Author Topic: Milestones Of Uttarakhandi Music - उत्तराखण्डी संगीत के मील के पत्थर  (Read 29067 times)

पंकज सिंह महर

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मोहन उप्रेती : MOHAN UPRETI


मोहन उप्रेती जी का जन्म 1928 में रानीधारा, अल्मोड़ा में हुआ था। ये सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लोक संगीत के मर्मग्य थे, कुमांऊनी संस्कृति, लोकगाथों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में इनकी अहम भूमिका रही। १९४९ में इन्होंने एम०ए० (डिप्लोमेसी एण्ड इंटरनेशनल अफेयर्स) की डिग्री प्राप्त की। १९५२ तक अल्मोड़ा इण्टर कालेज में इतिहास के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। १९५१ में लोक कलाकार संघ की स्थापना की, १९५० से १९६२ तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिये भी कार्य किया। इस बीच पर्वतीय संस्कृति का अध्ययन और सर्वेक्षण का कार्य किया। कूर्मांचल के सुप्रसिद्ध कलाकार स्व० श्री मोहन सिंह रीठागाड़ी (बोरा) के सम्पर्क में आये। कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम किये, वामपंथी विचारधाराओं के कारण १९६२ में चीन युद्ध के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया ग्य और नौ महीने का कारावास भी झेला। जेल से छूटने के बाद अल्मोड़ा और सारे पर्वतीय क्षेत्र से निष्कासित होने के कारण इन्हें दिल्ली में रहना पड़ा। दिल्ली के भारतीय कला केन्द्र में कार्यक्रम अधिकारे के पद पर इनकी तैनाती हुई और इस पद पर यह १९७१ तक रहे। १९६८ में दिल्ली में पर्वतीय क्षेत्र के लोक कलाकारों के सहयोग से पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में १९९२ तक प्रवक्ता और एसोसियेट प्रोफेसर भी रहे।.......

     मोहन दा के कार्यों और कलाओं की याद को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये मेरा पहाड ने एक टापिक उन्हें समर्पित किया है, उसे देखने हेतु निम्न लिंक पर जाने का कष्ट करें-


मोहन उप्रेती: उत्तराखण्डी लोक संस्कृति के संवाहक/MOHAN UPRETI
http://www.merapahadforum.com/music-of-uttarakhand/mohan-upreti/

पंकज सिंह महर

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ब्रजेन्द्र लाल शाह : BRAJENDRA LAL SHAH


13 अक्टूबर, 1928 को लालाबजा, अल्मोड़ा में जन्मे ब्रजेन्द्र लाल शाह जी पर्वतीय लोक संस्कृति के सम्वाहक और समर्पित कलाकार, प्रख्यात रंगकर्मी, नाटककार, गीतकार और उपन्यासकार हैं। आज उत्तराखण्ड के लोक संगीत की पहचान कहे जाने वाले कालजयी गीत "बेडू पाको बारामासा" की रचना का श्रेय भी इन्हीं को है। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा से ग्रहण की और उच्च शिक्षा के लिये प्रयाग आ गये। विद्यार्थी जीवन से ही लोक कला और रंगमंच के प्रति समर्पित रहे। लेखन के प्रति शाह जी का विशेष रुझान था, विद्यार्थी जीवन में ही इनकी लिखी कहानियां और कवितायेंसंगम, हंस और नया साहित्य पत्रिकाओं में छपने लगी। शैल सुता(उपन्यास), कुमाऊंनी रामलीला(नाटक) अष्टावक्र (नाटक), दुर्गा सप्तसदी (छन्दानुवाद) अब तक की प्रकाशित रचनायें हैं। १९४९ से ही आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिये नियमित लिखते आ रहे हैं। अपनी रंगमंचीय जीवन यात्रा में शाह जी ३८ नाटक लिख कर उनका मंचन करवा चुके हैं- बलिदान, भाना-गंगनाथ, कसौटी, आबरु, एकता, सुहाग-दान, चौराहे की आत्मा, चौराहे का चिराग, शिल्पी की बेटी, पर्वत का स्वप्न, रेशम की डोर, रितु-रैंण, खुशी के आंसू, कुमाऊंनी और गढ़वाली रामलीला, ग्यान-दान, भस्मासुर, तारकासुर, पहरेदार, राजुला-मालूशाही, अजुवा-बफौल, महाभारत, रसिक-रमौल, जीतू बगड़वाल, हिलजात्रा, गंगानाथ और हरुहीत, इनके प्रमुख नाटक हैं।
         १९५० में आकाशवाणी, इलाहाबाद से प्रसारित होने वाले पर्वत श्री रुपक में इन्होंने भाग लिया, इसमें इनके साथ अल्मोड़ा के श्री लक्ष्मी लाल वर्मा और सरोज ने भी भागीदारी की। अल्मोड़ा में १९५२ में लोक कलाकर संघ की स्थापना में भी इनका उल्लेखनीय योगदान रहा। मोहन उप्रेती जी से इनका जीवन पर्यन्त साथ रहा, बेडू पाको बारामासा गीत लिखकर उन्होंने अपनी लेखनी को हमेशा के लिये अमर कर दिया। यह गीत रुस रेडियो से भी कई सालों तक बजता रहा, १९५३ में यूनाइटेड आर्टिस्ट का अल्मोड़ा में गठन हुआ , इसके बैनर तले नाटक के मंचन में इन्हें अखिल भारतीय प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिला। शाह जी के लिखे दो अमर गीत आज भी सेना के बैंड में शामिल हैं
१- बेडू पाको बारामासा
२- हाई, हाई, हाई, सुपारी खाई, खाई, खाई।
      लोक संस्कृति और रंगमंच को समर्पित इनकी सेवाओं को देखते हुये १९९५ में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक एकादमी द्वारा इन्हें सम्मानित किया गया। इन्होंने संस्कृति विकास अधिकारी, उत्तर प्रदेश से शुरु हुये अपने सफर का अंत उप निदेशक, गीत एवं नाट्य प्रभाग भारत सरकार से अवकाश प्राप्त कर किया। कुछ समय के लिये आप गोबिन्द वल्लभ पंत सांस्कृतिक संस्थान, अल्मोड़ा के निदेशक भी रहे। पर्वतीय लोक कला के उन्नायक, सम्वाहक और सम्वर्धक श्री ब्रजेन्द्र लाल शाह LEGENDS OF UTTARAKHADI MUSIC  हैं।

पंकज सिंह महर

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चन्द्र शेखर पन्त CHANDRA SHEKHAR PANT
(1912-1967)

ग्राम खतौली, अल्मोड़ा के मूल निवासे संगीताचार्य चन्द्र शेखर पन्त जी का जन्म बाराबंकी उ०प्र० में हुआ था। वे भारतीय शाष्त्रीय संगीत में ध्रुपद और तराना के बेजोड़ गायक थे, १२ वर्ष की अल्पायु में ही अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में अनेक स्वर्ण पदक प्राप्त किये और ताल औ लय का अद्भुत प्रदर्शन किया। १९३५ में लखनऊ के मैरिस म्यूजिक कालेज से संगीत विशारद की उपाधि प्रथम श्रेणी में पास करने पर उन्हें भातखण्डे स्वर्ण पदक से अलंकृत किया गया। इन्होंने १९३५ में लखनऊ वि०वि से साहित्याचार्य और संस्कृत में एम०ए० भी किया। संगीत संबंधी अनुसंधान के लिये ये लखनऊ आ गये, लेकिन बीमार हो जाने पर ये स्वास्थ्य लाभ के लिये अपने पैतृक गांव आ गये। इस बीच किसी कारणवश ये वैराग्य भावी हो गये और सन्यास ले लिया और अपना नाम हरिदास रख लिया। इस बीच इन्होंने कई बार कैलाश मानसरोवर की यात्रा की, ये कुछ समय द्रोणागिरी में भी रहे। इनका आश्रम उत्तर साकेत आध्यात्मिक और संगीत की गतिविधियों का केन्द्र बन गया, यहीं पर ये राम मनोहर लोहिया के सम्पर्क में भी आये। पन्त जी ने अपने जीवन का कुछ समय लटूरी बाबा के आश्रम और भगत जी के मन्दिर हल्द्वानी में भी गुजारा। यहां पर इनके जीवन में एक और विचित्र मोड़ आया, इन्होंने सन्यास त्याग दिया। १९५५ में आप तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री बे०वी० केसकर के व्यक्तिगत आग्रह पर आकाशवाणी दिल्ली में शाष्त्रीय संगीत के प्रोड्यूसर हो गये, कुछ समय यहां रहने के बाद आप दिल्ली वि०वि० के संगीत विभाग में प्रवक्ता और १९६५ में यहीं पर रीडर हो गये।
       पन्त जी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे, उन्होंने अनेकों तरानों की रचना की, आकाशवाणी के आप ए श्रेणी के कलाकार रहे। पन्त जी मूलतः ध्रुपद-धमार शैली के गायक थे, ख्याल गायकी में भी वे बेजोड़ थे। उन्होंने संगीत के क्षेत्र में अनेकों शोध किए और उनके कई रिसर्च पेपर प्रकाशित हुये।  १९६५ में आपने ईस्ट-वेस्ट म्यूजिक इन्काउण्टर में भाग लिया, जहां विश्व प्रसिद्ध मेनुहन और अमेरिका के निकोलस नोवोकोव ने इनकी भारी प्रशंसा की। दिल्ली वि०वि० के कला और संगीत संकाय ने १९८६ में अपनी रजत जयन्ती के अवसर पर स्मारिका में पन्त जी के बारे में लिखा कि "He had published many research articles of great academic value, the most significant of them being the one in which he fixed the date of pt, lochan of raag tarangini beyond doubt."  दिल्ली वि०वि० के संगीत विभाग ने १४ दिसम्बर, १९८६ को "चन्द्र शेखर दिवस" मनाया। नैनीताल के संगीत प्रेमियों ने पन्त जी की स्मृति में मल्लीताल शारदा संघ में एक संगीत विद्यालय "चन्द्र शेखर पन्त संगीत विद्यालय" की स्थापना की। श्री पन्त आजन्म अविवाहित रहे और संगीत को भक्ति का साधन मान उसकी सेवा करते रहे।

पंकज सिंह महर

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नरेन्द्र सिंह नेगी NARENDRA SINGH NEGI

12 अगस्त, 1949 को पौड़ी गढ़्वाल जनपद के पौड़ी गांव में स्व. उमराव सिंह नेगी और स्व० श्रीमती समुद्रा देवी के घर जन्मे नरेन्द्र सिंह नेगी आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। श्री नेगी एक सुविख्यात गढ़वाली लोक गीत गायक, गीतकार, संगीतकार हैं। स्नातक तक पढ़े नेगी जी प्रयाग संगीत समित से तबला प्रभाकर की उपाधि प्राप्त कलाकार हैं। आवाज के धनी नेगी जी ने अपने गीतों में पहाड़ी समाज के यथार्थ, व्यथा और चिन्तन को प्रस्फुटित कर गढ़वाली गीत लेखन और गायन को एक नई दिशा, नई सोच और नई ऊंचाई ही नहीं ऊंची गहराई भी दी है।इनके गीतों में पहाड़ की नारी की व्यथा के साथ-साथ तिरस्कृत की जा रही बुजुर्ग पीढ़ी और पहाड के दुश्मन पलायन का दर्द भी झलकता है। नेगी जी ने अपने गायन की शुरुआत 1974 से गढ़वाली लोकगीत/स्वरचित गीत गाकर प्रारम्भ की। 1978 से आकाशवाणी लखनऊ एवं नजीबाबाद के लिए गढ़वाली गीतों का गायन किया, आकाशवानी के ही दिल्ली व अल्मोड़ा केन्द्रों से भी इनके गीतों का प्रसारण हुआ।  अब तक नेगी जी के 26 से ज्यादा ऑडियो कैसेट रिलीज हो चुके हैं।
       नेगी जी गढ़वाली भाषा की पांच फिल्मों घर जवैं, कौथिग, बेटी-ब्वारी, बंटवारु और चक्रचाल के लिये गीत लिखे, गाये और संगीत्बद्ध भी किया। १९८२ में इनका पहला आडियो कैसेट "ढिबरा हर्चि गेनि" रिलीज हुआ था। नेगी जी एक कुशल कवि भी हैं, इनके तीन स्वरचित गढ़वाली गीत संग्रह ‘खुचकण्डी’, ‘गाण्यूं की गंगा स्याण्यू का समोदर’ और ‘मुट्ट बोटीकि रख’ अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये इन्हें अब तक कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है।
        नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीतों की याद को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये मेरा पहाड ने एक टापिक उन्हें समर्पित किया है, उसे देखने हेतु निम्न लिंक पर जाने का कष्ट करें-


http://www.merapahad.com/forum/music-of-uttarakhand/narendra-singh-negi-legend-singer-of-uttarakhand/

पंकज सिंह महर

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केशव अनुरागी : KESHAV ANURAGI
(1929-1993)



1929 में ग्राम-कुल्हाड़, सतपुली, जिला पौड़ी गढ्वाल जन्मे केशव अनुरागी जी गढ़्वाली लोक संगीत के मर्मग्य थे, वे गढ़वाली बोली की महान संगीतग्य और गायक थे। इनका मूल नाम केशव दास था, इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई, उच्च शिक्षा लैंसडाउन और देहरादून में प्राप्त की। शिक्षा के साथ-साथ ढोल-दमाऊं बजाने की कला इन्हें अपने ताऊ जी से मिली, अनुरागी जी को संगीत की बहुत अच्छी जानकारी थी, उन्होंने गढ़वाल के लोक गीतों को स्वरबद्ध किया, तब से ही गढवाली संस्कृति के सभी विद्वान इनके प्रशंसक बन गये। अनुरागी जी ने गढवाली लोक संगीत को संगीत प्रेमियों के सामने परिमार्जित और वास्तविक रुप में प्रस्तुत नहीं किया, वरन लोक संगीत प्रेमियों के समक्ष गढ़्वाल के गौरव को भी स्थापित किया। आज गढ़वाल के लोक संगीत की महानता का परिचय सभी जगह किया जाता है, जिसका मुख्य श्रेय अनुरागी जी को ही जाता है। अनुरागी जी ने मध्यानी शैली में उल्लेखित तालों- बढ़ै, धुयेंल, चौरास, चामणी, चासणी, दुबकू, सुन्तान चौंक, बैलबाले, शबद, जोड़, पतन, रहमानी, किरणी, पंसारी, पूछा, अपूछा, सरौं एवं चरिंताली का वर्णन किया है। अनुरागी जी ने सम्पूर्ण गढ़वाल को संगीत में समेटा और वहां के प्रतिबिम्बों को समेटते हुये तीन विधाओं- लोक संगीत, गीतों के स्वर लिपियों की व्याख्या और वाद्य यंत्रें की ताल पद्धति का बहुत विस्तृत और सुन्दर वर्णन किया है। अनुरागी जी कई वर्षों तक आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों में सेवारत रहे।


पंकज सिंह महर

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उत्तम दास UTTAM DAS


1960 के आस-पास साबली, चम्बा, टिहरी गढ़वाल में जन्मे उत्तम दास ढोल सागर के अकेले ग्याता माने जाते हैं। ढोल वादन में राष्ट्रपति पुरस्कार पाने वाले ये अकेल उत्तराखण्डी कलाकार हैं। उत्तराखण्ड का मूल वाद्य यंत्र ढोल ही है, जिसकी रचना कहा जाता है कि महादेव जी ने की थी। इसकी संगत दमाऊं से की जाती है, ऐसा विश्वास है कि इस वाद्य यंत्र के स्वर शिव के डमरु से निकलते हैं। ढोल सागर में कुत ८४ तालों का वर्णन मिलता है, वर्तमान में इन ८४ तालों में से ३६ तालों को बजाने वाले उत्तम दास ही हैं।

पंकज सिंह महर

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नईमा खान उप्रेती NAIMA KHAN UPRETI

श्रीमती नईमा खान उप्रेती उत्तराखण्ड लोक संस्कृति के सम्वाहक स्व० मोहन उप्रेती जी की धर्मपत्नी हैं। आपने अल्मोड़ा से ही स्नातक की उपाधि ग्रहण की और बाल्यकाल से ही संगीत में रुचि होने के कारण लोक कलाकार संघ की सक्रिय सदस्या रहीं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, रंग मंडल में भी दो वर्ष तक कार्य किया, कई ख्यातिनाम नाटकों में भूमिका भी अदा की। १९७३ में आप दूरदर्शन से जुड़ी और १९९६ में प्रोडयूसर पद से अवकाश ग्रहण किया। कई वर्षों तक आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली, कुमाऊंनी भाषा के लोकगीतों का प्रसारण किया। इनका गाया प्रसिद्ध गाना "पारा भीड़ा को छै भागी" आज भी दिल को झकझोर देता है। १९९६ से पर्वतीय कला केन्द्र, दिल्ली में सक्रिय भागीदारी की। राजुला-मालूशाही, अजुवा-बफौल, रसिक-रमौल आदि कई गीत नाटिकाओं को आपने स्वर दिये और मोहन दा के साथ देश-विदेश में कई प्रस्तुतियां दीं। मोहन उप्रेती जी का असामयिक निधन हो जाने के बाद आप पर्वतीय कला केन्द्र, दिल्ली की अध्यक्ष हैं और संस्कृति की सेवा कर रही हैं।

पंकज सिंह महर

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सपना अवस्थी SAPNA AWASTHI

बेरीनाग, जिला पिथौरागढ़ की मूल निवासी और अपने नाना के घर रुद्रपुर में जन्मी सपना उप्रेती से सपना अवस्थी बनी उत्तराखण्ड की इस बेटी ने फिल्मी दुनिया में पार्श्व गायन के क्षेत्र में अपनी निश्चित पहचान बना ली। शेखर कपूर की फिल्म दुश्मनी में सपना ने पहला गाना "बन्नो तेरी अंखियां, सूरमेदानी" गाकर गायिकी के आयाम ही बदल दिये। उनके कुछ प्रसिद्ध गाये गाने निम्नवत हैं-
परदेशी-परदेशी जाना नहीं (राजा हिन्दुस्तानी)
छईयां-छईयां (दिल से)
आई हूं यू०पी० बिहार लूटने (चाइना गेट)
मेरी शादी करवाओ (जिस देश में गंगा रहता है)
पतली कमर (जंगल)
 इसके अतिरिक्त वीनस कम्पनी ने इनके गीतों का एक एलबम परदेशिया २००० में रिलीज किया।

कमल

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क्या जरूरत है आपको इतनी मेहनत करने की पंकज जी. आप मेहनत करके लिखेंगे दूसरे आके कॉपी-पेस्ट कर लेंगे.

कुछ लोग ऐसे ही अपनी साइट चलाते हैं

ना जाने क्यों वो साइट बनाते हैं.
 

हेम पन्त

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मोहन सिंह ’रीठागाड़ी’ को उत्तराखण्ड संगीत का आधारस्तंभ कहा जा सकता है. उत्तराखण्डी संगीत को विश्वपटल पर चमकाने वाले मोहन उप्रेती जी रीठागाड़ी जी को सुनकर ही साम्यवादी राजनीति से लोकसंगीत की दुनिया में आ गये थे. यह मोहन सिंह रीठागाड़ी जी का एक सुप्रसिद्ध गीत है-

ॠतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि
हमारा मुलुक, भंवर उड़ाला बलि
दै खायो पात मां, भंवर उड़ाला बलि
के भलो मानिंछ, भंवर उड़ाला बलि
जुन्यालि रात मां, भंवर उड़ाला बलि
ऋतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि
कुमाऊं मुलुक, भंवर उड़ाला बलि
कागजि को लेख, भंवर उड़ाला बलि
सुणो भाई-बन्दो, भंवर उड़ाला बलि
मिलि रया एक, भंवर उड़ाला बलि
ॠतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि

मोहन सिंह ’रीठागाड़ी’ को उत्तराखण्ड संगीत का आधारस्तंभ कहा जा सकता है. उत्तराखण्डी संगीत को विश्वपटल पर चमकाने वाले मोहन उप्रेती जी रीठागाड़ी जी को सुनकर ही साम्यवादी राजनीति से लोकसंगीत की दुनिया में आ गये थे. यह मोहन सिंह रीठागाड़ी जी का एक सुप्रसिद्ध गीत है-

ॠतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि
हमारा मुलुक, भंवर उड़ाला बलि
दै खायो पात मां, भंवर उड़ाला बलि
के भलो मानिंछ, भंवर उड़ाला बलि
जुन्यालि रात मां, भंवर उड़ाला बलि
ऋतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि
कुमाऊं मुलुक, भंवर उड़ाला बलि
कागजि को लेख, भंवर उड़ाला बलि
सुणो भाई-बन्दो, भंवर उड़ाला बलि
मिलि रया एक, भंवर उड़ाला बलि
ॠतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि

मोहन सिंह बोरा "रीठागाड़ी" :MOHAN SINGH BORA "REETHAGARI"


मोहन रीठागाड़ी जी का जन्म 1905 में ग्राम-धपना, शेराघाट, पिथौरागढ़ में हुआ था, प्रसिद्ध संस्कृति कर्मी मोहन उप्रेती जी इन्हें अपना गुरु मानते थे। प्रख्यात रंगकर्मी स्व० ब्रजेन्द्र लाल शाह जी के शब्दों में (रीठागाड़ी जी की मृत्यु के बाद) -"लोक संस्कृति के उन्नायक मोहन सिंह बोरा "रीठागाड़ी" का गायकी जीवन ’कौन जाने उस बंजारे गायक की याद में कितने वर्षों तक सेराघाट के आस-पास सरयू तट पर ग्राम्यांए बैठती रही होंगी और मोहन की मोहक न्योलियों को सुमराति रही होंगी। राजुला मालूशाही गाथा के मर्मस्पर्शी प्रसंगों को याद कर सिसकती रही होंगी तथा बैर गायन में वाकप्टु और व्युत्पन्नम्ति, बैरी मोहन को सुमरती हुई अतीत में डुबकी लगाती रही होंगी।" एक युगान्त का अंत हो गया, मोहन सिंह रीठागाड़ी के युग का अंत हो गया, अब अतीत के घोडि़या पड़ावों की रसीली लोक-गीती संध्याएं छोटे पर्दो के चारों ओर सिमट कर रह गई हैं, दूरदर्शन स्टूडियो अथवा लोकोत्सवों में अस्वाभाविक रुप में प्रस्तुत किये गये लोकगीतों एवं नृत्यों की झांकी टेलीविजन पर अवश्य दृष्टिगोचर होती है, किन्तु उन दृश्यों में वह बंजारा कभी नहीं दिखलाई पड़ेगा। जो सरयू तीरे चांदनी रातों में घोड़े हांकता, न्योली गाता हुआ निकलता था और अपने स्वरों की झिरमिराहट से समस्त सेराघाट की घाटी को बोझिल और ओसिल बनाता हुआ आगे बढ़ जाया करता था। कौन था वह बंजारा, वह घोडिया? वह था मोहन रीठागाड़ी, रसीला और रंगीला गायक।
         ठाकुर मोहन सिंह बोरा जी की दो शादियों की ग्यारह संतानों में मोहन सबसे छोटे थे, बचपन से ही विनोद प्रिय मोहन के कानों में राजुला-मालूशाही की कथा एवं मोहक संगीत बस गया था। बकौल मोहन सिंह के यह संगीत उन्होंने गेवाड़ क्षेत्र के एक बारुड़ी शिल्पकार (टोकरी बनाने वाले) से पहली बार सुना था, उसके बाद बारुड़ी के एक्लव्य शिष्य मोहन सिंह ने आवाज के उस जादू को मृत्युपर्यन्त आत्मसात किये रखा।अल्मोड़ा जिले के सभी मेलों में मोहन सिंह नाम का युवक पहुंचकर विभिन्न प्रकार की छपेलियों, झोड़ों और चांचरियों का संगीत संचय कर अपनी सांसों से संवारने लगा। आजीविका के लिये उसने बंजारे की जिंदगी अपनाई, अल्मोडा शहर से वे घोड़ों पर सामान लादकर गंगोलीहाट, बेरीनाग, लोहाघाट और पिथौरागढ़ की मण्डियों में ले जाते। विश्राम के क्षणॊं में रात-रात भर मालूशाही गाते, हृदय को टीसने वाली न्योलियां गाकर स्वयं भी सिसकते और श्रोताओं को भी सिसकने पर मजबूर कर देते। इस प्रकार से पूरे कुमाऊं में लोक गायक मोहन रीठागाड़ी की धूम मच गई।
      शनै-शनैः मोहन सिण्ह जी की कला प्रदर्शन का क्षेत्र बढ़ता चला गया, ग्रामीण खेलों-मेलो- की सीमा से निकलकर वह कुमाऊं मण्डल के शरदोतसवों, ग्रीष्मोत्सवों और विशेष स्मारोहों में पहुंच गये। आकाशवाणी के लिये भी उन्होंने कार्यक्रम देने शुरु कर दिये। लखनऊ से दिल्ली तक उनकी मांग होने लगी, मोहन उप्रेती जी के प्रयासों से संगीत नाटक अकादमी ने उनकी गाई सम्पूर्ण मालूशाही का ध्वन्यालेखन किया और यथोचित आदर और पारितोषिक दिया। पर्वतीय कला केन्द्र, दिल्ली ने भी उन्हें काफी सम्मान दिया। २८ जनवरी, १९९८ को ७९ वर्ष की आयु में एक हुड़के की गमक अनन्त में विलीन हो गई।


 

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