Author Topic: Tribute to Great Poet and Our Beloved Girda आखिर गिरदा चले गये.. श्रद्धांजली  (Read 33357 times)

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Girish Tiwari 'Girda'

The friend of people, philosopher of communities and  guide of social movements Girish Tiwari  'Girda' walked  to his heavenly  mountain abode at 11.31 AM on 22 August 2010.

When we were thinking that he is critical, he survived  and when we thought he is recovering he just flew away.

On 23 August his funeral was unusual as hundreds of  people participated in the procession. First time the sisters and daughters  participated in the funeral. First time the participants in the funeral procession  were singing the songs of the departed person. They were singing and weeping  and weeping but singing.

We are thinking and discussing how to remember him  now. This evening (25 August   2010) there will be public condolence in Nainital. Some new ideas may  come out. Yes Girda has created a difficult vacuum. We have to plan out a way for  filling it with all creativity.

This is end of an epoch. Girda is gone. No, he is with  us in his poems, plays, music, acting, Holi processions, lectures and  discussions etc. He is very much with us. This presence will compel us all to  work collectively and creatively for the people.

Suggest how to make his memory meaningful generally for  the communities of mountains and particularly for the people of Uttarakhand?

PAHAR (Girda was one of the founders of PAHAR and  member of the editorial board) is already working on his poems and plays. These  three volumes will be published with in a year. A special volume of PAHAR will  be published as a compilation of the 'Girda Memoirs' of different people. This  will be an endeavour to look at Girda from countless angles.

Apart from his larger family he survived by his wife Smt. Hemlata Tiwari (Address: Sunny View, Cantt, Tallital,  Nainital-263002, India,  Phones 91-5942-238430 and mobile 91-9927645274), two sons and a daughter in  law. The family needs all kind of support from friends and well-wishers.

Shekhar Pathak
25 August 2010

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Film Director Bela Negi from Mumbai -

Deeply saddened by this news. May God Girda soul rests in peace!

हेम पन्त

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एक सुन्दर कविता के माध्यम से रोहित जोशी ने अपने ब्लाग पर गिरदा को श्रद्धांजली दी है.

श्रोत - ekordiary.blogspot.com

दो झीलें (गिर्दा के चले जाने पर)


वहां एक झील रहती थी
उस शहर में।
कल्लूखान में साह जी के
मकान की पहली मंजिल पर।
एक गहरी झील थी वह।
इतनी कि डूबते डूबते
भी तल ना मिले।
हवा की सिहरन
जब गुजरती उस पर से
तो झूम उठती थी वह।
लबालब थी जहां तक थी।
खुले आकाश जैसी थी वह।
छोटी छोटी मछलियां भी
उड़ पाती थी वहां
बड़े पंखों की उड़ान।

यह एक ऐसे शहर में थी
जहां एक दूसरी झील भी थी।
यह दूसरी,
गहरी रही होगी कभी
पर अब नहीं थी।
माप ली गई कई पहले
कि फलां मीटर है बेचारी।

इस दूसरी की नमीं के चारों ओर
वनस्पति ने उगना बन्द कर दिया था।
वहां उग रहा था लगातार बाजार
और उपक्रम उसी के।

अब गहरा भी रही है
यह ‘दूसरी झील' निरंतर
लेकिन आकाश नहीं खुलता यहां।
अंधेरा और गहराता जाता है
इसमे नीचे उतरते ।

माना! गर सूख गई अचानक
‘दूसरी झील' कभी
तो
कंकरीट का जंगल ही
जा उगेगा ना वहां..।

लेकिन..
पिछले दिनों नहीं रही अब ‘पहली झील'
पर इतनी नमी छोड़ गई है यह
कि सदियों हरा भरा
जंगल ही उगेगा यहां।

पंकज सिंह महर

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"क्या बात थी यार गिर्दा तुम्हारी"

उत्तराखंड के जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की  स्मृति में हिंदी के वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल जी का लेख। कबाड़ख़ाना से साभार.



क्या शानदार शवयात्रा थी तुम्हारी जिसकी तुमने जीते जी कल्पना भी न की होगी. ऐसी कि जिस पर बादशाह और मुख्यमन्त्री तक रश्क करें. दूर-दूर से गरीब-गुरबा-गंवाड़ी. होटलों के बेयरे और नाव खेने वाले और पनवाड़ी. और वे बदहवास कवि-रंगकर्मी, पत्रकार, क्लर्क, शिक्षक और फटेहाल राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता जिनके दिलों की आग अभी भी ठण्डी नहीं पड़ी है. और वे स्त्रियां, तुम्हारी अर्थी को कन्धा देने को उतावली और इन सब के साथ ही गणमान्यों - साहिबों - मुसाहिबों का भी एक मुख़्तसर हुजूम. मगर सबके चेहरे आंसुओं से तरबतर. सब एक दूसरे से लिपट कर हिचकियां भरते.

सबके रुंधे हुए कण्ठों से समवेत एक के बाद फूटते तुम्हारे वे अमर गीत जो पहले पहल सत्तर के चिपको आन्दोलन के दौरान सुनाई दिए थे और उसके बाद भी उत्तराखण्ड के हर जन आन्दोलन के आगे आगे मशाल की तरह जलते चलते थे: "जैंता एक दिन तो आलौ, दिन यो दुनि में/ आएगा मेरी प्यारी जैंता वो दिन/ चाहे हम देख सकें चाहे तुम न देख सको/ फिर भी आएगा तो प्यारी वो दिन/ इसी दुनिया में ." वो एक सुदूर झिलमिलाता सपना जैसे एकमेक हो चुके दिलों में हिलोरें लेने लगता था. रोमांच, उम्मीद और हर्षातिरेक से कंपकंपाते हुए ये जुलूस आज भी स्मृति में एक खंडित पवित्रता की तरह बसे हुए हैं.

क्या बात थी यार गिर्दा तुम्हारी भी! अफ़सोस, सख़्त अफ़सोस कि मैं तुम्हारी इस विदा यात्रा में शामिल अहीं हो पाया जिसका यह आंखों देखा हाल मैं लिख रहा हूं. और इस समय मुझे तुम्हारी वह खरखरी हंसी साफ़ सुनाई दे रही है जिसे तुम गले से सीधे गालों में भेजते थे और दांतों में थोड़ा सा चबाकर बाहर फेंक देते थे. कैसा विचित्र नाटक है यार! क्या तो तुम्हारी बातें, क्या तो तुम्हारे शक. घाटियों, चोटियों, जंगलों, बियावानों लनाकीर्ण मेले-ठेलों, हिमालय की श्रावण संध्याओं और पहाड़ी स्त्रियों के पुलकते और गमगीन दिलों से बटोरे गए काष्ठ के अधिष्ठान्न, जिनमें आग जलाई जाएगी और खाना पकेगा. और तुम्हारी वो आवाज़? बुलन्द, सुरीली भावों भरी, सपनीली: "ऋतु औनै रौली, भंवर उड़ाला बलि/ हमरो मुलुका भंवर उड़ला बलि/ चांदनी रातों में भंवरे उड़ेंगे सुनते हैं/ हमारे मुलुक में खूब भंवरे उड़ेंगे सुनते हैं. हरे - हरे पत्ते में रखकर खूब बढ़िया दही खाएंगे हम सुनते हैं. अरे क्या भला लगेगा कि हमारे मुलुक में भंवरे उड़ेंगे ही!"

कभी वो पुकार होती थी तुम्हारी, पुरकशिश. क्षुब्ध आन्दोलनों की हिरावल ललकार: "आज हिमाला तुम्हें बुलाते हैं. जागो -जागो हे मेरे लाल. जागो कि हम तो हिल भी नहीं सकते. स्वर्ग में हैं हमारी चोटियां/ और जड़ें पाताल. अरी मानुस जात, ज़रा सुन तो लेना/ हम पेड़ों की भी बिपत का हाल. हमारी हड्डियों से ही बनी कुर्सियां हैं इनकी/ जिन पर बैठे वे हमारा कर रहे ये हाल/ देखना-देखना एक दिन हम भी क्या करते हैं इनका हाल." ये केवल पेड़ नहीं हैं जिनकी हड्डियों से उनकी कुर्सियां बनी हैं. ये केवल आत्मरक्षा की फ़रियाद भी नहीं, परस्पर सहयोग की मांग है. ये केवल हिमालय भी नहीं है जो अपने बच्चों से जागने को कह रहा है. इतिहास, प्रकृति, लोक और वर्तमान का ये अनूठा जद्दोजेहद भरा रिश्ता है जो लोकगीतों की मर्मस्पर्शी दुनियाके रास्ते गिर्दा ने अपनी कविता में हासिल किया है और जिस रिश्ते के साथ वह बेईमानी, अत्याचार, ढोंग और अन्याय के ख़िलाफ़ अपना मोर्चा बांधता है:

"पानी बिच मीन पियासी/ खेतों में उगी उदासी/ यह उलटबांसियां नहीं कबीरा/ खालिस चाल सियासी." किसान आत्महत्याओं के इस दुर्दान्त दौर के बीस-पच्चीस बरस पहले लिखी उसकी यह ’कबीर’ ही नहीं, उसकी समूची कविता, उसके गीत, उसके नाटक, उसका रंगकर्म - उसका समूचा जीवन सनातन प्रतिरोध का है. जैसा कि मौजूदा हालात में किसी भी सच्चे मनुष्य और कवि का होगा ही. तीस पैंतीस साल के मुतवातिर और अत्यन्त प्रेमपूर्ण सम्बन्ध के बावजूद मुझे ये मालूम ही नहीं था कि गिर्दा की उम्र कितनी है. दोस्तों, हमखयालों, हमराहों के बीच कभी वह बड़ा समान लगता और कभी खिलखिलाते हुए सपनों और शरारत से भरा एकदम नौजवान.

ये तो उसके मरने के बाद पता चला कि उसकी पैदाइश १० सितम्बर १९४३ की थी, अल्मोड़ा ज़िले के गांव ज्योली की. वरना वो तो पूरे पहाड़ का लगता था और हरेक का कुछ न कुछ रिश्तेदार. जब उसने काफ़ी देर से ब्याह किया और प्यार से साज-संभाल करने वाली हीरा भाभी उस जैसे कापालिक के जीवन में आई तो लम्बे अर्से तक हम निठल्ले, छोकड़ों की तरह दूर से देखा करते थे कि "देखो, गिर्दा घरैतिन के साथ जा रहा है." कभी थोड़ा आगे और अक्सर थोड़ा पीछे हमारी सुमुखी भाभी, और साथ में लजाए से भीगी बिल्ली से ठुनकते गिर्दा. दाढ़ी अलबत्ता चमक कर बनी हुई, मगर कुर्ता वही मोटा-मोटा और पतलून, और कन्धे पर झोला जिसमें बीड़ी-माचिस, एकाध किताब-पत्रिका, मफ़लर. यदा-कदा कोई कैसेट और कुछ अन्य वर्जित सामग्री भी. आख़िर तक उसकी यह धजा बनी रही.

अलबत्ता दिल का दौरा पड़ने के बाद पिछले कुछेक बरस यह फ़ुर्तीली चाल मन्द हो चली थी. चेहरे पर एक छिपी हुई उदासी की छाया थी जिसमें पीले रंग का एक जुज था - अपरिहार्य आगात का पीला जुज. और झाइयां आंखों के नीचे, और बातचीत में रह-रहकर उमड़ता लाड़. सन सतत्तर - अठत्तर, उन्यासी या अस्सी साल के जो भी रहा हो, उस से पहली मुलाकात मुझे साफ़-साफ़ और बमय संवाद और मंचसज्जा के पूरम्पूर याद है.

नैनीताल में ऐसे ही बरसातों के दिन थे और दोपहर तीन बजे उड़ता हुआ नम कोहरा डीएसबी के ढंके हुए गलियारों-सीढ़ियों-बजरी और पेड़ों से भरे हसीन मायावी परिसर में. हम कई दोस्त किसी चर्च की सी ऊंची सलेटी दीवारों वाले भव्य ए एन सिंह हॉल के बाहर खड़े थे जहां कोई आयोजन था. शायद कोई प्रदर्शनी. रूसी पृष्ठभूमि वाली किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म्के इस दृश्य के बीचोबीच सलेटी ही रंग के ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले, तीखे-लगभग ग्रीक नैननक्शों और घनी घुंघराली ज़ुल्फ़ों वाला एक शख़्स भारी आवाज़ में कह रहा था: "ये हॉल तो मुझे जैसे चबाने को आता है. मेरा बड़ा जी होता है यार इसके इर्द्गिर्द ’अंधायुग’ खेलने का. मैंने चिहुंक कर देखा -डीएसबी कॉलेज में अन्धायुग? वहां या तो अंग्रेज़ी के क्लासिक नाटक होते आए थे या रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर के एकांकी. राजीव लोचन ने आगे बढ़कर मुझे मिलवाया: ये गिरीश तिवाड़ी हैं वीरेन जी, ’चिपको’ के गायक नेता और ज़बरदस्त रंगकर्मी. वैसे सॉंग एन्ड ड्रामा में काम करते हैं.

बड़े भाई हैं सबके गिर्दा.. गिर्दा ने अपना चौड़ा हाथ बढ़ाया. किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म के दयालु रूसी पात्र जैसा भारी चौड़ा हाथ. देखते देखते हम दोस्त बन गए. देश-दुनिया में तरह तरह की हलचलों से भरे उस क्रान्तिकारी दौर में शुरू हुई हमारी वह दोस्ती २१ अगस्त २०१० को हुई उसकी मौत तक, बग़ैर खरोंच कायम रही. उसके बाद तो वह एक ऐसी दास्तान का हिस्सा बन गई है जिसे अभी पूरा होना है. जिसके पूरा होने में अभी देर है. गिर्दा को याद करते हुए ही इस बात पर भी ध्यान जाता है कि यह शख़्स अपने और अपने भीषण जीवन संघर्ष के बारे में कितना कम बोलता था. वरना कहां तो हवालबाग ब्लॉक का उसका छोटा सा गांव और कहां पीलीभीत-लखीमपुर खीरी के तराई के कस्बे-देहातों और शहर लखनऊ के गली कूचों में बेतरतीब मशक्कत और गुरबत भरे वे दिन.

गरीबी से गरीबी की इस खानाबदोश यात्रा के दौरान ही गिरीश ने अपने सामाजिक यथार्थ के कठोर पाठ पढ़े और साहित्य, लोक रंगमंच और वाम राजनीति की बारीकियां भी समझीं. संगीत तो जनम से उसके भीतर बसा हुआ था. १९६७ में उसे सॉंग एन्ड ड्रामा डिवीज़न में नौकरी मिली जो उत्तराखण्ड के सीमावर्ती इलाकों में सरकारी प्रचार का माध्यम होने के बावजूद बृजेन्द्रलाल साह, मोहन उप्रेती और लेनिन पन्त सरीखे दिग्गजों के संस्पर्श से दीपित था. यहां गिर्दा खराद पर चढ़ा, रंगमंच में विधिवत दीक्षित हुआ और उसकि प्रतिभा को नए आयाम मिले. कालान्तर में यहीं वह क्रान्तिकारी वामपन्थ के भी नज़दीक आया. खासतौर पर पहाड़ के दुर्गम गांवों की जटिल जीवन स्थितियों से निकट के सम्पर्क, द्वन्द्वात्मक राजनीति चेतना, और मानवीयता पर अटूट विश्वास ने ही इस अवधि में गिरीश चन्द्र तिवाड़ी को गिर्दा बनने में मदद दी है.

’चिपको’ के उन जुझारू नौजवानों का भी इस रूपान्तरण में कुछ हाथ रहा ही है जो अब अधेड़, और कई बार एक दूसरे से काफ़ी दूर भी हो चुके हैं, पर जो तब परिवर्तन के साझा सपनों के चश्मदीप और एकजुट थे, वे पढ़ते थे, सैद्धान्तिक बहसें करते-लड़ते भी थे. एक दूसरे को सिखाते थे. नुक्कड़ नाटक करते-सड़कों पर जनगीत गाते थे. साथ साथ मार खाते और जूझते थे. शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, पी सी तिवारी, प्रदीप टम्टा, ज़हूर आलम, राजीव लोचन साह, निर्मल जोशी, गोविन्द राजू, हरीश पन्त, महेश जोशी - एक लम्बी लिस्ट है. गिर्दा ने जब भी बात की इन्हीं और इन्हीं जैसी युवतर प्रतिभाओं के बाबत ही की. उआ ’नैनीताल समाचार’ और ’पहाड़’ और ’युगमंच’ के भविष्य की. अपने और अपनी तकलीफ़ों के बारे में उसने मुंह तक कभी नहीं खोला. मुझे याद है मल्लीताल में कोरोनेशन होटल के नाले के पास नेपाली कुलियों की झोपड़पट्टी में टाट और गूदड़ से भरा उसका झुग्गीनुमा कमरा जिसमें वह एक स्टोव, तीन डिब्बों, अपने सम्भवतः नेपाली मूल के दत्तक पुत्र प्रेम, और पूरे ठसके के साथ रहता था.

प्रेम अब एक सुघड़ सचेत विवाहित नौजवान है और ग़ाज़ियाबाद के एक डिग्री कालेज में पढ़ाता है. अलबत्ता ख़ुद गिर्दा का बेटा तुहिन अभी छोटा ही है और ग्रेजुएशन के बाद के भ्रम से भरा आगे की राह टटोल रहा है. एक बात थोड़ा परेशान करती है. एक लम्बे समय तक गिर्दा काफ़ी हद तक अवर्गीकृत हो चुका संस्कृतिकर्मी था. उसकी सामाजिक, आर्थिक महत्वाकांक्षाएं अन्त तक बहुत सीमित थीं. जनता के लिए उसके प्रेम में लेशमात्र कमी नहीं आई थी. यही वजह है कि उसके निर्देशित नाटकों, खासतौर पर संगीतमय ’अन्धेरनगरी’ - जिसे युगमंच अभी तक सफलतापूर्वक पेश करता है - ’अंधायुग’ और ’थैंक यू मिस्टर ग्लाड’ ने तो हिन्दी की प्रगतिशील रंगभाषा को काफ़ी स्फूर्तवान तरीके से बदल डाला था. इस सब के बावजूद क्या कारण था कि जनसांस्कृतिक आन्दोलन उसके साथ कोई समुचित रिश्ता नहीं बना पा रहे थे.उसके काम के मूल्यांकन और प्रकाशन की कोई सांगठनिक पहल नहीं हो पाई थी. ये अलग कि वह इसका तलबगार या मोहताज भी न था. अगर होता तो उसकी बीड़ी उसे भी जे. स्वामीनाथन बना देती.आख़िर कभी श्याम बेनेगल ने उसके साथ एक फ़िल्म करने की सोची थी,कहते हैं.

अपनी आत्मा से गिर्दा नाटकों और कविता की दुनिया का एक चेतना सम्पन्न नागरिक था. उसके लिखे दोनों नाटक ’नगाड़े ख़ामोश हैं’ और ’धनुष यज्ञ’ जनता ने हाथों हाथ लिए थे. लेकिन जानकार और ताकतवर लोगों की निर्मम उदासीनता और चुप्पी उसे लौटाकर लोक संगीत की उस परिचित, आत्मीय और भावपूर्ण दुनिया में ले गई जहां वह पहले ही स्वीकृति पा चुका था और जो उसे प्यार करती थी. मगर गिर्दा था सचमुच नाटक और नाटकीयता की दुनिया का बाशिन्दा. हर समय नाट्य रचता एक दक्ष पारंगत अभिनेता और निर्देशक. चाहे वह जुलूसों के आगे हुड़का लेकर गीत गाता चलता हो या मंच पर बांहें फैलाए कविता पढ़ते समय हर शब्द के सही उच्चारण और अर्थ पर ज़ोर देने के लिए अपनी भौंहों को भी फरकाता. चाहे वह नैनीताल समाचार की रंगारंग होली की तरंग में डूबा कुछ करतब करता रहा हो या क्मरे में बैठकर कोई गंभीर मंत्रणा - हमेशा परिस्थिति के अनुरूप सहज अभिनय करता चलता था वो. दर असल लगभग हर समय वह ख़ुद को ही देखता-जांचता-परखता सा होता था.ख़ुद की ही परछांई बने गिर्दा का द्वैध नहीं था यह.

शायद उसके एक नितान्त निजी अवसाद और अकेलेपन की थी यह परछांई. ख़ुद से पूरा न किए गए कुछ वायदों की. खण्डित सपनों, अपनी असमर्थताओं, जर्जर होती देह के साथ चलती अपनी ही माला के यौवन की परछांई थी यह. लोग, उसके अपने लोग. इस परछांई को भी उतना ही पहचानते थे जितना श्लथ देह गिर्दा को. सो ही तो, दौड़ते चले आए थे दूर दूर से बगटुट वे गरीब-गुरबा-गंवाड़ी नाव खेने वाले. पनवाड़ी, होटलों के बेयरे. छात्र-नौजवान, शिक्षक, पत्रकार. वे लड़कियां और गिरस्तिन महिलाएं - गणमान्यों के साथ ही बेधड़क उस शवयात्रा में जिसमें मैं ही शामिल नहीं था. मरदूद !



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गिर्दा के परिजनों को दो लाख की सहायता

देहरादून। मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने स्व. गिरीश तिवारी   गिर्दा के परिजनों को सरकार की ओर से दो लाख रुपये की धनराशि स्वीकृत की   है। मुख्यमंत्री ने स्व. गिर्दा की पत्नी श्रीमती हेमलता तिवारी को भेजे   पत्र में कहा है कि स्व. गिर्दा के जन सरोकारों से जुड़े संघर्ष को आगे   बढ़ाने में सभी लोग प्रयासरत रहेंगे। गिर्दा का असमय निधन उत्तराखंड की   अपूर्णीय क्षति है। इसकी भरपाई नहीं की जा सकती।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6692385.html

दीपक पनेरू

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तदुक नि लगा उदेख गाकर दी गिर्दा को श्रद्धांजलि

      नैनीताल: प्रसिद्ध जनकवि व रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा के   पीपलपानी के मौके पर लोगों ने उनके लिखे गीत-तदुक नि लगा उदैख गाकर   श्रद्धांजलि दी। इस मौके पर लोगों ने उत्तराखंड आंदोलन के दौरान खटीमा व   मसूरी में हुए शहीदों को भी श्रद्धांजलि दी। इस मौके पर गांधी चौक पर धरना   देकर सभा की गई। श्रद्धांजलि सभा के बाद तमाम लोग गिर्दा के कैलाखान आवास   पहुंचे। जहां पीपलपानी का प्रसाद ग्रहण किया। ज्ञातव्य है गत 22 अगस्त को   जनकवि गिर्दा की हल्द्वानी में इलाज के दौरान मत्यु को गई थी। गुरुवार को   उनका पीपलपानी था।   गांधी चौक पर आयोजित सभा में प्रसिद्ध लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के साथ   ही लोगों ने गिर्दा द्वारा लिखा गीत-उठा जागा उत्तराखंडियो, यूं सो उठाड़ो   उत्तराखंड का मान सम्मान बचौनक वक्त ऐगो तथा अन्य आंदोलनकारियों ने तदुक नि   लगा उदैख, घुनन मुनई नि टेक जैंता एक दिन त आलो.गाकर उन्हें श्रद्धांजलि   दी। सभा को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध पर्यावरणविद् पद्मभूषण चंडी प्रसाद   भट्ट ने जन आंदोलनों से जुड़े गिर्दा के संस्मरण सुनाये। उन्होंने कहा कि   पहाड़ के लोक संस्कृति को गिर्दा ने नई दिशा दी। राज्य आंदोलन के दौरान   उनके गीतों ने लोगों में उत्साह का संचार किया। हमें आज संकल्प लेना चाहिए   जो कार्य गिर्दा छोड़ गये उन्हें आगे बढ़ाएं। वक्ताओं ने कहा शहीदों की   शहादत को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। बारिश होने के बावजूद सभा में लोग   डटे रहे। संचालन उलोवा के प्रवक्ता व वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन साह ने   किया। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू, प्रसिद्ध चित्रकार बी   मोहन नेगी, उमेश डोभाल स्मृति ट्रस्ट के ललित कोठियाल, ओंकार बहुगुणा,   मुख्यमंत्री के विशेष कार्याधिकारी बेचैन कंडियाल, विधायक पुष्पेश   त्रिपाठी, पूर्व विधायक नारायण सिंह जंतवाल, पद्मश्री प्रो.शेखर पाठक,   डा.शमशेर सिंह बिष्ट, नवीन बिष्ट, जगत रौतेला, हेमंत बिष्ट, कपिलेश भोज,   गीता गैरोला, पुष्पा चौहान, विमल नेगी, उदय किरौला, उमा भट्ट, दिनेश   तिवारी, कमल नेगी, हरीश पंत, विनोद पांडे, माधवानंद मैलानी, सतीश जोशी,   महेश जोशी, शीला रजवार, पूरन तिवारी, विश्वभरनाथ साह, जहूर आलम आदि मौजूद   थे।

http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=14&edition=2010-09-03&pageno=7

Ajay Tripathi (Pahari Boy)

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it is very sad news that Girda is no more with us but he always be remember and stay alive in our hearts...

नवीन जोशी

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आज बंदरिया नचानेवाला ही कोई नहीं

गिरीश तिवाड़ी ’गिरदा‘ से पीयूष पंत की बातचीत


पिछले महीने की 22 तारीख को जनकवि ‘गिरदा’ का देहावसान हो गया. गिरदा यानी हिंदी के ’गिरीश तिवाड़ी‘ और कुमांऊनी के ’गिरदा‘. अपनी बीमारी का इलाज कराने ’गिरदा‘ जब नैनीताल से दिल्ली आए थे तब यह बातचीत हुई थी. भूमंडलीकरण के इस दौर में किसी जनकवि से साक्षात्कार हो जाना अगर असंभव नहीं तो अविश्वसनीय ज़रूर लगता है. ऐसा इसलिए क्योंकि आज हमारे सारे क्रिया-कलाप बाज़ार की शर्तों पर ही तय होने लगे हैं. जन सरोकारों के प्रति हमारी संवेदना इतनी शून्य हो चुकी है कि जनता के सुख-दुख, उसकी व्यथा-कथा कहने-सुनने की न तो हमें फ़ुरसत है और न ही कोई रूचि. ऐसे में जन सरोकारों को ही अपनी रचनाओं का विषय बनाने वाला कवि वास्तव में जनता का कवि ही कहलाया जाना चाहिए. उन्नीस सौ साठ व सत्तर के दशक में बाबा नागार्जुन के रूप में हमारे पास एक जनकवि था जिसे पढ़ने और जिसको मिलने में हमें सुकून तो मिलता ही था, हमारी हिम्मत भी बढ़ती थी. कुछ ऐसा ही अहसास होता था ’गिरदा‘ से मिलकर. वही ’बाबा‘ जैसी सादगी, भोलापन और कविता पाठ में बालकों जैसी उत्सुकता. अपनी बीमारी का इलाज कराने ’गिरदा‘ जब नैनीताल से दिल्ली आए थे तब यह बातचीत हुई थी.
girda
आज चारों तरफ खुद को भुनाने की होड़ लगी है. ऐसे में जन सरोकारों को ही अपने लेखन के केंद्र में बनाए रखना क्या मुश्किल नहीं लगता ?

देखो भाई, ये होड़ कब नहीं थी. सामाजिक कर्म में ये होड़ हमेशा ही थी. हां, अंतर इतना था कि साहित्य में पहले यह होड़ गलाकाट न होकर लेखक की उत्कृष्टता पर आधारित थी. भई, ये क्यों भूलते हो कि जनवाद को बेचने की होड़ तो तब भी थी. हां, आज फर्क यह आ गया है कि अब साहित्यिक कर्म से जनता का मर्म गायब होता जा रहा है. भइया! ये कह लो कि जनवाद को बेचते-बेचते अब कवि-लेखक खुद को बेचने लगे हैं.

आप तो आज भी जनता से जुड़े मुद्दों, आम आदमी के जीवन संघर्षों, दुख-दर्दों और राजनेताओं के गिरते मूल्यों को अपने रचना कर्म का आधार बनाए हुए हैं? खासकर उत्तराखंड के संदर्भ में.

नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है. देख यार पीयूष! मैं ठैरा पहाड़ का एक आम आदमी, मैं उत्तराखंड में रहता हूं, मैंने अपनी भूमि को धन-धान्यपूर्ण देखा है, मैंने उस कोसी को देखा है जो पहाड़ के लोगों की जीवन रेखा रही है, जो न केवल यहां के लोगों की प्यास बुझाती रही है, खेतों को पानी देती रही है बल्कि पंचभूत में विलीन काया की राख को अपने आगोश में समाती रही है. आज वही कोसी सूख चुकी है, लोग अपने मृतकों की राख तक बहाने के लिए तरस जाते हैं. उन्हें शवदाह के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है. उधर विकास के नाम पर नदियों पर बड़े बांध बनाने के चलते लोगों के लिए जल संकट अधिक गहरा गया है. रही-सही कसर उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पूरी हो गयी. कहां तो हमने सोचा था कि अलग राज्य का बनना हमारे लिए खुशहाली लेकर आएगा लेकिन हुआ इसका उल्टा. अब तो उत्तराखंड, नेताओं और ठेकेदारों की मिली-जुली लूट का चारागाह बन गया है.
सच कहता हूं यार! ये सब मुझे इतना कचोटता है कि मेरा दर्द मेरी कविताओं के रूप में उभर आता है.
शायद इसीलिए आपको उत्तराखंड का ’जनकवि‘ कहा जाता है.

अरे, नहीं, नहीं. ये तो लोगों का प्रेम है शायद. उन्हें लगता है कि मैं उनकी भाषा में उनके ही सरोकारों को अभिव्यक्ति दे रहा हूं.

क्या यही वजह है कि आपकी ज़्यादातर कविताएं कुमाऊंनी भाषा में है और लोक गीतों पर आधारित हैं.

यार, आखिर मैं भी तो उन्हीं लोगों में से ही हूं, उनकी भाषा ही मेरी भाषा है. और फिर अपनी भाषा में अभिव्यक्त किए गए उद्गार ज़्यादा सशक्त होते हैं.

वैसे तुझे बता दूं कि मैं वाचिक परंपरा का कवि हूं. मेरी कविताएं पढ़ने से ज्यादा सुनने के लिए हैं. हो सकता है कि मेरी कविताओं को पढ़ने से वो प्रभाव पैदा न हो सके, जो मेरे द्वारा उनका पाठ करने से या गा कर सुनाने से.

अच्छा, गिरदा, यह जो उत्तराखंड में नदियों को बचाने का आंदोलन चल रहा है, उसे आप किस तरह से देखते हैं?

यह एक सकारात्मक पहल है. पूरे उत्तराखंड में इसको लेकर 13 यात्राएं निकाली गयीं. आम मानस में चेतना तो विकसित हुई है. कुछ इसे आंदोलन कहते हैं, तो कुछ इसे एक अभियान कहते हैं. कई तरह की धाराएं हैं इसमें- सर्वोदयी धारा, गांधीवादी धारा, एनजीओवाली धारा. फिर रवि चोपड़ा है, राधा भट्ट हैं और सुरेश भाई हैं. तो कहीं न कहीं इन सबके अंतर्विरोध से मुझे डर लगता है. फिर भी मुझे लगता है कि आंदोलन आगे बढ़ता रहेगा.

कुछ समूह हैं जो समझदार हैं और आंदोलन को बचा ले जायेंगे. इन समूहों को समर्थन देना होगा लेकिन जो दलाली का काम कर रहे हैं या सरकार से संवाद की बात कर रहे हैं, उनसे बचना होगा. सबसे ज़रूरी यह है कि आपको इस आंदोलन में जनता को जोड़ना होगा क्योंकि सवाल तो जनता की रोजी-रोटी और जीवनयापन का है. साथ ही आंदोलन की सफलता के लिए यह भी ज़रूरी है कि जनसंघर्षों से जुड़े लोग आंदोलन से बराबर जुड़े रहें. गैर-आंदोलनकारी लोग या फंड के आधार पर प्राथमिकताएं तय करनेवाले लोग अगर एक बार हावी हो गए तो सच, आगे यह आंदोलन बिखर जायेगा. मैं तो कहता हूं कि अगर उत्तराखंड में नदी बचाओ आंदोलन को सफल बनाना है तो इसका नेतृत्व विचारवान महिलाओं के हाथ में होना चाहिए. इन महिलाओं का शिक्षित होना भी ज़रूरी है.


लेकिन किसी भी जनांदोलन की सफलता के लिए यह भी तो ज़रूरी है कि उसे व्यापक जन समर्थन मिले?

बिल्कुल ठीक, यह तो बहुत ज़रूरी है. जन समर्थन तो आंदोलन की ऊर्जा होता है. अच्छी बात यह है कि नदी आंदोलन के साथ जनता जुड़ती चली जा रही है. आंदोलन को लेकर पूरे उत्तराखंड में जो यात्राएं निकाली गयी, उनमें गांव के लोग खुद-ब-खुद शामिल होते चले गये. जहां कहीं भी सभाएं की गयीं, उनमें लोगों की भारी भीड़ देखी गयी.[/size]

अच्छा गिरदा, आंदोलन से हटकर आपकी कविताओं की बात की जाए तो आपकी ज़्यादातर कविताओं में उत्तराखंड की ही गूंज सुनाई देती है. जैसे कुली बेगार प्रथा पर आपकी कविता- ’मुल्क कुमाऊँ का सुणि लिया यारों, जन दिया कुली बेगार‘ या कोसी पर लिखी कविता- ’कोशी हरैगे‘ या फिर ’चलो नदी तटवार चलो रे‘. इसी तरह नदियों के निजीकरण पर आपकी कविता- ’इस व्योपारी को प्यास बहुत है‘ आदि.

यार पीयूष, तू कैसी बात कर रहा है! अब मेरी जमीन तो उत्तराखंड ही ठैरी ना. आखिर मैं भी तो इन्हीं लोगों में से हूं, इनकी समस्याएं मेरी भी तो हैं. बस, इनके दुख-दर्द को मैं कविताओं में अभिव्यक्त कर देता हूं. कविताएं जन को प्रेरणा भी देती हैं और अभिव्यक्ति भी.

आपको अपनी कौन सी कविता सबसे अच्छी लगती है?[/size]

यार तूने तो बहुत कठिन सवाल पूछ डाला. अपने बच्चों में कोई फ़र्क करता है क्या? वैसे मुझे अपनी कविता ’इस व्योपारी को प्यास बहुत है’ अच्छी लगती है. ’चलो नदी तटवार चलो रे...‘ लोक संस्कृति पर आधारित है, इसमें लोगों को अपनी गूंज मिलती है.

•  अच्छा गिरदा, जन कविता की बात हो ही रही है तो यह भी बता दीजिए कि आज जनवादी साहित्य का अकाल क्यों पड़ गया है जबकि परिस्थितियां काफी माफ़िक हैं?

कई कारण हैं. आज शिल्पगत विशेषताओं पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है. जन चेतना वाले लोग राजधानियों में काबिज़ हो गए हैं. भूमंडलीकरण के कारण पारिवारिक आवश्यकताएं बढ़ रही हैं, आर्थिक दबाव बढ़ रहे हैं, इसलिए जन अकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कम होती जा रही है. सबसे बड़ी बात तो ये है कि आज फ़कीरी करने के लिए कोई तैयार नहीं है, रचना कार्य के लिए फ़कीरी ज़रूरी है. दूसरा, संवेदनाएं भी कम हुई हैं. जब बंदरिया नचानेवाला ही नहीं है तो फिर बंदरिया कौन देगा.


गिरदा की तीन कविताये[/size]

एक
कैसे कह दूं, इन सालों में,
कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,
दो बार नाम बदला-अदला,
दो-दो सरकारें बदल गई
और चार मुख्यमंत्री झेले।
"राजधानी" अब तक लटकी है,
कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,
मानसिक सुई थी जहां रुकी,
गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,
वो सुई वहीं पर अटकी है।
वो बाहर से जो हैं सो पर,
भीतरी घाव गहराते हैं,
आंखों से लहू रुलाते हैं।
वह गन्ने के खेतों वाली,
आंखें जब उठाती हैं,
भीतर तक दहला जातीं हैं।
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आंखों का सपना बिखर गया।
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है।
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आंखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं।
थोड़ी भी गैरत होती तो,
शर्म से उनको गढ़ जाना था,
बेशर्म वही इतराते हैं।
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,
सपना चकनाचूर हुआ,
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,
गहराता नासूर हुआ।
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,
जंगल-जल कत्लेआम हुआ,
जो पहले छिट-पुट होता था,
वो सब अब खुलेआम हुआ।

पर बेशर्मों से कहना क्या?
लेकिन "चुप्पी" भी ठीक नहीं,
कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’
इसलिये तुम्हारे माध्यम से,
धर दिये सामने सही हाल,
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!
 

दो
चुनावी रंगे की रंगतै न्यारी,
मेरि बारी! मेरी बारी!! मेरि बारी!!!
दिल्ली बै छुटि गे पिचकारी,
अब पधान गिरी की छू हमरी बारी,
चुनावी रंगे की रंगतै न्यारी।
मथुरा की लठमार होलि के देखन्छा,
घर-घर मची रै लठमारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!

आफी बण नैग, आफी बड़ा पैग,
आफी बड़ा ख्वार में छापरि धरी,
आब पधानगिरी छू हमरि बारि।
बिन बाज बाजियै नाचि गै नौताड़,
खई पड़ी छोड़नी किलक्यारी,
आब पधानगिरी की छू हमरि बारी।
रैली थैली, नोट-भोटनैकि,
मची रै छो मारामारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!

पांच साल तक कान-आंगुल खित,
करनै रै हूं हु,हुमणै चारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
काटि में उताणा का लै काम नि ऎ जो,
भोट मांगण हुणी भै ठाड़ी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!

पाणि है पताल, ऎल नौणि है चुपाड़,
मसिणी कताई बोल-बोल प्यारी,
चुनाव रंगे की रंगतै न्यारी।
जो पुजौं दिल्ली, जो फुकौं चुल्ली,
जैंकि चलैंछ किटकन दारी,
चुनाव रंगे की रंगते न्यारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
चुनाव रंगे की रंगते न्यारी।


तीन
हालात-ए-सरकार ऎसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?

हादसा बस यों कि बच्चों ने उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?

गोलियां कोई निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?

खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?

कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?

आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?

आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?

Courtsy: http://raviwar.com/baatcheet/B37_interview-girda-jankavi-uttarakhand-piyush-pant.shtml

नवीन जोशी

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शहीदों के साथ याद किये गये गिर्दा
नैनीताल (एसएनबी)। बीते वषां में हमेशा जनकवि गिरीश तिवारी ’गिर्दा‘ की मौजूदगी में राज्य आंदोलन के दौरान खटीमा व मसूरी में शहीद हुए आंदोलनकारियों की याद में एक सितंबर को दिया जाने वाला धरना आज एक दिन बाद आयोजित हुआ। इस आयोजित में ’गिर्दा‘ न होते हुए भी पूरे समय रहे। ऐसा लगा मानो गिर्दा की कविता ओ जैता एक दिन.. के शब्द ’उ दिन हम नि हूंलो, लेकिन उ दिन हम लै हूंलो‘ भी साकार हो रहे थे। इस दौरान बारिश में भीगते हुए गिर्दा के चाहने वाले आंखों से आंसुओं को बहने से रोक नहीं पा रहे थे। सभा की शुरूआत गिर्दा के जुगलबंदी में साथी रहे व ’ज्यों¶ मुरुलि‘ यानी अलगोजा कहे जाने वाले चर्चित कवि व गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने ’उठा जागा उत्तराखंड्यू, से उठाणौ बखत ऐगो‘ से की। उन्होंने गिर्दा को प्रदेश का जनकवि बताते हुए कहा कि उनके लिए यह निजी क्षति है, जिसे भुलाया नहीं जा सकेगा। आंदोलनकारी चंडी प्रसाद भट्ट ने गिर्दा से वनांदोलन के दौरान उनके तब ही सृजित गीत ’आज हिमाल तुमूकें धत्यूंछौ‘ को बार-बार हुड़ुके पर सुनाने से हुई मुलाकात से लेकर हाल तक की स्मृतियों का भावपूर्ण स्मरण किया। उमेश डोभाल स्मृति न्यास के सचिव उलोवा के शमशेर सिंह बिष्ट, माकपा के बहादुर सिंह जंगी, शेखर पाठक, उक्रांद के पूर्व अध्यक्ष नारायण सिंह जंतवाल, विधायक पुष्पेश त्रिपाठी, कैलाश जोशी, उदय किरौला, जगत रौतेला, पुष्पा चौहान, महिला समाख्या की बसंती पाठक, आदि ने कविताओं एवं आंदोलनकारी तेवरों के लिए गिर्दा को याद किया। सभा के बाद सभी लोग गिर्दा के घर गये और बारहवीं में शामिल होकर प्रसाद ग्रहण किया।
Source: http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=14

हेम पन्त

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गिरदा के पुराने साथी "पलाश विश्वास" ने इस लेख के माध्यम से गिर्दा को याद किया है-

श्रोत - mohallalive.com

गिराबल्लभ, कल नैनीताल में तुम्हारी अंत्‍येष्टि हो जाएगी। पर तुम्हारे किस्से शायद ही खत्म हों। हमेशा से अराजक रहे हो। हुड़का धारण किया तो कुलीन बामहण बाप ने तज दिया। शांत तो कभी थे नहीं तुम। इतनी खामोशी क्या तुम्हें शोभा देती है? तुम तो हमेशा खामोशी के खिलाफ ठैरे। नैनीताल समाचार की वे तूफानी बहसें याद हैं? जब कर्नल सैब बंदूक उठा लेते थे? परेशान पवन राकेश और हरुआ दाढ़ी की गालियां भूल गये? हिमपात की वे गरजती रातें याद हैं? नैनीताल क्लब अग्निकांड याद है? पंतनगर नरसंहार वाली स्टोरी याद है? जब तराई के रुद्रपुर में तुम धन दिये गये थे? तुम्हारी, राजीव, शेखर वगैरह की नीलामी के खिलाफ गिरफ्तारी की वारदात याद है? जब 14 नवंबर 1978 को छात्रों ने विरोध में नैनीताल फूंक दिया था? हिंसा अहिंसा की तूफान बहसें याद हैं, जब तुम सारी दलीलें खारिज करते हुए कह दिया करते थे, जन आंदोलन की दिशा जनता तय करती है, तुम स्साले कौन होते हो? तुम्हारे सौंदर्यबोध से परेशान शेखर पाठक और चंद्रेश शास्त्री के परेशान चेहरे याद हैं? तुम्हारे नाटक नगाड़े खामोश या युगमंच की प्रस्तुतियां तो याद होंगी? या फिर बनारस में राजीव कटियार ने जो मजमा लगाया था… और जनार्दन जोशी… बतौर तुम्हारी जो हम सब टांग खींचा करते थे, भूल गये? हुड़के की थाप पर हिमालय और हिंदुस्तान उठा लेने वाले तुम्हें क्या इतनी खामोशी सुहाती है? हरेले के तिनड़ की कसम, बर्फानी रातों की कसम, जुनाली रातों की कसम. बारामासा बेड़े पाको, जागर, भूस्खलन, बाढ़ की कसम… कल अंत्येष्टि से पहले तमाम खबरों को खारिज करते हुए आपातकाल के खिलाफ बगावत, चिपको आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो की तरह गरज उठो तुम गिरदा।

कल चंडीगढ़ से कलकतिया पत्रकार आलोक वर्मा के फोन पर तुम्हारी बीमारी की खबर लगी। नैनीताल में सारे मोबाइल और टेलीफून खामोश। फिर हरुआ दाढ़ी ने अस्पलाल से खबर की, ऑपरेशन कामयाब है। फिर भी फिक्र थी, तुमने अपनी सेहत की हमेशा ऐसी की तैसी कर रखी थी। भला हो हीरा भाभी का कि इतने दिनों तक तुम्हें जिंदा रखा। मारे डर के सविता के तगादा के बावजूद नैनीताल फोन नहीं किया। पहले ही दौरा से बच कर निकले हो। तुम्‍हें तो हमेशा बीमारी पालने की आदत थी। इसीलिए डर गया था। फिर उम्मीद थी कि अबके जब फोन लगाऊं, तुम्हारी विख्यात हंसी की खनक सुनाई देगी। पर नेट पर मनहूस खबर आ ही गयी। सविता दिनभर दर्द के मारे परेशान थीं। परेशान कर दिया छैरा। उसे हीरा भाभी की फिक्र हो रही ठैरी। पर हम लोग भी तो तुम्हारे बिना कहीं के न ठैरे। सविता ने तो इस अक्तूबर को एलटीए पर नैनीताल जाने का प्लान भी बना लिया। अब पहाड़ जाकर क्या होगा?

कल ही हमने अमेरिका से सावधान पुनश्च लिखना शुरू किया और तुम ठहरे थोड़ा इंतजार भी न कर सके। इस बार छलड़ी के गीत कौन लिखेगा? जुलूस की अगुवाई में हुड़के की थाप कहां सुनाई देगी? भूस्खलन, भूकंप, बाढ़ और रोज रोज की आपदा पर कौन दौड़ेगा? कौन याद दिलाएगा कमिटमेंट, सरोकार और विचारधारा की? कौन फिर कहेगा, फार्म क्या होता है, कानटेंट ही सब कुछ है? कौन पूछेगा दृष्टि के बारे में… कौन लड़ेगा हर शब्द के लिए…

 

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