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Life Style Of Pahad In Earlier Days - क्या थी बीते दिनों पहाडो की जिन्दगी

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सुधीर चतुर्वेदी:
बीते दिनों पहाड़ का जीवन ======= उस समय सब के घर पर टेलीविजन नहीं होता था सभी लोग सन्डे के दिन उस आदमी के घर जाते थे जिसके घर पर टेलीविजन होता था उस पर उस घर के बच्चे एक्शन दिखाते थे की जमीं पर बैठ और किसी बच्चे ने टॉफी या बिस्कुट खिला दिया तो वो चारपाई पर या कुर्सी पर बैठता था और उस समय चैनल भी एक ही आता था अपना दूरदर्शन .....सुबह रामायण या महाभारत शाम को ४ बजे से पिक्चर .


आज का पहाड़ ========== सब के घर पर टेलीविजन है और ढेर सारे चैनल भी आते है और हा खास बात अब कोई बच्चा एक्शन नहीं dikhata है

ha ha ha ha..........

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

In gone days, student used write with Ink and the pen used to be of Nikhalu. Each time you have dip in into ink pot.

Before that student in early stage used to carry Pathi and they were using Kaith on the slate for learning A, AA, EE,.

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Now
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Pathi has disappeared and pen, book starts from the first of KG itself. Huge and welcome change.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

ARTILCE BY : bckukreti@gmail.com]
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प्रिय मित्रो
हर युग में नए माध्यम ने कई मुहावरों को  व् बातचीत का ढंग ढाल बदला है . अब इन्टरनेट से भी hamaaree  भाषा
व मुहावरे  बदल रहे हैं ,

देखते हैं गढ़वाली में क्या क्या बदलाव आ सकते हैं .
पहले परिचय ऐसा होता था , "ये मेरी दुगड्डा वाली भाभी हैं, ये टिहरी वाली काकी हैं,  अब बुले जालो, " या मेरी शादी.कॉम वाली बौ च अर या  टाईम्स मैत्रिमोनिअल ,कॉम वाली बौ च". एक जमानो माँ सहेली या  दगदयानी  या dagadya  को परिचय इन हुन्दो थौ, " यु म्यार स्कुल्या दोस्त    च अर यु क्लास फेलो च यानि  साथ साथ फेल व्है छया .
अब एक हैंको परिचय इन हुन्द,' या मेरी आर्कुट की सहेली च अर या पेंद्रिवे की फ्रेंड च ता वा क्याफनी डॉट कॉम की सहेली च,"
मुहावरों माँ बी कथगा इ बदलाव आला.
पेल इन बुल्दा छाया ," या ब्वारी इन कामगति च या सुघड़ च "  . अब बुले जाल, " मेरी या भारत मैत्रिमोनिअल डॉट कॉम की ब्वारी गूगल जन कामगति च पण या गढ़वाली शादी डॉट कॉम वाली याहू डॉट कॉम जन अल्गसि अर कुसवर्या च "
 पैलू मेखुन  बुले जान्द छौ, " यु भीषम किताबुं फार चिप्क्यु रौंद अर अब बुले जान्द नेट जान या यु भीष्म जाण"
छवीं चैट माँ बदले ग्याई  . पेल बुले जान्द छौ  बल या ब्वारी बड़ी छूयाल च  अब बुले जान्द या शादी डॉट कॉम वाली ब्वारी बड़ी चैटवाली  व्है ग्ये.
पैल बुल्दा थय बल नए   नए  का ग्वार अर घुसे घुसे का स्वर भार नि हुए जय सक्यन्द. अब बुले जालो नए नए किक
ग्वार अर नेट पर छवीं lagaik swaar thuka व्है sakyaand .
baki haink din

विनोद सिंह गढ़िया:
बीते दिनों का पहाड़
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आज (२०१०) से  ०५-०६ साल पहले हमारे उत्तराखंड में मोबाइल सेवा नहीं थी, लोग सिर्फ चिट्ठी (पत्र) का ही इन्तजार करते थे | डाकिया स्कूल में आता था और स्कूल के बच्चों को चिट्ठी बाँट देता था, पास-पड़ोस के लोगों की चिट्टी भी हमें दे जाता था और उनको दे देने को बोलता |

आज का पहाड़
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आज संपूर्ण उत्तराखंड में मोबाइल सेवा है, घर-घर में मोबाइल हैं, चिट्ठियों का तो जमाना गया और डाकिये के मजे हैं, उसको चिट्टी बाँटने अब नहीं जाना पड़ता |

Hisalu:
वो भी क्या दिन थे
भट्टी में बनती है लाल सिंह बूबू की दड़बड़ी चाय, अब पांच रुपये की चाय में घर चलाना मुश्किल
एक पैसे की चाय में 10 बच्चे पाले
चौखुटिया। भट्टी में 60 साल से दड़बड़ी चाय बनाने वाले लाल सिंह बूबू की एक पैसे की चाय पांच रुपये पर पहुंच गई है। जीवन के 75 साल में जमाने का मिजाज बदल गया है। भट्टी की जगह स्टोव और गैस चूल्हे लेने लगे हैं। उनकी न तो भट्टी बदली न खुद का ढर्रा। बताते हैं एक पैसे की चाय बेचकर दस बच्चों को पाला अब पांच रुपये में चाय बेचकर भी घर चलाना मुश्किल हो रहा है।
रामपुर कस्बे के निकट एक खौम्चेनुमा दुकान में बैठे लाल सिंह बूबू कभी लोहे की फूंकनी से फूंक मारकर धुएं के गुबार को कम करने का प्रयास करते दिखते हैं, तो दूसरे ही पल गिलास में चीनी डालकर चम्मच से घोलते नजर आते हैं। भट्टी में रखी पुरानी केतली, चाय और पत्ती के जर्जर हो चुके दो पुराने डिब्बे बाकी की कहानी खुद बयां कर देते हैं।
बिजरानी निवासी लालसिंह (75) जब छह साल के थे तो पिता धनसिंह चल बसे। घर की जिम्मेदारी थी, सो पढ़ाई नसीब नहीं हुई। कृषि कार्य के साथ ही 1953 में चाय की दुकान खोली। बताते हैं शुरूआत में चाय एक पैसे गिलास बिकती थी। बीड़ी बंडल दो पैसे, बिस्कुट एक पैसे और मिश्री दस पैसे किलो थी। दुकान का किराया 50 पैसे प्रतिमाह था। सड़कें नहीं थीं। पैदल यात्रियों की आवाजाही से सौ से डेढ़ सौ गिलास चाय बिक जाती थी।
कहते हैं मैं ठहरा अंगूठा छाप। पहले एक पैसे से लेकर एक रुपये तक की चाय बेचकर दो बेटों और तीन बेटियों के साथ ही भाई के पांच बच्चों यानी कि दस बच्चों की परवरिश कर शादी की। आज पहले जैसी बिक्री नहीं है फिर महंगाई के चलते पांच रूपये की चाय बेचकर भी घर चलाना मुश्किल हो रहा है।
स्वाद लग जाए तो...
चौखुटिया। लालसिंह बूबू ने पहले तीन भैंसें पाली थीं। अब एक भैंस है। चाय में घर का दूध ही इस्तेमाल होता है। कहते हैं कि घर की भैंस का गाढ़े दूध से बनी और भट्टी पर उबली चाय का स्वाद लग जाए तो पीने वाला स्टोव और गैस में बनी चाय कभी नहीं पीएगा। बूबू सुबह पांच बजे उठते हैं।


source: http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20130924a_002115006&ileft=342&itop=1153&zoomRatio=130&AN=20130924a_002115006

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