एक घटना याद आई, लखनऊ में मैं पन्तनगर, खुर्रमनगर में रहता था, वहां पर पूरी बस्ती पहाडियों की ही थी, वहां पर दशहरे में चार दिन की रामलीला का मंचन होता था। एक बार मैं मेघनाद बना था और भुवन दा रावण थे और चन्दन दा थे, विभीषण के रोल में। अंगद रावण संवाद होना था, जब दरबार सजा तो दो ही सिंहासन थे, एक पर रावण और एक पर मेघनाथ को बैठना था। चन्दन दा अड़ गये कि विभीषण के लिये भी सिंहासन लगाओ, नहीं तो मैं पाठ नहीं खेलूंगा। उनकी अनुनय विनय की गई तो वह एक शर्त पर माने कि नई चमचमाती शनील की कुर्सी पर बैठेगें। क्योंकि टेन्ट वाले के पास तीसरा सिंहासन नहीं था और वह यह कुर्सियां नई खरीद के लाया था।
खैर मेजों के ऊपर सिंहासन और नई कुर्सी लगा दी गई, नई कुर्सी के पाये की गिट्टियां भी नई और चिकनी थी। पर्दा खुलने की तैयारी हुई और सब अपनी-अपनी जगह बैठ गये। चन्दन दा फुल होकर ही पाठ खेलते थे....आये और विभीषण की ही तरह मुझे और रावण को परामर्श देने लगे। अंगद आया और संवाद शुरु हुआ तो चन्दन दा ने रावण को तुरन्त एक परामर्श दिया, कुशल दरबारी की तरह और आकर धम्म से अपनी कुर्सी पर बैठे.........कुर्सी स्लिप और चन्दन दा पर्दे के पीछे, इसी बीच रावण को भी परामर्श की जरुरत पड़ी, उन्होने हुंकार भरी "भ्राता विभीषण...!" देखा तो चन्दन दा गायब था, पीछे से चन्दन दा कमर मलते हुये आये...और कहने लगे भ्राता मेरा सिंहासन खसकी गया था.....।
महाराज जनता के तो हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गये और हमसे चन्दन था धीरे से कह रहा था कि सालों ने मेरी कुर्सी पीछे से खींची है.........हमें तो जनता भी देख रही थी, सो होंठ काट-काट कर हंसी रोकी।