Uttarakhand > Music of Uttarakhand - उत्तराखण्ड का लोक संगीत

Meaning Of Lyrics Of Songs - उत्तराखंडी लोक गीतों के भावार्थ

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
कथगा खैल्या (How Much Will You Eat (Take Bribe) ?
कवि :नरेन्द्र सिंह नेगी (पौड़ी गाँव, पौड़ी )
1- Stanza
कमीशन  कि मीट भात, रिश्वत को रेलों
कमीशन  कि शिकार  भात, रिश्वत को रेलों
रिश्वत को रैलो रे ...
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ ..
कथगा जि खैलो रे ...
यनि घुळणु  रैल्यो , कनकै पचैल्यो
दुख्यारो ह्व़े जैल्यो  रे
कमीशन  कि मीट भात, रिश्वत को रेलों
रिश्वत को रैलो  रे
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ
Stanza -2
घुण्ड -घुन्ड़ो शिकार -सुरवा कमर-कमर भात रे 
भात रे भात बासमती भात
घुण्ड -घुन्ड़ो शिकार -सुरवा कमर-कमर भात रे 
इथगा खाण -पचाण तेरे बसै बात रे ..
मैगे की मरीं जनता ..हे  जनता ..
कनक्वे बुथैल्यो रे...
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ
Stanza -3
नयो नयो राज उत्तराखंड आसमा छन लोग
लोग जी  लोग आसमा लोग
नयो नयो राज उत्तराखंड आसमा छन लोग
बियाणा छन डाम यख लैन्दो को छ जोग
कुम्भ न्हेगे भूलू ..हे भूलू ...
अब आपदा नहेल्यो रे
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ

Stanza -4

नियुक्त्युं की रस मलाई , ट्रांसफ़रों को हलवा
हलवा रे हलवा सोहन हलवा
नियुक्त्युं की रस मलाई , ट्रांसफ़रों को हलवा
माना कि भागमा तेरा , चेलों को जलवा
चेलों को जलवा , चेलों को जलवा
बिंडी मिट्ठो नि खलौवु त्यूँ सूगर बढी जालो रे
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ
Stanza - ५
छप्पन डामों की डड्वार  कै कैन बांटी
बांटी रे बांटी कै कैन बांटी
छप्पन डामों की डड्वार  कै कैन बांटी
स्टरडिया  की रबडी कथगौन्न चाटी
 कथगौन्न चाटी कथगौन्न चाटी
बारम चुनौ छ भूलू हे भूलू ..
हंसल्यो  कि रोल्यो रे
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ
Stanza- 6
कमीशन को डेंगू रोग . सर्यीं दिल्ली मा फैल्युं
फैल्युं रे फैल्युं रे दिल्ली  मा फैल्युं रे
कमीशन को डेंगू रोग . सर्यीं दिल्ली मा फैल्युं
नेता अफसर लीगेनी भोरी भोरी थैल्युं  रे
भोरी भोरी थैल्युं, भोरी भोरी थैल्युं
भोरे गेन बिदेसी बैंक ..हे बैंक
भोरे गेन बिदेसी बैंक .अब कख कुचोल्यो रे
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ
Stanza -7
रास्ट्रमंडल  खेल टू जी घोटाला
घोटाला रे घोटाला टू जी घोटाला
रास्ट्रमंडल  खेल टू जी घोटाला
अरबों .खरबों को माल लगेयाली  छाला
लगेयाली  छाला , लगेयाली  छाला
ये देस की लाज प्रभो कनक्वे बच्योले रे ....
बस कर बै ! बिंडी ना सपोड़ अब कथगा खैल्यौ
(The poem is symbolic and humorous.  In Hindi or Indian language, taking bribe is called bribe eating (Ghoos Khana ) and Narendra Singh Negi used the meaning of bribe taking in that sense to make poem humorous and satirical
the literal meaning of poem is
You are eating the commission as goat meat
You are eating the commission as Basmati rice
How much will you eat bribe?
How will you digest the commission?
You only can digest this much huge commission!
The people are dying because of inflation
There was hope from new province Uttarakhand
The government is building 56 dams but there is scarcity of  milk
there is corruption in appointment, transfer.
Officers, politicians all are busy in taking bribe
Bribe takers depositing money in foreign banks
there was huge corruption in commonwealth game too)

Devbhoomi,Uttarakhand:
सौण बरखी, भादौं बरखी, बरखी ग्ये चौमास झम' (सावन-भादौं बरस रहे हैं और चौमासा झूम उठा है), 'कख होली मेरी डांडी-कांठी, कख कुयेड़ी सौण-भादौं' (कहां होगा मेरा पहाड़ और कहां पसरी होगी सावन-भादौं में कोहरे की चादर), 'भादौं की अंधेरी झकाझोर ना बासा-ना बासा पापी मोर' (भादौं की अंधेरी रात दिल को झकझोर रही है, अरे पापी मोर तू चुप नहीं रह सकता)। ऐसा ही रूप है उत्तराखंड में सावन-भादौं का।

इसमें एक तरफ खुद (विरह) है और दूसरी तरफ उल्लास। इसीलिए सावन-भादौं खुदेड़ (खुद के) महीने कहे गए हैं, जिनकी अभिव्यक्ति लोकगीतों में देखने को मिलती है।

मानसूनी फुहारें पड़ने के बाद धरती पर हरीतिमा पसर चुकी है। कोहरे की सफेद चादर से ओढ़े पहाड़ व जंगल, गाड-गदेरों का शोर, मनभावन झरने और जगह-जगह फूटे छोये (जलस्रोत) सम्मोहित किए दे रहे हैं। लेकिन, इस परिदृश्य के बीच जटिल भूगोल वाले पहाड़ में सावन-भादौं का दूसरा पहलू भी है। वह है खुद, बिछोह और अभाव। एक दौर में पहाड़ का जीवन घोर अभावग्रस्त था। आज जैसे आवागमन के साधन व सुविधाएं नहीं थीं।

 वर्षाकाल में पैदल रास्ते बंद हो जाते थे। बिछोह भी कम नहीं था। बेटी को मायके संदेश भेजना हो तो रैबारी पर निर्भर रहना पड़ता था। ऐसे में सावन-भादौं की घनघोर घटाएं अभाव से आशकित मन को व्याकुल कर देती थीं।

जनमानस की यही पीड़ा सावन-भादौं के गीतों में साफ झलकती है। 'बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासी' (चौमासे की बारिश से वन में कोहरा तो मन में उदासी घिर रही है), 'सौणा का मैना ब्वै कनक्वै रैणा' (मां मैं सावन के महीने कैसे रहूंगी), सौण कुयेड़ी फुरफुर आंद, ऊंचि-ऊंचि डांड्यों-कांठ्यों मा (सावन का कोहरा ऊंचे पहाड़ों में ड़ता हुआ आ रहा है), 'डांडा बूती तोर स्वामी डांडा बूती तोर, सौण-भादौं की कुयेड़ी बस तेरू सोर' (खेतों में तोर बो दी गई है, लेकिन ध्यान सावन-भादौं के कोहरे पर है) जैसे दर्जनों गीत हैं, जिन्होंने लोक की पीड़ा को स्वर दिए।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6286507.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
From प्रयाग पाण्डे

यो बाटो कां जान्या होला सुरा - सुरा देवी का मंदीरा |
 चमकनी गिलास सुवा रमकनी चाहा छ |
 तेरी - मेरी पिरीत को दुनिये ड़ाहा छ |
 यो बाटो कां जान्या होला सुरा - सुरा देवी का मंदीरा |
 जाई फ़ुली , चमेली फुली, देणा फुली खेत |
 तेरो बाटो चानै - चानै उमर काटी मेता |
 यो बाटो कां जान्या होला सुरा - सुरा देवी का मंदीरा |
 गाडा का गडयार मारा दैत्या पिसचे ले |
 मैं यो देख दुबली भ्यूं तेरा निसासे लै |
 यो बाटो कां जान्या होला सुरा - सुरा देवी का मंदीरा |
 तेरा गावा मूंगे की माला मेरा गावा जंजीरा |
 तेरी - मेरी भेंट होली देबी का मंदीरा |
 यो बाटो कां जान्या होला सुरा - सुरा देवी का मंदीरा |
 अस्यारी को रेट सुवा अस्यारी को रेट |
 यो दिन यो मास आब कब होली भेंट |
 यो बाटो कां जान्या होला सुरा - सुरा देवी का मंदीरा |
 
 भावार्थ :
 इस राह से किधर जा रही हो तुम ? सीधे देवी के मंदिर की ओर |
 चमकते गिलास में तेज रंग की चाय रही हुई है |
 तुम्हारे , मेरे प्रेम से सभी लोग ईर्ष्या करने लगे हैं |
 इस राह से किधर जा रही हो तुम ? सीधे देवी के मंदिर की ओर |
 जाई और चमेली के फूल खिले हैं , खेतों में सरसों फूली है |
 तुम्हारी राह देखते - देखते मैंने अपनी सारी उम्र मायके में ही बिता दी है |
 इस राह से किधर जा रही हो तुम ? सीधे देवी के मंदिर की ओर |
 दैत्य- पिचास ने छोटी नदी की मछलियाँ मार डाली हैं |
 देखा , तुम्हारे विरह में कितनी दुर्बल हो गई हूँ |
 इस राह से किधर जा रही हो तुम ? सीधे देवी के मंदिर की ओर |
 तुम्हारे गले में मूंगे की माला है और मेरे गले में जंजीर |
 तुम्हारे और मेरी भेंट होगी देवी के मन्दिर में |
 इस राह से किधर जा रही हो तुम ? सीधे देवी के मंदिर की ओर |
 असेरी (स्थानीय माप का बर्तन )का घेरा |
 आज के दिन , इस माह ,हम मिले , अब कब भेंट होगी ?
 इस राह से किधर जा रही हो तुम ? सीधे देवी के मंदिर की ओर |
                                      ( कुंमाऊँ का लोक साहित्य )

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
प्रयाग पाण्डे कुमाऊनी लोक गीत और लोक संगीताक प्रेमियों लिजी आज भौत पुराण बाल गीत चै लै रयों | तो लियो आज य बाल गीतक आनन्द लीजियो _
 
 झुलील्ये झुली  भावा झुली लै |
 पुरवी को पिंगढ्यों लो |
 पछिम को हावा |
 झुली लै भावा |
 तेरी ईजू पलुरिया घास जाई रैछ |
 तेरा लिजिया भावा
 चुचि भरि ल्याली , चड़ी मारि ल्याली |
 चुचि खाप लैलै भावा |
 चड़ी खेल लगाले होलि लै होलि |
 चुंगरी तोड़लै भावा |
 खातडी फाड़लै |
 तेरि छत्तर राजगद्दी , बड़ी - बड़ी हौली लै |
 कुमवी को जौल खाले , अजुवा को पानी |
 गुदडी में सोई रौले .होलि लै होलि लै ||
 
 भावार्थ :
 ओ मेरे नन्हे , सो जा मेरे बच्चे |
 पूर्व की ओर से आयेगी पीली गेंद (सूर्य )|
 पश्चिम से आ रही होगी हवा |
 सो जा मेरे मुन्ने , सो जा |
 माँ तेरि गई है पुरलिया घास लाने |
 तेरे लिए ओ बच्चे
 वह स्तन पर दूध लायेगी , चिड़िया मार लायेगी |
 तू माँ का स्तन पान करेगा ओ नन्हे |
 तू चिड़िया से खेलेगा , सो जा मुन्ने सो जा |
 तू फिर चुगरा तोड़ेगा |
 और अपने गद्दे फाडेगा |
 तेरा छत्र होगा , बड़ी राजगद्दी होगी |
 तू कुमई की खिचड़ी खायेगा और सोते का पानी पीएगा |
 गुदड़ी में सोया रहेगा , सो जा मुन्ने सो जा ||
                           - कुमाऊ का लोक साहित्य

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
प्रयाग पाण्डे महंगाई की मार रोजमर्रा के जीवन में पेश आ रही परेशानियों को व्यक्त करता एक बहुत पुराना लोक गीत  | सो लीजिये इस कालजयी लोक गीत का लुत्फ़ उठाईये ------
 
 तिलुवा बौज्यू घागरी चिथड़ी , कन देखना आगडी भिदडी |
 खाना - खाना कौंड़ी का यो खाजा , हाई म्यार तिलु कै को दिछ खाना |
 न यो कुड़ी पिसवै की कुटुकी , चावल बिना अधियाणी खटकी |
 साग पात का यो छन हाला , लूण खाना जिबड़ी पड़ छाला |
 न यो कुड़ी घीये की छो रत्ती , कसिक रैंछ पौडों की यां पत्ती |
 पचां छटटा घरूं छ चा पाणी , तै पर नाती टपुक सु  चीनी |
 धों धिनाली का यो छन हाला , हाय मेरा घर छन दिनै यो राता |
 दुनियां में अन्याई है गई , लडाई में दुसमन रै गई |
 सुन कीड़ी यो रथै की वाता , भला दिन फिर लालो विधाता |
 साग पात का ढेर देखली , धों धिनाली की गाड बगली |
 वी में कीड़ी तू ग्वाता लगाली ||
 
 भावार्थ :-:
 ओ तिलुवा के पिताजी , देखो यह लहंगा चीथड़े हो गया है , देखना यह फटी अंगिया |
 खाने को यह भुनी कौणी रह गई , मेरे तिलुवा को कौन खाना देगा |
 इस घर में मुट्ठी भर भी आटा नहीं , पतीली में पानी उबल रहा है , पर चावल नहीं हैं |
 साग सब्जी के वैसे ही हाल है , नमक से खाते - खाते जीभ में छाले पड़ गए हैं |
 इस घर में तो रत्ती भर भी घी नहीं है , अतिथियों को कैसे निभाऊ |
 पाचवें - छठे दिन चाय बनाने के लिए पानी गर्म करती हूँ , पर घर में चखने भर को चीनी नहीं है |
 वैसा ही हाल दूध - दही का है , हाय , मेरे घर तो दिन होते ही रात पड़ गई |
 संसार में अन्याय बढ़ गया है , लडाई - झगड़ों में लोग एक - दुसरे के शत्रु बन गए हैं |
 ओ कीड़ी , तुम मतलब की यह बात सुनो , विधाता हमारे अच्छे दिन फिर लौटा देगा |
 तुम साग - सब्जी के ढेर देखोगी इस घर में , दूध - दही की नदियाँ बहेंगी ,
 और कीड़ी तुम उसमें गोते लगाओगी ||
 
 (कुमांऊँ का लोक साहित्य )

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