From - Jai Prakash Dangwal आइये सर्वप्रथम मन ही मन गणपति का स्मरण करें और फिर आदि गुरु शंकराचार्य जी के द्वारा रचित 'भज गोविन्दम' के चौदहवें और पन्द्रहवें श्लोक के पठन और उस पर चिन्तन का आनंद लें।
जटिलोमुण्डी लुञ्छित केश:
काषायाम्बर बहुकृतवेष:।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढो
ह्युदर निमित्तं बहुकृत वेष:।।
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक 14)
अर्थ:- साधू सिर पर जटा धारण करे हुए हैं, साध्वी ने अपार कष्ट सह सह कर अपने एक एक केश को नोच नोच कर अपने सिर से पृथक करवा दिया है और वह लुञ्छित केशा अर्थात केश मुक्त साध्वी बन चुकी है। इस प्रकार अपने अपने धर्म के नाम पर विभिन्न रंग के वस्त्रों को पहन कर लोग अलग अलग भेष धारण करके समाज में विचरण कर रहे हैं। वह सब उपाय/ आडम्बर तो मात्र उदर पूर्ति/ पेट भरने के साधन बन के रह जाते हैं। हम सब मूर्ख लोग यह सब देख कर भी अनजान बने रहते हैं और आडम्बर के भ्रम जाल में फंस कर उनका अनुसरण करते रहते हैं।
व्याख्या: शंकराचार्य जी स्पष्ट कर रहे हैं कि धर्म के नाम पर मनुष्य जो आडम्बर करता है यह सब आडम्बर निहित स्वार्थ के लिए होते हैं। उनमें से प्रमुख स्वार्थ होता है उदर पूर्ति का स्वार्थ और तत्पश्चात धर्म के नाम पर लोगों के मन में अन्धविश्वास पैदा करके उनके बीच अपना प्रभुत्व जमाने का स्वार्थ। लेकिन हम सब मूर्ख लोग यह सब देख कर भी अनदेखा कर के इस भ्रम जाल में फंस जाते हैं। इन सब उपायों से न तो किसी धर्म के लक्ष्य की प्राप्ति होती है न ही किसी मनुष्य के।
परम पित्ता परमेश्वर की प्राप्ति एवं उसमें समावेष तो हर धर्म में मात्र एकाग्र मन से प्रभु का स्मरण और चितन करने से ही होता है। इसलिए हे मनुष्य अन्धविश्वाश के भ्रम जाल में फंसने से बच और एकाग्र मन से प्रभु का स्मरण और चितन करते हुए प्रभु के साथ एकात्मता का सम्बन्ध जोड़ कर स्वयं भी प्रभु स्वरूप बन जा।
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
गोविन्दम भज मूढ़ मते!
त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी।
अंगं गलितं पलितं मुंडम
दशन विहीन जातं तुणडम।
वृद्धो याति गृहित्वा दण्डं
तदपि न मुन्चात्या शापिनडम।।
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम,
गोविन्दम भज मूढ़ मते! (श्लोक 15)
अर्थ:- जैसे जैसे आयु बढती जाती है, और मनुष्य वृद्धा अवस्थ को प्राप्त होता है, उसके अंग गलने लगते हैं या शिथिल हो जाते हैं। उसके केश श्वेत हो जाते है, और सारे दांत टूट जाते हैं। वृद्ध पुरुष धीरे धीरे चलने में असमर्थ हो जाता है और बड़ी मुशकिल से वह छड़ी की सहायता से चल पाता है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि तब भी उसका ध्यान प्रभु की ओर समर्पित होने के बजाय अपनी समस्याओं, अपनी परिकल्पना, अपनी कामनाओं के परि पूर्ण होने की आशा में ही संलग्न होता है।
व्याख्या: आदि गुरु शंकराचार्य जी साश्चर्य बता रहे हैं कि मनुष्य इतना नादान है कि अपनी वृद्ध अवस्था में भी जब कि उसके सारे अंग शिथिल हो जाते हैं, केश श्वेत हो जाते हैं, मुंह में दांत नहीं रहते हैं, वह ठीक से चल भी नहीं सकता तब भी उसे यह अक्ल नहीं आती कि अब वह ऐसी अवस्था में पंहुंच चूका है कि कभी भी उसका अंत हो सकता है। उसे तब भी काल अपने से बहुत दूर नजर आता है और उसका ध्यान प्रभु की ओर समर्पित होने के बजाय अपनी समस्याओं, अपनी परिकल्पना, अपनी कामनाओं में और उनके परि पूर्ण होने की आशा में ही संलग्न रहता है।
आदि गुरु शंकराचार्य जी का कहना है कि हे मूर्ख मनुष्य इस संसार में तू सदा अपनी यात्रा प्रभु का स्मरण और चिन्तन करते हुए पूरी कर ताकि अंत समय में प्रभु तुझे तेरे लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हों और अंत में तेरा परम पिता परमेश्वर में समावेश हो सके।
हे नादान मनुष्य यदि तू पूरे जीवन में प्रभु चितन और स्मरण से विमुख रहा है तो कम से कम अंत समय में तो उनका स्मरण और चिंतन करके उनमें समावेश होने का प्रयत्न कर। इसलिए भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी।