Author Topic: Mohan Upreti - मोहन उप्रेती: उत्तराखण्डी लोक संस्कृति के संवाहक  (Read 27086 times)

पंकज सिंह महर

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Mohan Upreti
Born 1928, Almora, Uttarakhand
Died 1997,Delhi
Occupation : playwright, music composer, folk artist

Mohan Upreti (1925-1997) was an Indian theatre director, playwright and a music composer, considered one of the pioneers in Indian theatre music.
A popular figure in Kumaon , Mohan Upreti is remembered for his immense contribution towards the revival and revitalization of the Kumaoni folk music; and for his efforts towards preserving old Kumaoni ballads, songs and folk traditions and is known for his song “Bedu Pako, Bara Masa”.

Early life and education

Mohan Upreti was born in 1925 in Almora, where he also received his early education. Almora was then a quaint little town, still untouched by rapid development that the British brought to other hill stations like Nainital and Shimla. It was this environment that drew, dancer Uday Shankar to create his institute at Almora in 1937.

He was deeply influenced by trade union leaders like P. C. Joshi, who later became a prominent leaders of the Communist Party of India (CPI) and also Upreti's mentor.

In the 40s, Indian People's Theatre Association (IPTA) and the Progressive Writer's Association were formed, as a response to the Indian freedom struggle by the artistic community, Mohan Upreti couldn't remained untouched by this burgeoning movement, and while still at Allahabad University he formed his theatre group, 'Lok Kalakar Sangh'.

Career

As a young man in the 1940s and 50's, Mohan Upreti travelled across Uttarakhand, along with B.L. Sah, and collected the fast vanishing folk songs, tunes, and traditions of the region to preserve them for posterity.

Mohan Upreti was instrumental in bringing the Kumaoni culture and music into national focus by establishing institutions like the Parvatiya Kala Kendra (Center for Arts of the Hills), which he constituted in Delhi, in 1968. The institution produces plays and ballads strongly rooted in the Kumaoni culture . In fact, B.M. Shah and Mohan Upreti together, are credited with the revival of the theatre in the Uttarakhand. He remained in the faculty of National School of Drama (NSD), New Delhi, for many years, and also directed plays for NSD Repertory Company, where his most known work was the play, 'Indra Sabha' .

His most important work is the epic ballad 'Rajula Malushahi', published in 1980, offers never before insights into the Kumaoni folk culture. His other important plays are 'Nanda Devi Jagar', upon which he made a film as well, 'Seeta Svyamvar', and 'Haru Heet'. Apart from that he also gave music for many theatre productions, including 'Ghasiram Kotwal', his music for Hindustani version of Brecht's Three Penny Opera was vastly appreciated and still remembered as his finest .

He worked for many years to revive traditional Ram-Lila plays and bring them to urban audiences.

He also gave music for a number of television productions in the 80's including in a series based on Ruskin Bond's stories, 'Ek Tha Rusty', where again his compositions were noticeable for the distinct Kumaoni folk touch.

He died in 1997, in New Delhi.
Family
Mohan Upreti was married to Naima Upreti, a graduate of National School of Drama in 1969

पंकज सिंह महर

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Legacy
Each year on his birth anniversary, 'Parvatiya Kala Kendra', an institution set up by him, presents a new play.

In the 2004, "Bedu Pako, Bara Masa" - a creation of Mohan Upreti, was used in Coca Cola commercial "Thanda Matlab Coca Cola" by , by Prasoon Joshi, himself from Kumaon. In the ad a "Pahaari Guide" is shown humming the tune. The song is still played at Kumaoni weddings, celebrations and cultural functions and has now even become a popular mobile ringtone. It is also the marching song of the Kumaon Regiment.

In 2006, National School of Drama published his biography, titled, Mohan Upreti — The Man and His Art, written by theatre critic, Diwan Singh Bajeli.

Bibliography
Malushahi: The Ballad of Kumaon. New Delhi, Sangeet Natak Akademi (1980).

पंकज सिंह महर

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A Comment on mohan da by our senior member Kamal Karnatak ji-


Regarding Mohan Upreti ...Devesh u just pulled the right chord .no  series, article on kumauni folk songs can be completed without the reference of the legendry Mohan Upreti . He was the legend . He gave new heights to kumauni folk ..Specially Malushahi Balled ..I will come on this later . He was instrumental in showing the kumauni culture, heritage in front of whole world. He used to write plays, Sing songs, Compose songs. he was a great actor , composer and a great character .He was associated with Indira Gandhi national center for the arts .  he has done lot of plays . The most famous ones are Nanda Devi , Jagar, (U-matic) by Mohan Upreti, Ramakar Pant, Richa Negi.Indra Sabha by Mohan Upreti.He also composed the title song for TV serial "Ek Tha Rusty" which was based on the story written by Ruskin Bond.
                He also wrote books like Kumauni Lokgeet :Mohan Upreti,Malushahi Ballad of Kumaon: Mohan Upreti .He also composed for Brecht's Three Penny Opera. in which there were the vast variety of musical styles employed including kumauni folk style.


source- us.geocities.com/kkarnatak/html/song_comments1.htm

Thul Nantin

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अति उत्तम |
यह सब जानकारी मुझे नहीं थी | इस प्रस्तुति के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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लोक के चितेरे मोहन उप्रेती की पुण्यतिथि (7 जून, 1997) पर विशेष
कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से, अचानक दुकान की सबेली में खड़े मोहन ने आवाज दी- ‘कहां जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहां तो आ।’ क्या है यार? घूमने भी नहीं देगा।’ और मैं खीज कर उदेसिंह की दुकान के सामने उसके साथ घुस गया। उसके सामने ही लगी हुर्इ लकड़ी की खुरदरी मेज थी। मोहन कुछ उत्तेजित-सा लग रहा था। मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगाकर एक पूर्व प्रचलित कुमाउनी गीत को नितान्त नर्इ धुन तथा द्रुत लय में गा रहा था। वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था। उस गीत की नर्इ और चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी। गीत था-

बेडू पाको बारामासा
हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला।
रूणा-भूणा दिन आयो
हो नरैण पूजा म्यारा मैता मेरी छैला।

मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था। ‘अरे भार्इ... आगे तो गा।’ मैं बेसब्र होकर बोला। ‘यार ब्रजेश आगे तो मुझे भी नहीं आता। किसी के मुंह से सुना था। तर्ज भूल गया इसलिये नर्इ धुन बनाकर गा रहा हूं। इसके आगे कुछ लिख।’ पास ही लकड़ी की फर्श पर ‘सीजर’ सिगरेट का खाली डिब्बा पड़ा था। मैंने उठाया जोड़ उखाड़ कर खोला... उदेसिंह से पेंसिल लेकर उस बोल को आगे बढ़ाने का प्रयास प्रारंभ कर दिया।’

ब्रजेन्द्र लाल शाह ने अपने संस्मरण में ‘अब केवल बिंबो में’ मोहन उप्रेती को याद करते हुये उपरोक्त पंक्तियां लिखी हैं। फिर जो गीत बना वह है-

रौ की रौतेली लै माछी मारी गीड़ा
तेरो खुटो काना बुड़ो मेरो खुटा पीड़ा
हो नरैण मेरो खुटा पीड़ा

सवार्इ को बाल मेरो हिया भी औंछ जस नैनीताल
बाकरी की पसी पारा डाना दिखा हैंछै ब्याण तारा जसी
हो नरैण ब्याण तारा जसी मेरी छैला

लडि़ मरी के होलो लड़ार्इ छौ धोखा
हो नरैण लड़ार्इ छौ धोखा मेरी छैला
हरियो भरियो रर्इ चैंछ हो नरैण धरती को कोखा
हो नरैण धरती की कोखा मेरी छैला।
 
बाद में यह गीत उदेसिंह की दुकान से लेकर सात संमदर पार तक पहुंच गया। हर व्यक्ति उन्हें तभी से जानता है जब से वह ‘बेडू पाको बारामासा...’ गीत सुनता है। दुनिया के जिस भी कोने में यह गीत बजता है एक पहाड़ सामने खड़ा हो जाता है। सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक सरोकार, राजनीतिक समझ, जीवन के संघर्ष, आमजन की पीड़ा, व्यवस्था के खिलाफ प्रतिकार, सामाजिक विकृतियों से टकराने की जिजीविषा, बेहतर समाज बनाने की आंकाक्षा इन सबसे बने व्यक्ति को हम मोहन उप्रेती के नाम से जानते हैं। एक तरह से वे हमेशा हमारे सांस्कृतिक यात्रा के ब्रांड एम्बेसडर बने रहेंगे। हम उन्हें कर्इ रूपों में जानते हैं। उनका हर रूप समाज के अंदर उठने वाली हर बेचैनी को स्वर देने वाला है। आज उनकी पुण्यतिथि है। हम सब उन्हें कृज्ञतापूर्वक याद करते हैं।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘मोहन गाता जायेगा’ का शीर्षक उन पर लिखे संस्मरण पर ही रखा। नौटियाल जी ने उन्हें याद करते हुये लिखा है कि- ‘एक ओर राज्य सरकार और जिला प्रशासन हमें तन्हार्इ देकर और हमारे परिजनों को तंग, परेशान कर हमें ठीक करने पर उतारू थे। जिसके दिमाग में ‘साम्यवाद आवश्यंभावी है’ का महामंत्र गूंजता रहता था, दूसरी ओर जेल के अंदर मोहन की मौजूदगी के कारण हमारी जिन्दगी पूरी तरह बदलने लगी थी। चौथे वार्ड की पहली बैरक। इसमें चैरासी कैदियों को रखा जा सकता है। हम कुल सात लोग बंद थे। अभी रात खुली नहीं है। जेल में कैदियों की बैरकों को खोले जाने के लिये लगातार बजाये जाने वाला घंटा, जिसे पचासा कहते हैं, के बजाये जाने में अभी पर्याप्त विलंब है। तालों से जकड़ी बैरक के अंदर अपने सख्त बिस्तर पर बैठकर मोहन उप्रेती भैरवी गाने लगा है। शांत जेल की अन्य बैरकों में भी मोहन की आवाज गूंजने लगी है। मिठास से भरी हुर्इ एक महान संगीतकार की आवाज-

भैरवी कहे मनमानी
कोमल सब सुर कर गुनि गावत
प्रथम पहर की रानी हो।

...जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में बुल्गानिन-खु्रश्चोव भारत आये थे। कलकत्ते में उनके स्वागत में जो जन सैलाब उमड़ा था, उसके बारे में पंडित नेहरू ने कहा था- ‘आज मानव इतिहास में सबसे बड़ा जन समूह यहां इकत्र हुआ है। बुल्गानिन-खु्रश्चोव के स्वागत में दिल्ली में किये गये आयोजनमें उप्रेती ने कलाकारों की अपनी टोली के साथ एक गीत प्रस्तुत किया था। गीत के बोल थे- ‘बेडू पाको बारामासा, नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला।’ लोक गीत संगीत की धुन पर बनाया गया मोहन-नर्इमा का यह गीत आज उत्तराखंड के घर-घर का गीत बन गया है।

... देहरादून में मेरे घर के बाहर एक बारात चली जा रही है। नौजवान मस्ती में नाच रहे हैं। गीत की धुन मादक है। ‘बेडू पाको बारामासा’ गाया जा रहा है। गीत के बोल वाद्ययंत्र और नृत्य करने वालों की पगध्वनि से उठने वाला सामूहिक नाद जमीन-आसमान को एक करने लगा लगा है।

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है?
मोहन जिन्दा है। मेरे घर के बाहर सड़क पर गीत गाता जा रहा है। लोग झूम रहे हैं और वह गाता जा रहा है। मोहन उप्रेती अमर है दिल्ली में बैठा शासन तंत्र भूले तो भूले। उत्तराखंड मेें लाखों कंठों से उसके गीतों की स्वरधारा लगातार प्रवाहित होती रहेगी। व शताब्दियों तक जीवित रहेगा।’ (मोहन गाता जायेगा, विद्यासागर नौटियाल)

मोहन उप्रेती जी का जन्म 17 फरवरी, 1928 में रानीधारा, अल्मोड़ा में हुआ था। उप्रेती जी सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लोक संगीत के मर्मज्ञ थे। कुमांउनी संस्कृति, लोकगाथों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने में इनकी अहम भूमिका रही।  बर्ष 1949 में एमए करने के बाद 1952 तक अल्मोड़ा इण्टर कालेज में इतिहास के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। 1951 में 'लोक कलाकार संघ' की स्थापना की। 1950 से 1962 तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिये भी कार्य किया। इस बीच पर्वतीय संस्कृति का अध्ययन और सर्वेक्षण का कार्य किया। सुप्रसिद्ध लोक कलाकार मोहन सिंह बोरा 'रीठागाड़ी' के सम्पर्क में आये।इसके बाद वे लगातार सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे।  कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम किये। वामपंथी विचारधाराओं के कारण 1962 में चीन युद्ध के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और नौ महीने का कारावास भी झेला।

जेल से छूटने के बाद अल्मोड़ा और सारे पर्वतीय क्षेत्र से निष्कासित होने के कारण इन्हें दिल्ली में रहना पड़ा। दिल्ली के 'भारतीय कला केन्द्र' में कार्यक्रम अधिकारी के पद पर इनकी तैनाती हुई और 1971 तक इस पद पर रहे। दिल्ली में पर्वतीय क्षेत्र के लोक कलाकारों के सहयोग से 1968 में 'पर्वतीय कला केन्द्र' की स्थापना की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में 1992 तक प्रवक्ता और एसोसियेट प्रोफेसर भी रहे। विश्व स्तर पर गढ़्वाल और कुमाऊं की लोक कला की पहचान कराने में उप्रेती जी का विशिष्ट योगदान रहा है। अपने रंगमंचीय जीवन में इन्होंने लगभग बाइस देशों की यात्रा की और वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। अल्जीरिया, सीरिया, जार्डन, रोम आदि देशों की यात्राएं की और वहां पर सांस्कृतिक कलाकारों के साथ पर्वतीय लोक संस्कृति को प्रचारित किया। पर्वतीय लोक कलाकारों के साथ 1988 में चीन, थाईलैण्ड और उत्तरी कोरिया का भ्रमण किया। 'श्रीराम कला केन्द्र' के कलाकारों के साथ लगभग बीस देशों का भ्रमण किया। सिक्किम के राजा नाम्ग्याल ने इन्हें राज्य में सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने के लिये विशेष रुप से आमंत्रित किया।

अल्मोड़ा में अपने अनन्य सहयोगियों  ब्रजेन्द्र  लाल शाह, बांके लाल शाह, सुरेन्द्र मेहता, तारा दत्त सती, लेनिन पन्त और गोवर्धन तिवाड़ी के साथ मिलकर 'लोक कलाकार संघ' की स्थापना की। अपने रंगमंचीय जीवन में उप्रेती जी ने पर्वतीय क्षेत्रों के लगभग डेढ़ हजार  कलाकारों को प्रशिक्षित किया और 1200 के करीब सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। राजुला-मालूशाही, रसिक-रमौल, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, अजुवा-बफौल जैसी तेरह लोक कथाओं और विश्व की सबसे बड़ी गायी जाने वाली गाथा 'रामलीला' का पहाड़ी बोलियों (कुमाउनी और गढ़वाली) में अनुवाद कर मंच निर्देशन कर प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त हिन्दी और संस्कृत में मेघदूत और इन्द्रसभा, गोरी-धन्ना का हिन्दी में मंचीय निर्देशन किया।

मोहन उप्रेती जी भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग की लोक नृत्य समिति के विशेषज्ञ सदस्य रहे, हिमालय की सांस्कृतिक धरोहर के एक्सपर्ट सदस्य और भारतीय सांस्कृतिक परिषद के भी विशिष्ट सदस्य रहे। देश की प्रमुख नाट्य मंडलियों से इनका सीधा संपर्क रहा, कई नाटकों के संगीतकार रहे, इनमें प्रमुख हैं- घासीराम कोतवाल, अली बाबा, उत्तर रामचरित्त, मशरिकी हूर और अमीर खुसरो।

लोक संस्कृति को मंचीय माध्यम से अभिनव रूप में प्रस्तुत करने, संगीत निर्देशन और रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये इन्हें साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा 162 में पुरस्कृत किया गया। संगीत निर्देशन पर उन्हें 1981 में भारतीय नाट्य संघ ने पुरस्कृत किया। लोक नृत्यों के लिये संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1985 में पुरस्कृत हुये। हिन्दी संस्थान उप्र सरकार नें उन्हें सुमित्रानन्दन पन्त पुरस्कार देकर सम्मानित किया। वे जोर्डन में आयोजित समारोह में प्रसिद्ध गोल्डन बियर पुरस्कार से भी पुरस्कृत हुये। इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन (इप्टा) के भी सदय रहे। सलिल चौधरी, उमर शेख और बलराज साहनी के साथ मिलकर कई कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये।

उत्तराखण्डी लोक संस्कृति के चितेरे का 7 जून, 1997 को निधन हो गया। उनका गाया और संगीतबद्ध किया गया लोकगीत 'बेडू पाको बारा मासा' हमेशा उनकी याद दिलाता रहेगा। जब जवाहर लाल नेहरु जी ने उनके कंठ से यह गीत सुना तो उन्होंने मोहन दा का नाम 'बेडू पाको ब्वाय' रख दिया। हम उन्हें कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं।

संदर्भ
1. Mohan Upreti: The Man and his Art- Diwan Singh Bajeli
2. मोहन गाता जायेगा, विद्यासागर नौटियाल
3. लोक का चितेरा: ब्रजेन्द्र लाल शाह, कपिलदेव भोज
4. मेरा पहाड़

(हमने क्रिएटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़ की ओर से पोस्टर भी जारी किया था। पोस्टर में उनके निधन की तिथि 8 जून हो गई थी। उसे 7 जून पढा जाये।)

By charu tiwari

 

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