Source : Dainik Jagran 21 March 2009
पौड़ी गढ़वाल। बदलते सामाजिक परिवेश व पाश्चात्य संगीत के चपेट आ चुकी लोकगायकी की धुनों से अब लोकगीत गायब हो गए है। इसके पीछे गायक / गायिकाओं का शार्ट कट फार्मूला अपनाना प्रमुख कारण है।
दशकों पहले गांव की महिलाएं किसी खास उत्सवों पर समूह में और वनों में घास लेने गई घसियारी सामूहिक रूप में लोकगीतों को गाया करती थी। अस्सी के दशक से पूर्व लोक गायिकी में सिर्फ मेल सिंगर ही अपनी आवाज देते थे। यह बात भी दीगर है कि उस समय महिला विषयक गीतों को भी मेल सिंगर ही आवाज देते थे। अस्सी के दशक में महिला गायिकाओं ने भी लोकगायिकी में पदार्पण किया। लोकगायकी में संगीत की धुनें भी समय के साथ-साथ रंग बदलती गई और आज लोकगीतों का नाता टूटने लगा है। पहले ठेठ वाद्य यंत्रों की धुनों पर लोकगीतों की स्वर लहरी हर किसी को पहाड़ों की महिमा सुनाकर अपनी ओर खींच लेती थी। आज थडया, चौंफला, चांचरी, बाजूबंद, झुमैंलो आदि लोकगीत पूरी तरह गायब हो गए है। इसके अलावा जो गीत आए कैसेटों में परोसे जा रहे है उन गीतों के भाव व धुनों पर पूरी तरह पाश्चात्य संस्कृति का रंग चढ़ चुका है। नवोदित गायकों का शार्ट-कट फार्मूला अपनाकर कम समय में अपेक्षा से अधिक सफलता प्राप्त करना प्रमुख कारण माना जा रहा है। संगीत निर्देशक गणेश बीरांन व गीत-संगीत निर्देशक अनिल बिष्ट का कहना है कि नेम व फेम की मैराथन दौड़ के चलते शार्ट फार्मूला अपनाने के साथ-साथ गीतों के व्यवसायीकरण के चलते यह परिवर्तन हुआ है।