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Milestones Of Uttarakhandi Music - उत्तराखण्डी संगीत के मील के पत्थर

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पंकज सिंह महर:
कबूतरी देवी: Kabootari Devi

कबूतरी देवी जी, ग्राम- क्वीतड़, विकास खण्ड- मूनाकोट, जनपद पिथौरागढ़ की रहने वाली हैं। ये कुमाऊंनी ऋतु गायन शैली की गायिका हैं, ये उत्तराखण्ड की पहली महिला लोक गायिका भी हैं। इन्होंने देश के विभिन्न रेडियो चैनलों से ७०-८० के दशक में कर्णप्रिय ऋतु गीत गाकर धूम मचा दी थी। इनके पिता श्री रामकाली जी भी लोक गायक रहे, लोक गायन की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही ली। पहाड़ी गीतों में प्रयुक्त होने वाले रागों का निरन्तर अभ्यास करने के कारन इनकी शैली अन्य गायिकाओं से अलग है।
      वर्तमान में यह लोक गायिका अपनी पुत्री के साथ पिथौरागढ में निवास कर रही हैं।
    कबूतरी देवी जी की संगीत साधना का सम्मान करते हुये मेरा पहाड़ परिवार ने एक विस्तृत टापिक इन्हें समर्पित किया है। पढ़ने के लिये निम्न लिंक देखें।
http://www.merapahad.com/forum/music-of-uttarakhand/first-women-folk-singer-of-uttarakhand-kabootri-devi/

पंकज सिंह महर:
गोपाल बाबू गोस्वामी : GOPAL BABU GOSWAMI


उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के छोटे से गांव चांदीकोट में जन्मे गोपाल बाबू गोस्वामी का परिवार बेहद गरीब था. बचपन से ही गाने के शौकीन गोपाल बाबू के घरवालों को यह पसंद नहीं था क्योंकि रोटी ज़्यादा बड़ा मसला था. घरेलू नौकर के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद गोपाल बाबू ने ट्रक ड्राइवरी की. उसके बाद कई तरह के धंधे करने के बाद उन्हें जादू का तमाशा दिखाने का काम रास आ गया. पहाड़ के दूरस्थ गांवों में लगने वाले कौतिक - मेलों में इस तरह के जादू तमाशे दिखाते वक्त गोपाल बाबू गीत गाकर ग्राहकों को रिझाया करते थे.एक बार अल्मोड़ा के विख्यात नन्दादेवी मेले में इसी तरह का करतब दिखा रहे गोपाल बाबू पर कुमाऊंनी संगीत के पारखी स्व. ब्रजेन्द्रलाल साह की नज़र पड़ी और उन्होंने नैनीताल में रहने वाले अपने शिष्य (अब प्रख्यात लोकगायक) गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' के पास भेजा कि इस लड़के को 'देख लें'. गिर्दा बताते हैं कि ऊंची पिच में गाने वाले गोपाल बाबू की आवाज़ की मिठास उन्हें पसंद आई और उनकी संस्तुति पर सांग एंड ड्रामा डिवीज़न की नैनीताल शाखा में बड़े पद पर कार्यरत ब्रजेन्द्रलाल साह जी ने गोपाल बाबू को बतौर कलाकार सरकारी नौकरी पर रख लिया.यहां से शुरू हुआ गोपाल बाबू की प्रसिद्धि का सफ़र जो ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी आकस्मिक मौत तक उन्हें कुमाऊं का लोकप्रिय गायक बना गया था. जनवरी के महीने में हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले में निकलने वाले जुलूस में हज़ारों की भीड़ उनके पीछे पीछे उनके सुर में सुर मिलाती थी. "कैले बाजै मुरूली", "घुरु घुरु उज्याव है गो", "घुघूती ना बासा" और "रुपसा रमोती" जैसे गाने आज भी खूब चाव से सुने जाते हैं और कुछेक के तो अब रीमिक्स तक निकलने लगे हैं.
        गोपाल बाबू गोस्वामी जी की संगीत साधना का सम्मान करते हुये मेरा पहाड़ परिवार ने दो विस्तृत टापिक इन्हें समर्पित किये हैं। पढ़ने के लिये निम्न लिंक देखें।

गोपाल बाबू गोस्वामी उत्तराखंड के महान गायक - Gopal Babu Goswami Great Singer
http://www.merapahad.com/forum/music-of-uttarakhand/gopal-babu-goswami-great-singer/

गोपाल बाबू गोस्वामी (महान गायक) की यादे ! A TRIBUTE TO GOSWAMI JI SONGS !
http://www.merapahad.com/forum/music-of-uttarakhand/a-tribute-to-gopal-babu-goswami-ji-exclusive-songs/

पंकज सिंह महर:
चन्द्र सिंह राही : CHANDRA SINGH RAHI
चन्द्र सिंह राही जी का जन्म १७ मार्च, १९४२ को ग्राम गिंवाली, पट्टी- मौंदाडस्यूं, पौड़ी में हुआ था, इन्होने आकाशवाणी के दिल्ली, लखनऊ और नजीबाबाद स्टेशनों से १९६६ से ही गीत गाने प्रारम्भ कर दिये थे। इन्होंने कई स्टेज प्रोग्राम भी दिये, १९८० से दूरदर्शन पर लोकगीतों का प्रसारण शुरु हुआ तो उत्तराखण्डी गीतों को सुमधुर तान इन्होंने ही दी थी। अब तक श्री राही लगभग ५०० लोकगीतों का गायन कर चुके हैं। श्री राही की जागर और लोकगाथाओं को उत्तराखण्ड से बाहर निकाल कर बाकी दुनियां को रेडियो और दूरदर्शन के माध्यम से रुबरु कराने में अहम भूमिका रही है।
      श्री राही जी को लोक संगीत का प्रशिक्षण उनके पिता द्वारा १२ वर्ष की आयु से ही दिया जाने लगा, उसके बाद सुगम संगीत आचार्य स्व० बचन सिंह जी अन्ध महाविद्यालय द्वारा प्रशिक्षण लिया। अब तक राही जी ने २५०० पारम्परिक लोक गीतों का संकलन किया है और मध्य हिमालय उत्तराखण्ड के लोक गीत, लोक नृत्य एवं पारम्परिक लोक वाद्य यंत्रों की लोक शैलियां भी संकलित की हैं। श्री राही ढोल-दमाऊ, डौंर, थालि, हुड़का, मोछंग, बिणै, मुरली, अलगोजा आदि वाद्य यंत्रों के वादन में प्रवीण हैं।
      श्री राही जी आकाशवाणी में बी हाई श्रेणी के कलाकार हैं और पिछले ४२ सालों से निरन्तर प्रस्तुति देते आ रहे हैं साथ ही दूरदर्शन पर लगभग ५ हजार कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुके हैं।

इन्हें निम्न पुरस्कार भी प्राप्त हुये हैं-

१- उत्तरांचल लोक कला केन्द्र द्वारा १९८६ में लोक संगीत रत्न पुरस्कार
२- गढ़भारती, दिल्ली द्वारा १९८६ में साहित्य कला अवार्ड
३- संगीत नाटक अकादमी द्वारा सम्मानित
४- पं० टीकाराम गौड़ पुरस्कार(दिल्ली), १९९६
५- मोहन उप्रेती कला अवार्ड, अल्मोड़ा, २००४
६- गढ़गौरव सम्मान वर्ष २००५ में उत्तराखण्ड क्लब द्वारा।
७- पं० शिवानन्द नौटियाल सम्मान, लखनऊ, २००७
८- मोनाल लोक कला सम्मान, मोनाल संस्था लखनऊ द्वारा २००९
९- अखिल गढ़वाल सभाअ, देहरादून से लोक कला सम्मान, २००३
१०- दिल्ली सिटीजन फार्म द्वारा १९९८ में सम्मानित
११- माता राजराजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी चेतना संघ, चमोली द्वारा कला सम्मान, २००९

राही जी के अजर-अमर गीतों को सहेजने का एक प्रयास
http://www.merapahad.com/forum/music-of-uttarakhand/chandra-singh-rahi-legendary-folk-singer-of-uk/

पंकज सिंह महर:
झूसिया दमाई : JHUSIA DAMAI

झूसिया दमाई जी का जन्म पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील के ढूंगातोली गांव में १९१३ में हुआ था, ये नेपाल के बैतड़ी जिले के बसकोट ग्राम के मूल निवासी थे। ये वीर पुरुषों के सम्मान में वीर रस में गाये जाने वाले भड़ गायन के महारथी माने जाते हैं। झूसिया दमाई जी ने अपने पिता से लोक गाथायें सिखीं, इस परिवार को नेपाल और धारचूला क्षेत्र में इष्टकुल के लिये वर्षों के लिये एक ऐसा कर निर्धारित किया गया है कि चैत्र, आश्विन और कार्तिक में ये देवताओं का स्तुतिगान करें। नेपाल के त्रिपुरा सुन्दरी, जगन्नाथ और भगवती के मन्दिरों में यह परिवार पीढ़ियों से गाथायें गा रहा है। झूसिया दमाई जी के शब्दों में " इष्ट्कुल के ऋण को चुकाने के लिये हमारा गाथा गायन जरुरी काम था, इस अंचल में २२ भड़ों (वीरों) खासतौर पर छुराखाती, भीमा कठैत, संग्राम कार्की, सौन रौत, रन रौत, लाल सौन, सौन माहरा, कालू भण्डारी, उदाई छपलिया, नर सिंह धौनी आदि शामिल हैं। कहा जाता है कि उस काल में कत्यूर में विरम देव का राज था, ये २२ भड़ वीरतापूर्वक उस राजा के अत्याचारों के खिलाफ लड़े थे।" इसी कड़ी में आगे उनका कथन है कि "कुमाऊं और नेपाल में महाभारत गाथा, जागर गाथा, त्रिमल चन्द, विक्रम चन्द, मुन शाही, खर्का शाही, पैक, सौन, भनारी, कठायत, १२ ठगुरी पैक, कालिका देवता, ३३ कोटि देवताओं के अलावा ध्वज, थल केदार, छिपलाकेदार, लटपापू, ननपापू, ठ्गुरी चन्द, गुंसाई गाथा, अलाईमल, छुरमल, भागीमल, गंगनाअथ, गोलू देवता और भूतात्माओं की जागर और गाथायें प्रचलित हैं।
       झुसिया दमाई जी का भड़ गायन अपने आप में एक इतिहास को सुनने वालों के सामने खड़ा कर देता है। उत्तराखण्डी संगीत के इस मील के पत्थर पर प्रसिद्ध जनकवि गिर्दा शोध कार्य भी कर रहे हैं। झूसिया जी को दुःख इस बात का है कि गाथाये जानने और गाने वाले कुछ ही वर्षों में पूरी तरह से समाप्त हो जायेंगे।

पंकज सिंह महर:
जीत सिंह नेगी : JEET SINGH NEGI


१९२७ को ग्राम- अयाल, पैडुलस्यूं, पौड़ी गढ़्वाल में जन्में जीत सिंह नेगी जी गढ़्वाल की लोक संस्कृति को गीतों के स्वरों से जीवन्त रखने वाले बेजोड़ लोक गायक और गीतकार हैं। गढ़वाली बोली में अनेक अनूठे गीतों की इन्होंने रचना की है, गढ़वाली बोली, सामाजिक परिवेश, परम्पारयें, रुढ़िया और लोक विश्वास पर इनकी आश्चर्यजनक पकड़ है। पर्वतीय संस्कृति को उजागर करने वालों अनेकों गीतों की रचना कर सुरों में ढाला है नेगी जी ने। अभावों से अभिशप्त प्रवासी प्रवतीयों के विकल करुण जीवन के संयोग, वियोग के सैकड़ों गीत आपने लिखे हैं। इनके गीतों में निश्चल, सहज और नैसर्गिक प्रेम की अभिव्यंजन  होती है। इनमें कहीं भी खलनायक या खलनायिका के संकेत नहीं मिलते, यही उत्तराखण्डी संस्कृति का मूल रुप भी है। गीतों के अतिरिक्त नेगी जी नाटक भी लिखते हैं, मलेथा की कूल, भारी भूल, जीतू बगड़वाल इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। रामी काव्य की नृत्य नाटिका बनाने का श्रेय भी इन्हीं को है, अपने गीतों और नाटकों का मंचन वे भारत के कई शहरों में कर चुके हैं। गीत गंगा, जौल मंजरी, छम घुंघरु बाजला इनके प्रकाशित गीत संग्रह हैं।
        छात्र जीवन के तत्काल बाद फिल्म लाइन के मोह में ये दिल्ली-बम्बई चले गये, १९४९ में अपने ६ गीतों की ग्रामोफोन रिकार्डिंग कराने में ये सफल भी रहे। १९५२ में बम्बईए के दामोदर हाल में गढ़वाल भातृ मण्डल के तत्वाधान में इन्होंने स्वरचित नाटक भारी भूल का सफल मंचन भी किया। १९५७ तक नेगी जी लोक गीतों की धुनों के मर्मग्य हो गये, आकाशवाणी, दिल्ली के तत्कालीन संगीत निर्देशक ठाकुर जयदेव सिंह ने इन्हें लोक गीतों की धुनों को सम्पन्न रुप देने के लिये आमंत्रित किया। इनका गाया लोक गीत "तू होली ऊंची डांडयूं मां, बीरा घसियारी का भेस मां, खुद मां तेरी सड़क्यों पर रुणों छौं हम परदेश मां" इतनी मार्मिकता और भावुकता से भरा है कि प्रवासी पहाड़ी की आंखें एक बार छलछला जाती हैं। श्री नेगी जी वृद्धावस्था के बाद भी निरन्तर उत्तराखण्डी लोक संगीत की साधना में रत हैं।

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