Uttarakhand > Music of Uttarakhand - उत्तराखण्ड का लोक संगीत

Milestones Of Uttarakhandi Music - उत्तराखण्डी संगीत के मील के पत्थर

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पंकज सिंह महर:
साथियो,
       उत्तराखण्ड के लोक संगीत का इतिहास बहुत समृद्ध रहा है। पर्वतीय लोक संस्कृति में लोक गायन एक महत्वपूर्ण अंग है, लोक गायन प्रकृति और समाज की प्रवृत्तियों को दर्शाता है। उत्तराखण्ड में विशेष रुप से दो प्रकार का लोक गायन प्रचलित है, पहला भड़ गायन और दूसरा ऋतु गायन। भड़ गायन का संबंध आस्था और विश्वास से जुड़ा है, इसमें स्थानीय देवी-देवताओं और वीर पुरुषों के महातम्य को गाया जाता है तथा यह वीर रस में गाया जाने वाला गायन है।
      ऋतु गायन में प्रकृति की सुन्दरता, श्रृंगार रस, विरह-प्रेम आदि का वर्णन होता है। उत्तराखण्ड में अनेकों ऐसे लोक गायक हुये हैं, जिन्होंने उत्तराखण्डी लोक गायन को एक नई पहचान दी। लोक गायकी और लोक संगीत के लिये उन्होंने ऐसे अविस्मरणीय कार्य किये, जिससे वे इस क्षेत्र में मील के पत्थर सबित हो गये।
      आइये चर्चा करते हैं ऐसी ही कुछ विभूतियों की....!

पंकज सिंह महर:
आनन्द सिंह नेगी: AANAND SINGH NEGI
आनन्द सिंह नेगी जी आनन्द कुमाऊंनी के नाम से प्रसिद्ध थे, इनका जन्म २७ सितम्बर, १९२५ को नोला ग्राम, पट्टी सिलोर, अल्मोड़ा में हुआ था। इन्हें कुमाऊंनी बोली का पहला गायक माना जाता है, 1941-42 में इन्होंने दान सिंह मालदार जी के साथ काम किया। 1942 में सेना में भर्ती हो गये, द्वितीय महायुद्ध में सुमात्रा, जैसोर, इम्फाल, सिंगापुर, कोहिमा, रंगमाटी आदि स्थानों में लोक गीतकार के रुप में सैनिकों का मनोरंजन किया। 1946 में ये सेना से सेवानिवृत्त हो गये, 1955 में इन्होंने "आनन्द कुमाऊंनी एण्ड पार्टी" नाम से अपना संगीत ग्रुप बनाया। ये पहले कुमाऊंनी लोक गायक थे, जिन्होंने रष्ट्रीय स्तर पर आल इण्डिया रेडियो से 1955-57 तक कार्यक्रम दिये। 1968 से पर्वतीय कला केन्द्र से सम्बद्ध रहे, राजुला-मालूशाही, अजुवा-बफौल, सिदुवा-विदुवा रमौल, भाना-गंगनाथ, हरुहीत, जीतू बगड़वाल, हिलजात्रा और भोलानाथ आदि प्रसिद्ध कुमाऊंनी नाटकों में स्वर दिया। सांस्कृतिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा सर्वश्रेष्ठ लोक गीत गायक के रुप में सम्मानित किये गये। पर्वतीय कला केन्द्र की ओर से सीरिया, ट्यूनिस, अल्जीरिया, मिस्र, बैंकाक, बीजिंग और उत्तरी कोरिया में प्रोग्राम दिये।

*श्री शक्ति प्रसाद सकलानी द्वारा लिखित उत्तराखण्ड की विभूतियां से साभार टंकित

पंकज सिंह महर:
अमलानन्द धस्माणा:AMLANAND DHASMANA
अमलानन्द धस्माना जी का जन्म 1885 के आस-पास बग्याली ग्राम, पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। १९१५ के आस-पास धस्माना जी ने अपने गांव बग्याली में रामलीला मण्डली का सूत्रपात किया। इस रामलीला के सफल होने के बाद वे दूसरे गांवों में भी जाकर रामलीला करवाने लगे। धस्माना जी कराची, अमृतसर, कोटकपुरा और अंत में हापुड़ जाकर रहने लगे। जब वे कराची में थे तभी से उन्हें रामलीला मंचन का शौक हो गया। अपनी मंड्ली के लिये वे तभी से पोशाकें, आभूषण, पर्दे, गैस के हंडे खरीदने लगे। उनके मकान का आधा भाग इसी सामान से भरा रहता था। वे पूरे गढ़वाल में घूम-घूम कर रामलीला का मंचन करवाते थे। अर्थात इस ग्रामीण और पर्वतीय अंचल में रामलीला की शुरुआत कराने का श्रेय इन्हें ही है। लगभग आठ-दस वर्षों तक वे इसी प्रकार से संगीत की साधना करते रहे, इसी क्रम में उन्होंने लोक गीतों को भी इसी मंच से स्वर देना शुरु किया। एक बार रामलीला मंचन के दौरान सभी कलाकार मंचन के बाद स्टेज पर ही सो गये और सुबह १४ कलाकार मृत पाये गये, तब से धस्माना जी दुःखी हो गये और रामलीला मंचन करवाने कभी अपने गांव नहीं आये।
        श्री धस्माना सुप्रसिद्ध ज्योतिषी और गणितग्य भी थे, उनकी लिखी ज्योतिष रत्न भण्डार सारिणी उन दिनों पहाड़ के सभी ज्योतिषीयों के पास हुआ करती थी।उन्होने गणित का एक वृहद ग्रन्थ "सिद्ध खेटी" भी लिखा था।

पंकज सिंह महर:
मोहन सिंह ’रीठागाड़ी’ को उत्तराखण्ड संगीत का आधारस्तंभ कहा जा सकता है. उत्तराखण्डी संगीत को विश्वपटल पर चमकाने वाले मोहन उप्रेती जी रीठागाड़ी जी को सुनकर ही साम्यवादी राजनीति से लोकसंगीत की दुनिया में आ गये थे. यह मोहन सिंह रीठागाड़ी जी का एक सुप्रसिद्ध गीत है-

ॠतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि
हमारा मुलुक, भंवर उड़ाला बलि
दै खायो पात मां, भंवर उड़ाला बलि
के भलो मानिंछ, भंवर उड़ाला बलि
जुन्यालि रात मां, भंवर उड़ाला बलि
ऋतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि
कुमाऊं मुलुक, भंवर उड़ाला बलि
कागजि को लेख, भंवर उड़ाला बलि
सुणो भाई-बन्दो, भंवर उड़ाला बलि
मिलि रया एक, भंवर उड़ाला बलि
ॠतु औंने रौलि, भंवर उड़ाला बलि
मोहन सिंह बोरा "रीठागाड़ी" :MOHAN SINGH BORA "REETHAGARI"

मोहन रीठागाड़ी जी का जन्म 1905 में ग्राम-धपना, शेराघाट, पिथौरागढ़ में हुआ था, प्रसिद्ध संस्कृति कर्मी मोहन उप्रेती जी इन्हें अपना गुरु मानते थे। प्रख्यात रंगकर्मी स्व० ब्रजेन्द्र लाल शाह जी के शब्दों में (रीठागाड़ी जी की मृत्यु के बाद) -"लोक संस्कृति के उन्नायक मोहन सिंह बोरा "रीठागाड़ी" का गायकी जीवन ’कौन जाने उस बंजारे गायक की याद में कितने वर्षों तक सेराघाट के आस-पास सरयू तट पर ग्राम्यांए बैठती रही होंगी और मोहन की मोहक न्योलियों को सुमराति रही होंगी। राजुला मालूशाही गाथा के मर्मस्पर्शी प्रसंगों को याद कर सिसकती रही होंगी तथा बैर गायन में वाकप्टु और व्युत्पन्नम्ति, बैरी मोहन को सुमरती हुई अतीत में डुबकी लगाती रही होंगी।" एक युगान्त का अंत हो गया, मोहन सिंह रीठागाड़ी के युग का अंत हो गया, अब अतीत के घोडि़या पड़ावों की रसीली लोक-गीती संध्याएं छोटे पर्दो के चारों ओर सिमट कर रह गई हैं, दूरदर्शन स्टूडियो अथवा लोकोत्सवों में अस्वाभाविक रुप में प्रस्तुत किये गये लोकगीतों एवं नृत्यों की झांकी टेलीविजन पर अवश्य दृष्टिगोचर होती है, किन्तु उन दृश्यों में वह बंजारा कभी नहीं दिखलाई पड़ेगा। जो सरयू तीरे चांदनी रातों में घोड़े हांकता, न्योली गाता हुआ निकलता था और अपने स्वरों की झिरमिराहट से समस्त सेराघाट की घाटी को बोझिल और ओसिल बनाता हुआ आगे बढ़ जाया करता था। कौन था वह बंजारा, वह घोडिया? वह था मोहन रीठागाड़ी, रसीला और रंगीला गायक।
         ठाकुर मोहन सिंह बोरा जी की दो शादियों की ग्यारह संतानों में मोहन सबसे छोटे थे, बचपन से ही विनोद प्रिय मोहन के कानों में राजुला-मालूशाही की कथा एवं मोहक संगीत बस गया था। बकौल मोहन सिंह के यह संगीत उन्होंने गेवाड़ क्षेत्र के एक बारुड़ी शिल्पकार (टोकरी बनाने वाले) से पहली बार सुना था, उसके बाद बारुड़ी के एक्लव्य शिष्य मोहन सिंह ने आवाज के उस जादू को मृत्युपर्यन्त आत्मसात किये रखा।अल्मोड़ा जिले के सभी मेलों में मोहन सिंह नाम का युवक पहुंचकर विभिन्न प्रकार की छपेलियों, झोड़ों और चांचरियों का संगीत संचय कर अपनी सांसों से संवारने लगा। आजीविका के लिये उसने बंजारे की जिंदगी अपनाई, अल्मोडा शहर से वे घोड़ों पर सामान लादकर गंगोलीहाट, बेरीनाग, लोहाघाट और पिथौरागढ़ की मण्डियों में ले जाते। विश्राम के क्षणॊं में रात-रात भर मालूशाही गाते, हृदय को टीसने वाली न्योलियां गाकर स्वयं भी सिसकते और श्रोताओं को भी सिसकने पर मजबूर कर देते। इस प्रकार से पूरे कुमाऊं में लोक गायक मोहन रीठागाड़ी की धूम मच गई।
      शनै-शनैः मोहन सिण्ह जी की कला प्रदर्शन का क्षेत्र बढ़ता चला गया, ग्रामीण खेलों-मेलो- की सीमा से निकलकर वह कुमाऊं मण्डल के शरदोतसवों, ग्रीष्मोत्सवों और विशेष स्मारोहों में पहुंच गये। आकाशवाणी के लिये भी उन्होंने कार्यक्रम देने शुरु कर दिये। लखनऊ से दिल्ली तक उनकी मांग होने लगी, मोहन उप्रेती जी के प्रयासों से संगीत नाटक अकादमी ने उनकी गाई सम्पूर्ण मालूशाही का ध्वन्यालेखन किया और यथोचित आदर और पारितोषिक दिया। पर्वतीय कला केन्द्र, दिल्ली ने भी उन्हें काफी सम्मान दिया। २८ जनवरी, १९९८ को ७९ वर्ष की आयु में एक हुड़के की गमक अनन्त में विलीन हो गई।

पंकज सिंह महर:
उस्ताद रहीम खान : USTAD RAHIM KHAN

बीसवीं सदी के आरम्भ में जन्मे उस्ताद रहीम खान मूल रुप से संभवतः बिजनौर के वाशिंदे थे, लेकिन उनका कर्मक्षेत्र नैनीताल और अल्मोड़ा रहा। इन्होंने पेशेवर नर्तकियों को प्रशिक्षण देने में खूब प्रसिद्धि पाई, खां साहब कत्थक, भरतनाट्यम तथा पहाड़ी नृत्यों के विशेषग्य माने जाते थे, पुराने राजघरानों के रनिवासों के खोजाओं की तरह उन्हें भी कला की साधना के लिये पहले नपुंसक बन जाना पड़ा था। उनकी शिष्याओं में शास्त्रीय संगीत में पारंगत रामप्यारी, हीरुली, कल्लो, लोकगायन में इमामबाई, जग्गो और धन्नो का नाम उल्लेखनीय है। कुमाऊं क्षेत्र में सारंगी में पारंगत मौलाबरुस, गुलाब बाई, मियां गफ्फार, मियां बशीर तथा मियां  गुलाम की पिछली सदी के आरम्भ से अन्त तक बड़ी धूम रही है। कत्थक नृत्य में प्रवीण शिवदत्त और तबला वादन में प्रवीण रतन मास्टर ने खूब ख्याति अर्जित की है। राधाबाई और कमला झरिया नें फिल्मों में भी काम किया। चन्दाबाई नाम की गायिका का मधुर स्वर में गाया " सोरे की पिरुली पधानी, पाणी पीजा पाणि" गीत के रिकार्ड अब भी नैनीताल में सुरक्षित हैं।

*श्री शक्ति प्रसाद सकलानी द्वारा लिखित उत्तराखण्ड की विभूतियां से साभार टंकित

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