पहले रूस के भाग थे और अब स्वतंत्र हैं। दोनों छोटे छोटे देशों ने स्वतंत्र होने के बाद फिल्म और वीडिओ फिल्मों की अहमियत समझी और अपने अपने देस में फिल्म बोर्ड की स्थापना की
नेशनल फिल्म सेंटर ऑफ लातिवा
23 दिसम्बर 1991 में लातिवा संस्कृति मंत्रालय के तहत नेशनल फिल्म सेंटर ऑफ लातिवा का गठन किया गया और निम्न मुख्य उदेश्य निर्देशित किये गये :
१-लातिवाई फिल्मों के निर्माण हेतु संसाधन जुटाना और उनके लिए धन वितरण
करना।
२-लातिवा में फिल्म निर्माण के लिए न्यायिक प्रक्रिया में सुधार जिससे लातिवा फिल्म निर्माण में वृद्धि हो .
३- लातिवाइ फिल्म परम्परा का संरक्षण व विस्तार
४-लातिवाइ फिल्मों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाजार ढूंढना और उस बाजार में लातिवाई फिल्मों का व्यापार करना।
५- अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ समन्वय स्थापित करना जिससे लातिवाइ फिल्मों को लाभ पंहुच सके।
६-फिल्म वा वीडिओ वितरकों को लाइसेंस प्रदान करना
गुणवत्ता के हिसाब से फिल्म धन आबंटन करना
अ -फीचर फ़िल्में
ब -लघु फिल्मे व डौक्युमेंट्री फ़िल्में
स -वीडिओ फ़िल्में
द -एनिमेसन फ़िल्में
ई - फिल्म उत्सव व अन्य सहायक कलाओं को सहायता देना
उदाहरणार्थ सन 2012 में लातिविया राष्ट्रीय फिल्म बोर्ड से छ फीचर फिल्मों,अग्याढ़ वीडिओ फिल्मों व पांच एनिमेसन फिल्मों को ग्रांट दी गयी .
इस्टोनिया भी बाल्टिक तटीय लघु देस है और इस देस ने भी फिल्म कमीसन गठित किया है जिसके उदेश्य निम्न हैं
इस्टोनिया में फिल्म निर्माण व विडिओ फिल्म निर्माण हेतु सुविधाएं जुटाना जिससे इस्टोनिया की फिल्मों का विकास हो और बाहरी देस इस्टोनिया में फिल्म निर्माण कर सकें
इस्टोनिया फिल्म फौंडेसन (1997) के निम्न उदेश्य हैं:
१- राष्ट्रीय फिल्मों का विकास
२ - फिल्म तकनीक का विकास
३- इइस्टोनियाइ फिल्मों अ विकास , रचनाधर्मिता का विकास
३- फिल्म सिक्षा का वितरण
४- इस्टोनियाइ फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों व संस्थानों से जोड़ना
५- वे सभी कार्य करना जो इइस्टोनियाइ फिल्मों के विकास में सहायक सिद्ध हों
आज फिल्म विकास व इन्टरनेट विकास हेतु सभी राज्य विशेषकर उत्तराखंड राज्य के लिए हितकर है और उत्तराखंड राज्य को राज्य फिल्म बोर्ड बनाकर स्थानीय फिल्म विधा को विकसित करना एक सामयिक मांग है।
Copyright@ Bhishma Kukreti 21/3/2013
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