बचपन की यादें
आज भी याद हैं वो दिन,
जब हम पानी वाली कुल्फी खाते थे,
सब्जी में मिर्चें लगती थी,
और गोल-गप्पे सी-सी करके गटक जाते थे,
अंगीठी में साग बनता था,
और मक्की की रोटी की चूरी बनवाते थे,
मंदिर के भंडारे में जाकर,
कढ़ी-चावल हाथों से चटकारे लेकर खाते थे,
मम्मी के हाथों में जादू था,
और पापा की गोदी में झट से चढ़ जाते थे,
कभी-कभी मम्मी के पर्स से,
एक-दो रूपये भी चुरा लिया करते थे,
काम ना मिलने का बहाना करके,
सारा-सारा दिन साइकिल चलाया करते थे,
फिर काम पूरा ना होने पर,
स्कूल में मार भी खाया करते थे,
होली में खुद बचके,
सबको छत से भिगाया करते थे,
छुट्टी लेने के बहाने,
पेट-दर्द से शुरू हो जाते थे,
छुट्टियों के इंतज़ार में,
बेसब्री से दिन गिना करते थे,
हिंदी में कुछ आये ना आये,
अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में रटा करते थे,
छोटी-छोटी बातों पर भी,
बहुत सारे मज़े किया करते थे |
अब तो जैसे सब कुछ फीका लगता है,
बड़ी-बड़ी खुशियों में भी कम तीखा लगता है,
जिंदगी में जैसे झोल पड़ गया है,
हंसी का भी जैसे मोल बढ़ गया है,
हंसने से पहले सोचना पड़ता है,
कोई देख ना रहा हो, देखना पड़ता है,
जो किया फक्र से, वो नहीं कर सकते हैं,
बड़े जो हो गये हैं, दुनिया से अब डरते हैं ||