Author Topic: Religious Chants & Facts -धार्मिक तथ्य एव मंत्र आदि  (Read 44564 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From - Jai Prakash Dangwal  आइये सर्वप्रथम मन ही मन गणपति का स्मरण करें और फिर आदि गुरु शंकराचार्य जी के द्वारा रचित 'भज गोविन्दम' के चौदहवें और पन्द्रहवें श्लोक के पठन और उस पर चिन्तन का आनंद लें।
 
 जटिलोमुण्डी लुञ्छित केश:
 काषायाम्बर बहुकृतवेष:।
 पश्यन्नपि च न पश्यति मूढो
 ह्युदर निमित्तं बहुकृत वेष:।।
 भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
 गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक 14)
 
 अर्थ:- साधू सिर पर जटा धारण करे हुए हैं, साध्वी ने अपार कष्ट सह सह कर अपने एक एक केश को नोच नोच कर अपने सिर से पृथक करवा दिया है और वह लुञ्छित केशा अर्थात केश मुक्त साध्वी बन चुकी है। इस प्रकार अपने अपने धर्म के नाम पर विभिन्न रंग के वस्त्रों को पहन कर लोग अलग अलग भेष धारण करके समाज में विचरण कर रहे हैं। वह सब उपाय/ आडम्बर  तो मात्र उदर  पूर्ति/ पेट भरने के साधन बन के रह जाते हैं। हम सब मूर्ख लोग यह सब देख कर भी अनजान बने रहते हैं और आडम्बर के भ्रम जाल में फंस कर उनका अनुसरण करते रहते हैं।
 
 व्याख्या: शंकराचार्य जी स्पष्ट कर रहे हैं कि धर्म के नाम पर मनुष्य जो आडम्बर करता है यह सब आडम्बर निहित स्वार्थ के लिए होते हैं। उनमें से प्रमुख स्वार्थ होता है उदर पूर्ति का स्वार्थ और  तत्पश्चात धर्म के नाम पर लोगों के मन में अन्धविश्वास पैदा करके उनके बीच अपना प्रभुत्व जमाने का स्वार्थ। लेकिन हम सब मूर्ख लोग यह सब देख कर भी अनदेखा कर के इस भ्रम जाल में फंस जाते हैं। इन सब उपायों से न तो किसी धर्म के लक्ष्य की प्राप्ति होती है न ही किसी मनुष्य के।
 
 परम पित्ता परमेश्वर की प्राप्ति एवं उसमें समावेष तो हर धर्म में मात्र एकाग्र मन से प्रभु का स्मरण और चितन करने से ही होता है। इसलिए हे मनुष्य अन्धविश्वाश के भ्रम जाल में फंसने से बच और एकाग्र मन से प्रभु का स्मरण और चितन करते हुए प्रभु के साथ एकात्मता का सम्बन्ध जोड़ कर स्वयं भी प्रभु स्वरूप बन जा।
 भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
 गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी।
 
 अंगं गलितं पलितं मुंडम
 दशन विहीन जातं तुणडम।
 वृद्धो याति गृहित्वा दण्डं
 तदपि न मुन्चात्या शापिनडम।।
 भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
 गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक 15)
 
 अर्थ:- जैसे जैसे आयु बढती जाती है, और मनुष्य वृद्धा अवस्थ को प्राप्त होता है, उसके अंग गलने लगते हैं या शिथिल हो जाते हैं। उसके  केश श्वेत हो जाते है, और सारे दांत टूट जाते हैं। वृद्ध पुरुष धीरे धीरे चलने में असमर्थ हो जाता है और बड़ी मुशकिल से वह छड़ी की सहायता से चल पाता  है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि तब भी उसका ध्यान प्रभु की ओर समर्पित होने के बजाय अपनी समस्याओं, अपनी परिकल्पना, अपनी कामनाओं के परि पूर्ण होने की आशा में ही संलग्न होता है।
 
 व्याख्या: आदि गुरु शंकराचार्य जी साश्चर्य बता रहे हैं कि मनुष्य इतना नादान है कि अपनी वृद्ध अवस्था में भी जब कि उसके सारे अंग शिथिल हो जाते हैं, केश श्वेत हो जाते हैं, मुंह में दांत नहीं रहते हैं, वह ठीक से चल भी नहीं सकता तब भी उसे यह अक्ल नहीं आती कि अब वह ऐसी अवस्था में पंहुंच चूका है कि कभी भी उसका अंत हो सकता है। उसे तब भी काल अपने से बहुत दूर नजर आता है और उसका ध्यान प्रभु की ओर समर्पित होने के बजाय अपनी समस्याओं, अपनी परिकल्पना, अपनी कामनाओं में और उनके परि पूर्ण होने की आशा में ही संलग्न रहता है।
 आदि गुरु शंकराचार्य जी का कहना है कि हे मूर्ख मनुष्य इस संसार में तू सदा अपनी यात्रा प्रभु का स्मरण और चिन्तन करते हुए पूरी कर ताकि अंत समय में प्रभु तुझे तेरे लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हों और अंत में तेरा परम पिता परमेश्वर में समावेश हो सके।
 हे नादान मनुष्य यदि तू पूरे जीवन में प्रभु चितन और स्मरण से विमुख रहा है तो कम से कम अंत समय में तो उनका स्मरण और चिंतन करके उनमें समावेश होने का प्रयत्न कर। इसलिए भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Jai Prakash Dangwal आइये सर्वप्रथम मन ही मन गणपति का स्मरण करें और फिर आदि गुरु शंकराचार्य जी के द्वारा रचित 'भज गोविन्दम' के 18, 19, 20 एवम 21 श्लोक के पठन और उस पर चिन्तन का आनंद लें।
 
 सुर मन्दिर तरु मूल निवास:
 शय्या भूतल मजिनं वासः।
 सर्व परिग्रह मोहगत्याग:
 कस्यसुखं न करोति विराग:।।
 भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
 गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक 18)
 
 अर्थ:- शंकराचार्य जी अपने इस श्लोक में बता रहे है कि देवालय/ मंदिर में, या वृक्ष के मूल भाग में, बिस्तर पर या नग्न जमीन पर शयन करते हुए , वस्त्र के नाम पर मात्र मृग चर्म धारण किये हुए मनुष्य वैराग्य के नाम पर क्या क्या त्याग नहीं करता। लेकिन इससे उसकी कामनाये शांत नहीं होतीं और न ही उसे मुक्ति मिल पाती है।
 इसलिए हे मनुष्य अपनी सारी कामनाओं से मुक्त हो कर तू सच्चा वैरागी बन कर समस्त कर्मों को करते हुए एकाग्र चित्त से प्रभु का चिन्तन, मनन और स्मरण कर, इससे तू परम पिता  परमेश्वर के परम पद को प्राप्त हो कर तदातमन्य हो जायेगा।
 इसलिए सदैव भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 योग् रतो वा भोग रतो वा
 संग रतो वा संगविहीन:।
 यस्य ब्रहमणि रमते चितं
 नन्दति नन्दति नन्दत्येव।।
 भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
 गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक 19)
 
 अर्थ:-  शंकराचार्य जी अपने इस श्लोक में बता रहे हैं कि हे मनुष्य चाहे तू योग में लीन हो या भोग/ विषय वासनाओं में लीन हो, चाहे तू अपने बहुत सारे संगी साथियों के साथ हो, चाहे तू एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा हो, लेकिन इन सब कर्मों में लिप्त होने के बाद भी यदि तेरा मन सदैव प्रभु चिन्तन, मनन और स्मरण में लीन और आनन्द में मग्न है तो तुझे किसी भी कर्म का दोष नहीं लगेगा और तू प्रभु कृपा से उनके परम पद को अवश्य ही प्राप्त कर लेगा। इसलिए . . . भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 भगवदगीता किंचिदधीता
 गंगा जललवकणिका पीता।
 सकृद पि येनमुरारिसमर्चा
 क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।
 भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
 गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक 20)
 
 अर्थ:-  शंकराचार्य जी इस श्लोक में भगवदगीता, गंगा जल, एवं मुरारि/ भगवान श्री कृष्ण का महत्त्व समझा रहे हैं। उनका कहना है की जिस मनुष्य ने भगवदगीता का अंश मात्र भी अध्यन्न किया हो, जिसने गंगा जल की बूंद का एक अंश भी ग्रहण किया हो, और जिसने एक बार भी भगवान श्री कृष्ण का सच्चे मन से स्मरण या पूजन किया हो उसे मृत्यु का कभी  भी भय नहीं रहता है।
 
 पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं
 पुनरपि जननी जठरे शयनम।
 इह संसारे बहुदुस्तारे
 कृपयाअपारे पाहि मुरारे।।
 भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
 गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक21)
 
 अर्थ:- बार बार जन्म, बार बार मरण, बार बार नौ माह तक मां के गर्भ में रहना, इस प्रकार से इस संसार में रहते हुए इस भव सागर को पार करना अत्यंत ही दुष्कर है, कठिन है। इसे मनुष्य तुम तभी सहजता से पार कर सकते हो जब सदैव भगवान् कृष्ण का एकाग्र चित्त से चिन्तन, मनन, स्मरण और भजन करते रहोगे। और तभी तुम उनके परम पद को प्राप्त कर सकोगे.
 इसलिए सदैव . . . . भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 व्याख्या: श्लोक 18, 19, 20, एवं 21.
 श्लोक 18: आप चाहे वैराग्य के नाम पर शरीर को कितने ही कष्ट दे लें लेकिन जब तक मनुष्य अपने ज्ञान का उपयोग करके मोह को त्याग करके सच्चे मन से एकाग्र चित्त हो कर सभी सांसारिक  कर्मों को करते हुए सदैव प्रभु का चितन, मनन और स्मरण करते हुए उनके ध्यान में लीन नहीं रहता तब तक उसके लिए यह भव सागर पार करके परम पिता परमेश्वर के परम पद को प्राप्त कर पान संभव नहीं है। इसलिए सदैव . . . . भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 श्लोक 19: चाहे कोई योगी हो, चाहे भोगी, बहुत सारे संगी साथियों के साथ रह कर जीवन बिता रहा हो या एकाकी जीवन बिता रहा हो। भले ही वह किसी भी प्रकार का जीवन बिता रहा हो यदि उसका चित्त कोई भी कर्म करते हुए सदैव पर ब्रह्म में लीन और आनन्द में मग्न है तो निश्चित ही वह इस संसार के सभी बन्धनों से मुक्त हो कर परमात्मा के परम पद को प्राप्त कर लेगा।
  इसलिए सदैव . . . . भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 श्लोक 20:- इस श्लोक में आदि गुरु शकराचार्य जी भगवदगीता, गंगा जल, एवं मुरारि/ भगवान श्री कृष्ण का महत्त्व समझा रहे हैं। उनका कहना है कि जिस मनुष्य ने भगवदगीता का अंश मात्र भी अध्यन्न किया हो, जिसने गंगा जल की बूंद का एक अंश भी ग्रहण किया हो, और जिसने एक बार भी भगवान श्री कृष्ण का सच्चे मन से स्मरण या पूजन किया हो उसे मृत्यु का कभी  भी भय नहीं रहता है। और यम/ काल का देवता भी सदैव उसके साथ मित्रवत व्यवहार करता है। ऐसे मनुष्य को निश्चय ही मुक्ति प्राप्त होती है बशर्ते वह सदैव सच्चे मन से प्रभु का मनन, चितन, भजन और स्मरण करता रहे। इसलिए . . . . .  भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 श्लोक 21:- इस संसार से बार बार जन्म, मरण, एवं बार बार मां के गर्भ में कष्ट प्रद शयन जैसे अत्यंत कष्ट प्रदायी अवस्थाओं से बचने के लिए/ मुक्त होने के लिए सदैव भगवान् कृष्ण का एकाग्र चित्त से चिन्तन, मनन, स्मरण और भजन करते हुए सदैव उनसे प्रार्थना करते रहें कि: हे प्रभु इस संसार में इस प्रकार के अनेक कष्ट हैं, इन सबसे मुझे मुक्त करने की कृपा करें।
 प्रभु अवश्य ही तुम्हारे सहायक होंगे। भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
 
 त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी: जय प्रकाश डंगवाल

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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DrPushkar Mohan Naithani
तीन गुण 1- सत्व 2- रजो गुण 3- तमों गुण
सतो गुण की 17 प्रवृत्तियां
1 - शम (मन्ह सयम) 2- दम (इंद्रिय निग्रह ) 3- तितिक्षा (सहिष्णुता ) 4- विवेक 5- ताप 6- सत्यं 7- दया 8- स्मॄति 9- संतोष 10- त्याग 11- विषयों के प्रति अनिच्छा 12- श्रद्धा 13- लज्जा (पाप करने में स्वाभाविक संकोच ) 14- आत्मरति 15- विनय 16- दान 17- सरलता
2 - रजो गुणों की 13 प्रवृत्तियाँ
1- इच्छा 2- प्रयत्न 3- घमंड 4- तृष्णा 5- ऐंठ या अकड़ 6- (देवताओं से धन )याचना 7- भेद - बुद्धि 8- विषय भोग 9- मद 10 यश कामना प्राइम 11 हास्य 12- पराक्रम 13 - हठ - ज़िद्द
तमों गुण की 16 प्रवृत्तियां
1- क्रोध 2- लोभ 3- मिथ्य भाषण 4- हिंसा 5- याचना 6- पाखंड 7- श्रम 8- कलह 9- शौक 10- मोह 11- विशाद 12- दीनता 13- निन्द्रा 14- आशा 15- भाय 16- अकर्मण्यता
एक दम ईमानदारी से आत्मावलोकन कीजिये आप किस खाने में हैं
यही निर्धारित करेगी कि आपके मनवा देहा का परम् उद्देश्य " आत्मा का परमात्मा " में मिलन होगा या 84 के चक्कर में फिर आना पड़ेगा

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शिव पंचाक्षर स्त्रोत

नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय

नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे न काराय नम: शिवाय:॥

मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय

मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे म काराय नम: शिवाय:॥

शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय

श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै शि काराय नम: शिवाय:॥

वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय

चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै व काराय नम: शिवाय:॥

यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय

दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै य काराय नम: शिवाय:॥

पंचाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेत शिव सन्निधौ

शिवलोकं वाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ॐ शं शनैश्चराय नमः॥....ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:॥

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सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं
 विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरुपम |
 निजं  निर्गुण निर्विकल्पं निरीहं
 चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम ||१||
 निराकारओमकारमूलं तुरीयं
 गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम |
 करालं महाकालकालं कृपालं
 गुणागारसंसारपारं नतोहम ||२ ||
 तुषाराद्रीसंकाशगौरं गभीरं
 मनोभूतकोटिप्रभा श्री शरीरम |
 स्फुरन्मौलीकल्लोलिनी चारूगंगा
 लसदभालबालेन्दु कंठे भुजंगा ||३||
 चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं
 प्रसन्नानन् नीलकंठं दयालम|
 मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
 प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||४||
 प्रचण्डं प्रकृषटं प्रगल्भं परेशं
 अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशम |
 त्रय:शूलनिर्मूलनं शूलपाणी
 भजेहम भवानीपति भावगम्यम ||५||
 कलातीतकल्याणकल्पान्तकारी
 सदा सज्जानानंददाता पुरारि:|
 चिदानन्दसन्दोहमोहापहारी
 प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी:||६ ||
 न यावद उमानाथ पादारविन्दं
 भजन्तीह लोके परे वा नराणाम |
 न तावत्सुखं शान्तिसंतापनाशं
 प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ||७||
 न जानामि योगं जपं नैव पूजा
 नतोहम सदा सर्वदा शंभु तुभ्यम |
 जराजन्म दुखौघतातप्यमान
 प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ||८||
 
 रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये |
 ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शंभु: प्रसीदति ||९||

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ॐ नमः शिवाय
कर्पूर गौरं करुणावतारं,
संसार सारं भुजगेन्द्र हारम् ।
सदा वसन्तं हृदयारबिन्दे,
भवं भवानी सहितं नमामि ।

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अथापरं सर्वपुराणगुह्यं निशे:षपापौघहरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्वविपत्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥ २ ॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्‍वव्यापिनमीश्‍वरम्।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ ३ ॥
शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासन: ।

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जटाटवी - गलज्जल - प्रवाह - पावितस्थले
 गलेवलंब्य - लंबितां- भुजंगतुंग - मालिकाम् ।
 डमड्डमड्डमड्डम - न्निनाद - वड्डमर्वयं
 चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम्||

 

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