स्यैणी लटक रे मैत में,
होलि फटक रै चैत में,
कैक करुं मुखड़ि लाल,
कै कें लगु रंग गुलाल।
यह पहली कविता थी शेर दा की जो मैने सबसे पहले सुनी थी और सुनते ही लगा कि, अरेऽऽऽ यह तो मेरी कविता है, मेरे ही भाव हैं। आज ऐसा कवि हमारे बीच से चला गया, जो कहीं दूर, हमसे दूर रहकर भी हमारे भावों को, हमारी भावनाओं को शब्द देता था।
एक और कविता जो हम सब के लिये प्रेरणादायी है और होनी चाहिये-
"गुणों में सौ गुण भरिया, म्यार पहाड़क नान्तिनों,
ये दुनि में गुणै चाईनी, म्यार पहाड्क नान्तिनों।"
हार्दिक श्रद्धांजलि।