अपने पहाड़ का चिरपरिचित गीत "मोती ढ़ागूँ" अपने बचपन की याद दिला देता है.....किलैकि रामलीलाओं मां यू टकळेर गीत कू मंचन होन्दु थौ......मोती ढांगा फर अगर गीत बणि त जरूर रै होलु.... श्री भीष्म कुकरेती जी को पुराने गीतों की की बहुत याद आ रही है ......कोशिश करूंगा और भी पुराने गीत प्रस्तुत करने की.....खोजिक-खोजिक अर् पूछि-पूछिक....
"मोती ढ़ागूँ" कवि.....अज्ञांत
तीले धारू बोला, सबासी मेरा मोती ढांगा.....
चिलमी की कीच,
मेरो मोती ऐगे भरी सारी बीच.
सबासी मेरा मोती ढांगा.....
घोटी जाली हींग,
नौ रुपया कू मोती ढ़ागूँ, सौ रुपया कू सींग,
सबासी मेरा मोती ढांगा.....
कंडाळि को टैर,
भैर नि औन्दु मोती, गरुड़ की डैर,
सबासी मेरा मोती ढांगा.....
छ्मकाई त जाळ,
ज्वान ज्वान कलोड़ियौं देखि, ढ़ौंड मार्दु फ़ाल,
सबासी मेरा मोती ढांगा.....
खल्याणी को दांदो,
हल्सुंगी कू नौ सुणिक, लमसट ह्वै जान्दो,
सबासी मेरा मोती ढांगा.....
प्रस्तुति:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु