हलद्वानी के एक अस्पताल में भरती कबूतरी देवी उत्तराखंडी लोकगीतों की एक समूची परंपरा को खुद में समेटे कबूतरी देवी आज गुमनाम और उपेक्षित हैं. मोहन भट्ट की रिपोर्ट
1970 और 80 के दशक में आकाशवाणी के लखनऊ और नजीबाबाद केंद्रों से प्रसारित कबूतरी देवी के गीत उत्तराखंड की वादियों में गूंजते थे. मगर आज इस लोकगायिका की पुकार सुनने वाला कोई नहीं. लंबे अरसे से अस्वस्थ चल रही कबूतरी देवी को हाल ही में हल्द्वानी के एक अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. उनका पथरी का ऑपरेशन होना था, लेकिन फिर पता चला कि उन्हें टीबी भी है और उनका वजन मात्र 35 किलो रह गया है इसलिए ऑपरेशन नहीं हो सकता. अब अस्पताल से छुट्टी पाकर वे फिलहाल खटीमा में अपनी बेटी के घर में रह रही हैं.
निरक्षर और 14 साल की उम्र में ब्याह दी गई कबूतरी देवी आकाशवाणी के लखनऊ, नजीबाबाद और चर्च गेट (मुंबई) केंद्रों में गाने वाली उत्तराखंड की पहली लोकगायिका थीं
कबूतरी देवी उत्तराखंड के उन लोकगायकों की प्रतिनिधि हैं जो परंपरागत लोकगीतों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने गले में सहेजते हैं. पर आज अगर आप 67 वर्षीय इस गायिका की बदहाली देखें तो आपको अंदाजा हो जाएगा कि परंपरा की लोक को आज कितनी परवाह रह गई है. उत्तराखंड के एक मिरासी (लोकगायक) परिवार में पैदा हुई कबूतरी देवी को गीत-संगीत विरासत में मिला. उनका जन्म लेटी गांव काली कुमाऊं में हुआ था. माता-पिता दोनों के गले में सुरों की मिठास थी और दोनों ही कई साज भी बजाते थे. कबूतरी देवी का बचपन खेती और पशुपालन के साथ-साथ माहौल में रचे-बसे संगीत के सान्निध्य में बीता. वे कहती भी हैं, ‘जो सीखा वह जीवन की पाठशाला से सीखा.’ 60 के दशक में पिथौरागढ़ के क्वीतड़ गांव में दीवानी राम से उनकी शादी हुई. पति ही उन्हें आकाशवाणी केंद्र तक लाए. निरक्षर और 14 साल की उम्र में ब्याह दी गई कबूतरी देवी आकाशवाणी के लखनऊ, नजीबाबाद और चर्च गेट (मुंबई) केंद्रों में गाने वाली उत्तराखंड की पहली लोकगायिका बनीं. उन्होंने ऋतुरैंणा(मौसमों के गीत) विधा में आकाशवाणी के लिए 100 से अधिक गीत गाए.
लेकिन 25 साल पहले पति की नब्ज के साथ ही कबूतरी देवी के लोकगीतों की सांसें भी थम गईं. अब कोई भी ऐसा नहीं था जो उनके हुनर को आकाशवाणी की दहलीज तक पहुंचा पाता. दोनों बेटियों का विवाह हो चुका था और बेटा पहाड़ से पलायन कर चुका था. यह कबूतरी देवी के संगीत का ही नहीं, लोकगीतों की दुर्लभ और बेमिसाल परंपरा का अंत था.
फिर लगभग 25 साल की गुमनामी के बाद उत्तराखंड की लोक संस्कृति से वास्ता रखने वाले जुनूनियों की एक टोली ने उन्हें उनके दूरस्थ गांव क्वीतड़ से खोज निकाला जहां वे अपनी मुंहबोली बहन के घर में रह रही थीं. यह 2002 की बात है. उनकी थोड़ी-बहुत चर्चा भी हुई लेकिन जल्दी ही वे फिर से गुमनामी के अंधेरे में चली गईं. डीएसबी कैंपस नैनीताल में हिंदी की प्राध्यापिका उमा भट्ट, जिन्होंने इस लोकगायिका को ढूंढ़ा, कहती हैं, ‘कबूतरी देवी ने जितना भी अभी तक गाया है उसको हम लोग बिलकुल संजोकर नहीं रख पाए हैं. उनके द्वारा गाए लोकगीत विशेषकर फाग और ऋतुरैंणा को रिकार्ड कर संगृहित किया जाना चाहिए जिससे यह धरोहर आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित हो सके.’ उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं, ‘कबूतरी देवी सिर्फ एक लोक कलाकार ही नहीं है. बल्कि वे लोकगीतों की पूरी परंपरा को अपने भीतर समेटे हैं. सरकार को तुरंत उनके बेहतर इलाज की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए, साथ ही उन जैसे सभी लोक कलाकारों को उचित मान-सम्मान के साथ-साथ उचित मंच भी मुहैया हो ताकि लुप्त होती लोककलाओं व लोकगीतों को संरक्षित और विकसित किया जा सके.’
पहाड़ की तीजनबाई कही जाने वाली कबूतरी देवी की गुमनामी, लोक परंपराओं के प्रति सरकारी रवैए की चुगली करती है. उनके पास खुद के गीतों का एक कैसेट तक नहीं है. बस है तो आकाशवाणी से गाए गीतों के प्रमाण-पत्रों की बदौलत मिलती 1,000 रु की मासिक पेंशन. बालसुलभ भाव से वे बताती हैं, ‘न जाने कलाकार वाली पेंशन है या विधवा वाली?’
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