आंचलिक फिल्मों का महत्व तभी है जब वह क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक धरोहर, पहचान को दर्शकोम को रुबरु कराने में सक्षम हो। आपने कितनी उत्तराखण्डी फिल्मों में किसी घटना विशेष पर आधारित लोकगीत की पंक्तियों को रचते हुये, उन्हें गुनगुनाते हुये और लय में गाते हुये सुना है? कितने निर्देशकों ने छानी, ओबरों के क्लोज अप दिखाये हैं, और किसान के हाथों में बल्द का म्यालू, कंधे पर जू और जू पर होल-जोल-निसूड़ा, उसकी पत्नी के सिर पर कल्यो की पोटली, कूटलू, दथुड़ो या गैंती, बरसात में सिर पर मालू के पत्तों से बने गोल छतरे को सिर पर रखे महिलाओ को गाय चराते हुये दिखाया है? हमने किसी फिल्म में घसयारियों की कमर में रस्सी बांधे हुये, एक हाथ में दांथी और दूसरे हाथ में रोटी-प्याज-गुड़ की पोटली थामे देखा है? कभी घसयारियो< व गाय चराने आये ग्वालों को नमक के साथ बुरांस और चीड़ के बीजों का स्वाद चखते देखा है? हाथ में तांबे के बंठे लेकर पानी के धारे की ओर बढ़्ती महिलायें, सिर पर घास और लकड़ी लाती महिलायें, जंदूरु में अन्न पीसती हुई, उरख्यलू? गंजल से अन्न कूटती औरतें, धान मांड़ते लोग, भोजन में छ्छया, फाणू, झंगोरा, बाड़ी, कण्डाली का साग, भवली, गिंजिड़ी, झुंगरियाल, गैथ, भट्ट, घी से लबालब मंडुवे की रोटी.......यह सब हमारी स्संस्कृतिक धरोहरें हैं, और इन्हें फिल्म की पटकथा से जोड़कर सुरक्षित रखा जा सकता है और यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर, हमारी आंचलिक संस्कृति और परम्पराओं के मूल दर्शन से जुड़ी हैं।
लेकिन दुर्भाग्य है कि आज के हमारे आंचलिक फिल्मकार इन सबको छोड़कर मुंबईया मसालों वाली फिल्में बना रहे हैं, जिसे अधिकाश दर्शक वर्ग अस्वीकार कर देता है......मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आज कल की उत्तराखण्डी वी०सी०डी० फिल्मों को मैं अपने घर में परिवार के साथ बैठकर नहीं देख पाता। यह फिल्में हमारा सांस्कृतिक अवमूल्यन ही कर रही हैं।
इसलिये मेरा आप जैसे लोगों से अनुरोध है कि इस फिल्म जगत को आप जैसे लोग ही सुधार सकते हैं, इसलिये नेतृत्व आप अपने हाथ में लीजिये।.......फिर बहुत देर हो जायेगी।