Author Topic: Lets Recall Our Childhood Memories - आइये अपना बचपन याद करें  (Read 52120 times)

हेम पन्त

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चिड़ियों को हाथ में पकड़कर देखने का मुझे भी बहुत शौक था. फिर एक ऐसा दोस्त मिला जो गुलेल चलाने में माहिर था. हम लोग दूर से किसी चिड़िया को गुलेल से चोट पहुंचाते थे और फिर उसको पकड़कर पानी पिलाते थे. घर पर तो ले जा नहीं सकते थे घरवालों की डांट खानी पड़ती, इसलिये थोड़ी देर बाद चिड़िया को छोड़ देते थे.

लेकिन एक बार गुलेल से एक चिड़िया को ज्यादा चोट लगी और हम उसे बचा नहीं पाये उसके बाद हमारा हृदय परिवर्तन :)  :o हो गया और ये खेल हमने बन्द कर दिया..
   

बचपन मै मुझे चिडिया का घोसला देखने का बहुत शैक था, हम दिन भर चिडियाउ का घोसला ढूडने के चक्कर मै खेतु मै घूमते रहते थे. और अगर हमें कही घोसला मिल जाये तो बस फिर तो दिन भर उस के आस पास ही चक्कर लगते रहते थे

jagmohan singh jayara

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"अपना बचपन"

तब होती थी मन में उमंग'
दौड़ लगाते डगड़्यौं के संग,
भले लगते थे ऋतुओं के रंग,
मन रहता था मस्त मलंग.

ऊछाद करने पर लगाते थे,
ब्वै  बाब बदन में कंडाळी,
खूब खेलते तप्पड़ों में,
इधर उधर मारते फाळी.

सबसे सुन्दर लगते थे,
बचपन में बुरांश के फूल,
निहारते थे हिमालय को,
फिर सब कुछ जाते भूल.

काफळ खूब खाए वन में,
सबसे सुन्दर लगता चाँद,
बोझा ढ़ोते  दूर से जब,
दुखने लगती थी काँध.

घुगती, घिंडुड़ी, हिल्वांस जब,
अपना गीत सुनाती थी,
पहाड़ पर फैली हरियाली,
मन को खूब भाती  थी.


बचपन में हल  खूब लगाया,
बैलों ने तो खूब दौड़ाया,
बजती थी जब स्कूल की घंटी,
घर जाकर फिर बस्ता उठाया.

कौथिग जब आते थे,
मन को बहुत भाते थे,
मिलती थी जब बेटी ब्वारी,
रोते और रुलाते थे.

नमक लेने उस ज़माने,
बद्रीनाथ रोड पर जाते थे,
लौटते थे रात होने पर,
थक के मारे सो जाते थे.

गाँव और समाज में,
बड़ा प्रेम होता था,
दुःख हो या ख़ुशी की बात,
साथ सबका होता था.

प्यारा बचपन बीत गया,
अब लौटकर नहीं आएगा,
दिलाई याद "मेरा पहाड़" पर,
हर कोई यही बताएगा.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २५.३.२०१०)

Risky Pathak

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आप सभी जानते ही है कि बच्चो को मीठा खाने का बहुत शौक होता है|
बचपन में मुझे भी गुड़-मिसिर खाने का बहुत शौक था| अब उस समय हमारी लम्बाई होती थी छोटी, सो ऊँचे गुड़ के बगस तक नहीं पहुचने वाले ठहरे| अब घर पर अम्मा के अलावा हमारी इच्छा को कोई और समझ नहीं सकता था| सो दिन भर अम्मा की धोती पकड़ के गू-गू कहना पड़ता था| :D

हेम पन्त

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हमारे गांव के ऊपर चीड़ का बड़ा सा जंगल है जिसमें कई ढलानें हैं. गर्मियों की छुट्टियों में जब चीड़ की सूखी पत्तियां (पिरूल) गिरे होते थे तो हम बोरों में पिरूल भर कर उस पर बैठ जाते और पिरूलों से भरी चिकनी ढलानों पर फिसलते थे. इस खेल का नाम होता था "घुसघुसड़ी"[/b]. सोच रहा हूँ इस बार घर जाउंगा तो "घुसघुसड़ी" जरूर खेलूंगा, इस उमर में थोड़ा अजीब लगेगा लेकिन फिर भी....   

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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घुसघुसी खेलकर पैन्ट का क्या हाल होता था यह तो आपने बताया ही नही हेम जी।

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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दोस्तो मेरा तो मुख्य काम होता था बचपन मे लकडी ढुडना,लकडी फोडना, छिलुक फोडना,पानी सारना (ढोना),हां अगर थोडा समय मिल जाय तो बैलो की लडाई करा कर उनकी लडाई देखना,सुबह स्कुल जाना साम को घर पर दिया जलाकर अ आ क ख बारह खडी गिन्ती पडना,और फिर पढते-पढते किताबो पर ही सो जाना।
और फिर आधी अधुरी नींद मे रोटी के लिए जिद करना और फिर अपनी जिद पर मार खाना।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Pant ka to pata nahi pant ke neeche ka kya haal hota hoga :)

घुसघुसी खेलकर पैन्ट का क्या हाल होता था यह तो आपने बताया ही नही हेम जी।

Rajen

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और हम जब इसकूल से घर को आते थे तो रास्ते में पाठी को तलवार बना कर राम-रावण युद्ध करते थे।  रामलीला का बहुत असर था।

Rajen

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दूसरा, ककडी और काफल चोरने में तो हमरा ग्रुप फस्ट हुआ।  ककडी चोरी करने पर उसकी गाली नहीं लगती है इसलिये बेफिक्र रह्ते थे। 
 
 

 

कृपया ध्यान दें:  ककडी हमेशा रात को चोरी की जाती है खाना खाने के बाद, जब सब सो जाते हैं।

हेम पन्त

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हम लोगों की भी यह मान्यता थी कि ककड़ी तो पानी है, उसकी चोरी करने में गाली नहीं लगती. कभी-कभी दोस्तों के दवाब में आकर हम अपने ही खेतों से ककड़ी चोर लेते थे.

 

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