Author Topic: Milestones Of Uttarakhandi Music - उत्तराखण्डी संगीत के मील के पत्थर  (Read 29087 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अनपढ़ थीं, लेकिन पढ़ाती थीं
बचन देई ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा, लेकिन वह गढ़वाल विश्वविद्यालय में लोक संगीत की विजिटिंग प्रोफेसर थी। उन्होंने जंगलों में घास काटते, खेतों में काम करते गीत गाना शुरू किया था। बेड़ा जाति की होने से उनके परिवार में गीत-संगीत का माहौल पहले से ही था। बेड़ा जाति के लोग पहाड़ में लोक संस्कृति के संवाहक होते हैं।

वे चैत के माह में हर घर में गीत गाते हैं। खेतों में रोपाई और बाद में फसल काटने के दौरान भी गीत गाकर लोगों में उल्लास और उत्साह भरते हैं।

लोकगातों में बसती थी आत्मा
बचन देई को गीत संगीत विरासत में मिला था। परिवार के साथ ही रिश्तेदारों से उन्होंने चैती गीत सीखे और गाए। उनकी आवाज में गजब का जादू था और गीतों में गहराई। गढ़वाल के लोकगीतों में उनकी आत्मा बसती थी। चैती गीत के साथ राधाखंडी, सदैई, बाजूबंद और जागर गायन में उनका ज्ञान गजब का था। यही वजह थी कि अनपढ़ होने के बावजूद गढ़वाल विश्वविद्यालय ने उन्हें लोक संगीत की शिक्षा के लिए वर्ष 2006 में विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया।

प्रतिभा की धनी फिर भी साधारण
वर्ष 2008 में मुझे बचनदेई से मिलने का मौका मिला। उन्हें मौलिक त्रिहरि के एक कार्यक्रम में नई टिहरी आमंत्रित किया था। उनके साथ शिवचरण (पति) और सत्य प्रकाश (दामाद) भी थे। कई बड़ी संस्थाआें से सम्मानित होने और बड़े मंचों पर कार्यक्रम देने के बावजूद वह बेहद साधारण लगी।

मैं समझ नहीं पा रहा था कि यही वह लोक गायिका हैं, जिनके बाजूबंद और जागर सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते हैं। कार्यक्रम की शुरुआत उनसे करवाई गई। जब वह एक महिला की पीड़ा के बाजूबंद गा रही थी, तो कई बुजुर्ग महिलाएं रो पड़ी। कार्यक्रम में पहुंचे प्रसिद्ध गढ़वाली गायक प्रीतम भरतवाण, ओम बधानी और किशन सिंह पंवार जैसे दिग्गज भी उनकी आवाज के कायल हो गए थे।

विधा समाप्‍त्‍ा होने की थी चिंता

कार्यक्रम की समाप्ति के बाद उनसे लंबी बातचीत हुई। उनकी पीड़ा थी कि सरकार लोक गायकों को केवल सूचना विभाग में पंजीकृत कराने और वर्ष भर में दो-चार कार्यक्रम देकर उपकृत कर देती है। उनकी चिंता थी कि लोक संस्कृति के संरक्षण के लिए ठोस काम नहीं किए गए तो ढोल सागर की तरह चैती गीत, बाजूबंद, जागर जैसी विधा भी समाप्त हो जाएगी। उन्हें अपने पढ़े-लिखे न होने का मलाल सालता था। कहा था कि अगर वह पढ़ी-लिखी होतीं तो लोकगीतों को पुस्तक की शक्ल देतीं।

Hisalu

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मोहन सिंह रीठागाड़ी का गीत "हपूरा बजानी धुरा" सुनिए

Pawan Pathak

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हाय तेरी रुमाला गुलाबी मुखड़ी
के भली छाजिरै नाक की नथुली


हिमांशु जोशी
हल्द्वानी।
हाय तेरा रुमाला गुलाबी मुखड़ी कै भली छाजिरै नाक की नथुली।’ गोपाल बाबू गोस्‍वामी ने इस गीत के जरिये कुमाऊंनी नाथ की खूबसूरती बयां की है। उन्होंने कहा कि गुलाबी चेहरे के साथ रुमाल कितना सुंदर दिख रहा है। इसमें नाक की नथ चार चांद लगा रही है। बड़े आकार वाली नथ कुमाऊं की पहचान है। पहाड़ में हर शुभ कार्य में महिलाएं नथ पहनती हैं। नथ और पिछौड़ा महिला के सुहागन होने का प्रतीत है। धारणा है कि घर में जितना धन आता है, नथ का वजन उतना ही बढ़ा दिया जाता है।
पहाड़ों में नथ के वजन को लेकर एक कहानी प्रचलित है कि एक बार एक धनी आदमी अपने बेटे की शादी करना चाहता था। उसने लड़की के पिता को अपनी इच्छा बताई। बातचीत में लड़की के पिता ने कहा कि समाज में स्टेटस बनाए रखने के लिए उन्हें लड़की को चार तोले की नथ देनी होगी। यदि वे इसके लिए तैयार हैं तो शादी हो सकती है। लड़के के पिता ने यह बात स्वीकार कर ली। उन्होंने कहा कि वे अपनी बहू को चार तोले की नथ देने को तैयार हैं। तभी से वर पक्ष की ओर से वधू को नथ दी जाती है। नथ का साइज घर की संपन्नता को दर्शाता है। घर की आर्थिक स्थिति के आधार पर नथ का वजन बढ़ता रहता है। समय के साथ-साथ नथ की डिजाइन और साइज में भी बदलाव आया है। अब नव विवाहिता छोटे आकार की नथों को वरीयता दे रही हैं।


Source- http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20150518a_003115009&ileft=-5&itop=62&zoomRatio=136&AN=20150518a_003115009

 

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